Tuesday, 30 July 2019

अद्वितीय क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह

देश में जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो बंगाल, अवध प्रांत के साथ-साथ पंजाब भी क्रांतिकारियों का गढ़ बन कर उभरा। यहां जन्मे वीर सपूतों ने अहिंसा के साथ-साथ क्रांतिकारी माध्यमों से देश के स्वतंत्रता संग्राम में इस कदर अमूल्य योगदान दिया कि अंग्रेजों को अंतत: 1947 को अपना बोरिया बिस्तर बांध कर जाने को मजबूर होना पड़ा। पंजाब के वीर सपूतों का नाम लें तो अनायस ही शहीद उधम सिंह की स्मृति हो आती है जिन्होंने विदेश में जाकर भारतीयों के खूनखराबे का बदला लिया और खूनी अंग्रेज अफसर के खून से मारे गए बेकसूर लोगों का तर्पण किया। उधम सिंह की बचपन अत्यंत दयनीय हालत में गुजरा परंतु जलियांवाला बाग के नरसंहार ने उनके जीवन की दशा और दिशा दोनो बदल डाली।
जैसा कि सभी जानते हैं कि साल 1919 बैसाखी का दिन था। पंजाब के अमृतसर में हजारों की तादाद में लोग एक पार्क में जमा हुए थे। रॉलेट एक्ट के तहत कांग्रेस के सत्यपाल और सैफूद्दीन किचलू को अंग्रेजों ने अरेस्ट कर लिया था। लोग वहां दोनों की गिरफ्तारी के खिलाफ शांति से प्रोटेस्ट कर रहे थे। जनरल डायर अपनी फौज के साथ वहां आ धमका और घेर लिया पूरे बाग को, उसने न तो प्रदर्शनकारियों को जाने के लिए कहा और न ही कोई वार्निंग दी। डायर ने बस एक काम किया. अपनी फौज को फायरिंग करने का ऑर्डर दिया। फिर शुरू हुआ नरसंहार, अंग्रेज उन मासूम लोगों पर दनादना गोलियां चलाने। उस फायरिंग में बहुत लोगों की जानें गईं। बाग का इकलौता गेट अंग्रेजों ने बंद कर रखा था। लोग बचने के लिए पार्क की दीवार पर चढऩे लगे। कुछ जान बचाने के लिए कुएं में कूद गए। गोरों की इस हरकत से सब खिसियाए बैठे थे, पर इस घटना से एक इंसान था, जो इतना ज्यादा गुस्साया कि उसने जनरल डायर को मार डालने का मन बना लिया। ये थे सरदार उधम सिंह, जिन्होंने विदेश में जाकर अपने भारतीय बहन भाईयों के खून का बदला लिया और पूरी दुनिया में भारतीय शौर्य की धाक जमा डाली।
सरदार उधम सिंह 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में पैदा हुए। इनके पिता सरदार टहल सिंह जम्मू उपल्ली गांव में रेलवे चौकीदार थे। पिता ने इनको नाम दिया शेर सिंह। इनके एक भाई भी थे, सात साल की उम्र में उधम अनाथ हो गए। पहले मां चल बसीं और उसके 6 साल बाद पिता। मां-बाप के मरने के बाद दोनों को अमृतसर के सेंट्रल खालसा अनाथालय में रखवा दिया गया। वहां लोगों ने दोनों भाइयों को नया नाम दिया, शेर सिंह बन गए उधम सिंह और मुख्तार सिंह बन गए साधु सिंह। अदालती कार्रवाई के दौरान सरदार उधम सिंह ने भारतीय समाज की एकता के लिए अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद बताया जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है। साल 1917 में साधु की भी मौत हो गई। 1918 में उधम ने मैट्रिक के एग्जाम पास किए। साल 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया। उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी। वे गवाह थे, उन हजारों बेनामी भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे। यहीं पर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ ड्वायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली. इसके बाद वो क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए। सरदार उधम सिंह क्रांतिकारियों से चंदा इक_ा कर देश के बाहर चले गए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बॉब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा कर क्रांति के लिए खूब सारे पैसे इक_ा किए। इस बीच देश के बड़े क्रांतिकारी एक-एक कर अंग्रेजों से लड़ते हुए जान देते रहे। ऐसे में उनके लिए आंदोलन चलाना मुश्किल हो रहा था। पर वो अपनी प्रतीज्ञा को पूरी करने के लिए मेहनत करते रहे। उधम सिंह के लंदन पहुंचने से पहले जनरल डायर बीमारी के चलते मर गया था। ऐसे में उन्होंने अपना पूरा ध्यान माइकल ओ’ ड्वायर को मारने पर लगाया और उसे पूरा किया।
उधम सिंह को भगत सिंह बहुत पसंद थे. उनके काम से उधम बहुत पसंद थे। भगत सिंह को वो अपना गुरु मानते थे। साल 1935 में जब वो कश्मीर गए थे। वहां उधम को भगत सिंह के पोट्रेट के साथ देखा गया। इन्हे देशभक्ति पूर्ण गाने गाना बहुत अच्छा लगता था। रामप्रसाद बिस्मिल से भी बहुत प्रभावित थे। कुछ महीने कश्मीर में रहने के बाद वो विदेश चले गए। सरदार उधम सिंह जलियांवाला बाग नरसंहार से आक्रोशित थे। इस आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर। 13 मार्च, 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हॉल में बैठक थी. वहां माइकल ओ’ ड्वायर भी स्पीकर में से एक था। उधम सिंह उस दिन टाइम से वहां पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा रखी थी। उन्होंने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाया। उससे उनको हथियार छिपाने में आसानी हुई। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ’ ड्वायर को निशाना बनाया। दो गोलियां लगी जिससे उसकी तुरंत मौत हो गई। इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और गिरफ्तार हो गए। जज ने सवाल दागा कि वह ओ’ ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा। उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थीं और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है। इसके बाद उधम को शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गई, जो सरदार भगत सिंह को शहादत के बाद मिली थी। 4 जून, 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई, 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। इस तरह उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में अमर हो गए। 1974 में ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए। अंग्रेजों को अंग्रेजों के घर में घुसकर मारने का जो काम सरदार उधम सिंह ने किया था, उसकी हर जगह तारीफ हुई। जिसने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया। सरदार उधम सिंह के इस महाबदले की कहानी आंदोलनकारियों को प्रेरणा देती रही। इसके बाद की तमाम घटनाओं को सब जानते हैं। अंग्रेजों को 7 साल के अंदर देश छोडऩा पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया। उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिल में रहकर वो आजादी को जरूर महसूस कर रहे होंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां, 
जालंधर।

