देश में जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो बंगाल, अवध प्रांत के साथ-साथ पंजाब भी क्रांतिकारियों का गढ़ बन कर उभरा। यहां जन्मे वीर सपूतों ने अहिंसा के साथ-साथ क्रांतिकारी माध्यमों से देश के स्वतंत्रता संग्राम में इस कदर अमूल्य योगदान दिया कि अंग्रेजों को अंतत: 1947 को अपना बोरिया बिस्तर बांध कर जाने को मजबूर होना पड़ा। पंजाब के वीर सपूतों का नाम लें तो अनायस ही शहीद उधम सिंह की स्मृति हो आती है जिन्होंने विदेश में जाकर भारतीयों के खूनखराबे का बदला लिया और खूनी अंग्रेज अफसर के खून से मारे गए बेकसूर लोगों का तर्पण किया। उधम सिंह की बचपन अत्यंत दयनीय हालत में गुजरा परंतु जलियांवाला बाग के नरसंहार ने उनके जीवन की दशा और दिशा दोनो बदल डाली।
जैसा कि सभी जानते हैं कि साल 1919 बैसाखी का दिन था। पंजाब के अमृतसर में हजारों की तादाद में लोग एक पार्क में जमा हुए थे। रॉलेट एक्ट के तहत कांग्रेस के सत्यपाल और सैफूद्दीन किचलू को अंग्रेजों ने अरेस्ट कर लिया था। लोग वहां दोनों की गिरफ्तारी के खिलाफ शांति से प्रोटेस्ट कर रहे थे। जनरल डायर अपनी फौज के साथ वहां आ धमका और घेर लिया पूरे बाग को, उसने न तो प्रदर्शनकारियों को जाने के लिए कहा और न ही कोई वार्निंग दी। डायर ने बस एक काम किया. अपनी फौज को फायरिंग करने का ऑर्डर दिया। फिर शुरू हुआ नरसंहार, अंग्रेज उन मासूम लोगों पर दनादना गोलियां चलाने। उस फायरिंग में बहुत लोगों की जानें गईं। बाग का इकलौता गेट अंग्रेजों ने बंद कर रखा था। लोग बचने के लिए पार्क की दीवार पर चढऩे लगे। कुछ जान बचाने के लिए कुएं में कूद गए। गोरों की इस हरकत से सब खिसियाए बैठे थे, पर इस घटना से एक इंसान था, जो इतना ज्यादा गुस्साया कि उसने जनरल डायर को मार डालने का मन बना लिया। ये थे सरदार उधम सिंह, जिन्होंने विदेश में जाकर अपने भारतीय बहन भाईयों के खून का बदला लिया और पूरी दुनिया में भारतीय शौर्य की धाक जमा डाली।
सरदार उधम सिंह 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में पैदा हुए। इनके पिता सरदार टहल सिंह जम्मू उपल्ली गांव में रेलवे चौकीदार थे। पिता ने इनको नाम दिया शेर सिंह। इनके एक भाई भी थे, सात साल की उम्र में उधम अनाथ हो गए। पहले मां चल बसीं और उसके 6 साल बाद पिता। मां-बाप के मरने के बाद दोनों को अमृतसर के सेंट्रल खालसा अनाथालय में रखवा दिया गया। वहां लोगों ने दोनों भाइयों को नया नाम दिया, शेर सिंह बन गए उधम सिंह और मुख्तार सिंह बन गए साधु सिंह। अदालती कार्रवाई के दौरान सरदार उधम सिंह ने भारतीय समाज की एकता के लिए अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद बताया जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है। साल 1917 में साधु की भी मौत हो गई। 1918 में उधम ने मैट्रिक के एग्जाम पास किए। साल 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया। उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी। वे गवाह थे, उन हजारों बेनामी भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे। यहीं पर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ ड्वायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली. इसके बाद वो क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए। सरदार उधम सिंह क्रांतिकारियों से चंदा इक_ा कर देश के बाहर चले गए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बॉब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा कर क्रांति के लिए खूब सारे पैसे इक_ा किए। इस बीच देश के बड़े क्रांतिकारी एक-एक कर अंग्रेजों से लड़ते हुए जान देते रहे। ऐसे में उनके लिए आंदोलन चलाना मुश्किल हो रहा था। पर वो अपनी प्रतीज्ञा को पूरी करने के लिए मेहनत करते रहे। उधम सिंह के लंदन पहुंचने से पहले जनरल डायर बीमारी के चलते मर गया था। ऐसे में उन्होंने अपना पूरा ध्यान माइकल ओ’ ड्वायर को मारने पर लगाया और उसे पूरा किया।
उधम सिंह को भगत सिंह बहुत पसंद थे. उनके काम से उधम बहुत पसंद थे। भगत सिंह को वो अपना गुरु मानते थे। साल 1935 में जब वो कश्मीर गए थे। वहां उधम को भगत सिंह के पोट्रेट के साथ देखा गया। इन्हे देशभक्ति पूर्ण गाने गाना बहुत अच्छा लगता था। रामप्रसाद बिस्मिल से भी बहुत प्रभावित थे। कुछ महीने कश्मीर में रहने के बाद वो विदेश चले गए। सरदार उधम सिंह जलियांवाला बाग नरसंहार से आक्रोशित थे। इस आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर। 13 मार्च, 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हॉल में बैठक थी. वहां माइकल ओ’ ड्वायर भी स्पीकर में से एक था। उधम सिंह उस दिन टाइम से वहां पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा रखी थी। उन्होंने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाया। उससे उनको हथियार छिपाने में आसानी हुई। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ’ ड्वायर को निशाना बनाया। दो गोलियां लगी जिससे उसकी तुरंत मौत हो गई। इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और गिरफ्तार हो गए। जज ने सवाल दागा कि वह ओ’ ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा। उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थीं और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है। इसके बाद उधम को शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गई, जो सरदार भगत सिंह को शहादत के बाद मिली थी। 4 जून, 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई, 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। इस तरह उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में अमर हो गए। 1974 में ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए। अंग्रेजों को अंग्रेजों के घर में घुसकर मारने का जो काम सरदार उधम सिंह ने किया था, उसकी हर जगह तारीफ हुई। जिसने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया। सरदार उधम सिंह के इस महाबदले की कहानी आंदोलनकारियों को प्रेरणा देती रही। इसके बाद की तमाम घटनाओं को सब जानते हैं। अंग्रेजों को 7 साल के अंदर देश छोडऩा पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया। उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिल में रहकर वो आजादी को जरूर महसूस कर रहे होंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।