Wednesday, 26 June 2019

याद आया 'राखुंडा'

'राखुंडा नई पीढ़ी के लिए शायद नया शब्द हो, परंतु दक्षिणी पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में दो दशक पहले तक यह जीवन का हिस्सा था।  'राख' और 'कुंड' शब्दों की संधि से बना 'राखकुंड' शब्द घिस-घिस कर 'राखुंडा' बना होगा शायद। घर में बर्तन-कासन मांजने वाले स्थान था राखुंडा, जहां जरुरत अनुसार गड्ढे या बर्तन में राख अथवा मिट्टी रखी जाती। भांडे मांजने की युगों से चली आरही हमारी प्रणाली थी 'राखुंडा' जिसे हर प्रांत में अलग अलग नाम मिला हुआ था। बहुत आसान व सस्ता था बर्तन मांजना। पहली बात तो कभी जूठा छोड़ा नहीं जाता था और अगर किसी बर्तन में जूठ मिल भी जाती तो एक बर्तन में एकत्रित कर लिया जाता जो बाद में जानवरों को दे दिया जाता। फिर बर्तन में राख डाल कर रगड़ाई होती और बाद में साफ कपड़े से उसे पोंछा जाता। बर्तन चमचमाने लगते, पूरे घर के कासन मंज जाते परंतु मजाल है कि पानी की एक बूंद की भी जरूरत पड़े। बर्तन आज भी साफ होते हैं परंतु, शरिंक पर। जूठे बर्तनों में पानी भर कर पहले भिगोया जाता है और उसके बाद धोया। बाद में किसी डिटर्जेंट पाऊडर या बर्तन सोप के साथ स्क्रबर की सहायता से बर्तनों की रगड़ाई होती है और फिरसे धुलाई। शरिंक के सिर पर लगी टोटियां पानी उगलती हैं तो पता ही नहीं चलता कि कितनी मात्रा में जल देवता स्वर्गलोक से उतर कर गटरासन पर विराजमान हो जाते हैं। आज जब देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जल संकट दानव रूप ले चुका है तो 'राखुंडे' की अनायस ही याद हो आई।

देश में जलसंकट की बानगी देखिए, चेन्नई में जल संकट के कारण कई बड़ी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को कहा है कि वह दफ्तर का कार्य घर से ही करें ताकि पानी की खपत कम की जा सके। संगापेरुमल इलाके की कुछ कंपनियों ने तो शौचालयों में ताला लगाना शुरू कर दिया है। अगर किसी कंपनी के दफ्तर में एक तल पर दस शौचालय हैं तो उनमें से आठ को बंद कर दिया गया है। राजस्थान में कई जगहों पर लोगों ने पानी की टंकियों को ताले लगाने शुरू कर दिए हैं। पानी बचाने के लिए कई राज्य सरकारों ने होटल स्वामियों से अपने यहां प्लेटों की जगह पत्तलों का इस्तेमाल करने को कहा है ताकि इससे बर्तन धोने का पानी बचाया जा सकेगा। पिछले दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने मीडिया से बातचीत करते हुए बताया था कि राज्य में 75 प्रतिशत भूजल की खपत हो चुकी है। 22 जिलों में 10 जिलों का जमीन भू-जल स्तर बद से बदतर होता जा रहा है। पंजाब में भी धरती के नीचे का पानी खतरनाक स्तर पर घट रहा है। पांच नदियों की भूमि पंजाब में हर साल भूजल दो से तीन फुट तक गिर रहा है। आज हालात ये हैं कि राज्य के 141 में से 107 खण्ड डार्क जोन में हैं। एक दर्जन के करीब क्रिटिकल डार्क जोन में चले गए हैं। क्रिटिकल डार्क जोन में नया ट्यूबवैल लगाने पर जहां केंद्रीय भूजल बोर्ड ने पाबंदी लगा दी है। कमोबेश यही हालत देश के लगभग हर प्रांत की बनी हुई है।

