Sunday, 14 April 2019

कांग्रेस पर बांस की बोराई

राजस्थानी में कहावत है - केला, बिच्छी, केकड़ा वनस्पतियों में बांस,अपने जन्मे आप मरे या फिर सत्यानाश। यानि केला व बांस जिन्दगी में एक ही बार फल-फूल देते हैं और बांस के फूल अकाल या विपत्ती का संकेत हैं। चैत्र और वैशाख में वनस्पति जगत में बोराई यौवन पर है और देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पर भी वंशवाद की नई कोपलें फूटती दिखा रही हैं। राहुल गांधी ने 10 अप्रैल को अमेठी लोकसभा सीट से नामांकन दाखिल किया। इस दौरान हुए रोड शो में चर्चा का विषय रहे प्रियंका के बच्चे। जब राहुल रोड शो कर रहे थे तो उनके साथ बहन प्रियंका और जीजा रॉबर्ट वाड्रा तो थे ही, साथ ही भांजा रेहान और भांजी मिराया भी नजर आए। रोड शो के दौरान प्रियंका अपने बच्चों को अमेठी के बारे में बताती दिखीं। रेहान राहुल के बगल में खड़े रहे। कोई भी चीज राहुल पर उछाली जाती तो वह उसे रेहान को देते। उन्होंने एक माला भी रेहान को पहनाई। पार्टी के धुरंधर पैदल थे और पूरे दृश्य में परिवार के केवल पांच लोग ही मुख्यत: दृष्टिगोचर हुए। दृश्य ठीक वैसा था जैसे सिंह अपने शावकों को जंगल से परिचित करा रहा हो और बिल्ली अपने बच्चों को घरों की चोर मोरियां दिखा रही हो। वंशवाद की सुंदर-सुंदर कलियां देख कर चाहे 'दरबारी' फाग गा रहे हों परंतु लोकतंत्र के हितैषियों के लिए यह दृश्य बांस की बोराई से कम त्रासद और लोकतंत्र के लिए अशुभ नहीं हो सकता।
संविधान में व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था करते हुए बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि- मैने आज रानियों की नसबंदी कर दी। भविष्य के राजा मतपेटियों से निकलेंगे। लेकिन देखने में आरहा है कि आज के कुछ राजा-रानियों ने उसी संवैधानिक व्यवस्था को सैरोगेसी मदर यानि किराए की कोख बना दिया, जहां से कुछ खास परिवारों के नौनिहाल ही कलगी और छत्र लिए पैदा हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी में परिवारवाद इस तरह हावी है कि मानो कोई औद्योगिक घराना राजनीतिक व्यवस्था चला रहा हो। यूपी की सपा, बिहार के राजद और तमिलनाडु की डीएमके में परिवारिक सदस्यों के बीच बंटे राजनैतिक साम्राज्य का किस्सा तो कुछ ज्यादा ही विवादास्पद है। देश में गिनेचुने राज्य ही होंगे जहां हमें वंशानुगत राजनीति के कोई उदाहरण नहीं मिलते। इन्हीं रुझानों और प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हुए ब्रिटिश लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी 2011 में प्रकाशित पुस्तक 'इंडिया: ए पोट्रेट' में लिखा था कि वो दिन दूर नहीं जब भारत में एक तरह से राजतंत्र जैसी व्यवस्था कायम हो जाएगी। हाल में हुए कुछ अध्ययनों के मुताबिक 2009 में 29 प्रतिशत सांसद कुनबे की राजनीति से आए थे। राष्ट्रीय दलों में वंशवाद के मामले में कांग्रेस पहले स्थान पर रही है। उसके 37 प्रतिशत वंशानुगत सांसद थे। 2014 की संसद में वंशानुगत राजनीति के प्रतिनिधियों में कमी देखी गई। 2009 में मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में 36 प्रतिशत मंत्री वंशवादी थे तो 2014 में ये संख्या 24 प्रतिशत रह गई। संसद में इस समय 36 दलों के प्रतिनिधि हैं, इनमें से 13 दलों के प्रतिनिधि दरअसल कुछ परिवारों के सदस्य ही हैं। कुनबावाद की बहस पर संतुलन साधने की मीडिया की प्रवृति और सभी दलों में इसके होने का तर्क दे कर चाहे कांग्रेस बचने का प्रयास करती आई है परंतु इस तथ्य को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि भारतीय लोकतंत्र में वंशवादी अमरबेल रोपने और खाद पानी देने का पाप इसी दल ने ही किया है। मोती लालनेहरू से लेकर जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा, राजीव-सोनिया, राहुल-प्रियंका के बाद भांजा-भांजी की जोड़ी छठी पीढ़ी है जो राजनीतिक परिस्थितियों का सिंहावलोकन करती लग रही है। 

