Wednesday, 20 February 2019

पाकिस्तान, इस दर्द की दवा क्या है

पुलवामा हमले के बाद देश भर में गुस्से का ज्वार है। जलते पाकिस्तानी झंडे,कैंडल मार्च, श्रद्धांजलियां, भिंचती मुट्ठियों-तनती भृकुटियों के बीच चैनलों पर रुदाली का सीधा प्रसारन छाया है। ये हमारी स्वभाविक अभिव्यक्ति है परंतु विनम्रता से कहना चाहूंगा कि दुश्मन चाहता भी यही कुछ ही है। राष्ट्रवादी विचारक शंकर शरण ने ठीक कहा है कि पाकिस्तान कोई देश नहीं बल्कि वह कट्टर इस्लामिक विचार है जो भारत के एक भू-भाग पर कब्जा कर चुका है। सामने जितना विष होगा इस विचार को भी उतना ही सहारा मिलेगा। अभी तक का अनुभव भी बताता है कि जितनी सैन्य कार्रवाई, सर्जिकल स्ट्राईक होंगी समाधान तो दूर, उतना ही उस कट्टरता को पोषण मिलेगा। फिर सवाल है कि आखिर इस दर्द की दवा क्या है? लेकिन सौभाग्य से इस गांठ का भी सिरा है। ईलाज दुरुह परंतु रोग चंगा होने की गारंटी। समुद्र मंथन में जैसे असुरों को साथ लिया उसी तरह इस बार भी इतिहास के एक घृणित दैत्य नाथूराम गोडसे को साथी बनाना होगा। वही खलनायक जो गांधीजी का हत्यारा है। वह दुष्ट है परंतु युक्ति लिए है पाक जनित समस्याओं से खैड़ा छुड़ाने की। गोडसे की वसीयत है कि उसका तर्पण तभी हो जब सिंधू के तट पर फिर से भारतीय ध्वज फहराए। गोडसे भारत-पाक विभाजन को निरस्त कर एकीकरण चाहता था। हम सच्चाई से कितना भी मूंह मोड़ें परंतु समस्या का स्थाई हल भी यही है। कट्टर इस्लाम पाक के रूप में विजित भू-भाग को आधार बना कर पूरे भारत को निगलना चाहता है और कश्मीर को इस योजना का द्वार मानता है। भारत-पाक के एकीकरण से इस विषैले विचार का आधार दरके गा और सहिष्णु भारतीय संस्कृति अतीत की भांति स्वत: अपना मार्ग निकाल लेगी। यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एतिहासिक तथ्य है कि अपनी इसी सांस्कृतिक व सहिष्णु विशेषता के आगे शक, हुण, कुषाण जैसी बर्बर व हिंसक सभ्यताओं ने हथियार डाले। आज ये असभ्य जातियां हमारे विशाल समाज का अभिन्न अंग बन अपना असभ्य चरित्र खो चुकी हैं। भारतीय संस्कृति की जठराग्नि इन कबाईली संस्कृतियों की भांति कट्टर इस्लाम को भी भस्मीभूत कर अपने भीतर जज्ब करने की क्षमता रखती है। आवश्यकता है इसको अवसर देने की और यह मौका केवल और केवल भारत-पाक सहित उन देशों का एकीकरण ही दे सकता है जो इतिहास में कभी न कभी हमारे ही देश के हिस्से रहे हैं।

भारत पर कट्टर इस्लाम के हमले कई सदियों की समस्या है परंतु जिस तरह हमने 1947 में इस विषाक्त विचारधारा के सामने हथियार डाले वैसा  अभी तक कभी नहीं हुआ। गजनी,गौरी, बाबर, खिलजी, अब्दाली जैसी गाजियों से हम लड़े, कभी जीते तो कभी हारे, गिरे-संभले परंतु संघर्ष नहीं छोड़ा लेकिन 1947 में हमारे नेतृत्व ने मुस्लिम लीग के रूप में इसी कट्टर इस्लाम के सामने मानो घुटने टेक दिए। दूरदृष्टि के अभाव में हमारे नेतृत्व ने दावा किया कि अब सदियों से चली आरही सांप्रदायिकता का हल हो गया परंतु इन 72 सालों का इतिहास बताता है कि जिसको समाधान समझा गया वही सिरदर्द बन गया। हमारे नासमझ नेताओं ने जख्म को नासूर बना दिया। मुस्लिम लीग कुछ और नहीं बल्कि हिंदू या सहिष्णु भारतीय संस्कृति विरोधी कट्टर इस्लामिक मानसिकता थी जिसे पाकिस्तान के रूप में हमने एक संगठित देश की सार्वभौमिकता, संविधान, संगठित पुलिस व सशस्त्र सेना, वैश्विक मान्यता, संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता थाली में परोस कर दे दी। इसी मानसिकता के लोग भारत छोड़ते समय नारे लगाते थे कि 'हंस  के लिया है पाकिस्तान, लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान।' भारत विशेषकर हिंदू विरोधी मानसिकता से ग्रसित लोग पूरे उपमहाद्वीप में बिखरी हुई शक्तियां थीं उसे हमारे नेताओं ने पाकिस्तान के रूप में एक मंच पर एकत्रित कर दिया। अब वही मानसिकता पाकिस्तान को न केवल एकजुट किए हुए और संचालित कर रही है बल्कि शेष भारत में फैलने को भी आतुर है। विश्व के इस भू-भाग में स्थाई शांति स्थापित करनी है तो उस कट्टर इस्लामिक मानसिकता से पाकिस्तान के रूप में संगठित शक्ति छीननी होगी जो भारत-पाक के एकीकरण के बाद ही संभव है।

