Thursday, 25 July 2024

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो तो माँ बिलख उठती है। ऐसा ही गत 25 जुलाई को संसद भवन में देखने को मिला जब पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और जालन्धर से कांग्रेस के सांसद चरनजीत सिंह चन्नी ने खालिस्तान समर्थक सांसद अमृतपाल के पक्ष में आह भरी। चन्नी के शब्दों में 20 लाख लोगों के खडूर साहिब लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि अमृतपाल को जेल में रखा जा रहा है, यह भी एमरजेंसी है। ज्ञात रहे कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में डिब्रूगढ़ जेल में नजरबन्द खालिस्तान प्रचारक व अजनाला कोतवाली हिंसा का मुख्य आरोपी अमृतपाल निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीता है और कांग्रेस सांसद चन्नी लोकसभा में उसके ही पक्ष में बोल रहे थे। रोचक बात तो ये है कि अमृतपाल को जेल में भेजने वाली पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के सांसद भी सुन्न अवस्था में चन्नी के साथ वाली सीटों पर ही बैठे थे। वैसे चन्नी के बौद्धिक व प्रशासनिक योग्यता के स्तर का इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि फरवरी, 2018 में कैप्टन अमरिन्द्र सिंह की सरकार के तकनीकी शिक्षा मन्त्री रहते हुए उन्होंने प्राध्यापकों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि क्रिकेट की तरह टॉस करके की थी। उस समय देश-दुनिया में इस घटना को बड़े हास्यस्पद अन्दाज में कहा और सुना गया था। बाद में मुख्यमन्त्री बनने के बाद चन्नी प्रधानमन्त्री की सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं कर पाए और बठिण्डा से फिरोजपुर जाते हुए कथित किसान आन्दोलनकारियों ने प्रधानमन्त्री के काफिले को घेर लिया था। इस पर चन्नी ने सुरक्षा की सारी जिम्मेवारी केन्द्रीय सुरक्षा एजेंसियों पर डालने का प्रयास किया। केवल इतना ही नहीं, लोकसभा चुनावों के समय जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकी हमलों को चन्नी ने भाजपा की रणनीति बताया था। अब चन्नी द्वारा किसी खालिस्तानी का समर्थन करना चाहे किसी को चौंकाता हो परन्तु 1980 के दशक की राजनीतिक कलाबाजियां देख चुकी पीढ़ी अच्छी तरह जानती है कि चन्नी का अमृतपाल के प्रति दु:ख अनायास नहीं बल्कि यह कांग्रेस और खालिस्तान के बीच गर्भनाल के रिश्ते की टीस है। देश के समक्ष अब यह रहस्य नहीं रहा कि अलगाववादी सोच के व्यक्ति जरनैल सिंह भिण्डरांवाले को पंजाब की अकाली राजनीति को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने मैदान में उतारा और उस पर खालिस्तानी लेबल चस्पा किया। रिसर्च एण्ड एनालाइसेज विंग (रॉ) के सेवानिवृत अधिकारी जी.बी.एस. सिद्धू अपनी पुस्तक ‘खालिस्तान षड्यन्त्र की इनसाइड स्टोरी’ में दावा करते हैं कि जब भी भिण्डरांवाले से कोई संवाददाता खालिस्तान की मांग के बारे पूछते तो उसका यही जवाब होता था कि- हम खालिस्तान की मांग नहीं करते पर सरकार इसका प्रस्ताव करती है तो हम इन्कार भी नहीं करेंगे।’ चूंकि पंजाब के नर्मदलीय अकाली नेताओं को कमजोर करने के लिए गर्मदलीय लोगों के साथ खालिस्तान का लेबल चस्पा करना जरूरी था, तो 13 अप्रैल, 1978 में हुए निरंकारी-सिख टकराव की घटना के बाद ऐसी शक्ति का खड़ा करना जरूरी हो गया जो खुल कर खालिस्तान की बात करे। चूंकि भिण्डरांवाला न तो खालिस्तान की मांग करने वाला था और न ही विरोध, तो उसके साथ इस बिखराव की मांग को आसानी से जोड़ा जा सकता था। उस समय कांग्रेस नेताओं ने यह काम बड़ी बाखूबी किया। उस समय भारत में काम कर रहे बीबीसी लन्दन के पत्रकार मार्क टुल्ली व सतीश जैकब की पुस्तक ‘अमृतसर- मिसेज गान्धी•ा लास्ट बैटल’ के पृष्ठ 60 पर दावा करते हैं कि ‘इस काम के लिए पंजाब में दल खालसा के नाम से कट्टरवादी संगठन का गठन किया गया। इसकी पहली बैठक चण्डीगढ़ के अरोमा होटल में हुई जिसका 600 रुपये का भुगतान ज्ञानी जैल सिंह द्वारा किया गया।’ पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक ‘बियाण्ड द लाइन्स -एन ऑटोबायोग्राफी’ के अनुसार, ‘इस संगठन के उद्घाटन समारोह में सिख पन्थ की अवधारणा और उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को जीवित रखने का संकल्प लिया गया। संगठन का राजनीतिक उद्देश्य खालसा का बोलबाला बताया गया।’ एक अन्य पत्रकार जीएस चावला अपनी पुस्तक ‘ब्लडशेड इन पंजाब- अनटोल्ड सागा ऑफ डिसीट एण्ड सैबोटेज’ में लिखते हैं कि-‘दल खालसा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने पहले चण्डीगढ़ में एक पूर्व कांग्रेसी सांसद के यहां स्टेनोग्राफर की नौकरी की थी। 6 अगस्त, 1978 को चण्डीगढ़ के सेक्टर 35 में स्थित गुरुद्वारा श्री अकालगढ़ में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस में यह घोषणा की गई कि दल खालसा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्र सिख साम्राज्य की स्थापना सुनिश्चित करना है। अगले दिन पंजाब के कई समाचारपत्रों में यह खबर छपी, प्रेस कान्फ्रेंस का खर्चा भी पंजाब के कांग्रेसी नेताओं ने उठाया।’ देश के सुविख्यात विचारक कुप्पहल्ली सीतारामैया सुदर्शन अपनी पुस्तक ‘यों भटका पंजाब’ में लिखते हैं कि-‘कांग्रेस की आपसी गुटबाजी ने भी पंजाब समस्या को उग्र बनाने में बहुत मदद दी है। केवल दलीय दृष्टिकोण से ही समस्याओं को देखने का उसका स्वभाव रहा है, इसलिए सत्ताहीन अवस्था में अकाली दल को शह देने के लिए उसने भिण्डरावाले को उभारा। कांग्रेस की आपसी धड़ेबन्दी ने भिण्डरावाले की उग्रता के विरुद्ध समय रहते कड़े कदम उठाने नहीं दिये और जब भिण्डरावाले ने भस्मासुर का रूप लेकर अपने वरदाता को ही भस्म करने के लिए हाथ बढ़ाया तब कांग्रेसी शासन को ऐसी कार्यवाही के लिए बाध्य होना पड़ा जिसने समाज में अविश्वास की खाई को और चौड़ा कर दिया तथा उग्रपन्थियों को खुलकर खेलने का मौका दे दिया।’ देश से जुड़े विभिन्न मुद्दों से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से लेकर काडर तक किस तरह दिशाभ्रम के शिकार हैं इसका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि पार्टी एक तरफ तो श्रीमती इन्दिरा गान्धी, श्री राजीव गान्धी व स. बेअन्त सिंह को आतंकियों के हाथों मिली शहादत की विरासत अपना बताती है तो दूसरी ओर अमृतपाल जैसों के दु:ख में पतली होती रही है। और अधिक विस्मयकारी बात तो यह है कि चन्नी को वहां बैठे किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने ऐसा करने से रोका तक नहीं और न ही बाद में खेद जताया गया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद व आतंकवाद की आग दबी जरूर है परन्तु पूरी तरह बुझी नहीं। इसका साक्षात् उदाहरण है कि कनाडा, यूके, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे कई देशों में खालिस्तानियों की खुराफात दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही हैं। इन देशों में हिन्दू समाज, मन्दिरों व संस्थानों पर हमले, सोशल मीडिया पर विषैला प्रचार निरन्तर जारी है। ऐसे में खालिस्तानी आतंकवाद को देश की संसद में समर्थन मिलता है तो यह गलती भिण्डरांवाले के पुनर्जीवन सरीखी होगी। - राकेश सैन 32, खण्डाला फार्म कालोनी, ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां, जालन्धर। सम्पर्क : 77106-55605