दुखद बात तो यह है कि कुनबावाद को लोगों ने भी सहजता से लेना शुरू कर दिया है, मानो वे इसके अभ्यस्त हो चले हैं। कांग्रेस में भांजा-भांजी के पदार्पण से ये बहस उठी है कि आखिर लोकतंत्र में भाई-भतीजावाद कब तक हावी रहेगा और इससे निजात मिलेगी भी या नहीं। क्या लोकतंत्र जमीनी संघर्षों, सामाजिक सरोकारों और नेतृत्व कौशल को परखने के बजाय परिवार केंद्रित राजनीति का शिकार हो जाएगा? परिवारवाद के पक्ष में कहा जाता है कि डाक्टर का बेटा डाक्टर सकता है तो नेता का जाया नेता क्यों नहीं? दलील  ठीक है परंतु कोई भी बिना परिश्रम के चिकित्सक नहीं बन सकता जबकि वंशवादी राजनीति में संतानें अपने खानदान की बदौलत नेता बनती हैं। परिश्रम या संघर्ष कर कोई भी व्यक्ति नेता बने तो इसमें क्या आपत्ति हो सकती है? दूसरा प्रश्न पूछा जाता है कि वंशवादी राजनीति में हर्ज ही क्या है? आखिर किसी न किसी को तो व्यवस्था चलानी है, वह किसी नेता की संतति हो तो क्या फर्क पड़ता है?

असल में वंशवाद वह कर्क रोग है जो लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खत्म किए जा रहा है। वंशवादी दलों के केंद्र में केवल एक खास परिवार या व्यक्ति ही रहता है। उसका संचालन, रीति-नीति, संगठनात्मक ढांचा, शक्तियां यानि सारी व्यवस्था का केंद्र बिंदू वही परिवार रहता है। उसी की सुविधा व सुरक्षित भविष्य के लिए उस दल की व्यवस्था को तोड़ा-मरोड़ा व गढ़ा जाता है। जैसे कांग्रेस, सपा, राजग जैसे दल नेहरू-गांधी और यादव परिवारों के आसपास ही घूमते हैं। बहुत अच्छे कार्यकर्ता लेफ्टीनेंट जनरल तक तो पदोन्नत होते हैं परंतु जनरल या फील्ड मार्शल इन्हीं कुनबों के लोग रहते हैं। जिन राजनीतिक दलों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था का संचालन करना होता है उसी में ही जनतंत्र का दम घुट जाता है। इस तरह के कुनबा-कबीलावादी दल सत्ता में आते हैं तो सरकार के कल्याण का केंद्र यही खानदान बनते हैं न कि साधारण लोग। इन कुनबों की सुविधा के लिए जनहित की उपेक्षा होनी शुरू हो जाती है। सरकारी मशीनरी इन्हीं की सेवा सुश्रुषा में जुटी दिखाई देती है। इन्हीं के लिए कायदे-कानून बनाए या तोड़े जाते हैं। उदाहरण के लिए 2004 से लेकर 2014 तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार सत्तारूढ़ थी परंतु आरोप लगते रहे हैं कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् नामक संस्था गठित कर सोनिया गांधी सरकार में दखलंदाजी करती रहीं। संविधान में इस परिषद् की कोई व्यवस्था नहीं है परंतु कुनबे के दरबारियों ने इस तरह की व्यवस्था खड़ी कर दी कि सोनिया बिना जवाबदेही के सबकुछ संचालित करती रहीं। दूसरा उदाहरण है कि मनमोहन सरकार में हवाई अड्डों पर जिन वीवीआईपी•ा को चेकिंग में छूट दी गई थी उनमें रॉबर्ट वाड्रा भी शामिल थे। उनके पास कोई संवैधानिक पद नहीं था परंतु उन्हें यह सुविधा केवल गांधी खानदान का जंवाई होने के कारण मिली। क्या किसी आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव हो सकता है?