कश्मीर में पाकिस्तान परस्त आतंकवाद कुछ नहीं बल्कि दुनिया के इस हिस्से में कई सदियों से चली आरही दो संस्कृतियों के बीच का संघर्ष है। एक साम्राज्यवादी कट्टर इस्लामिक संस्कृति जो असहिष्णु, दूसरे पर अपना विचार थोपने या उसे नष्ट करने वाली है तो दूसरी ओर भारतीयता है जो 'सर्वे भवंतु सुखिन:' व 'सरबत्त दा भला' और 'वसुधैव कुटुंबकम्' की पक्षधर है। पत्रकार राजेंद्र माथुर कहते थे भारत में एक पाकिस्तान और पाकिस्तान में एक भारत सदैव विराजमान रहेगा। उनकी यह बात सत्य भी है क्योंकि सिमी, पीएफआई, कश्मीर के आतंकी संगठन उसी विभाजक विचारधारा के हथियार बनते रहते हैं और जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते दिखते हैं। सौभाग्यवश पाकिस्तान में भी एक भारत कहीं निवास करता है। भारत से पलायन कर पाकिस्तान के रूप में झूठे इस्लामिक स्वर्ग में रहने गए शरणार्थियों का वहां से मोहभंग हो चुका है। उन्हें आज भी वहां के लोगों ने अपने देश का नागरिक स्वीकार नहीं किया और उन्हें मुहाजिर कह कर अपमानित किया जाता है। सिंध और ब्लूचिस्तान के लोग अपने को ठगा महसूस कर पाकिस्तान से मुक्ति चाहते हैं। कट्टरपंथी सुन्नियों से पीडि़त शिया व कादियां मुस्लिम पाकिस्तान रूपी कट्टर इस्लाम आजादी मांग रहे हैं। गुलाम कश्मीर के लोग भारत में मिलने को बेताब हैं। वहां के हिंदू, सिख व इसाई नारकीय जीवन से मुक्ति चाहते हैं। अगर इन शक्तियों को लोकतांत्रिक व शांतिपूर्वक तरीके से संगठित कर प्रयास किए जाएं तो आसानी से सीमा के उस पार भी भारत-पाक एकीकरण का वातावरण तैयार किया जा सकता है। ज्ञात रहे कि देश का विभाजन अस्थाई है और ब्रिटिश सरकार के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम से हुआ। स्वतंत्रता के बाद हम इससे बंधे हुए नहीं हैं। देश के हजारों सालों को इतिहास में विभाजन का सात दशकों का इतिहास कोई अधिक मायने नहीं रखता। अतीत में भी देश की सीमाएं कई बार बदली हैं और इनका एक बार फिर से रेखांकन हो सकता है। कट्टरपंथी इस्लाम का चरित्र रहा है कि वह खुद परेशान रहता है और दूसरे को भी परेशानी देता है। ऐसी असभ्य ताकत से पाकिस्तान के रूप में संगठित शक्ति  छीनना न केवल हमारे  बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप और इससे भी आगे पूरी मानवता के हित में होगा। जिस दिन हत्यारे गोडसे की अस्थियों का विसर्जन होगा पाकिस्तान से उपजी समस्याएं स्वत: तिरोहित हो जाएंगी।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
मो. 070098-05778

Thursday, 14 February 2019

भारत दूत: आतंकवाद, वैचारिक मोर्चा भी मजबूत हो

भारत दूत: आतंकवाद, वैचारिक मोर्चा भी मजबूत हो: लगभग एक सप्ताह पहले ही कश्मीर के बारामुला जिले को आतंकमुक्त क्षेत्र घोषित किया गया। आप्रेशन ऑल आऊट के दौरान सेना ने पांच सौ आतंकियों को ...

