Thursday, 11 January 2018

ज्ञान के मंदिरों में आतंक के अंकुर

उन लोगों की आंखें खुल जानी चाहिएं जिन्होंने जेएनयू में भारत को तोडऩे के नारों को अभिव्यक्ति की आजादी बताया, उन आंखों से पर्दा उठ जाना चाहिए जो हर घर से अफजल निकलने की बात को युवाओं का व्यवस्था के प्रति आक्रोश जताते नहीं थक रहे थे। नारे लगाने वालों की बात सत्य साबित होती दिख रही है, अब घरों से भारत को तोडऩे के लिए अफजल और याकूब मैनन निकलने लगे हैं। अभी अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय (एएमयू) ने अपने एक शोध छात्र मन्नान वानी के गायब होने और आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन में शामिल होने के  समाचार के बाद निष्कासित कर दिया। साफ है कि अब आतंकी संगठनों की विषबेल के अंकुर हमारे ज्ञान के मंदिरों में फूटने लगे हैं। देश को तोडऩे निकले संगठनों की पहुंच विश्वविद्यालयों में पढऩे वाले युवाओं तक हो रही है। जेएनयू की घटना इसकी व्हिसल ब्लोअर थी परंतु हम चेते नहीं बल्कि आपस में उलझ गए फिजूल की बहस व राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों में। इससे प्रोत्साहन मिला देश को तोडऩे का इरादा रखने वालों को और परिणाम निकला मन्नान वानी के रूप में, जो हाल ही में सोशल मीडिया पर खरनाक हथियारों के साथ नजर आया। 
जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुनीर खान ने कहा है कि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि गायब हुआ वानी हिज्बुल में शामिल हो ही गया है। फिलहाल उसके लापता होने और उसके बारे में सामने आए संदेहों की जांच जारी है और पुलिस किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है, लेकिन एएमयू का फैसला बताता है कि वानी तबाही के मार्ग पर कदम बढ़ा चुका है। वानी अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय से 'स्ट्रक्चरल एंड जियो-मॉर्फोलॉजिकल स्टडी ऑफ लोलाब वैली, कश्मीरÓ विषय पर शोध कर रहा है। उसे 2016 में 'वाटर, एनवायर्नमेंट, इकोलॉजी एंड सोसाइटीÓ विषय पर बेहतरीन रिपोर्ट देने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सम्मानित किया गया था। मगर अच्छे शैक्षिक रिकॉर्ड के बावजूद अगर मन्नान वानी के किसी आतंकी संगठन में शामिल होने की खबर आती है तो यह सोचने का समय है कि वह कौन सी विषाक्त विचारधारा है जो हमारे प्रतिभाशाली युवाओं को भी बहका कर उसके हाथ में क्लाशनीकोव-47 थमा देने की जुर्रत कर सकती है। अभी हाल ही में फुटबॉल का एक राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी रहा युवक एक आतंकवादी संगठन में शामिल हो गया था। पर जब उसके परिवार ने उससे वापस चले आने की भावुक गुजारिश की तो वह लौट आया। लेकिन सच यह भी है कि कई ऐसे युवक आतंकी संगठनों के जाल में इस कदर उलझ जाते हैं, उनके सामने लौटने का कोईरास्ता नहीं बचता। पहले कहा जाता था कि मदरसों में मिलने वाली इस्लामिक शिक्षा के कारण आतंक की पौध विकसित हो रही है परंतु अब तो देखने में आरहा है कि इंटरनेट और अतिवादी विचारों के जरिये, युवा इसलामिक स्टेट के चंगुल में फंसते जा रहे हैं। नई तकनीक व आधुनिक शिक्षा भी एक वर्ग की सोच में बदलाव नहीं ला पा रही।