देखा जाए तो 1885 से देश के राजनीतिक पटल पर छाई रही कांगे्रस पार्टी के अधोपतन का कारण यही कुनबावाद रहा है। परिवारवाद के चलते ही बिना अनुभव के पहले इंदिरा फिर राजीव को प्रधानमंत्री, सोनिया व राहुल को अध्यक्ष बना दिया गया। इंदिरा तो राजनीति में चल पड़ीं परंतु राजीव इतने सफल नहीं हुए। प्रणब मुखर्जी जैसे कई मंझे नेताओं के सहारे व मनमोहन सिंह को आगे कर सोनिया ने पार्टी को न केवल चलाया बल्कि दस साल सत्ता का स्वाद भी चखाया परंतु राहुल गांधी और उनके नेतृत्व में कांग्रेस की हालत सबके सामने है। कांग्रेस अब राहुल की दीदी में अपना भविष्य देख रही है और प्रियंका गांधी वाड्र अपने पति, बेटा-बेटी के रूप में एक के साथ तीन मुफ्त का पैकेज अपने भईया की पार्टी को देने का प्रयास कर रही लगती हंै। रॉबर्ट वाड्रा को लेकर तो उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर उत्साहित दिखाई दे ही रहे हैं और अगर भविष्य में भांजा-भांजी भी वंशवादी राजनीति की नई शृंखला बनते हैं तो इसमें अधिक अचरज नहीं होना चाहिए।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

Saturday, 13 April 2019

हर पददलित के शरणागत राम

आज श्रीराम नवमी है। गोपालकृष्ण गोखले जी कहते थे कि किसी को अगर भारतीय संस्कृति के बारे जानना हो तो इधर उधर भटकने की जरूरत नहीं। वह रामायण पढ़ ले और राम के जीवन का अध्ययन कर ले। राम हमारी संस्कृति के मूल हैं और उनके द्वारा स्थापित मर्यादाएं आज तक भारतीय समाज जीवन में लागू करता है। इन्हीं मर्यादाओं के कारण दुनिया में भारत और भारतीय अपनी वशिष्ट पहचान बनाने में सफल हुए हैं। अपनी संस्कृति के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान करने वाले चौबीस अथवा दस अवतारों की श्रृंखला में भगवान राम और कृष्ण का विशिष्ट स्थान है। उन्हें भारतीय धर्म के आकाश में चमकने वाले सूर्य और चंद्र कहा जा सकता है। उन्होंने व्यक्ति और समाज के उत्कृष्ट स्वरूप को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए, इसे अपने पुण्य-चरित्रों द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया है। ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो, जो सिखाना हो, जो करना हो, उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्मचरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाय। वैसे सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है, पर भगवान राम और भगवान कृष्ण ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप में बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है। रामचरित मानस’ में भी इसके प्रमाण स्वरूप अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं। जब राजा दशरथ ने देखा कि श्रीराम उत्तरदायित्व सँभालने योग्य हो गये हैं, तो उन्होंने वानप्रस्थ में प्रवेश के लिए उत्तरदायित्वों से मुक्त होने की योजना बनाई, किन्तु उसके सम्बन्ध में अकेले निर्णय नहीं लिया। वे पहले गुरु वसिष्ठ जी से परामर्श करते हैं और फिर सभी सहयोगी कार्यकर्ताओं से सहमति प्राप्त करते हैं -
मुदित महीपति मंदिर आये। 
सेवक सचिव सुमंत्र बुलाये।।
जो पाँचहि मत लागइ नीका। 
करहु हरिष हिय रामहिं टीका।।
व्यवस्थात्मक उत्तरदायित्व जिस किसी पर भी हो, उसे सामूहिकता की मर्यादा बनाये ही रखनी चाहिए। उससे परस्पर स्नेहभाव भी बढ़ता है तथा अपेक्षकृत अधिक उपयोगी हल भी निकाले जा सकते हैं। राजा दशरथ की मृत्यु के बाद गुरु वसिष्ठ पर राज्यव्यवस्था का प्रधान उत्तरदायित्व आ पड़ा। भरत को राज्य देने के प्रसंग में वे भी उसी पद्धति का निर्वाह करते हैं-
सुदिन सोधि मुनिवर तब आये।
सचिव महाजन सकल बोलाये॥
बैठे राज सभा सब जाई।
पठये बोलि भरत दोउ भाई॥
व्यवस्थापक ही नहीं, सामान्य नागरिक तथा कार्यकर्ता भी यदि सामूहिकता का लाभ उठाने के अभ्यस्त हैं तो विषम परिस्थितियों में भी मार्ग निकाल लेते हैं। सीता की खोज में निकले योद्धा जब अवधि पूरी होने पर भी कोई सूत्र नहीं पा सके, तो उन्होंने भी सामूहिक परामर्श एवं चिन्तन का मार्ग पकड़ा -
इहाँ विचारहिं कपि मन माहीं।
बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता।
बिनु सुधि लये करब का भ्राता॥
श्री रामचन्द्र जी अपनी वन यात्रा में जन-जन की सद्भावना जीतते हुए, उन्हें स्नेहसूत्र में आबद्ध करते हुए चलते हैं। उनमें सहयोगवृत्ति जाग्रत् करते चलते हैं। वन में इसी उद्देश्य से निकल पड़ते हैं और नगर में वह प्रवृत्ति जाग्रत् रखने के लिये आग्रह करके जाते हैं। भरत के लिये उन्होंने यही संदेश छोड़ा कि सामूहिक हित को ध्यान में रखकर चलें। गुरु वसिष्ठ जी से भी यही आग्रह करते हैं-
सब के साज संभार गुसाईं।
करवि जनक जननी की नाईं॥
वन में वे वनवासियों में भी वही भाव भर देते हैं। जब कोल-भील मिलते हैं तो वे उन सबको सम्मान देते और सामाजिक गौरव का बोध कराते हैं।