Friday, 19 April 2024

पंजाब का लोकजीवन : लक्ष्मण ने बन्धनमुक्त करवाई राम की बारात

रामनवमी पर समस्त चराचर जगत को हार्दिक शुभकामनाएं। भगवान श्रीराम सर्वत्र है और सर्वज्ञ है फिर ऐसे में पंजाबी साहित्य व यहां का लोक जीवन किस तरह रामनाम से अछूता रह सकता था। पंजाब के लोकजीवन व लोकगीतों में भगवान श्रीराम की बारात जनकपुर की महिलाओं द्वारा बांधने और भ्राता लक्ष्मण द्वारा अपनी साहित्य योग्यता के बल पर बारात को मुक्त करवाने का जिक्र है। बात उस समय की है जब यातायात के साधन इतने विकसित नहीं थे और बारातें एक-एक सप्ताह या कई -कई दिनों तक रुका करती थी। ऐसे में वधु पक्ष के रिश्तेदार व बिरादरी के लोग बारी-बारी से बारात की रोटी किया करते थे अर्थात भोज करते थे। बारातियों को खेस या दरियों पर बैठा दिया जाता और वधु पक्ष के युवा बारातियों को भोजन परोसते। बारातियों का भोजन करना इतना आसान नहीं था क्योंकि उनके कला कौशल की परीक्षा ली जानी बकाया थी। जहां बारात भोजन कर रही होती वहां छतों व मुण्डेरों पर महिलाएं व वधु की सहेलियां बैठ जातीं और सीठने देतीं। सीठने दे कर महिलाएं बारात को बन्धन में बान्ध देतीं, जब तक वर पक्ष से उनके सीठनों का जवाब नहीं आता तब तक बारात न तो भोजन कर सकती थी और न ही उठ सर जा सकती थी। अगर वर पक्ष के लोग बारात को बन्धनमुक्त नहीं करवा पाते तो उनको तरह-तरह के हिकारत भरे उलाहने सुनने पड़ते। जन्न खाणे छत्ती बन्न तु बठाई के। अड्डी चोटी लक्क धोण जिन्दे लाई के। कोट चोगे कुड़ते रुमाल बन्नां। पग्ग साफा चीरा भोथा नाल बन्नां। लड्डू पेड़ा बरफी पतीसे थालीयां। गड़वे गलास बन्न देयां प्यालियां। अर्थात भोजन करने बैठी बारात को इस तरह बान्ध दिया कि एडी से चोटी तक कमर से गर्दन तक जैसे ताले लग गए। कपड़े, कुर्ते, रुमाल, पगड़ी, लड्डू, पेड़ा, बरफी, पतीले और थालीयां सब बांध दी गईं। इसी महिलाएं एक अन्य गीत गाती हैं। बन्नां घिउ खण्ड विच पाए थाल वे। बन्नां तेरे मित्तर पिआरे नाल वे। बन्नां थोडी मासी तिक्खे तिक्खे नैण वे। बन्नां थोडी मासी भूआ भैण वे। बन्न दियां पतोड़ दुद्ध दही खीर वे। लम्मे लुंजे बन्नां मधरे सरीर वे। झटका शराब बन्नां सणे बोटां दे। बन्नां थोडे बटुए जो डक्के नोटां दे। कुड़ते पजामे बन्न देयां धोतीयां। ऊठ घोड़े बन्न देवां खोतीयां। जुत्तीयां जुराबां बन्न देवां बूट वे। कोट पतलून जो हडाउंदे सूट वे। अर्थात : महिलाएं बारातियों के खाने की चीजों के साथ-साथ वर के घर की महिलाओं, उनके तीखे नैनों, हर उम्र के बाराती, कपड़े, बूट-जुराबें, बारात को लाने वाले ऊंट, घोड़े, गधों समेत सभी को अपने सीठनों से बान्ध देती हैं। बारात बान्धने के बाद बारातियों की हालत खराब हो जाती क्योंकि इन सीठनों के जवाब भी गीतों से ही देना पड़ता था। एसे में याद आती नाई, भाण्ड व मरासी की जो बारात के साथ चलते और सीठनों, लोकजीवन, लोकगीत की कला में पारंगत होते। कोई कुशल बराती या दूल्हे के यार-दोस्त भी इनका जवाब देने के लिए उठ खड़ा होते और हाथ में लोटे से जल छिडक़ कर महिलाओं के सीठनों का जवाब देता। जब महिलाएं इन जवाबों से संतुष्ट हो जातीं तो बारात को बन्धन मुक्त कर देतीं और गीत गातीं ... लाड़ा छुटेया निराला, फेर बाला सरबाला। उच्चा सिंघां दा दुमाला, मल्ल पूरी बरात दे। रथ गड्डीयां शिंगारां, लारी साईकल ते कारां, छुटे सणे असवारां, झांजी दी बरात दे। छुट गए पकौड़े सणे तेल मट्ठीयां, बन्न देवां नारीयां कट्ठीयां, छुट गए शक्करपारे दुद्ध घ्यो नी। माता भैण भाई तेरा बन्नां प्यो नी। अर्थात : पहले दुल्हा बन्धनमुक्त हुआ फिर सरबाला (दूल्हे के साथ चलने वाला बच्चा जो दूल्हे के ही वेष में रहता है)। इसके बाद रथ, गाडिय़ों, बसों, साईकिल व कारों के सवार मुक्त हुए। इसी तरह बारात के खाने का सामान मुक्त हुआ। इसके बाद बराती खाना शुरू करते और महिलाएं उनके घरों की महिलाओं, परिवार के सदस्यों को लेकर हंसी-मजाक भरे गीत गातीं। पंजाबी लोकसाहित्य में भगवान राम की बारात बांधने का भी जिक्र है जिसको वाकपटु व कलाकौशल से निपुण भ्रता लक्ष्मण जी मुक्त करवाते हैं... सीता वरी राम ने धनुश तोड़ के, उत्थे जन्न बद्धी नारीयां जोड़ के। लछमण जती ने छड़ाई जन्न नी, जनकपुरी होई धन्न धन्न नी। अर्थात : राम ने धनुष तोड़ कर जब सीता का वरण किया तो जनकपुर की महिलाओं ने इकट्ठा हो कर उनके साथ आई अयोध्या वासियों की बारात को बान्ध दिया। इस पर लक्ष्मण जी ने खड़े हो कर बारात को मुक्त करवाया और इससे जनकपुरी धन्य-धन्य हो गई। पंजाब के मालव इलाके के गीतकार शादीराम अपने ‘पत्तल काव्य’ में इस प्रथा का वर्णन करते हुए रामजी के विवाह के बारे लिखते हैं ... कोरिआं से बठाई जन्न जीमणे नूं जनकजी ने, आप जनक पत्तलां ते भोजन जो पांवदा. जन्न बन्न दित्ती रामचन्दर दी नारीआं ने, ‘शादीराम’ लक्षमण जी उट्ठ के छुड़ांवदा ... अर्थात : जब रामजी की बारात भोजन करने बैठी तो स्वयं जनक जी ने उनके सम्मुख पत्तल बिछाए और भोजन परोसा। इस पर महिलाओं ने बारात को बान्ध दिया और लक्ष्मण जी ने उसे मुक्त करवाया। आज शादी विवाह के नाम पर होने वाली सर्कस दौरान कानफोड़ डीजे की आवाज में भोण्डे गीतों पर थिरकने के बाद थोड़ी फुर्सत मिले तो हमें अपनी गौरवशाली परम्पराओं का भी तनिक स्मरण कर लेना चाहिए। शायद यही रामनवमी पर हमारी ओर से भगवान श्रीराम को अनुपम भेण्ट होगी।