आतंकवाद, वैचारिक मोर्चा भी मजबूत हो

लगभग एक सप्ताह पहले ही कश्मीर के बारामुला जिले को आतंकमुक्त क्षेत्र घोषित किया गया। आप्रेशन ऑल आऊट के दौरान सेना ने पांच सौ आतंकियों को जहन्नुम पहुंचाया परंतु वेलेंटाइन डे पर एक आत्मघाती आतंकी हमले में केंद्रीय आरक्षी बल के 44 जवान शहीद हुए और कई दर्जन घायल। इन तीन पंक्तियों में विरोधाभास हैं परंतु हैं दोनों ही सच्चाई। कोई इससे इंकार नहीं कर सकता कि कश्मीर में सेना आतंक का मोर्चा जीतने के करीब है और इस आत्मघाती हमले की सच्चाई से भी मूंह फेरा नहीं जा सकता। इस हमले से देश आतंक के नए दौर में प्रवेश करता दिख रहा है जिसमें बहुत बड़े खूनखराबे के लिए अधिक आतंकियों की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि एक-दो आत्मघाती ही बड़ी कार्रवाई को अंजाम दे सकते हैं। वैसे तो कश्मीर में पहले भी फिदाइन हमले होते रहे हैं परंतु पूर्व में इस तरह के हमले विदेशी मूल के जिहादी करते रहे हैं। पहली बार कश्मीर के ही रहने वाले 21 वर्षीय आदिल अहमद डार उर्फ वकास ने इस तरह की हरकत को अंजाम दिया है।

जम्मू-कश्मीर पुलिस के पूर्व महानिदेशक एम.एम. खजूरिया ने ठीक ही कहा है कि आतंकवाद एक-दो प्रहारों से या कुछ महीनों में मिटने वाला नहीं और इस लंबी लड़ाई को सामरिक मोर्चे के साथ-साथ वैचारिक धरातल पर भी लडऩा होगा। हथियारों की दृष्टि से तो सेना व सुरक्षाबल अपने काम को सफलतापूर्वक अंजाम दे रहे हैं परंतु विचारों की लड़ाई से हम कहीं न कहीं कमतर दिख रहे हैं। तभी तो विदेशी ताकतें, जिहादी तंजीमें हमारे युवाओं को गुमराह करने में सफल हो जाती हैं। रक्षा एजेंसियां व विशेषज्ञ कई बार चेता चुके हैं कि इस्लामिक आतंकवाद की माँ वहाबी विचारधारा जड़ें फैला रही हैं। सऊदी अरब से इस काम के लिए बहुत सा पैसा अवैध तरीके से भारत पहुंच रहा है जिससे जगह-जगह मस्जिदें, मदरसे बन रहे हैं जहां मध्ययुगीन सोच को बाल व युवा मस्तिष्क में रोपा जा रहा है। पुलवामा हमले को अंजाम देने वाले आदिल की पोस्ट को गौर से पढ़ें तो वह भी इसी वहाबी विचारों से ग्रसित दिखता है जो आतंक को जिहाद मानती है और बेमौत मारे जाने को शहादत। पहले से ही इस्लामिक आतंक का दंश झेल रहे कश्मीर में वहाबी वायरस आग में घी डाल रहे हैं।

दुनिया में खतरा बन कर सामने आया वहाबी सम्प्रदाय इस्लाम की एक कट्टर शाखा है। विश्व के अधिकांश वहाबी कतर, सउदी अरब और यूएई में हैं। सउदी अरब के लगभग 23 प्रतिशत लोग वहाबी हैं। इसे इस्लाम का पहला पुर्नोत्थानवादी आंदोलन माना जाता है जो मुसलमानों को मूल इस्लाम से जोडऩे की बात करता है। इसके नेता शाह वालीउल्लाह लेकिन संस्थापक उत्तर प्रदेश के रायबरेली के सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831 ई.) थे। इनका जन्म एक नामी परिवार में हुआ जो स्वयं को पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहिब का वंशज बताते थे। सैयद अहमद 1821 ईस्वी में मक्का गये और जहां इनकी इस्लामिक विद्वान अब्दुल वहाब से दोस्ती हुई। वे वहाब के विचारों से अत्यंत प्रभावित हुए और एक कट्टर गाजी के रूप में भारत लौटे। अब्दुल वहाब के नाम से इस आन्दोलन का नाम वहाबी आन्दोलन रखा गया। सैयद अहमद ने अपनी सहायता के लिए चार खलीफा नियुक्त किए। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना और शाखाएं हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं मुंबई में खुलीं। सैयद अहमद काफिरों के देश (दारुल हरब) को मुसलमानों के देश (दारुल इस्लाम) में बदलना चाहते थे। उन्होंने पंजाब में खालसा राज के विरूद्ध जिहाद की घोषणा की और 1830 ई. में पेशावर पर विजय प्राप्त की, परन्तु शीघ्र ही वह उनके हाथ से निकल गया। 1849 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने खालसा राज को समाप्त कर पंजाब को महारानी के शासन में सम्मिलित कर लिया तो भारत को ही वहाबियों ने अपना दुश्मन मान लिया। 1860 ई. के बाद ब्रिटिश सरकार ने वहाबियों का दमन करने के लिए सैनिक अभियान चलाया। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम 20 वर्षों तक वहाबियों ने पहाड़ी सीमावर्ती कबीलों की सहायता की, परन्तु इसके बाद यह आंदोलन धीमा होता चला गया। इस रुढ़ीवादी आंदोलन ने देश के मुसलमानों में अलगाववाद की भावना जागृत की और अब उन्हें आतंकवाद की ओर धकेल रहा है।