Thursday, 25 July 2019

भारत दूत: कारगिल युद्ध, भारतीय सेना ने असंभव को संभव किया

भारत दूत: कारगिल युद्ध, भारतीय सेना ने असंभव को संभव किया: कारगिल युद्ध के बाद दुनिया के अनेक रक्षा विशेषज्ञों व सामरिक रणननीतिकारों ने इस इलाके का दौरा किया। इन सभी ने इस बात पर आश्चर्य जताया कि...

कारगिल युद्ध, भारतीय सेना ने असंभव को संभव किया

कारगिल युद्ध के बाद दुनिया के अनेक रक्षा विशेषज्ञों व सामरिक रणननीतिकारों ने इस इलाके का दौरा किया। इन सभी ने इस बात पर आश्चर्य जताया कि भारत यह लड़ाई जीत कैसे गया। भुगौलिक स्थिति के अनुसार तो उसे हर कीमत पर लड़ाई हारनी थी परंतु उसने असंभव को संभव करके कैसे दिखाया। यह ठीक है कि सबसे ऊंचाई पर लड़े जाने वाले दुनिया के तीसरे इस तरह के युद्ध में भारतीय सेना ने अत्यंत विपरीत हालातों को बावजूद अपने से हजारों फीट ऊपर बैठे दुश्मनों को न केवल मार भगाया बल्कि भारी जन हानि भी की।