राम सकल वनचर परितोषे।
कहि मृदु वचन प्रेम परिपोषे॥
भगवान राम सहयोग देने और प्राप्त करने में कुशल हैं। उनके संगठन का अर्थ न तो आंतक है और न रूखी सैद्धान्तिकता। वे प्रेम भावना, उच्चस्तरीय संवेदना के आधार पर जन-भावना को सूत्रबद्ध करते हैं और अपने प्रयास में हर जगह सफल भी होते हैं। ऋषि वनचर आदि के अतिरिक्त साथ-साथ गीधराज को भी अपना सहयोगी बना लेते हैं-
गीधराज सों भेट भइ, बहु बिधि प्रीति बढ़ाय। 
गोदावरी निकट प्रभु, रहे परनगृह छाय॥
इसी सहयोगभाव तथा संवेदना जनित सामाजिक दृष्टिकोण ने ही गीधराज जटायु को शहीदों में अग्रणी बना दिया। श्रीराम को सीता के सम्बन्ध में पहली जानकारी उसी से मिली। आगे भी उनकी सहयोग और संगठनवृत्ति ही सफलता के द्वार पर द्वार खोलती चली गयी। रीछ-वानरों को संगठित करके ही वे सीता की खोज करने और असुरत्व के विरुद्ध वातावरण तैयार करने में समर्थ हुए। उनके संगठन में भाँति-भाँति के वानर सम्मिलित थे।
एहि बिधि होत बतकही, आये बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि, देखिय कीस बरूथ॥
जहाँ सामूहिकता और संगठन की शक्ति है, वहाँ बड़े से बड़े काम खेल की तरह हो जाते हैं। वानर संख्या में ही अधिक नहीं थे, उनमें सामूहिकता की वृत्ति तथा अनीति के प्रतिरोध के सामाजिक उत्तरदायित्व की बुद्धि भी प्रखरता से जाग चुकी थी। इसीलिए समुद्र पर पुल बनाने जैसा कठिन कार्य भी उन्होंने खेल की तरह कर डाला। रीछ-वानरों की संघशक्ति और सहयोग वृत्ति देवताओं के लिए भी अजेय राक्षसों पर हावी हो गयी। रीछ वानरों की उपलब्धि को मानसकार अद्भुत कहते हैं। सामूहिक सहयोग के बल पर राक्षसों का विनाश हुआ तथा रामराज्य की स्थापना हुई; किन्तु सामूहिकता के दृष्टिकोण का विकास और शिक्षण बराबर चलता रहा, ताकि आदर्श समाज-व्यवस्था बराबर बनी रहे। अयोध्यावासी स्वयं भगवान के गुणों को जीवन में स्थान देते हैं तथा समाज को भी उनकी प्रेरणा देकर अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाते हैं।
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। 
बैठि परस्पर यहहि सिखावहिं॥ 
रामचरितमानस से सामाजिक दृष्टिकोण, सहयोग और संगठन की महत्ता समझकर प्रेरणा लेकर यदि हम इस दिशा में सक्रिय हो सकें, तो कठिन से कठिन बाधाओं को पार करते हुए सुख शांति एवं समृद्धियुक्त आदर्श समाज की स्थापना करने में सफल हो सकते हैं।


- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

जलियांवाला बाग नरसंहार और भगवान श्रीराम

16वीं शताब्दी में हुए रामभक्त संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी अमर रचना श्रीरामचरितमानस में ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहिं’ के मूलमंत्र से स्वतंत्रतदा संग्राम का सूत्रपात किया उसी का परिणाम रही 1857 की क्रांति और इसी शृंखला में जलियांवाला बाग नरसंहार को भी जोड़ा जा सकता है। जलियांवाला बाग नरसंहार की पूरा विश्व 100वीं बरसी मना रहा है तो इसके मूल में छिपी भगवान श्रीराम से जुड़ी उस घटना का भी स्मरण हो आता है जो पूरे प्रकरण का कारण बनी। यह नरसंहार भारतीय आजादी के इतिहास में कई तरह से एक अहम मोड़ साबित हुआ। स्पष्ट रूप से अंग्रेज भारतीयों में फूट डालकर अपनी हुकूमत को मजबूत रखना चाहते थे, लेकिन 13 अप्रैल 1919 से पहले पंजाब में हिंदू- मुस्लिम एकता उन्हें गली-गली में दिखाई देती थी और यही बात उन्हें परेशान कर रही थी। पंजाब में इस एकता के सूत्रधार कोई और नहीं बल्कि खुद भगवान श्रीराम बने। 1919 में मार्च के अंत व अप्रैल के शुरू में जब रोलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह ने जोर पकड़ा तो अमृतसर में इसका नेतृत्व डॉ. सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ. सतपाल ने किया। दोनों नेता हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बने। इसी एकता को और मजबूत करने के लिए 9 अप्रैल 1919 को श्री रामनवमी उत्सव धूमधाम से मनाने का फैसला लिया गया। एकता का संदेश देने के लिए शोभायात्रा का आयोजन भी एक मुस्लिम डॉ. बशीर द्वारा किया गया जो अंग्रेजी हुकूमत को बिल्कुल रास न आया। लोग सांप्रदायिक सौहार्द का प्रदर्शन करते हुए जुलूस में शामिल हुए। जगह-जगह मुसलमानों ने शोभायात्रा के स्वागत में तोरणद्वार लगाए, शरबत की सेवा की, पुष्पवर्षा की, हिंदू भाईयोंो को गले मिले और खुद शोभायात्रा में शामिल हुए। इस पर अमृतसर के उपायुक्त माइल्स इरविंग को शक हुआ कि यह एकता केवल जुलूस तक सीमित नहीं है, बल्कि अंग्रेज शासन को खत्म करने की ओर कदम है। उस दिन से उसका सत्याग्रहियों पर शक बढऩे लगा। इसी तरह की एकता का नजारा लाहौर में भी देखने को मिल रहा था। वहां हिंदू बंधु बादशाही मस्जिद में जाकर राजनीतिक घोषणाएं कर रहे थे। इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में मंदिरों में जाकर मुस्लिम सभाओं को संबोधित कर रहे थे। देश में एकता की एक अनोखी बयार बह रही थी, जो अंग्रेजों के लिए चिंता का सबब बन गई थी। हालांकि बंबई जैसे शहर में इसे बर्दाश्त किया जा रहा था, लेकिन पंजाब के गर्वनर ओ ड्वायर जैसे कठोर शासकों को यह एकता डरा रही थी। उसका यही डर उस नरसंहार का कारण बना। यही कारण रहा कि रामनवमी के बाद हिंदू-मुस्लिम नेताओं की गिरफ्तारियां तेज कर दी गईं। उन्हें जलील किया गया, यातनाएं दी गईं और यह कुबूल करवाने का प्रयत्न हुआ कि वे हुकूमत के विरुद्ध क्रांति की योजना बना रहे थे। जनता, जो अब तक महात्मा गांधी के सत्याग्रह से जुड़ चुकी थी, अब विद्रोह पर उतर आई थी।