मौसम में आए परिवर्तन के कारण तापमान 45 से 50 डिग्री तक पहुंच गया है। बढ़ता तापमान और कम होता जल स्तर अशुभ संकेत है। 18, मई 2019 को केंद्र सरकार की ओर से जारी परामर्श में साफ कहा गया है कि पानी का प्रयोग केवल पीने के लिए ही करें। केंद्रीय जल आयोग देश के इक्यानवें मुख्य जलाशयों में पानी की मौजूदगी और उसके भंडारण की निगरानी करता है, की ताजा रिपोर्ट के अनुसार इनमें पानी का कुल भंडारण घटकर 35.99 अरब घन मीटर रह गया है। यह उपलब्धता इन इक्यानवें मुख्य जलाशयों की कुल क्षमता का केवल बाईस  प्रतिशत है। इससे साफ संकेत है कि देश पानी का संकट गहराने लगा है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 1947 में भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए सालाना 6042 घन मीटर पानी उपलब्ध था, लेकिन 2011 में यह 1545 घन मीटर रह गया। शहरी विकास मंत्रालय ने लोकसभा में पैंतीस प्रमुख शहरों में जलापूर्ति को लेकर आंकड़ा पेश किया था। इनमें तीस शहरों को उनकी जरूरत से कम पानी मिलने की खबर भी सामने आती है। शहरों का एक बड़ा हिस्सा भूजल का इस्तेमाल कर रहा है। नतीजतन, भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 150 से 200 लीटर पानी की आवश्यकता रहती है जो उपलब्ध नहीं हो पा रहा। अगर जल को न संभाला गया तो प्राणीमात्र का जीना मुश्किल हो जाएगा।

जलसंकट की जननी है हमारी बदलती जीवन शैली, वह प्रणाली जिसमें विलासिता, सुविधाभोग, निर्दयता, जिम्मेवारी के एहसास की कमी के तत्वों की प्रधानता है। जल जिसे हमारे ऋषियों ने देवता माना और नानक ने पिता के समान आदरणीय बताया, आज हमारे लिए केवल और केवल खरीद फरोख्त व दुरुपयोग की वस्तु मात्र बन गई है। सच है कि आज का मानव प्रकृति के साथ कुछ-कुछ दानव जैसा व्यवहार करने लगा है। जल, जमीन, जंगल और जानवरों का हो रहा विनाश इसी ओर इशारा करता है कि हम वो नहीं रहे जिसके लिए जाने जाते थे। शेव या पेस्ट करते हुए वाशवेशन का नल चलता रहना, टंकियों का ओवरफ्लो, पाईपों से पानी का बहते रहना, बहती टूटियों पर ध्यान न देना आदि अनेक इसी दानवी व्यवहार के उदाहरण हैं जो सामान्य रूप से हमारे घरों में मिल जाते हैं।  कल्पना करें जिस दिन पानी हमारे बीच नहीं होगा या बहुत कम मात्रा में होगा तो हमारा जीवन किस तरह चल पाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर घर को शौचालय की तर्ज पर हर घर को नल का पानी देने का संकल्प जताया है। लोगों में जल के प्रति जागरुकता फैलाने व जलसंकट के हल के लिए जल शक्ति मंत्रालय भी बनाया गया है परंतु जनता के सहयोग के बिना किसी भी सरकार की योजना सफल होने वाली नहीं है। स्वच्छ भारत अभियान शायद लोगों के सहयोग के बिना संभव न हो पाता। 'राखुंडा' और 'शरिंक' दो वस्तुएं नहीं बल्कि प्रतीक हैं संयमित जीवन और अंध उपभोक्तावाद के। संयम व मितव्ययता हमारी संस्कृति, युगों प्रमाणित जीवन शैली है जो प्रकृति में ईश्वर का वास देखती है। प्राकृतिक संसाधनों का जरुरत अनुसार ही प्रयोग करना हमारे पूर्वजों ने हमे सिखाया है। बदली परिस्थितियों के चलते चाहे 'राखुंडा' पूरी तरह नहीं अपनाया जा सकता तो कम से कम शरिंक को तो कुछ न कुछ 'राखुंडा' जैसा बना ही सकते हैं। कुछ दिन पहले मेरी पत्नी के बीमार होने के चलते मुझे घर के बर्तन मांजने का सुअवसर मिला तो मैने आधी-पौनी बालटी में सभी बर्तन साफ कर लिए और उस पानी को क्यारी में डाल दिया। बनिया बुद्धि से हिसाब लगाएं तो भांडे के भांडे मंज गए और पौधों की प्यास भी बुझ गई। फिर बीस-पच्चीस बरस बाद घर आंगन में 'राखुंडा' हंसता खिलखिलाता दिखाई दिया तो किसी बिछड़े हुए स्वजन की स्मृति ताजा हो उठी।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां, 
जालंधर।

