देश को 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र होना था, लेकिन एक साल पहले ब्रिटेन ने भारतीय हाथों में सत्ता दे दी और अन्तरिम सरकार बननी थी। तय था कि कांग्रेस अध्यक्ष ही प्रधानमन्त्री होगा। तब पार्टी के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे परन्तु उनकी विदाई का समय हो गया था। तब तक गान्धीजी अपने चहेते नेहरूजी के हाथ में कांग्रेस की कमान देने का मन बना चुके थे। ‘कलेक्टट वक्र्स खण्ड 90 पृष्ठ 315’ के अनुसार, गान्धीजी ने ये भी साफ कर दिया कि अगर इस बार उनसे राय मांगी गई तो वे जवाहर को पसन्द करेंगे। 29 अप्रैल, 1946 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में नया अध्यक्ष चुना जाना था। बैठक में गन्धीजी के अलावा नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान व कई बड़े नेता शामिल थे। अध्यक्ष का चुनाव कांग्रेस की प्रान्तीय समितियाँ करती थीं और 15 में से 12 समितियों ने पटेल, 3 ने आचार्य कृपलानी और पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया। पार्टी महासचिव कृपलानी ने चुनाव की पर्ची गान्धीजी की तरफ बढ़ा दी, उन्होंने कृपलानी की तरफ देखा। कृपलानी समझ गए कि महात्मा क्या चाहते हैं, उन्होंने नया प्रस्ताव तैयार कर नेहरूजी का नाम भी शामिल कर दिया। उस पर सभी ने हस्ताक्षर किए। अब अध्यक्ष पद के दो उम्मीदवार थे, नेहरू और पटेल। नेहरू तभी निर्विरोध चुने जा सकते थे जब पटेल नाम वापस लें। कृपलानी ने उनके नाम वापसी की अर्जी लिखकर हस्ताक्षर के लिए पटेल की तरफ बढ़ा दी, लेकिन आहत पटेल ने हस्ताक्षर नहीं किए और उन्होंने ये कागज गान्धीजी की तरफ बढ़ा दिया। अब अन्तिम निर्णय राष्ट्रपिता को करना था, उन्होंने वो कागज फिर पटेल को लौटा दिया। इस बार सरदार ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए और कृपलानी ने घोषणा कर दी कि नेहरू निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाते हैं। कृपलानी जी ने अपनी पुस्तक ‘गान्धी हिज लाइफ एण्ड थाटॅ्स’ में इस पूरी घटना का विस्तार से वर्णन किया है।
इस घटना के 76 साल बाद पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए मुख्यमन्त्री चुने जाने का निर्णय होना था। इसके लिए 79 विधायकों ने मतदान किया और 42 ने चौ. सुनील कुमार जाखड़, 16 ने सुखजिन्द्र सिंह रन्धावा, 12 ने परनीत कौर, 6 ने नवजोत सिंह सिद्धू और केवल 2 विधायकों ने चरनजीत सिंह चन्नी के पक्ष में मतदान किया। उच्चकमान ने फैसला सुनाया कि चन्नी पंजाब के अगले मुख्यमन्त्री होंगे। उच्चकमान संस्कृति के आगे फिर लोकतन्त्र पराजित हुआ और जाखड़ के रूप में सरदार पटेल की फिर से बलि ले ली गई। गान्धीजी ने नेहरूजी को इसलिए कमान सौम्पी क्योंकि वे अंग्रेजीदां और धर्मनिरपेक्ष थे और महात्माजी का मत था कि वे देश को बेहतर तरीके से चला सकते हैं। पटेल की छवि राष्ट्रवादी नेता की बनी हुई थी और व्यवहारिक होने के बावजूद महात्माजी उन्हें एक मजहब विशेष के लिए अच्छा नहीं मानते थे। पंजाब के ताजा मामले में भी यही कुछ हुआ, कांग्रेस के स्थाई हाईकमान गान्धी परिवार ने माना कि हिन्दू नेता जाखड़ का