या तो तू युद्ध में बलिदान देकर स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा विजयश्री प्राप्त कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। गीता के इसी श्लोक को प्रेरणा मानकर भारत के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध में दुश्मन को पाँव पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया था। 26 जुलाई 1999 के दिन भारतीय सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान चलाए गए ‘ऑपरेशन विजय’ को सफलतापूर्वक अंजाम देकर भारत भूमि को घुसपैठियों के चंगुल से मुक्त कराया था। इसी की याद में ‘26 जुलाई’ अब हर वर्ष कारगिल दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन है उन शहीदों को याद कर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पण करने का, जो हँसते-हँसते मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह दिन समर्पित है उन्हें, जिन्होंने अपना आज हमारे कल के लिए बलिदान कर दिया। कारगिल युद्ध जो कारगिल संघर्ष के नाम से भी जाना जाता है, भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई के महीने में कश्मीर के कारगिल जिले से प्रारंभ हुआ था। इस युद्ध का कारण था बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों व पाक समर्थित आतंकवादियों का लाइन ऑफ कंट्रोल यानी भारत-पाकिस्तान की वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर प्रवेश कर कई महत्वपूर्ण पहाड़ी चोटियों पर कब्जा कर लेह-लद्दाख को भारत से जोडऩे वाली सडक़ का नियंत्रण हासिल कर सियाचिन-ग्लेशियर पर भारत की स्थिति को कमजोर कर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा करना। पूरे दो महीने से ज्यादा चले इस युद्ध में भारतीय थलसेना व वायुसेना ने लाइन ऑफ कंट्रोल पार न करने के आदेश के बावजूद अपनी मातृभूमि में घुसे आक्रमणकारियों को मार भगाया था। स्वतंत्रता का अपना ही मूल्य होता है, जो वीरों के रक्त से चुकाया जाता है। इस युद्ध में हमारे लगभग 527 से अधिक वीर योद्धा शहीद व 1300 से ज्यादा घायल हो गए, जिनमें से अधिकांश अपने जीवन के 30 वसंत भी नही देख पाए थे। इन शहीदों ने भारतीय सेना की शौर्य व बलिदान की उस सर्वोच्च परम्परा का निर्वाह किया, जिसकी सौगन्ध हर सिपाही तिरंगे के समक्ष लेता है। इन रणबाँकुरों ने भी अपने परिजनों से वापस लौटकर आने का वादा किया था, जो उन्होंने निभाया भी, मगर उनके आने का अन्दाज निराला था। वे लौटे, मगर लकड़ी के ताबूत में। उसी तिरंगे मे लिपटे हुए, जिसकी रक्षा की सौगन्ध उन्होंने उठाई थी। जिस राष्ट्रध्वज के आगे कभी उनका माथा सम्मान से झुका होता था, वही तिरंगा मातृभूमि के इन बलिदानी जाँबाजों से लिपटकर उनकी गौरव गाथा का बखान कर रहा था।

कैप्टन विक्रम बत्रा : ‘ये दिल माँगे मोर’ - हिमाचल प्रदेश के छोटे से कस्बे पालमपुर के 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स के कैप्टन विक्रम बत्रा उन बहादुरों में से एक हैं, जिन्होंने एक के बाद एक कई सामरिक महत्व की चोटियों पर भीषण लड़ाई के बाद फतह हासिल की थी। यहाँ तक कि पाकिस्तानी लड़ाकों ने भी उनकी बहादुरी को सलाम किया था और उन्हें ‘शेरशाह’ के नाम से नवाजा था। मोर्चे पर डटे इस बहादुर ने अकेले ही कई शत्रुओं को ढेर कर दिया। सामने से होती भीषण गोलीबारी में घायल होने के बावजूद उन्होंने अपनी डेल्टा टुकड़ी के साथ चोटी नं. 4875 पर हमला किया, मगर एक घायल साथी अधिकारी को युद्धक्षेत्र से निकालने के प्रयास में माँ भारती का लाड़ला विक्रम बत्रा 7 जुलाई की सुबह शहीद हो गया। अमर शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को अपने अदम्य साहस व बलिदान के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैनिक पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।