Tuesday, 18 June 2019

स्वच्छ नौकरशाही अभियान

केंद्र सरकार ने जिस तरीके से भ्रष्ट अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाया, उससे साफ संकेत मिले हैं कि पहले कार्यकाल में सफलतापूर्वक स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल नौकरशाही में स्वच्छता लाने वाला होगा। पहले 12 वरिष्ठ वित्त अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद अब राजस्व सेवा के 15 वरिष्ठ अधिकारियों को तत्काल प्रभाव से बलात् सेवानिवृत कर दिया गया है। केंद्र सकार ने सेवा के सामान्य वित्त नियम के 56-जे के तहत इन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की है। ये 15 वरिष्ठ अधिकारी मुख्य अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड से संबंधित हैं। अंग्रेजी शासनकाल की बिगड़ैल औलाद नौकरशाही के लिए चिरप्रतिक्षित चलाया गया यह सफाई अभियान न केवल समयानुकूल बल्कि स्वागतयोग्य भी है। यह किसी से छिपा नहीं है कि आजादी के सात दशकों बाद भी देश को पिछड़ा और गरीब रखने के लिए इसी नौकरशाही का एक बड़ा तबका सर्वाधिक जिम्मेवार है। यह ठीक है कि कुछ भ्रष्ट तत्वों के चलते पूरी नौकरशाही को भ्रष्ट नहीं कहा जा सकता परंतु हर सरकारी विभाग में छिपी काली भेडों को पहचानना और उनके खिलाफ इसी तरह सख्त कार्रवाई करना अत्यंत जरूरी है।

मीडिया में आरही खबरें बता रही हैं कि मोदी सरकार ने ऐसे अधिकारियों की सूची बनाई जिनकी उम्र 50 साल से अधिक है और वे अपेक्षा के मुताबिक काम नहीं कर रहे हैं। केंद्र सरकार ऐसे अधिकारियों को नियम 56 के तहत सेवानिवृत्त कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति के तहत अपने पहले कार्यकाल में ऐसे अधिकारियों की सूची बनाने के बाद अपने दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने तेजी से इन अधिकारियों को रास्ता दिखाना शुरू किया है। कुछ ही दिन पहले एक दर्जन अधिकारियों को जबरन सेवानिवृत करने के बाद अब सरकार ने एक बार फिर बड़ी कार्रवाई करते हुए सीबीआइसी में कमिश्नर रैंक के 15 बड़े अधिकारियों की छुट्टी कर दी है। इन अधिकारियों पर घूसखोरी, फिरौती, कालेधन को सफेद करना, आय से अधिक संपत्ति, किसी कंपनी को गलत फायदा पहुंचाना जैसे आरोप हैं। इनमें से अधिकांश अधिकारी पहले से ही सीबीआई के शिकंजे में हैं। 

