अयोध्या में मनी दिवाली ने देशवासियों को त्रेता युग का स्मरण करवा दिया। रामराज्य का साक्षी वह युग जिसमें तुलसीदास के शब्दों में दैहिक, दैविक व भौतिक तापों को लोग जानते तक नहीं थे। बड़ी प्रतीकात्मक रही अबकी दिवाली। मानव जीवन केवल रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं, इसमें सांस्कृतिक और अध्यात्मिक प्रतीक जीवन में ऊर्जा, सामाजिक अनुशासन व एकता पैदा करते हैं। राष्ट्रपुरुष भगवान श्रीराम की भांति उनकी जन्मभूमि अयोध्या देश की आध्यात्मिक होने के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रतीक भी है। पहले विदेशी शासकों और बाद में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति के चलते हमारे प्रतीकों की उपेक्षा होती रही। लेकिन इस साल अयोध्या में मनी दिवाली से देश के सांस्कृतिक प्रतीकों से अंधकार छंटता नजर आया। भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने से पहले उनकी प्रतीक्षा कर रहे भरत को मंगल होने का आभास होने लगा था। उनकी इस स्थिति का वर्णन करते हुए तुलसी बाबा कहते हैं -
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन विचार।।

भरत की भांति अब देशवासियों के शुभता के प्रतीक दाएं अंग फरकने लगे हैं और लगने लगा है कि सदियों से जिस भारतीय संस्कृति व आध्यात्मिक प्रतीकों को वनवास झेलना पड़ रहा था उनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं।
अयोध्या में ऐसे आयोजन समय-समय पर अवश्य होने चाहिए, जिनकी गूंज देश-विदेश तक सुनाई दे। उत्तर प्रदेश की सरकार ने इस कल्पना को साकार करने का मंसूबा दिखया। सरकारी मशीनरी के साथ ही समाज का योगदान हुआ। इसने अयोध्या की दीपावली को ऐतिहासिक बना दिया। कल्पना की जा सकती है कि त्रेता में जब प्रभु राम, जानकी और लक्ष्मण अयोध्या वापस आये थे, तब ऐसा ही उत्साह रहा होगा। यह आशा करनी चाहिए कि अयोध्या में प्रतिवर्ष इसी धूमधाम के साथ दीपावली का आयोजन होगा। त्रेता युग में लौटा तो नहीं जा सकता, लेकिन उसकी कल्पना और प्रतीक से ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। अयोध्या में ऐसे ही चित्र सजीव हुए। इस आयोजन का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह था कि इसमे आमजन आस्था के भाव से सहभागी बना। यह प्रसंग भी रामचरित मानस के वर्णन जैसा प्रतीत होता है।
नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे। ।
जँह तंह नारी निछावरि करही। देहि असीस हरष उर भरही। ।
ज्ञान और संस्कृति ने भारत को विश्व गुरु के गौरवशाली मुकाम पर पहुंचाया था। शांति और अहिंसा के साथ इस विरासत का विश्व के बड़े हिस्से में प्रसार हुआ। आज भी अनेक देशों ने इस विरासत को सहेज कर रखा है। वहां आज भी रामकथा जनजीवन से जुड़ी है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देशों में आज भी रामलीला का मंचन होता है। भारत से गिरमिटिया बन कर गए श्रमिक अपने साथ केवल रामचरितमानस की लघु प्रति लेकर गए थे। रामकथा आज भी उनकी धरोहर है। रामलीला के अनेक रूप वहां प्रचलित है।
विदेशी आक्रांताओं ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समाप्त करने में कोई कसर नही छोड़ी थी। अपनी सभ्यता के विस्तार हेतु उन्होने प्रत्येक संभव प्रयास किये। इसमें तलवार और प्रलोभन दोनो का खुलकर प्रयोग हुआ। लेकिन, एक सीमा से अधिक उन्हें सफलता नहीं मिली। वह शासन पर कब्जा जमाने मे अवश्य कामयाब रहे। यह राजनीतिक परतन्त्रता थी, लेकिन, भारत सांस्कृतिक रूप से कभी परतन्त्र नही हुआ। विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताएं समय के थपेड़ों में समाप्त हो गई। लेकिन, क्रू आक्रांताओं के सदियों तक चले प्रहारों के बावजूद भारतीय सभ्यता संस्कृति का प्रवाह आज भी कायम है। लेकिन, सदियों की गुलामी ने अपनी विरासत के प्रति आत्मगौरव को अवश्य कमजोर किया। विदेशी आक्रांताओं की वजह से अयोध्या उपेक्षित रह गई। यह आस्था का केंद्र तो बना रहा। लेकिन, एक प्रकार की उदासी यहां दिखाई देती थी। अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली सरकार अयोध्या से एक दूरी भी बना कर चलती थी। शायद इससे उन्हें अपनी सेकुलर छवि के लिए खतरा दिखाई देता हो। यहाँ के लिए कई योजनाएं अधूरी रह गई। जबकि इसे विश्व पर्यटन के मानचित्र पर स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए था।
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अयोध्या के महत्व को व्यापक सन्दर्भो में देखा है। इसमें आस्था के साथ ही पर्यटन को प्रोत्साहन देने का विचार भी समाहित है। वैसे भी दीपावली का आध्यात्मिक ही नहीं ,सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय महत्व भी है। यह अंधकार को मिटाने और प्रकाश फैलाने का पर्व है। पूरा समाज इसमें सहभागी होता है।
नारी कुमुदनी अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भये बिगसत भई, निरखि राम राकेस। ।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324
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