पंजाब का क्रांतिकारी महौल
पंजाब में स्वतंत्रता संग्राम के लिए स्वतंत्रता संग्रामी विविध रूपों में एकजुट होते रहे। पेशावर से लेकर ढाका तक क्रांतिकारियों का एक गलियारा तैयार हो गया। 1 नवंबर 1913 को संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्कों में जुझारु आंदोलन शुरु हो गया। उसका नेतृत्व प्रखर बुद्धिजीवी लाला हरदयाल द्वारा किया गया। इसमें नौजवान स्वतंत्रता सेनानी जुड़ते गए। इनमें प्रमुख थे रामचंद्र, बरकतउल्ला, भाई परमानंद, हरनाम सिंह, टुंडा लाट, सोहन सिंह बाकना, रामदास, भगवान दास, करतार सिंह सराभा और रघुबीर दयाल गुप्ता। अपनी आवाज दूर-दूर तक पहुंचाने के लिए एक पत्रिका भी निकाली गई। आंदोलन और पत्रिका, दोनों का नाम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सम्मान में ‘गदर‘ रखा गया। आरंभ में गदर पत्रिका उर्दू में प्रकाशित की गई और फिर गुरुमुखी, गुजराती और हिंदी में भी इसका प्रकाशन होने लगा।

कामागाटामारु प्रकरण
स्वातंत्र्य वीरों के संघर्ष और साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा उन पर किए जाने वाले जुल्मों-सितम से विश्व को अवगत कराने के समय-समय पर कुछ अभियान चलाए जाते। एक चर्चित उदाहरण है कामागाटामारु का। संक्षेप में घटना इस प्रकार है कि 1914 में सिंगापुर से पानी के एक जहाज में भरकर भारतीय गदरी जत्थे कनाडा की ओर रवाना हुए। कनाडा सरकार ने उसे वेंकूवर में प्रवेश नहीं करने दिया। उस जहाज को भारतीय मूल के व्यापारी गुरुदत्त सिंह ने किराए पर लिया था। वेंकूवर तट पर पहुंचने से पहले जहाज को उस पर सवार 376 यात्रियों सहित घेर लिया गया। उसे विवश होकर वहां से वापस लौटना पड़ा। जहाज किसी तरह कलकत्ता के बजबज बंदरगाह पर पहुंचा। इस दौरान प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ चुका था। यात्रा की कठिनाइयों तथा पुलिस-प्रशासन द्वारा डाले जा रहे अड़ंगों से यात्री भडक़ उठे। पुलिस और गदरी बाबाओं में हुई खूनी झड़प में 18 यात्री मारे गए और 202 को पुलिस ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। 
1919 की वह खूनी बैसाखी
मौजूदा हालातों में किसी असंतोष के सशस्त्र विस्फोट की आशंका ब्रिटिश शासन-प्रशासन में गहराने लगी। पुलिस हताशा में आकर दमन पर आमादा हो गई। जलियांवाला बाग का गोलीकांड इसी हताशा का एक विस्फोट था। 13 अपैल, 1919 को बैसाखी के पवित्र पर्व को मनाने के लिए लोग अमृतसर के जलियांवाला बाग में एकत्र हुए थे। एक बड़े विद्रोह की आशंका से ग्रस्त कर्नल रेजिनल्ड ओ डायर ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवा दीं। दरअसल, ब्रिटिश उपनिवेशवादी प्रशासन द्वारा किया गया यह बर्बर गोलीकांड उसकी भयजनित आशंकाओं का विस्फोट था। देश में चारों तरफ ऐसा वातावरण बन रहा था जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की हताशा बढ़ती जा रही थी। 13 अप्रैल 1919 को पांच हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ द्वारा पुलिस को उकसाने की कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। लोगों में ब्रिटिश अतियों को लेकर गुस्सा ज़रुर था पर उस दिन वे वहां बैसाखी-मेला मनाने के लिए आए थे। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उनमें आक्रोश अवश्य था, परंतु वे संयत थे। फिर भी पता नहीं क्यों गोरखा, बलूच, राजपूत और सिख सैनिकों को लेकर जनरल माइकल ओ डायर वहां पहुंच गया। देखते ही देखते जलियांवाला बाग के भीतर और बाहर जाने के सारे बंद कर दिए गए। भीड़ को चारों तरफ से घेर कर डायर ने गोली चलाने का आदेश जारी कर दिया। गोलीबारी लगभग दस मिनट तक चली। ब्रिटिश रिकॉर्ड के मुताबिक 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। किंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा जारी किए गए दस्तावेज में बताया गया कि गोलियां बेहिसाब चलाई गई थीं, जिनमें 1600 लोग शहीद हो गए थे और 1500 अन्य घायल हो गए थे। जलियांवाला बाग स्थित कुंए से ही 200 से अधिक शव निकाले गए थे। इस नरसंहार के अपराधी को दंडित करने के बजाए जब ब्रिटिश हाउस ऑफ लार्ड्स द्वारा जनरल ओ डायर को शाबाशी दी गई तो भारत में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। कहा गया कि भारतीय जनता का ब्रिटिश राज पर से भरोसा उठ गया है। पूरा पंजाब और बंगाल गुस्से से उबल उठा। इसके परिणाम स्वरुप 1920 में देशभर में असहयोग आंदोलन शुरू हो गया। ब्रिटिश सम्राज्यवाद की इन दमनकारी नीतियों के विरुद्ध संवेदनशील भारतीयों में असंतोष गहराने लगा। जब भी कोई अवसर मिलता भारत का घनीभूत होता आक्रोश सडक़ों पर भी उतरने लगता था। ऐसा जगह-जगह बार-बार होने लगा।