Tuesday, 2 April 2024

केजरीवाल रामायण का सीता वनवास प्रसंग जरूर पढ़ें

दिल्ली के बहुकरोड़ी आबकारी घोटाले के आरोप में तिहाड़ जेल पहुंचे वहां के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल ने पढऩे के लिए रामायण, श्रीमद्भगवद् गीता व नीरजा चौधरी की पुस्तक ‘हाऊ प्राईम मिनिस्टर्स डिसाईड’ मांगी हैं। श्री केजरीवाल चाहें तो रामायण में वर्णित सीता वनवास प्रसंग से काफी कुछ सीख सकते हैं। एक धोबी द्वारा अपवाद उठाए जाने के बाद श्रीराम ने अपनी प्राणप्रिय पत्नी सीता का इसलिए त्याग कर दिया था क्योंकि उनका मत था कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का जीवन कलंक रहित होना चाहिए। उस पर छोटा सा भी लांछन लगे तो उसे अपने निजी हितों की बजाय जनाकांक्षाओं व पद की मर्यादा के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए। माता सीता पर लांछन लगने के बाद श्रीराम ने उनकी पवित्रता पर पूर्ण विश्वास होने का बाद भी बचाव नहीं किया और न ही किसी दूसरे को दोष दिया, बल्कि उन्होंने अपनी भावनाओं का दमन कर मर्यादा को प्राथमिकता दी। श्री केजरीवाल को स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या वे श्रीराम अनुरूप व्यवहार कर रहे हैं ?

श्री केजरीवाल के समर्थक दलील देते हैं कि संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है कि कोई मुख्यमंत्री जेल में सरकार नहीं चला सकता। इस प्रश्न को पलट कर भी पूछा जा सकता है कि क्या संविधान में इसकी व्यवस्था है कि एक मुख्यमंत्री जेल में रह कर सरकार चला सकता है ? दरअसल हमारे संविधान निर्माताओं ने इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी कि देश को ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे कि जब एक मुख्यमंत्री को जेल जाना पड़े। देश के संचालन में केवल संवैधानिक व्यवस्थाएं ही सबकुछ नहीं होतीं बल्कि लोकलाज के बिना लोकराज सम्भव ही नहीं है। आखिर राजनीतिक शूचिता व नैतिकता भी तो कुछ अर्थ रखती हैं। देश में इससे पहले ऐसी कभी पेचीदा स्थिति पैदा नहीं हुई कि किसी मुख्यमंत्री को अपने पद पर रहते हुए जेल जाना पड़ा हो। एक सामाजिक आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी के एकछत्र नेता श्री अरविन्द केजरीवाल तो नैतिकता के मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव व झारखण्ड के मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन से भी उन्नीस निकले, क्योंकि इन नेताओं ने गिरफ्तारी से पहले कम से कम अपने-अपने पदों से त्यागपत्र देने का तो हौंसला दिखाया। पर लगता है कि अन्ना हजारे के शिष्य श्री केजरीवाल तो नाखून कटाने जैसे बलिदान का भी साहस नहीं कर पा रहे हैं।

एक मुख्यमंत्री जेल में सरकार चला सकता है या नहीं इसको लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय उभर कर सामने आ रही हैं। लगता है कि इस मामले को लेकर श्री केजरीवाल दो विकल्प लेकर चल रहे हैं, पहला कि अगर जेल में ही सरकार चला सकें तो वे मुख्यमंत्री बने ही रहेंगे परंतु अगर ऐसा न कर पाए तो वे इसके लिए अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुनीता केजरीवाल को नंबर दो के रूप में स्थापित कर रहे हैं। श्रीमती केजरीवाल जिस तरह से दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई इंडी गठजोड़ की महारैली में गठबंधन के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठी नजर आईं और जिस तरह से आम आदमी पार्टी के विधायकों की बैठकें ले रही हैं उससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि दिल्ली में लालू-राबड़ी वाला इतिहास दोहराया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो नई तरह की राजनीति के दावे के साथ आई आम आदमी पार्टी पर भ्रष्टाचार के बाद परिवारवाद के आरोपों के भी छींटे पडऩे शुरू हो जाएंगे। कैसी विडम्बना है कि पार्टी अक्तूबर, 2012 में जन्मी आम आदमी पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र व्यक्ति विशेष के पंजों में दम तोड़ता नजर आरहा है, पार्टी के आरम्भ से ही श्री केजरीवाल इसके राष्ट्रीय संयोजक चले आ रहे हैं। क्या उनके दल में कोई ऐसा नेता नहीं जो इस पद पर पहुंच पाए ? अब श्री केजरीवाल ने अपनी धर्मपत्नी को अपनी क्रान्तिकारी पार्टी पर थोपना शुरू कर दिया है जो भारतीय राजनीति में परिवारवाद की निकृष्टतम उदारहणों में से एक है।