यह हैरानी की बात है कि तमाम आधुनिक टेक्नॉलजी से लैस अमेरिका सहित शेष विश्व आत्मुग्धता में खोया रहा और वहाबी आतंकवाद का चोला पहने आईएसआईएस खतरनाक हो गया। सीरिया का संकट जब शुरू हुआ तो ईरान और खुद सीरिया ने दुनिया को चेताया कि उनके यहां गृहयुद्ध भड़का रहे लोग अलकायदा के ही आतंकवादियों का समूह है। बहुत से देश इस चेतावनी को नजरन्दाज करते रहे औऱ सीरिया को कथित रूप से आजाद कराने के लिए वहां के आतंकी संगठनों की मदद करते रहे। गृहयुद्ध से परेशान होकर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने अमेरिका से हाथ मिलाया। इससे गृह युद्ध तो थमा लेकिन जिन आतंकी संगठनों को खून मुंह लग चुका था वो कहां चुप बैठते। उन्होंने एक नई मुहिम शुरू की, वो सीरिया औऱ इराक के कुछ हिस्सों को मिलाकर अपना आईएसआईएस स्टेट बनाएंगे। अमेरिका ने आईएसआईएस संकट को शिया-सुन्नी संघर्ष बताया लेकिन इस तथ्य को भुला दिया कि इसकी जड़ वो वहाबी आतंक है जिसकी पैदाइश अलकायदा के रूप में सऊदी अरब में हुई। जिसने ओसामा बिन लादेन से लेकर अबूबकर, अल बगदादी तक की मंजिल बिना सऊदी अरब की मदद के तय नहीं की। भारत में इसे वहाबी आतंक के नाम से जाना जाता है, जो कभी लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान, अल-कायदा, अहले हदीस, तो कभी लश्कर-ए-झंगवी के नाम से सामने आता है। सउदी अरब के बाद पाकिस्तान वहाबी विचारधारा का केंद्र बना जो भारत में इसका निर्यात कर रहा है। मुस्लिम तीर्थ काबा वाला सउदी अरब का मक्का शहर मुसलमानों का तीर्थस्थल है। इसीलिए पाकिस्तान के साथ-साथ कई भारतीय दल विशेषकर धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाले लोग कट्टर वहाबी विचारधारा की आलोचना को इस्लाम की निंदा से जोड़ देते हैं और जाने अनजाने इसका संरक्षण करते हैं। 

जब भी इस्लाम में सुधारवाद की बात होती है तो धर्मनिरपेक्ष दल व बुद्धिजीवी न केवल कठमुल्लों के साथ खड़े नजर आते हैं बल्कि सुधार के प्रयासों को सांप्रदायिक बताते हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने तीन तलाक के खिलाफ संसद में बिल पेश किया तो इन धर्मनिरपेक्षतावादियों ने खूब होहल्ला किया। शाहबानो केस में मुस्लिम पोंगापंथियों के सामने हथियार डाल देने वाले देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस का रवैया अत्यंत शर्मनाक रहा जिसने लोकसभा में तो इस बिल का समर्थन किया परंतु राज्यसभा में सफलतापूर्वक अड़ंगा डाल दिया। कांग्रेस अब इसे समाप्त करने की बात कह रही है। खतरनाक बात है कि वहाबी कट्टरपंथ आज नवीनतम तकनीक से लैस है। सोशल मीडिया व संचार के आधुनिक साधनों से यह सीधे युवाओं की पहुंच में आचुका है। इसी खतरे को भांपते हुए केंद्र सरकार ने 21 जनवरी को सूचना तकनोलोजी अधिनियम 2000 में संशोधन कर दस एजेंसियों को लोगों के कंप्यूटर चेक करने के अधिकार देने का प्रयास किया तो विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस कदम का मुखर विरोध किया गया। देश जब आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद जैसी खूनी विचारधाराओं से संघर्ष कर रहा है तो इस तरह की वैचारिक भटकाहट कहीं न कहीं देशविरोधी ताकतों को प्राश्रय देने का काम करती दिखाई देने लगती हैं। लोकतंत्र में वैचारिक भिन्नता उसका गुण है परंतु राष्ट्रीय मुद्दों पर वैचारिक बिखराव दुश्मनों को गलत संदेश देता है। भारत आतंकवाद के खिलाफ लंबे समय से लड़ाई कर रहा है जिसे विभाजित मानसिकता व बिखरी हुई शक्ति से नहीं निपटा जा सकता। मौका है कि देश में पनप रहे इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ न केवल सख्ती अपनाई जाए बल्कि देश के युवाओं को वैचारिक धरातल पर इतना परिपक्व किया जाए कि भविष्य में दूसरा आदिल अहमद डार अपनों का खूनखराबा करने को तैयार न हो।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां
जालंधर।

Tuesday, 12 February 2019

भारत दूत: प्रियंका, इंदिरा-2 या आदर्श पत्नी

भारत दूत: प्रियंका, इंदिरा-2 या आदर्श पत्नी: अमेरिका से लौटीं प्रियंका गांधी वाड्रा ने भारत पहुंचते ही कहा 'आओ नई राजनीति की शुरूआत करें।' खूब तालियां पिटीं और कईयों ने कहा,...

