पुलवामा हमले के बाद देश भर में गुस्से का ज्वार है। जलते पाकिस्तानी झंडे,कैंडल मार्च, श्रद्धांजलियां, भिंचती मुट्ठियों-तनती भृकुटियों के बीच चैनलों पर रुदाली का सीधा प्रसारन छाया है। ये हमारी स्वभाविक अभिव्यक्ति है परंतु विनम्रता से कहना चाहूंगा कि दुश्मन चाहता भी यही कुछ ही है। राष्ट्रवादी विचारक शंकर शरण ने ठीक कहा है कि पाकिस्तान कोई देश नहीं बल्कि वह कट्टर इस्लामिक विचार है जो भारत के एक भू-भाग पर कब्जा कर चुका है। सामने जितना विष होगा इस विचार को भी उतना ही सहारा मिलेगा। अभी तक का अनुभव भी बताता है कि जितनी सैन्य कार्रवाई, सर्जिकल स्ट्राईक होंगी समाधान तो दूर, उतना ही उस कट्टरता को पोषण मिलेगा। फिर सवाल है कि आखिर इस दर्द की दवा क्या है? लेकिन सौभाग्य से इस गांठ का भी सिरा है। ईलाज दुरुह परंतु रोग चंगा होने की गारंटी। समुद्र मंथन में जैसे असुरों को साथ लिया उसी तरह इस बार भी इतिहास के एक घृणित दैत्य नाथूराम गोडसे को साथी बनाना होगा। वही खलनायक जो गांधीजी का हत्यारा है। वह दुष्ट है परंतु युक्ति लिए है पाक जनित समस्याओं से खैड़ा छुड़ाने की। गोडसे की वसीयत है कि उसका तर्पण तभी हो जब सिंधू के तट पर फिर से भारतीय ध्वज फहराए। गोडसे भारत-पाक विभाजन को निरस्त कर एकीकरण चाहता था। हम सच्चाई से कितना भी मूंह मोड़ें परंतु समस्या का स्थाई हल भी यही है। कट्टर इस्लाम पाक के रूप में विजित भू-भाग को आधार बना कर पूरे भारत को निगलना चाहता है और कश्मीर को इस योजना का द्वार मानता है। भारत-पाक के एकीकरण से इस विषैले विचार का आधार दरके गा और सहिष्णु भारतीय संस्कृति अतीत की भांति स्वत: अपना मार्ग निकाल लेगी। यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एतिहासिक तथ्य है कि अपनी इसी सांस्कृतिक व सहिष्णु विशेषता के आगे शक, हुण, कुषाण जैसी बर्बर व हिंसक सभ्यताओं ने हथियार डाले। आज ये असभ्य जातियां हमारे विशाल समाज का अभिन्न अंग बन अपना असभ्य चरित्र खो चुकी हैं। भारतीय संस्कृति की जठराग्नि इन कबाईली संस्कृतियों की भांति कट्टर इस्लाम को भी भस्मीभूत कर अपने भीतर जज्ब करने की क्षमता रखती है। आवश्यकता है इसको अवसर देने की और यह मौका केवल और केवल भारत-पाक सहित उन देशों का एकीकरण ही दे सकता है जो इतिहास में कभी न कभी हमारे ही देश के हिस्से रहे हैं।
भारत पर कट्टर इस्लाम के हमले कई सदियों की समस्या है परंतु जिस तरह हमने 1947 में इस विषाक्त विचारधारा के सामने हथियार डाले वैसा अभी तक कभी नहीं हुआ। गजनी,गौरी, बाबर, खिलजी, अब्दाली जैसी गाजियों से हम लड़े, कभी जीते तो कभी हारे, गिरे-संभले परंतु संघर्ष नहीं छोड़ा लेकिन 1947 में हमारे नेतृत्व ने मुस्लिम लीग के रूप में इसी कट्टर इस्लाम के सामने मानो घुटने टेक दिए। दूरदृष्टि के अभाव में हमारे नेतृत्व ने दावा किया कि अब सदियों से चली आरही सांप्रदायिकता का हल हो गया परंतु इन 72 सालों का इतिहास बताता है कि जिसको समाधान समझा गया वही सिरदर्द बन गया। हमारे नासमझ नेताओं ने जख्म को नासूर बना दिया। मुस्लिम लीग कुछ और नहीं बल्कि हिंदू या सहिष्णु भारतीय संस्कृति विरोधी कट्टर इस्लामिक मानसिकता थी जिसे पाकिस्तान के रूप में हमने एक संगठित देश की सार्वभौमिकता, संविधान, संगठित पुलिस व सशस्त्र सेना, वैश्विक