उधम सिंह का बदला
जलियांवाला बाग में बैसाखी का पर्व मनाने के लिए जमा हुए श्रद्धालुओं पर गोली चलाने के समय बालक उधमसिंह वहां मौजूद था। ब्रिटिश बर्बरता का बदला लेने का संकल्प उसने वहीं कर लिया था। उधमसिंह ने निर्णय किया कि इस बर्बर अपराध में लिप्त माइकल ओ डायर को दंडित किया जाना चाहिए। इसी ध्येय से वह किसी प्रकार ब्रिटेन चला गया। वहां दो दशकों से अधिक समय तक वह ओ डायर को ठिकाने लगाने के मौके की तलाश में जुटा रहा। अंतत: जनरल ओ ‘डायर’ की हत्या उसने 13 मार्च, 1940 को लंदन के कैकस्टन हाल में कर ही दी। उस समय ओ डायर पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। वस्तुत: 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला गोली चलाने का आदेश रजिनाल्ड डायर ने दिया था, परंतु माइकल ओ डायर ने उस आदेश का अनुमोदन किया था। रेजिनाल्ड ओ डायर की स्वाभाविक मृत्यु 1927 में हो गई थी, इसलिए उधमसिंह को दूसरे खलनायक माइकल ओ डायर को मौत के घाट उतारने के लिए 21 वर्षों तक इंतज़ार करना पड़ा।
इस तरह देखते हैं कि जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश में स्वतंत्रता संग्राम की रूप रेखा ही बदल दी। अधिक से अधिक युवा क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। अंतत: 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया गया और भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की। कितनी गौरव की बात है कि अबकी बार बैसाखी पर ही रामनवमी का पर्व पड़ रहा है और इसी दिन खालसा पंथ का जन्मोत्सव भी है। 1699 की बैसाखी को ही दशमपातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की और चारों वर्णों के साथ-साथ चारों दिशाओं से देश को एकजुट कर दिया। इस अवसर पर हम भगवान श्रीराम, श्री गुरु गोबिंद सिंह व अपने स्वतंत्रता संग्रामियों का पुण्य स्मरण करते हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...