कैप्टन अनुज नायर : 17 जाट रेजिमेंट के बहादुर कैप्टन अनुज नायर टाइगर हिल्स सेक्टर की एक महत्वपूर्ण चोटी ‘वन पिंपल’ की लड़ाई में अपने 6 साथियों के शहीद होने के बाद भी मोर्चा सम्भाले रहे। गम्भीर रूप से घायल होने के बाद भी उन्होंने अतिरिक्त कुमुक आने तक अकेले ही दुश्मनों से लोहा लिया, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय सेना इस सामरिक चोटी पर भी वापस कब्जा करने में सफल रही। इस वीरता के लिए कैप्टन अनुज को मरणोपरांत भारत के दूसरे सबसे बड़े सैनिक सम्मान ‘महावीर चक्र’ से नवाजा गया।

लेफ्टिनेंट मनोज पांडेय : गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट मनोज पांडेय की बहादुरी की इबारत आज भी बटालिक सेक्टर के ‘जुबार टॉप’ पर लिखी है। अपनी गोरखा पलटन लेकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में ‘काली माता की जय’ के नारे के साथ उन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में ल?ते हुए मनोज पांडेय ने दुश्मनों के कई बंकर नष्ट कर दिए। गम्भीर रूप से घायल होने के बावजूद मनोज अंतिम क्षण तक लड़ते रहे। भारतीय सेना की ‘साथी को पीछे ना छोडने की परम्परा’ का मरते दम तक पालन करने वाले मनोज पांडेय को उनके शौर्य व बलिदान के लिए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।

कैप्टन सौरभ कालिया : भारतीय वायुसेना भी इस युद्ध में जौहर दिखाने में पीछे नहीं रही, टोलोलिंग की दुर्गम पहाडियों में छिपे घुसपैठियों पर हमला करते समय वायुसेना के कई बहादुर अधिकारी व अन्य रैंक भी इस लड़ाई में दुश्मन से लोहा लेते हुए शहीद हुए। सबसे पहले कुर्बानी देने वालों में से थे कैप्टन सौरभ कालिया और उनकी पैट्रोलिंग पार्टी के जवान। घोर यातनाओं के बाद भी कैप्टन कालिया ने कोई भी जानकारी दुश्मनों को नहीं दी।

स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा : स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा का विमान भी दुश्मन गोलीबारी का शिकार हुआ। अजय का लड़ाकू विमान दुश्मन की गोलीबारी में नष्ट हो गया, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और पैराशूट से उतरते समय भी शत्रुओं पर गोलीबारी जारी रखी और लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता इस युद्ध में पाकिस्तान द्वारा युद्धबंदी बनाए गए। वीरता और बलिदान की यह फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती। भारतीय सेना के विभिन्न रैंकों के लगभग 30,000 अधिकारी व जवानों ने ऑपरेशन विजय में भाग लिया। युद्ध के पश्चात पाकिस्तान ने इस युद्ध के लिए कश्मीरी आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहराया था, जबकि यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि पाकिस्तान इस पूरी लड़ाई में लिप्त था।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां, 
जालंधर।