मान्यता, संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता थाली में परोस कर दे दी। इसी मानसिकता के लोग भारत छोड़ते समय नारे लगाते थे कि 'हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान।' भारत विशेषकर हिंदू विरोधी मानसिकता से ग्रसित लोग पूरे उपमहाद्वीप में बिखरी हुई शक्तियां थीं उसे हमारे नेताओं ने पाकिस्तान के रूप में एक मंच पर एकत्रित कर दिया। अब वही मानसिकता पाकिस्तान को न केवल एकजुट किए हुए और संचालित कर रही है बल्कि शेष भारत में फैलने को भी आतुर है। विश्व के इस भू-भाग में स्थाई शांति स्थापित करनी है तो उस कट्टर इस्लामिक मानसिकता से पाकिस्तान के रूप में संगठित शक्ति छीननी होगी जो भारत-पाक के एकीकरण के बाद ही संभव है।
कश्मीर में पाकिस्तान परस्त आतंकवाद कुछ नहीं बल्कि दुनिया के इस हिस्से में कई सदियों से चली आरही दो संस्कृतियों के बीच का संघर्ष है। एक साम्राज्यवादी कट्टर इस्लामिक संस्कृति जो असहिष्णु, दूसरे पर अपना विचार थोपने या उसे नष्ट करने वाली है तो दूसरी ओर भारतीयता है जो 'सर्वे भवंतु सुखिन:' व 'सरबत्त दा भला' और 'वसुधैव कुटुंबकम्' की पक्षधर है। पत्रकार राजेंद्र माथुर कहते थे भारत में एक पाकिस्तान और पाकिस्तान में एक भारत सदैव विराजमान रहेगा। उनकी यह बात सत्य भी है क्योंकि सिमी, पीएफआई, कश्मीर के आतंकी संगठन उसी विभाजक विचारधारा के हथियार बनते रहते हैं और जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते दिखते हैं। सौभाग्यवश पाकिस्तान में भी एक भारत कहीं निवास करता है। भारत से पलायन कर पाकिस्तान के रूप में झूठे इस्लामिक स्वर्ग में रहने गए शरणार्थियों का वहां से मोहभंग हो चुका है। उन्हें आज भी वहां के लोगों ने अपने देश का नागरिक स्वीकार नहीं किया और उन्हें मुहाजिर कह कर अपमानित किया जाता है। सिंध और ब्लूचिस्तान के लोग अपने को ठगा महसूस कर पाकिस्तान से मुक्ति चाहते हैं। कट्टरपंथी सुन्नियों से पीडि़त शिया व कादियां मुस्लिम पाकिस्तान रूपी कट्टर इस्लाम आजादी मांग रहे हैं। गुलाम कश्मीर के लोग भारत में मिलने को बेताब हैं। वहां के हिंदू, सिख व इसाई नारकीय जीवन से मुक्ति चाहते हैं। अगर इन शक्तियों को लोकतांत्रिक व शांतिपूर्वक तरीके से संगठित कर प्रयास किए जाएं तो आसानी से सीमा के उस पार भी भारत-पाक एकीकरण का वातावरण तैयार किया जा सकता है। ज्ञात रहे कि देश का विभाजन अस्थाई है और ब्रिटिश सरकार के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम से हुआ। स्वतंत्रता के बाद हम इससे बंधे हुए नहीं हैं। देश के हजारों सालों को इतिहास में विभाजन का सात दशकों का इतिहास कोई अधिक मायने नहीं रखता। अतीत में भी देश की सीमाएं कई बार बदली हैं और इनका एक बार फिर से रेखांकन हो सकता है। कट्टरपंथी इस्लाम का चरित्र रहा है कि वह खुद परेशान रहता है और दूसरे को भी परेशानी देता है। ऐसी असभ्य ताकत से पाकिस्तान के रूप में संगठित शक्ति छीनना न केवल हमारे बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप और इससे भी आगे पूरी मानवता के हित में होगा। जिस दिन हत्यारे गोडसे की अस्थियों का विसर्जन होगा पाकिस्तान से उपजी समस्याएं स्वत: तिरोहित हो जाएंगी।
- राकेश सैन
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