प्रियंका, इंदिरा-2 या एक आदर्श पत्नी

अमेरिका से लौटीं प्रियंका गांधी वाड्रा ने भारत पहुंचते ही कहा 'आओ नई राजनीति की शुरूआत करें।' खूब तालियां पिटीं और कईयों ने कहा, प्रियंका नहीं ये आंधी है-दूसरी इंदिरा गांधी है। अपने मार्मिक अह्वान के तीसरे ही दिन प्रियंका पहुंच गई भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे पति परमेश्वर राबर्ट वाड्रा को लेकर परावर्तन निदेशालय कार्यालय के सम्मुख और 'टेढ़ा है पर मेरा है' की तर्ज पर कहा 'वह अपने के साथ खड़ी हैं।' नई राजनीति वाली प्रियंका 72 घंटे में ही 'लोह महिला' इंदिरा की बजाय एक आदर्श पत्नी अधिक नजर आने लगीं। लखनऊ की सड़कों पर रोड शो में डा. अंबेडकर की प्रतिमा पर माल्र्यापण करने वाली प्रियंका ने बाबा साहिब की संवैधानिक व्यवस्था की बजाय अपने पति का साथ देना ज्यादा जरूरी समझा। आर्थिक अनियमितताओं के आरोप झेल रहे अपने पति राबर्ट वाड्रा के बारे उन्होंने कहा कि- सारा देश जानता है कि क्या हो रहा है। कांग्रेस कह रही है कि लोकसभा चुनावों के मद्देनजर वाड्रा की फाईलें खोली जा रही हैं। लेकिन सवाल है कि जब कोई फाईलें होती हैं तभी तो खुलती हैं। इस बात को यूं भी कहा या पूछा जा सकता है कि कहीं मैया, भैया और सईंया की फाईलों से डर कर तो प्रियंका के कद से बड़ी छवि बना कर मैदान में नहीं उतारा गया ? यानि प्रियंका की नई राजनीति भी कांग्रेस की वही परिवारवादी व भ्रष्टाचार पर ध्यान बंटाने वाली परिपाटी तो नहीं?

लगता है कि प्रियंका के रूप में कांग्रेस ने फिर अपना चिरपरिचित चेहरा देश के सम्मुख प्रस्तुत किया है। वही नेहरु-गांधी खानदान का सर्वसम्मत प्रभावी नेतृत्व, वैसी हीं लोकलुभावन बातें और जनकल्याण की चाशनी में लिपटी कुछ खैरातें परंतु इसके साथ में ऊपरी कमाई का शिष्टाचार भी। खानदान, खैरात और खानपान यही कांग्रेस की मोटी-मोटी त्रिआयामी कार्य संस्कृति रही है। याद कीजिए नेहरु का 'समाजवाद', इंदिरा गांधी के 'गरीबी हटाओ' और सोनिया गांधी के 'कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' के कर्णप्रिय नारे। इसके साथ मिट्टी के तेल और राशन वाली जनवितरण प्रणाली (पीडीएस), बैंकों का राष्ट्रीयकरण और खड्डे खोदने-भरने वाली मगनरेगा यानि महात्मा गांधी रोजगार योजना का पैकेज। इसकी एवज में देश को मिली नेहरु जी के समय हुए जीप घोटाले से लेकर बोफोर्स, बाद में पनडूबी, हैलीकॉप्टर, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2-जी, कोयला घोटाले जैसी अनगिणत गड़बडिय़ों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त। दादी इंदिरा गांधी से मिलते प्रिंयका के ऊर्जावान चेहरे को मुखौटा बना कर कांग्रेस ने अपना वही तीन सुत्रीय कार्यक्रम एक बार फिर देश के सामने रखा दिखता है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा से मुख से निकली युवाओं, किसानों व मजदूरों की बातें, साथ में किसानों की कर्जमाफी व न्यूनतम आय गारंटी योजना और साथ में प्रियंका का औजस्वी चेहरा यही तो है 2019 के लिए कांग्रेस का त्रिवेणी एजेंडा।