मुख्यमन्त्री होना पंजाब जैसे राज्य में नुक्सानदायक हो सकता है और एक जाति विशेष से सम्बन्धित होने के चलते चन्नी लाभ पहुंचा सकते हैं तो लोकतन्त्र का फिर गला घोण्ट दिया गया। गुणों पर इच्छाएं व राजनीतिक लाभ-हानि हावी हो गईं। आखिर इन 76 सालों में कुछ भी तो नहीं बदला कांग्रेस में, पहले गान्धीजी के रूप में व्यक्पिूजा हावी थी और अब गान्धी कुटुम्ब के रूप में परिवारवाद। व्यक्तिवाद और खानदानवाद ने कांग्रेस में कितने ही पटेलों व जाखड़ों की बलि ली इसका आकलन करना भी मुश्किल है।
शायद 2007 से विधानसभा चुनावों की बात है, मध्य प्रदेश में राज्यपाल रहते हुए संघ परिवार से निकटता के चलते दिवंगत चौ. बलराम जाखड़ के बारे चर्चा चली कि वे भारतीय जनता पार्टी में जा रहे हैं, तो उन्होंने कांग्रेस के प्रति निष्ठा दोहराते हुए कहा कि-‘कहीं हिमालय भी हिला करते हैं ?’ पूर्व लोकसभा अध्यक्ष चौधरी बलराम जाखड़ देश की राजनीति व कांग्रेस के ही हिमालय थे और आज उनके पुत्र चौधरी सुनील कुमार जाखड़ भी राजनीति के एवरेस्ट नहीं तो कम से कम कञ्चनजंगा जितनी ऊंचाई तो रखते ही हैं। टीलों के आकार के लोगों से भरी वर्तमान कांग्रेस में यही ऊंचाई किसी लोकप्रिय नेता का गुण कम और दोष अधिक बन जाती है। इसी दोष के कारण शरद पवार, ममता बैनर्जी, हेमन्त बिस्वा, सिन्धिया, कैप्टन अमरिन्दर सिंह जैसे कई नेताओं को पार्टी छोडऩी पड़ी। लगता है कि कांग्रेस को ‘लीडऱों’ की नहीं बल्कि आदेश पढऩे वाले ‘रीडरों’ की ज्यादा जरूरत है और रीढ़विहीन बौने लोग ही पार्टी में कोई पद पा सकते हैं। अन्यथा क्या आवश्यकता थी पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर व सुनील जाखड़ की जोड़ी को तोडऩे की ? इस युगल नेताओं के नेतृत्व में सात-आठ माह पहले जो कांग्रेस पंजाब में पुन: स्पष्ट बहुमत लाती दिखाई दे रही थी तो इस युगलबन्दी को क्यों किनारे किया गया ? क्या नवजोत सिंह सिद्धू व चन्नी की जोड़ी वह प्रदर्शन कर पा रही है जो कैप्टन-जाखड़ जोड़ी ने किया ? राजनीति में साधारण रुचि रखने वाला भी बता सकता है कि ऐसा नहीं है। लगता है कि कैप्टन-जाखड़ जोड़ी की लोकप्रियता को पार्टी उच्चकमान हज्म नहीं कर पाया। विगत विधानसभा चुनावों में ‘चाहूंदा है पंजाब कैप्टन दी सरकार’ के नारे की सफलता गान्धी सुल्तानों को भाई नहीं। पार्टी का प्रथम परिवार कैसे बर्दाश्त कर सकता था तकि उनका नाम लिए बिना कोई कांग्रेसी नेता अपने स्तर पर सत्ता की सीढिय़ां चढ़ जाए। सांसद रहते हुए सुनील कुमार जाखड़ ने लोकसभा में छत्त पर चढ़ कर केन्द्र सरकार का विरोध करते हुए जो सुर्खियां पाईं शायद वह पार्टी के प्रथम परिवार को पसन्द नहीं आई। राष्ट्रीय मीडिया में अकसर चर्चा रही है कि पंजाब कांग्रेस का नेतृत्व केन्द्रीय नेतृत्व से भी पायेदार है और इसी की सजा मिली लगती है सुनील जाखड़ को। पटेल की उपेक्षा कर देश व कांग्रेस ने क्या कुछ खोया इसका आकलन मूल्यांकन शायद ही कभी हो परन्तु कांग्रेस के हितैषियों को अवश्य विचार करना चाहिए कि ‘खानदान’ के लिए ‘खासीयतें’ कब तक कुर्बान होती रहेंगी।
- राकेश सैन
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