Tuesday, 16 July 2019

जड़ों की खोज में युवा पाकिस्तानी

लहू को लहू पुकार रहा है। हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान ने गौरी, गजनी, खिलजी, बाबर, औरंगजेब जैसे बर्बर नायक अपनी नस्लों को खूब घोंट-घोंट कर पिलाए परंतु वहां की युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से जुडऩे को बेताब दिख रही है। अभी-अभी लाहौर में महान शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा लगाने और उन्हें 'शेर-ए-पंजाब' की उपाधि देने के बाद सिंध प्रांत में राजा दाहिर को भी सरकारी तौर पर नायक घोषित करने की मांग ने जोर पकड़ लिया है। आधुनिक शिक्षा और सूचना तकनोलोजी से लैस युवा पाकिस्तान पूछ रहा है हमारे नायक कौन हैं? उक्त बर्बर आक्रांताओं से पहले हमारे इस इलाके का क्या इतिहास था? अपनी जड़ों को तलाशती युवा पीढ़ी कट्टरवाद से ऊपर उठ अपना इतिहास जानने को न केवल ललायित बल्कि उससे जुडऩे को भी बेताब दिखाई दे रही है। तभी तो लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा की स्थापना के बाद सोशल मीडिया पर परस्पर बधाई दी जा रही है। बीबीसी लंदन की एक रिपोर्ट के अनुसार, क्वेटा शहर के पत्रकार जावेद लंगाह ने फेसबुक पर लिखा है कि, आखिरकार राजा रणजीत सिंह बादशाही मस्जिद के दक्षिण पूर्व स्थित अपनी समाधि से निकलकर शाही किले के सामने घोड़े पर सवार होकर अपनी पिछली सल्तनत और राजधानी में फिर से हाजिर हो गए हैं। उन्होंने आगे लिखा है कि पंजाब दशकों तक अपने असल इतिहास को झुठलाता रहा है और एक ऐसा काल्पनिक इतिहास गढऩे की कोशिश में जुटा रहा जिसमें वो राजा पोरस और रणजीत सिंह समेत असली राष्ट्रीय नायकों और सैकड़ों किरदारों की जगह गौरी, गजनवी, सूरी और अब्दाली जैसे नए नायक बनाकर पेश करता रहा जो पंजाब समेत पूरे उपमहाद्वीप का सीना चाक करके यहां के संसाधन लूटते रहे। दरम खान नाम के एक युवा ने फेसबुक पर लिखा कि अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान में बसने वाली तमाम कौमों के बच्चों को स्कूलों में सच बताया जाए और उन्हें अरब और मुगल इतिहास की बजाय अपना खुद का इतिहास पढ़ाया जाए। केवल यही दो युवा नहीं बल्कि इस तरह की प्रतिक्रिया देने वालों का तांता सा लगा हुआ है। एक पाकिस्तानी पत्रकार निसार खोखर पंजाब की जनता को संबोधित करते हुए लिखते हैं कि अगर सिंध सरकार एक ऐसी ही प्रतिमा सिंधी शासक राजा दाहिर की लगा दे तो आपको ग़ुस्सा तो नहीं आएगा, कुफ्र और गद्दारी के फतवे तो जारी नहीं होंगे? उक्त रिपोर्ट के अनुसार, सिंध की कला और संस्कृति को सुरक्षित रखने वाले संस्थान सिंध्यालॉजी के निदेशक डॉक्टर इसहाक समीजू भी राजा दाहिर को सिंध का राष्ट्रीय नायक करार दिए जाने की हिमायत करते हैं। उनका कहना है कि हर कौम को ये हक हासिल है कि जिन भी किरदारों ने अपने देश की रक्षा के लिए जान की बाजी लगाई, उनको श्रद्धांजलि दी जाए। सोशल मीडिया पर राजा दाहिर के पक्ष में अनेक पाकिस्तानी बुद्धिजीवी, पत्रकार व युवा उठ खड़े हुए हैं।