वैसे प्रियंका ने अपने पति के साथ खड़े हो कर एक तरह से साहस व ईमानदारी का ही परिचय दिया है। लगभग 130 करोड़ भारतीयों को संदेश है कि प्रियंका चाहिए तो राबर्ट वाड्रा जैसों को भी जंवाईयों की तरह खिलाते पिलाते रहना होगा। भ्रष्टाचार की संस्थागत हिमाकत की हिम्मत प्रियंका को विरासत में मिली है। इससे पूर्व आजादी के बाद प्रियंका के नानाजी के नेतृत्व वाली सरकार ने लंदन की कंपनी से 80 लाख रूपये में 200 जीपों को सौदा किया। लेकिन देश को केवल 155 जीपें ही मिलीं। घोटाले में ब्रिटेन के भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्णमेनन का हाथ होने की बातें सामने आईं लेकिन 1955 में केस बंद कर दिया गया। जल्द ही मेनन नेहरु मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। वसूली 1 रुपए की भी नहीं हो पाई। नेहरु ने यह कहते हुए भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देने का प्रयास किया कि देश का पैसा देश में ही है, बाहर तो नहीं गया। प्रियंका के पिता राजीव गांधी ने स्वीकार किया कि किसी काम के लिए सरकार ऊपर से 1 रुपया भेजती है तो नीचे जाते-जाते वह 15 पैसे रह जाता है। उनकी यह स्वीकारोक्ति तो थी परंतु उन्होंने व्यवस्था बदलने का कोई प्रयास किया हो वह किसी ने सुना नहीं। यूपीए-2 की सरकार के समय अगस्टा वैस्टलैंड हैलीकॉप्टर खरीद घोटाले में तत्कालीन मंत्री कपिल सिब्बल ने सुझाव दिया कि क्यों न हथियारों में की जाने वाली दलाली के लिए लाइसेंस जारी कर दिए जाएं। अर्थात देश के रक्षा सौदों की दलाली करने वालों को मान्यता प्राप्त एजेंटों का दर्जा दे दिया जाए। लगता है कि राबर्ट वाड्रा के साथ खड़े हो कर प्रियंका ने भी भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकारोक्ति दिलवाने का कुछ वैसा ही प्रयास किया और बता दिया कि किसी को मंजूर हो या न हो 'पर पार्टी यूं ही चालैगी।' अपनी पार्टी व वर्करों से इंदिरा जैसा कद मिलते ही वे कमाऊ पति के पक्ष में आगईं। वो चाहतीं तो पूरे प्रकरण से दूरी बना सकती थीं या कानून को अपना काम करने देने की बात कह सकती थीं परंतु हुआ उलटा। प्रियंका ने पूछताछ की जगह जानबूझ कर अपनी छवि को भुनाने का प्रयास किया। कैमरे के सामने क्या बोलना है और देश को क्या संदेश देना है वह उनके दिमाग में पूर्वनियोजित था। मौके पर आरोपी व उसके कारनामों के बारे में नहीं बल्कि उसकी पत्नी की छवि पर चर्चा हो रही थी। उस समय प्रियंका के समक्ष दो मार्ग थे, एक तो नया जिस पर चलते हुए संविधान के साथ प्रतिबद्धता दिखाई जाती और वाड्रा का मामला कानून पर छोड़ दिया जाता। दूसरा रास्ता था व्यवस्था व संविधान को लांछित कर पति का बचाव किया जाना, उसके कारनामों को अपनी छवि का आवरण ओढ़ाना। पहला मार्ग दुरुह परंतु श्रेयस्कर और नया था, जिसका वायदा तीन दिन पहले ही प्रियंका ने देश से किया और दूसरी राह थी पति के साथ खड़ा होना जो आसान थी। अफसोस कि प्रियंका ने आसान रास्ता चुना। देश के सम्मुख वह आदर्श पत्नी श्रीमती वाड्रा के रूप में प्रस्तुत हुईं और इंदिरा-2 यानि नेता बनने से चूक गईं।

प्रियंका जिस नई राजनीति की बात कर रही थीं उस पर वह 72 घंटे भी नहीं टिक सकीं। याद रहे कि इसी तरह की लच्छेदार बातें लगभग सवा साल पहले राहुल गांधी ने भी पार्टी के अध्यक्ष पद पर आसीन होते हुए कही थीं। युवाओं को नेतृत्व और साफ सुथरी राजनीति का वायदा किया गया परंतु राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में नेतृत्व सौंपने की बात आई तो नौजवानों की छाती पर अनुभवी मूंग दलते दिखे। अपने जीवन के 90 से अधिक फाग खेल चुके मोती लाल वोहरा जैसे कई नेता कल के छोकरों पर भारी पड़ गए। कारण ? पार्टी को खतरा था कि युवा तुर्क कभी भी नए वीपी सिंह या चंद्रशेखर बन सिंहासन को चुनौती दे सकते हैं जबकि बूढ़े सिंह न तो दहाड़ सकते और न ही शिकार कर सकते। देशवासियों को नई राजनीति का एक कटु अनुभव अरविंद केजरीवाल भी हैं जो अपनी कलाबाजियों से नित नए रसातल की गहराईयां नापते हैं। अब प्रियंका भी उनकी हमशक्ल सी लगने लगी हैं। देश में जब नवीन नेतृत्व उभरता है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए पंरतु इस नए का अर्थ ताजा-ताजा कली की हुई कड़ाही में बासी कढ़ी भी तो नहीं हो सकता। कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व व प्रियंका ने नई राजनीति के नाम पर फिर वही कुटुंब-कबीलावाद, मुफ्तखोरी, जनलुभावन और खाऊ-पीऊ राजनीति का पैकेज पेश किया है। भला है बुरा है जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है का सिद्धांत एक आदर्श पत्नी के लिए तो वरदायी हो सकता है परंतु किसी लोकतांत्रिक प्रणाली में किसी नेता के लिए यह अभिशाप से कम नहीं। जनता को तो सही को सही और गलत को गलत कहने वाला नेतृत्व चाहिए जो कानून के सामने अपने-पराए का भेद न करता हो। अब देखना यह है कि देशवासी प्रियंका की इस नई राजनीति पर कितना एतबार करते हैं।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