भ्रष्टाचार को लेकर अब आम आदमी पार्टी ही दुविधा में दिखाई दे रही है। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार आते ही मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में हुए कथित घोटालों का मामला उठाया और विभिन्न मामलों में लगभग एक दर्जन पूर्व कांग्रेसी मंत्रियों व पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और उनके रिश्तेदारों के खिलाफ केस दर्ज किए। इन कार्रवाईयों के जरिए भगवंत मान ने जनता को भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने व अपनी छवि ईमानदार नेता के रूप में बनाने का प्रयास किया। लेकिन अब यह कहने में कोई संशय नहीं है कि भगवंत मान की राजनीतिक कमाई दिल्ली की आप सरकार ने लुटा दी है। आज भगवंत मान को न केवल अपनी पार्टी के सुप्रीमो श्री अरविंद केजरीवाल का बचाव करना पड़ रहा है बल्कि उस कांग्रेस पार्टी के नेताओं के साथ  भी मंच सांझा करना पड़ रहा है जिसको वे पंजाब में पानी पी-पी कर कोसते रहे हैं। पंजाब में आप कार्यकर्ताओं को लगने लगा है कि श्री केजरीवाल ने खुद की ही पार्टी को गहन संकट में ला कर खड़ा कर दिया है। आशा की जानी चाहिए कि जेल में स्वाध्याय करते समय श्री केजरीवाल को अवश्य ऐसा कोई धर्मसम्मत मार्ग मिलेगा जिससे वे अपनी पार्टी की डोलती हुई नैया को पार लगा सकेंगे।

राकेश सैन

32, खण्डाला फार्म

ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ा

जालन्धर।

सम्पर्क : 77106-55605

Saturday, 16 March 2024

अनुकूलता के खतरों से सचेत रहे भाजपा

एक कहानी है, देवराज इन्द्र के गजराज अक्सर गन्ने खाने के लिए पृथ्वीलोक पर एक खेत में आते थे। उस खेत का मालिक बहुत परेशान था, क्योंकि फसल का नुक्सान तो होता परन्तु उसे चोर के कहीं पदचिन्ह नहीं मिलते। एक रात गुस्साया किसान चोर को पकडऩे के लिए खेत में छिप कर बैठ गया, जब गजराज धरती पर उतरे तो किसान ने उस एरावत की पूंछ पकड़ ली। गजराज घबरा गए और जान बचाने के लिए तुरन्त इन्द्रलोक की ओर उड़ लिए और उसके साथ -साथ किसान भी पूंछ पकड़े उड़ चला। गजराज को चिन्ता हो गई कि जीवित व्यक्ति स्वर्गलोक पहुंचा तो सारी मर्यादा भंग हो जाएगी, तो उसने अपनी पूंछ मुक्त करवाने के लिए खूब मेहनत की। गजरात उड़ते-उड़ते कभी उल्टा-पुल्टा हुए तो कभी शरीर को झटकाया, लेकिन ज्यों-ज्यों झटके लगें किसान की पकड़ त्यों-त्यों मजबूत होती जाए। अब गजराज ने युक्ति से काम लिया और रणनीति बदली। उसने किसान से बातचीत करनी शुरू कर दी। एरावत ने पूछ लिया कि तुम इतने मीठे गन्ने उगाते कैसे हो? अपनी बड़ाई सुन फूल कर कुप्पा हुए किसान ने सारी तकनीक बता दी। बातचीत करते-करते दोनों में मित्रता हो गई। मौका देख कर एरावत ने कहा, आज तक जितने गन्ने मैने तुम्हारे खेत के खाए हैं चलो मैं महाराज इन्द्रदेव से बोल कर उतना सोना तुम्हे पुरस्कार में दिलवा देता हूं। सोने का नाम सुनते ही किसान इतना खुश हुआ कि  ताली बजाने लगा, उसने जैसे ही ताली बजाने के लिए हाथ खोले तो धड़ाम से धरती पर आ गिरा और गजराज महोदय स्वर्गलोक को प्रस्थान कर गए। जो किसान हाथी के साथ संघर्ष के समय विकट परिस्थितियों में भी उसकी पूंछ पकड़े रहा वह अनुकूल परिस्थिति होते ही धड़ाम से धरती पर आ गिरा। प्रतिकूल परिस्थितियों के खतरे तो सर्वज्ञात हैं परन्तु कहानी बताती है कि अनुकूल हालात भी खतरे से खाली नहीं होते, प्रतिकूल हालातों में इंसान संघर्ष करता है परन्तु महौल बदलेत ही अक्सर असावधान हो जाता है और यही चूक कर जाता है।