वैसे सिंधियों का कश्मीरी पंडित राजा दाहिर के प्यार कोई नया नहीं है। आम सिंधी दाहिर को अपना नायक मानता है न कि सिंध पर हमला करने वाले मोहम्मद बिन कासिम को। हालांकि पाकिस्तान के इतिहास व पाठ्यपुस्तकों में कासिम को नायक बनाने के प्रयास हुए परंतु सिंधियों के राष्ट्रप्रेम के चलते यह अभी तक असफल ही रहे हैं। कराची सहित सिंध के अनेक शहरों में राजा दाहिर को लेकर अनेक सांस्कृतिक संगठन सक्रिय हैं और इस्लामिक कट्टरवाद की आंधी में भी सच्चाई की शमां रोशन किए हुए हैं। वरुण देवता के अवतार झूलेलाल आज भी सिंधी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं और सूफी परंपरा में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है। राजा दाहिर आठवीं सदी ईस्वी में सिंध के शासक थे। वो राजा चच के सबसे छोटे बेटे और कश्मीरी ब्राह्मण वंश के आखिरी शासक थे। सिंधियाना इंसाइक्लोपीडिया के मुताबिक हजारों वर्ष पहले कई कश्मीरी ब्राह्मण वंश सिंध आकर बस गए।  चच सिंध के पहले ब्राह्मण सम्राट बने। उनके बेटे राजा दाहिर का शासन पश्चिम में मकरान तक, दक्षिण में अरब सागर और गुजरात तक, पूर्व में मौजूदा मालवा के केंद्र और राजपूताने तक और उत्तर में मुल्तान से गुजरकर दक्षिणी पंजाब तक फैला थी। पाकिस्तानी इतिहासकार मुमताज पठान अपनी पुस्तक तारीख़-ए-सिंध में लिखते हैं कि राजा दाहिर इंसाफ-पसंद थे। तीन तरह की अदालतें थीं, जिन्हें कोलास, सरपनास और गनास कहा जाता था, बड़े मु़कदमे राजा के पास जाते थे जो सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी का दर्जा रखते थे। आठवीं सदी में बगदाद के गवर्नर हुज्जाज बिन यूसुफ के आदेश पर उनके भतीजे मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला करके राजा दाहिर को शिकस्त दी और यहां अपनी रियासत कायम की। राजा दाहिर की हार के बाद उनकी दो बेटियों सूरज और परमाल को खलीफा के पास भेज दिया गया। एक रात दोनों को खलीफा के हरम में बुलाया गया। खलीफा उनकी ख़ूबसूरती देखकर दंग रह गया परंतु लड़कियों ने कहा, बादशाह सलामत रहें, मैं बादशाह की काबिल नहीं क्योंकि आदिल इमादुद्दीन मोहम्मद बिन कासिम उनकी पवित्रता भंग कर चुका है। इस पर खलीफा वलीद बिन अब्दुल मालिक, कासिम से बहुत नाराज हुआ और कासिम को बैल की खाल में बंद करवा कर दरबार में पेश किया गया। दम घुटने से कासिम की रास्ते में ही मौत हो गई। इस तरह सूरज-परमाल ने अपने देश के लुटेरे को सबक सिखा दिया और खुद आत्महत्या कर अपनी इज्जत बचा ली। एक पाकिस्तानी नागरिक जीएम सैय्यद ने लिखा है कि हर एक सच्चे सिंधी को राजा दाहिर पर फख्र होना चाहिए क्योंकि वो सिंध के लिए सिर का नजराना पेश करने वालों में से सबसे पहले हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक इस विचार को सही करार देते हैं जबकि कुछ मोहम्मद बिन कासिम को अपना हीरो और उद्धारक समझते हैं। इस वैचारिक बहस ने सिंध में दिन मनाने की भी बुनियाद डाली जब धार्मिक रुझान रखने वालों ने मोहम्मद बिन कासिम दिवस मनाया और राष्ट्रवादियों ने राजा दाहिर दिवस मनाने का आगाज किया।

केवल महाराजा रणजीत सिंह व राजा दाहिर ही नहीं बल्कि भगवान श्रीराम के पुत्र लव-कुश द्वारा बसाए गए लाहौर, भरत के पुत्र तक्ष द्वारा बसाई तक्षिला, स्वयंभू विश्वविजेता सिकंदर की सेना के दांत खट्टे करने वाले पोरस को लेकर भी पाकिस्तान की नई पीढ़ी में आकर्षण है। युवा जानना चाहते हैं कि 14 अगस्त, 1947 से पहले वे कौन थे, उनका देश कौनसा था ? कासिम, बाबर, गजनी-गौरी बाहर से आए थे तो उनके अपने कौन थे? उनकी रगों में किसका खून बह रहा है। लगता है कि मुस्लिम लीग की दो राष्ट्रों पर आधारित कृत्रिम इस्लामिक राष्ट्रीयता दम तोडऩे लगी है और लहू को लहू पुकार रहा है। कहा भी गया है- 'इक सूरत के कैसे हो सकते हैं दो बेगाने, आंखें पहचान रही थी अब तो दिल भी पहचाने।' पाकिस्तान की नई पीढ़ी की सोच में आरहे बदलाव का स्वागत होना चाहिए। जिस दिन पाकिस्तान की जनता अपनी जड़ों से जुड़ेगी उस दिन भारत-पाक की दुरियों व कटुताओं का स्वत: अंत हो जाएगा।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
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कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...