Wednesday, 6 February 2019

मोदी, प्रधानमंत्री के अतिरिक्त भी कुछ

'मन की बात' कार्यक्रम के दौरान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि एक महिला ने उनको कहा कि यह कार्यक्रम सुनते हुए महसूस होता है कि घर को कोई बड़ा-बुजुर्ग कुछ समझा रहा है। देश के इतिहास में अनेक ऐसे नेता व महापुरुष हुए हैं जिन्होंने जनसाधारण में अपनी पैठ बनाई जैसे स्वामी विवेकानंद ने देश में आध्यात्मिक पुनर्जागरण का शंखनाद किया। राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गांधी जी ने देश का राजनीति के साथ-साथ धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में भी नेतृत्व किया। लोगों ने उन्हें बापू व महात्मा उपनामों से अलंकृत कर अपने दिलों में जगह दी। बच्चों को लुभाने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू सबके चाचा कहलाए परंतु वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न केवल इन महापुरुषों की श्रेणी में बैठे दिखाई दे रहे बल्कि इनमें भी अपनी विलक्षण पहचान बनाते जा रहे हैं। वे समाज के सभी वर्गों का प्रबोधन करते दिख रहे हैं जो आज तक नहीं हो पाया। यह न अतिशयोक्ति है और न ही व्यक्ति विशेष की छवि निर्माण का प्रयास बल्कि धरातल की सच्चाई है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री और राजनीतिज्ञ होने के के अतिरिक्त भी बहुत कुछ हैं। प्रधानमंत्री का पद देश का सम्मानित संवैधानिक सिंहासन है परंतु अपने गुणों व योग्यता के बल पर मोदी इससे ऊपर उठते दिखने लगे हैं।

जिस तरह देश की राजनीति केवल विरोध के लिए विरोध करने को अभिशप्त है उसी तरह कुछ-कुछ शापित देश का बुद्धिजीवी लेखक वर्ग भी है जो कई बार सच्चाई को परस्पर बातचीत में तो स्वीकार करता है परंतु लोकोपवाद से लिखने में गुरेज करता है। या कह लें कि निष्पक्ष दिखने और व्यक्तिपूजा के आरोप लगने के भय से अच्छे को अच्छा कहने से भी कतराता है। मुझे याद है कि 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले जब मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो मैने एक लेख में उन्हें भारत का इब्राहिम लिंकन कह दिया तो सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा मीडिया तक कई तरह की आलोचना का शिकार होना पड़ा। कईयों ने तो मुझे 'भक्त' तक कहा जो उस समय मोदी प्रशंसकों को दी जाने वाली गाली गलौच के भाव वाली पदवी थी। लेकिन उनके  प्रधानमंत्री बनने के बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उनके संघर्षमयी जीवन को लेकर उन्हें इससे मिलते-जुलते विशेषण तो मैने अपने आलोचकों को शर्मिंदा करना जरूरी नहीं समझा। कहा जाता है कि सभी सवालों के जवाब व्यक्ति नहीं दे सकता, कुछ जवाब समय से भी मिलते हैं। आज फिर मोदी के बारे में लिख रहा हूं तो पूरी आशंका है कि कुछ एक को यह भाएगा नहीं परंतु लोकवासना से भयभीत हो सच्चाई से पीठ मोडऩे वाला कायर मैं नहीं हो सकता।