देश में आज लोकसभा चुनावों का शंखनाद हो चुका है। आज परिस्थितियां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ के पक्ष में बताई जा रही हैं। वर्तमान में द्रुत गति से हो रहा विकास, कुलांचे भरती अर्थव्यवस्था, स्वदेशी और आत्मनिर्भरता को लक्ष्य बना अग्रसर हो रहा भारत व विदेशी कूटनीतिक मोर्चों पर देश को मिलती सफलता या बात करें सांस्कृतिक उत्थान और साम्प्रदायिक सौहार्द की, तो थोड़ी बहुत नुक्ताचीनी के बाद कमोबेश हर विरोधी भी मान रहा है कि वर्तमान सरकार का कार्यकाल अच्छा रहा है। इन परिस्थितियों से ही तो उत्साहित हो कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अबकी बार चार सौ पार का उत्साही नारा दिया है, सत्ताधारियों की दृष्टि से हर कहीं बम-बम  है, बस यहीं से शुरू हो सकता है अनुकूल परिस्थिति के खतरे पैदा होने का क्रम। अतिउत्साही भाजपा को यह विस्मृत नहीं होना चाहिए कि साल 2004 में भी उसके पास नरेन्द्र मोदी व अमित शाह की तरह अटल बिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी जैसे करिश्माई नेतृत्व की छत्रछाया थी। उस लोकसभा चुनावों में भारत उदय का आकर्षक नारा दिया गया था, अर्थव्यवस्था व विकास तब भी मृगझुण्डों के साथ चुंगियां भरने की स्पर्धा कर रहे थे परन्तु पार्टी की दृष्टि से परिणाम निराशाजनक रहे। छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्षा सोनिया गान्धी ने राजग को ऐसी पटकनी दी कि अगले दस साल तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार सत्ता में रही।

माना कि इस तरह की चेतावनी पहली बार नहीं दी जा रही और भाजपा नेतृत्व इस प्रकरण से कुछ सीखा नहीं होगा परन्तु इसके बावजूद भी पार्टी को संघर्ष के मार्ग को हर हालत में पकड़ कर रखना होगा। वैसे भी मोदी-शाह की जुगलबन्दी और अटल-आडवाणी की जोड़ी की कार्यप्रणाली में गांधी जी व सरदार पटेल जैसी भिन्नता सर्वज्ञात है और विपक्ष की डांवाडोल हालत में 2004 दोहराया जाना  फिलहाल सम्भव नहीं लगता परन्तु भाजपा को अपनी संघर्षमयी कार्यप्रणाली को बनाए रखना होगा।

देश में केवल भाजपा व वामदलों को ही कार्यकर्ता आधारित दल होने का श्रेय प्राप्त है। कार्यकर्ता के गुणों की पहचान, कार्यकर्ता निर्माण, उसे रुचि व क्षमता अनुसार काम और पूरा सम्मान व इसके साथ जनता से निरन्तर सम्पर्क भारतीय जनता पार्टी की प्रमाणिक कार्यप्रणाली मानी जाती है। पालने से लेकर पार्लियामेण्ट तक पार्टी इसी पद्धति से आगे बढ़ी है। आज चाहे भाजपा को लक्ष्य सरल लग रहा है परन्तु मार्ग इतना भी आसान नहीं है कि लोकसभा में चार सौ सदस्यों को बिना संघर्ष किए शपथ दिलवाई जा सके। चाहे कांग्रेस कमजोर दिख रही है परन्तु तृणमूल कांग्रेस, सपा, डीएमके, एआईएडीएमके, बसपा, आम आदमी पार्टी, पीडीपी, नैशनल कान्फ्रेंस सहित अनेक क्षत्रप अपने-अपने क्षेत्रों में मजबूती के साथ पांव जमाए हुए
हैं। कहीं-कहीं इण्डिया गठजोड़ के प्लेटफार्म पर मिल कर ये सूबेदार भाजपा की कड़ी परीक्षा लेने वाले हैं। दूसरी ओर विकसित और आत्मनिर्भरता के मार्ग पर बढ़ रहा भारत बहुत सी शक्तियों के आंखों की किरकिरी बना हुआ है। जो भारत दुनिया हथियारों की दुनिया का सबसे  बड़ा आयातक था वो आज सैन्य सामग्री निर्यात करने लगा है, भला देसी-विदेशी शस्त्रलॉबी इसे कैसे बर्दाश्त कर सकती है? प्रतिबन्ध के बाद से देश में जिन लाखों विदेशी एनजीओ•ा की दुकानदारी बन्द हो गई क्या वे सत्तापरिवर्तन नहीं चाह रही होंगी? इन सबके मद्देनजर भाजपा को कार्यपद्धति पर चलते हुए पूरी शक्ति के साथ चुनावों में उतरना होगा और अनुकूलता के खतरों से सावधान रहना होगा।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्म कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ा, 
जालन्धर।
सम्पर्क : 77106-55605

Monday, 11 March 2024

अब स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की साख पर सवाल

 

मौके बेमौके दुनिया को मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और समानता का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका की स्थिति 
रों को नसीहत खुद मीयां फजीहत वाली बनी हुई है। कारण है कि वहां पर दूसरे देशों से आए नागरिकों पर नस्लीय हमले बढ़ते जा रहे हैं और इसकी बहुत बड़ी संख्या में शिकार भारतीय बन रहे हैं। अपनी मेधा-परिश्रम के बूते अमेरिका में विशिष्ट जगह बनाते भारतीय युवा उन नस्लीय अमेरिकी युवाओं की आंख की किरकिरी बने हुए हैं जिन्हें लगता है कि भारतीय उनकी जगह ले रहे हैं। दरअसल, इस सोच को दक्षिणपन्थी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हवा दी। इसी साल फरवरी के पहले सप्ताह शिकागो में एक भारतीय युवा को अज्ञात हमलावरों ने निशाना बनाया। इससे पहले एमबीए की डिग्री लेने करने वाले विवेक सैनी की लिथोनिया में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इण्डियाना में समीर कामत कुछ दिन पहले मृत पाए गए। एक अन्य छात्र नील आचार्य लापता हुए, बाद में उनकी मृत्यु हो गई। वहीं एक युवा अकुल धवन, जो इलिनोइस विश्वविद्यालय का छात्र था, जनवरी में मृत पाया गया। इसी तरह श्रेयस रेड्डी की मौत की खबर भी कुछ सप्ताह पूर्व आई। निश्चय ही ये घटनाएं अमेरिका जैसे उस देश के लिए शर्मनाक हैं जो अपने आप को दुनिया का आदर्श लोकतांत्रिक देश होने का दावा करता है। ये घटनाएं स्टैच्यू आफ लिबर्टी की साख पर भी सवाल उठाने का काम कर रही हैं।