भाजपा विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साल 2014 में स्पष्ट जनादेश तत्कालीन डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील सरकार में व्यापक स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ ही मिला था। यह ठीक है कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान उन पर या किसी भी मंत्री पर बेईमानी के गंभीर आरोप नहीं लगे परंतु यह तथ्य भी उतना ही ठीक है कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार के चलते आम लोगों को भ्रष्टाचार की समस्या से राहत नहीं मिली। प्रशासन में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार की उसी तरह शिकायतें आती रहीं। एक ईमानदार सरकार में भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी को देख लोगों में यह भावना घर करती दिखी कि शायद इसका कोई स्थाई समाधान है ही नहीं। सरकार कोई भी आए बाबू अपनी ही रीति-नीति चलेंगे। हर्ष का विषय है कि मोदी सरकार ने जनता की इस परेशानी को न केवल समझा बल्कि इस दिशा में काम करना भी शुरू कर दिया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अफसशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार को अपनी रणनीति दो स्तरों पर बनानी होगी और नवीनतम टेक्नोलोजी का सहारा लेना होगा। नौकरशाही के भ्रष्टाचार को दो वर्गोँ में बांटा जा सकता है, एक तो उच्च स्तर जो जनता के ध्यान में नहीं आता परंतु देश के विकास में यह सबसे बड़ी बाधा है। दूसरी श्रेणी का भ्रष्टाचार स्थानीय है जिससे आम आदमी हर रोज दो चार होने को मजबूर है। उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार पर नथ डालने के लिए हर विभाग में अल्पकालीक व दीर्घकालीक लक्ष्य निर्धारित करने होंगे। विकास परियोजनाओं के संपूर्ण होने पर ही नहीं बल्कि बीच-बीच में भी इनकी समीक्षा करनी होगी और हर चरण के लिए जिम्मेवारी तय करनी होगी। केवल इतना ही नहीं बड़ी परियोजनाओं में जनभागेदारी को भी शामिल करना होगा। जिस इलाके में बड़े प्रोजेक्ट चल रहे हों उससे सर्वाधिक प्रभावित तो स्थानीय निवासी ही होते हैं तो फिर इन परियोजनाओं के निर्माण व क्रियान्वयन में वहां की जनता को कैसे अलग रखा जा सकता है। इन परियोजनाओं में स्थानीय जनप्रतिनिधियों, पंचायतों तथा प्रभावशाली समूहों को शामिल करना होगा। हर विभागों में व्याप्त अनावश्यक कानूनों व प्रशासनिक बाधाओं को समाप्त करना होगा जिसकी आड़ में कुछ अधिकारियों को भ्रष्ट आचरण करने का मौका मिलता है। सरकारी विभागों में सतर्कता तंत्र विकसित कर उन्हें प्रभावशाली बनाना पड़ेगा और भ्रष्टाचार के खिलाफ मिलने वाली शिकायतों पर तुरत फुर्त कार्रवाई करनी पड़ेगी। भ्रष्टाचार में लिप्त कर्मचारियों व अधिकारियों पर इसी तरह की सख्त कार्रवाई करनी होगी जैसी कि वर्तमान समय में मोदी सरकार ने की है। कितनी विरोधाभासी बात है कि एक तरफ तो कुछ अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है तो केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा अनुशंसित 120 भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई पर अनावश्यक देरी की जा रही है।

स्थानीय या निचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के लिए नवीनतम टेक्नोलोजी का हथियार बनाना होगा। वैसे तो बहुत से सरकारी कामकाज अब ऑनलाइन होने शुरू हो चुके हैं परंतु इस क्रम को और आगे बढ़ाना होगा। कितनी दुखद बात है कि आज भी किसानों को अपनी जमीनों की फर्द, मकानों का इंतकाल लेने, लोगों को लाइसेंस रिन्यू करवाने, विभिन्न तरह के चालान भुगतने, बैंकों से ऋण लेने से लेकर राशन कार्ड तक बनवाने जैसे छोटे-छोटे कामों के लिए सरकारी दफ्तरों की परिक्रमा करनी पड़ती है जहां उन्हेंअनावश्यक दौड़ाया, भटकाया व काम को लटकाया जाता है ताकि लोग विवश हो सेवाशुल्क देने को तैयार हो सकें। साधारण जनता से जुड़े कामों का जितना डिजटलीकरण होगा निचले स्तर पर उतना ही भ्रष्टाचार कम होगा। कहते हैं कि चोर के पांव नहीं होते, उसी तरह भ्रष्टाचार की जड़ें भी इतनी मजबूत नहीं जितनी कि दिखाई दे रही हैं, जरूरत है ईमानदार प्रयास की। जब दुनिया के कई देश अपने यहां तकनोलोजी के सहारे ईमानदार व्यवस्था स्थापित कर चुके हैं तो यह हमारे लिए भी कोई गौरीशंकर की चोटी नहीं है। भ्रष्टाचार नजले की तरह है जो ऊपर से नीचे बहता है। सुखद समाचार है कि मोदी सरकार ने ऊपर से सफाई अभियान चला दिया है और आशा की जानी चाहिए कि जल्द ही इसका असर पूरी व्यवस्था पर भी पड़ता दिखेगा। मोदी कुशल प्रशासक व दृढ़ निश्चयी नेता होने के साथ-साथ आज उनके पास अदभुत राजनीतिव जनविश्वास की ताकत है। वे कोई भी काम करें तो उसके सफल होने की संभावना पहले से कहीं अधिक हैं। मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं परंतु इतना जानता हूं कि जिस दिन अफसरशाही में भ्रष्टाचार का उन्मूलन हुआ उस दिन देश के माथे से गरीबी, पिछड़ेपन, विकास की कमी का दाग स्वत: धुलने शुरू हो जाएंगे। मोदी सरकार ने व्यवस्था के लिए जो सफाई अभियान चलाया है उसमें गति लाने की जरूरत है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां
जालंधर।