वैसे यह कोई पहले उदाहरण नहीं हैं जो इस खतरे की ओर इशारा करते हों कि हमारे ज्ञान के मंदिर अब आतंकवाद की नर्सरी भी बन रहे हैं। मुंबई के चार युवा इराक में मई, 2014 में इसलामिक स्टेट में शामिल हुए थे। मुंबई के कल्याण इलाके का निवासी सिविल इंजीनियरिंग का तीसरे वर्ष का छात्र आरिफ माजिद , 24 मई, 2014 को दोपहर 11 से 12 बजे के बीच मसजिद में नमाज पढऩे के बहाने घर से निकला था। अगले दिन इसके पिता को आरिफ द्वारा लिखी पर्ची मिली, जिसमें उसने इराक में जिहादियों के साथ जुडऩे की बात कही। अगस्त, 2014 के आखिरी सप्ताह में इसके साथी शाहीन टांकी ने अपने परिवार को आरिफ के इराक के मोसुल में एक बम धमाके में मारे जाने की खबर दी। इसी वर्ष अक्तूबर में खबर आयी थी कि सीरिया के राक्का शहर में इसलामिक स्टेट के लिए काम कर रहे आजमगढ़ के एक युवक ने अपने परिवार से संपर्क कर वापस आने की इच्छा जाहिर की। बारहवीं कक्षा पास इस युवा का इंटरनेट के जरिये इसलामिक स्टेट से संपर्क हुआ। दिसंबर, 2015 में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने जानकारी दी थी कि जामिया मिलिया इसलामिया के दो छात्र अलकायदा में शामिल हो गये। स्पेशल सेल को यह जानकारी भारतीय महाद्वीप में सक्रिय अल-कायदा के तीन आतंकियों से पूछताछ से मिली। सितंबर, 2014 में तेलंगाना पुलिस ने पश्चिम बंगाल में हैदराबाद के 15 युवाओं की पहचान की, जो इसलामिक स्टेट में शामिल होने के विचार से प्रेरित थे। इसी साल महाराष्ट्र के नागपुर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से इसलामिक स्टेट में शामिल होने की मंशा से जा रहे तीन हैदराबादी युवकों को हिरासत में लिया गया था। पिछले वर्ष सितंबर में हैदराबाद की निवासी आफ्शा जबीन को संयुक्त अरब अमीरात से प्रत्यार्पित कर भारत लाया गया। यह सोशल मीडिया के माध्यम से अतिवादी इसलाम के प्रति युवाओं को आकर्षित करती थी। वर्ष 2002 में इसने एक हिंदू युवक देवेंद्र बत्रा से शादी की। नवंबर 2016 में विभिन्न इंटेलिजेंस रिपोर्टों के आधार पर जानकारी मिली थी कि आतंकियों के रूप में कुल 23 भारतीय भी इसलामिक स्टेट से जुड़े हुए हैं। इनमें से छह की अलग-अलग घटनाओं में मौत हो चुकी है। मृतकों के नाम-आतिफ वसीम मोहम्मद निवासी अदिलाबाद, तेलंगाना, मोहम्मद उमर सुभान निवासी बेंगलुरु, कर्नाटक, मौलाना अब्दुल कादिर सुल्तान अर्मार निवासी भटकल, कर्नाटक, सहीम फारूक टांकी निवासी थाणे, महाराष्ट्र, फैज मसूद निवासी बेंगलुरु, कर्नाटक और मोहम्मद साजिद उर्फ बड़ा साजिद निवासी आजमगढ़, उत्तर प्रदेश बताए गए।
बुद्धिजीवी लोग आतंकवाद पनपने के पीछे अशिक्षा, गरीबी, असमानता जैसे कारण गिनाते हैं परंतु इन केसों में देखने में आरहा है कि उक्त युवा न केवल उच्च शिक्षा प्राप्त, आईटी, विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं बल्कि संपन्न घरानों से भी संबंधित हैं। लेकिन इसके बावजूद अगर वे आतंकवाद की ओर आकर्षित हो रहे हैं तो समझना चाहिए कि समस्या की जड़ कहीं ओर है जिस पर हमारा अभी ध्यान नहीं गया या फिर हम आंखें मूंद कर बैठे हुए हैं। देश के विश्वविद्यालयों में जिस तरह का महौल तैयार हो रहा है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने देशविरोधी गतिविधियों पर पर्दा डालने का प्रयास करने वालों को भी सचेत हो जाना चाहिए कि कहीं वे जान-अनजाने आतंकी संगठनों का मोहरा तो नहीं बन रहे।
राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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