भोगवादी संस्कृति में पले अमेरिकी युवाओं को परिश्रमी व मेधावी भारतीयों की सफलता हजम नहीं हो रही। आज एक प्रतिशत भारतीय अमेरिकी अर्थव्यवस्था में प्रतिशत आयकर दे रहे हैं। दरअसल, अमेरिका में बेरोजगारी काफी है और स्थानीय छात्र भारतीयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे और वे स्पर्धा की बजाय हिंसाचार से खुन्नस निकालने का प्रयास करते हैं। वे स्वयं को यहां का मूलनिवासी बता कर अपनी दुर्दशा के लिए मेधावी भारतीयों को जिम्मेवार मानते हैं। रोजगार के अवसरों की कमी के चलते उत्पन्न असन्तोष के कारण बड़ी संख्या में अमेरिकी नशे और अपराध की दुनिया में उतर रहे हैं। यह दुखद ही है कि पिछले एक साल में अमेरिका में रह रहे पांच सौ बीस भारतीय मूल के लोगों के साथ नस्लीय हिंसा की घटनाएं हुई हैं जो विगत साल के मुकाबले में चालीस प्रतिशत अधिक हैं। हिंसा की चपेट में केवल छात्र ही नहीं बल्कि वहां नौकरी कर रहे और वहां बस चुके लोग भी शामिल हैं।

अतीत में जाएं तो पता चलेगा कि भारतीयों का अमेरिकी प्रवास काफी पुराना है। साल 1900 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में दो हजार से अधिक भारतीय थे, मुख्यतरू कैलिफोर्निया में। आज, भारतीय अमेरिकी संयुक्त राज्य अमेरिका में दूसरा सबसे बड़ा अप्रवासी समूह हैं। जनगणना ब्यूरो द्वारा संचालित 2018 अमेरिकी सामुदायिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार संयुक्त राज्य में रहने वाले भारतीय मूल के 4.2 मिलियन लोग हैं। जैसे-जैसे भारतीय अमेरिकी समुदाय की प्रोफाइल बढ़ी है, वैसे ही इसका आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव भी बढ़ा है।

वहां की हर पार्टी की सरकारों में भारतीयों की संख्या काफी सराहनीय रही है। ट्वीटर (एक्स) के सीईओ पराग अग्रवाल हैं तो गूगल के सीईओ सुन्दर पिचाई हैं जिनकी वार्षिक आय 242 मिलियन डॉलर है। पिचाई 2015 में गूगल के सीईओ बने थे। आज गूगल क्रोम सबसे पॉपुलर इंटरनेट ब्राउजर है और इसका श्रेय पिचाई को ही जाता है। इसके साथ ही गूगल हर सर्च से करीब हर मिनट 2 करोड़ रुपये की कमाई करता है। सत्या नडेला वर्ष 2014 में माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ बने थे। वर्तमान में कम्पनी का बाजार पूंजीकरण करीब 2.53 खरब डॉलर है। नडेला की आय 23 लाख डॉलर पहुँच गई। नडेला को ग्लोबल इंडियन बिजनेस आइकॉन का सम्मान भी मिल चुका है। भारतीय मूल के अरविन्द कृष्णा 2020 से अमेरिका की बड़ी कम्पनी इण्टरनेशनल बिजनेस मशींस के सीईओ हैं। इस कम्पनी की बाजार पूंजी 8 लाख करोड़ रुपए से ऊपर है।

भारतीय मूल के शान्तनु नारायण 2007 से एडॉब इंक के सीईओ हैं। इसके अलावा अमेरिका की प्रमुख फूड और बेवरेज कम्पनी पेप्सीको में इन्दिरा नूई लगभग 12 साल तक सीईओ बनी रहीं। नूई के 12 साल के कार्यकाल में पेप्सिको की आय में 80 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई। वर्तमान में भारतीय मूल के जो लोग अमेरिकी टेक कम्पनियों को सम्भाल रहे हैं उनकी कुल बाजार सम्पदा लगभग 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है। माइक्रोसॉफ्ट के 34 प्रतिशत कर्मी भारतीय मूल के लोग हैं। अमेरिका के वैज्ञानिकों में भी 12 प्रतिशत भारतीय हैं और नासा के तो 36 प्रतिशत वैज्ञानिक भारतीय मूल के हैं। भारतीयों की भूमिका अमेरिका के विकास में गिनाने बैठें तो शायद ये चर्चा कभी खत्म न हो। ये भारतीय हैं जो अमेरिका को विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और अमेरिका भी इस बात को स्वीकार करता है।