राजनीतिक रूप से सभी जानते हैं कि आज की राजनीति में वाकपटुता, वकृतत्व शैली, व्यंगात्मक वाचन, नए-नए विशेषण गढऩे जैसे अनेक गुणों में मोदी का कोई सानी नहीं है परंतु उनके एक नेता होने के अतिरिक्त अन्य गुणों से देश उस समय परिचित हो पाया जब उन्होंने मन की बात कार्यक्रम शुरू किया। इसकी शुरूआत से पहले विरोधियों ने यह कहते हुए आलोचना शुरू कर दी कि वे रेडियो का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। विरोधियों की आशंका भी निराधार नहीं थी क्योंकि इससे पहले यही कुछ ही तो होता आरहा था। देश के बड़े-बड़े नेता व प्रधानमंत्री तक स्तर के लोग राष्ट्र के नाम संबोधन तक में राजनीतिक छोंक लगाते रहे हैं, परंतु मोदी ने इस मिथक को तोड़ा। विजयादशमी के पर्व 3 अक्तूबर, 2014 के पहले मन की बात कार्यक्रम में उन्होंने खादी, स्वच्छता अभियान, कौशल विकास और दिव्यांग विद्यार्थियों पर चर्चा की। अभी तक 51 मन की बात कार्यक्रम हो चुके हैं परंतु अभी तक किसी ने नहीं सुना कि मोदी ने इसमें कभी राजनीतिक रंग घोला हो। अपने इस कार्यक्रम के जरिए से वे स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, कौशल विकास, स्टैंड अप इंडिया, खेलो भारत जैसे अभियानों को जनसाधारण लोगों के निजी जीवन का हिस्सा बना चुके हैं। स्वच्छ भारत अभियान का तो इतना असर हुआ कि आज आप कहीं प्रयोग के तौर पर भी सार्वजनिक जगह पर कूड़ा फेंको तो कई आंखें आपको घूरना शुरु कर देती हैं। यहां तक कि छोटे-छोटे बच्चे इस अभियान से अपने आप को जोड़ चुके हैं। मन की बात कार्यक्रम से उन्होंने जिस तरह से खेलों को प्रोत्साहन मिला है उसकी उदाहरण राष्ट्रमंडल व एशियाई खेलों में भारत का प्रदर्शन रहा है। यह बात ठीक है कि खेलों का स्तर सुधारने में अनेकों अन्य कारण भी रहे परंतु युवाओं को खेलों के साथ जोडऩे, खिलाडिय़ों में जीत का जज्बा भरने, जीतने पर उन्हें प्रोत्साहित करने, हारने पर पुन: प्रयास करने, गुमनाम खिलाडिय़ों की कथा देश के सामने लाने जैसे जज्बे को खुराक पानी देने का बहुत बड़ा काम मोदी ने किया है। केवल युवा ही नहीं बल्कि बच्चों, महिलाओं, प्रौढ़ों व वृद्धों तक को समय-समय पर उचित प्रबोधन दिया है मोदी ने। यूं ही नहीं कोई कहता कि उन्हें मोदी अपने परिवार के अभिभावक जैसे लगते हैं।

अभी हाल ही में आयोजित परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम में वे एक प्रेरक वक्ता (मोटीवेशनल स्पीकर) और मार्गदर्शक के रूप में दिखाई दिए। वे इससे पहले भी विद्यार्थियों को परीक्षा के ज्वर से बचने की कक्षा ले चुके हैं। परंतु अबकी बार उन्होंने विद्यार्थियों के साथ-साथ अध्यापकों व अभिभावकों का भी ऐसा मार्गदर्शन किया जो दुर्लभ से दुर्लभतम कहा जा सकता है और कम से कम आज के किसी अन्य नेता से तो इसकी अपेक्षा तक नहीं की जा सकती। चुनौती को अवसर, बुरी लत का सदुपयोग, अंकों की अंधी दौड़ से छुटकारा पाने के जो तरीके उन्होंने बताए वह अद्वितीय हैं। दूसरे शब्दों में उन्होंने बच्चों को तो सिखाया ही साथ में अध्यापकों को पढ़ाने व अभिभावकों को बच्चों की परवरिश के बेजोड़ नुक्ते बताए।

मोदी ने इन पौने पांच सालों में देश की राजनीति का स्तर भी सुधारा है। राजनीति को चाहे अभी भी उतने सम्मान की नजरों से न देखा जाता हो परंतु वह समय भी नहीं रहा जब रामलीला मैदान में धरने के दौरान समाजसेवी अन्ना हजारे सभी नेताओं को चोर कहते थे तो पूरा देश तालियां बजाता था। राजनीति में भ्रष्टाचार इस कदर व्याप्त था कि जनसाधारण लोग लोकपाल को ही रामबाण मानने लगे थे। इन पौने पांच सालों के दौरान पुरानी चली आरही व्यवस्था से ही ईमानदार सरकार का संचालन करके मोदी ने इस धारणा को बदलने का काम किया। यही कारण है कि आज उसी अन्ना हजारे ने उसी लोकपाल की मांग को लेकर अपने रालेगण सिद्धी में छह दिन सत्याग्रह किया तो बहुत से लोग तो इससे अनभिज्ञ रहे। देश में फिर लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इसका परिणाम क्या होगा यह तो अभी से नहीं कहा जा सकता परंतु यह जरूर निश्चित है कि देश की जनता ने मोदी को जो भी भूमिका देगी उसी में वे बहुत कुछ नया और सकारात्मक ही पाएगी क्योंकि मोदी प्रधानमंत्री व नेता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ हैं।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
मो. 070098-05778

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...