Thursday, 6 June 2019

राहुल गांधी, हारे को हरिनाम

आचार्य रजनीश ने कहा है कि धन्य हैं वे जिन्हें हार नसीब होती है, ईश्वर उस खुशनसीब को ही यह उपहार देता है जिसे जीना सिखाना चाहता है। तुलसी पत्नी प्रेम में हारे न होते तो उन्हें राम न मिलते, मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में जीत जाते तो शंकराचार्य का सन्निध्य से वंचित रहते। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी आज राजनीति के मैदान में चारों खाने चित्त नजर आरहे हैं परंतु यह कोई बड़ी दुर्घटना नहीं है, दुख तो इस बात का है कि उन्हें आगे का मार्ग दिखाई नहीं दे रहा या फिर वे आंखें मूंदे हुए हैं। अगर उन्हें भविष्य में राजनीति करनी है तो मरनासन्न कांग्रेस का टूने-टोटकों से नहीं बल्कि क्रीमोथैरेपी से ईलाज करना होगा और संगठन के शरीर से निकाल फेंकना होगा हर गले सड़े अंग को जो शेष शरीर को भी रुग्ण बना रहा है।

वंशवाद और भ्रष्टाचार असल में राहुल गांधी की दो बेडिय़ां हैं जिसके चलते चलना तो क्या उनके लिए उठ बैठना भी मुश्किल हो रहा है। आम चुनावों में कांग्रेस की हार की समीक्षा के लिए बुलाई गई बैठक में उन्होंने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ का नाम लिए बिना कहा कि वंशवाद पार्टी को ले डूबा। राहुल को इन दो राÓयों से बड़ी अपेक्षा थी, अभी तीन चार महीने पहले ही हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने यहां से भाजपा को सत्ता'युक्त किया था परंतु अशोक गहलोत अपने पुत्र वैभव व कमलनाथ अपने बेटे नकुल को लेकर इतने आसक्त हो गए कि अपने-अपने प्रदेशों की बाकी सीटों पर पार्टी के लिए समय भी नहीं निकाल पाए। राहुल का आकलन तो ठीक है परंतु दूसरों के वंशवाद की ओर इशारा करते हुए चार अंगुलियां स्वत: ही अपने ऊपर उठ गईं। कौन नहीं जानता कि कांग्रेस में वंशवाद की बीमारी नेहरु-गांधी खानदान की देन है और कोड़तुंबे की इस बेल के सबसे बड़े फल खुद राहुल ही हैं जो गांधी गौत्र के कारण ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन पाए और अपनी बहन प्रियंका वाड्रा को सीधे ही राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त कर दिया।

अब समय है कि राहुल को अब खुद के, अपने परिवार व पार्टी के खिलाफ उठ खड़ा होना होगा। राहुल ने पार्टी को एक माह का समय दिया है कि वह  उनका विकल्प चुन ले। इस दौरान राहुल को अपने आसपास डेरा जमाए उन दरबारियों की भी छुट्टी कर देनी चाहिए जो कहते हैं कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस बिखर जाएगी। कांग्रेस को अतीत का हिस्सा और किस्सा होने से बचाना है तो साधारण कार्यकर्ता को भी यह अधिकार देना होगा कि वह भी अपनी योग्यता अनुसार वार्ड प्रधान से लेकर पार्टी अध्यक्ष, मंत्री से प्रधानमंत्री तक बन सके। राहुल खुद वंशवादी बेल की उपज हैं तभी तो इस प्रश्न पर उन्हें जवाब देते नहीं बनता, हर दल में वंशवाद होने की दलील के आधार पर अपनी गलती को सही नहीं ठहराया जा सकता। राहुल के लिए इससे बेहतर समय कुछ और नहीं कि जिस जनता का नेतृत्व उन्हें करना है वह उसी में विचरन करें। दरबारी राग सुनने की बजाय जनता का राग सुनें। यही जनता है जो उन्हें सिखाएगी, पढ़ाएगी और तराशेगी।  लोकतंत्र केवल सत्ता प्राप्ति की प्रणाली ही नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी का मानना था कि राजनीति विपक्ष की भी हो सकती है। वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने विपक्ष में रहते हुए भी देश की राजनीति को स्व'छ परंपराएं व सही दिशा प्रदान की हैं। विपक्ष के नेता के आगे खुला अवसर होता है कि वह अपनी मानसिकता और पार्टी का खुल कर विकास कर सके और राहुल को इस मौके को चुनौती नहीं बल्कि सुअवसर के रूप में प्रयोग करना चाहिए। हार को साधन बना कर हरिनाम तक का सफर करना चाहिए। 

भ्रष्टाचार कांग्रेस की दूसरी समस्या है जो पांव की मोच की तरह पार्टी को न तो आगे बढऩे दे रही और न ही चैन से बैठने। पार्टी का दर्द इतना विकराल है कि हर वार उसी पर पलटवार करता है। लोकसभा चुनावों में राफेल-राफेल चिल्ला कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को तार-तार करने की कोशिश की परंतु इस बीच अपनी बहन को राष्ट्रीय महासचिव भी बना दिया जिनके पति राबट्र वाड्रा जमीन घोटालों में घिरे हुए और देश में भ्रष्टाचार के एक पर्याय बन चुके हैं। इस विषय पर बड़े मीयां-छोटे मीयां दोनों ही सुभानअल्ला निकले, प्रियंका पूरे गाजे बाजे के साथ पहुंच गई प्रवर्तन निदेशालय अपने पति को पेशी भुगतवाने के लिए। पार्टी को उम्मीद थी कि इंदिरा गांधी की छवि लिए प्रियंका कुछ वोट बटोरेंगी परंतु वह प्रतिछाया बन कर उभरीं राबर्ट वाड्रा की। राहुल को कड़े कदम उठाने होंगे खुद के खिलाफ, पार्टी के खिलाफ और अपने परिवार के विरुद्ध भी। कांग्रेस की नींव में भारत का समृद्ध इतिहास है तो इसका नेतृत्व भेड़चाल वाला नहीं हो सकता।

राहुल गांधी के समक्ष सबसे बड़ी प्रेरणा व अनुकरणीय उदाहरण खुद उनकी माँ सोनिया गांधी ही हैं। उनके प्रधानमंत्री पद के मार्ग में विदेशी मूल की बाधा आई तो उन्होंने कड़ा कदम उठाते हुए खुद को इस पद की दौड़ से बाहर कर लिया और डा. मनमोहन सिंह को देश का नेतृत्व सौंप दिया। ऐसा कर उन्होंने विपक्ष के विदेशी मूल के मुद्दे को न केवल सदा के लिए दफन कर दिया बल्कि कांग्रेस के लिए अनुकूल परिस्थितियों का भी निर्माण किया जिसके चलते लगातार दस साल पार्टी को देश के नेतृत्व का गौरव प्राप्त हुआ।

आज राहुल गांधी कोपभवन में हैं तो पार्टी का बंटाधार होता दिख रहा है। राजस्थान में गलहोत-सचिन पायलट, मध्य प्रदेश कमलनाथ-सिंधिया, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह-नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर बुरी तरह अंतर्कलह से घिर चुकी है। तेलंगाना में 12 विधायक पार्टी का साथ छोड़ टीआरएस में शामिल हो गए। 2014 में भी सोनिया और राहुल ने आज की तरह इस्तीफे की पेशकश की थी परंतु बाद में दरबारियों की मानमनोव्वल की परंपरा के चलते अपने पदों पर चिपके रहे। आज भी ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है, पार्टी के प्रदेश प्रधानों ने इस्तीफों की झड़ी लगा दी तो खुद राहुल ने एक माह का समय दिया है। आशंका है कि 2014 की तरह इस बार भी यह पेशकश राजनीतिक ड्रामा  साबित न हो जाए। सिंहसान कभी मखमली रास्ते पर चल कर नहीं मिलते, बल्कि कई तरह के लाक्षागृहों, खाण्डप्रस्थों और अज्ञातवासों के कंटीले मार्गों से गुजरना पड़ता है। राहुल के लिए परीक्षा की घड़ी है, वाजपेयी जी के ही शब्दों में कहें तो : - 

आग्नेय परीक्षा की,इस घड़ी में,
आइए, अर्जुन की तरह,
उद्घोष करें - न दैन्यं न पलायनं।
- राकेश सैन
&2, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...