भारतीय किसी की कृपा या दया पर नहीं बल्कि अपनी योग्यता, परिश्रम व मेधा के बल पर मौजूदा मुकाम पर पहुंचे हैं। असल में पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प की संकीर्ण दक्षिणपन्थी सोच जो वहां के युवाओं में तेजी से फैल रही है और यह मानती है कि अमेरिका पर केवल वहां के निवासियों का ही अधिकार है। ऐसी सोच रखने वालों को एक बार अमेरिका के असली मूलनिवासियों के बारे भी सोचना चाहिए जो आज लुप्तप्राय प्रजाति में शामिल हो चुके हैं। अमेरिका में आज जो भी हैं वो सभी बाहर से आए लोग हैं और अपने परिश्रम से आगे बढ़े हैं। वहां के युवाओं को भारतीयों से ईर्ष्या करने की बजाय इनसे सीख व प्रेरणा लेनी चाहिए।

Rakesh Sain, Jallandhar


Mob. 77106-55605

Saturday, 9 March 2024

भारत एक राष्ट्र है न कि राज्यों का गठबन्धन

 

गत दिनों विपक्षी दलों के ‘इण्डी’ गठजोड़ के मुख्य घटक  दल द्रविड़ मुन्नेत्र कडग़म (डीएमके) के सांसद श्री ए. राजा ने विवादित ब्यान दिया कि ‘हमें अच्छी तरह समझ लेना चहिए कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। एक राष्ट्र का अर्थ है एक भाषा, एक परम्परा और एक संस्कृति। भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि उप-महाद्वीप है।’ उन्होंने तमिलनाडू, मलयालम, उडिय़ा की भाषाई, खानपान व पहनावे की विविधता को विभिन्नता व अलगव बता कर भारत को कई नेशन् का संघ बताया।

ए. राजा ने जो कहा उसे वैचारिक भटकाहट कहना अतिशयोक्ति न होगा। अक्सर अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग इस तरह की गलती कर जाते हैं जो राष्ट्र और अंग्रेजी में उसके आधे-अधूरे अनुवाद नेशन के बीच अन्तर नहीं समझ पाते। भारतीय दृष्टिकोण में संस्कृत साहित्य अनुसार, राष्ट्र शब्द की व्युत्पत्ति ‘रज’ धातु से हुई है, 
‘राजते दिप्यते प्रकाशते शोभते इति राष्ट्रम्’ 
अर्थात जो स्वयं दैदिप्यमान होने वाला है वह राष्ट्र कहलाता है। पश्चिम ने इस शब्द का अनुवाद ‘नेशन’ के रूप में किया है जो लैटिन भाषा के शब्द ‘नेशियो’ से आया है। नेशियो का अर्थ पैदा होना या जन्म लेना है, इस प्रकार ‘नेशन’ उस मानव समूह को कहते हैं जो जाति, भाषा, धर्म और परम्परा के रूप में एक हो। अंग्रेजी में ‘नेशन’ शब्द के जो अर्थ हैं वह राष्ट्र की तुलना में संकीर्ण व सीमित अर्थों वाले हैं अर्थात अंग्रेजी में राष्ट्र शब्द का समूचित अनुवाद उपलब्ध नहीं। यहीं से पैदा होती है वैचारिक असमंजस की स्थिति जिससे बड़े-बड़े विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं व विभाजनकारी शक्तियां इस भ्रम का प्रयोग देश को तोडऩे के काम में करती हैं।
डीएमके सांसद को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत शब्द कहते ही हमारे सामने एक भौगोलिक चित्र के साथ-साथ हजारों वर्षों की सांस्कृतिक धरोहर की अनुभूति आ जाती है। विष्णुपुराण में भी भारत के भौगोलिक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है - 
उत्तरंयत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:।। 
अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो भूमि स्थित है, उसे भारत भूमि कहते हैं और इस पवित्र भूमि पर निवास करने वालों को भारतीय कहा जाता है। भारत को एक राष्ट्र के रूप में मात्र इसलिए नहीं जाना जाता कि वह एक भू-भाग है, बल्कि इसलिए भी जाना जाता है कि भारत विश्व की सबसे पुरानी एवं जीवित संस्कृतियों में से एक है जिसमें विविधताओं के साथ-साथ यहां की संस्कृति में एकात्मभाव देखने को मिलता है। यह एक स्थापित सत्य है कि भारत में विभिन्न क्षेत्र, मत सम्प्रदाय, असंख्य भाषाएं, बोलियां, वेश-भूषा, जातियां, रीति-रिवाज, आदि पाए जाते हैं, उसके बावजूद भी पुरातनकाल से ही हमारी संपूर्ण रचना एकात्मता पर आधारित है। यह विविधता हमारी वैचारिक सहिष्णुता व विशाल भू-गौलिक स्थिति के कारण है, इनमें कहीं कोई टकराव नहीं।
भारत को राष्ट्रीयताओं का समूह बताने वाला चिंतन विदेशी और नास्तिक वामपन्थी विचारधारा का प्रतिबिम्ब है, जिसमें वह भारत को अपने उद्भवकाल से भाषाई-सांस्कृतिक आधार पर बहुराष्ट्रीय राज्यों का समूह मानता आया है, साथ ही यहां की आधारभूत हिन्दू परम्पराओं और उसकी समस्त ब्रह्म्राण्ड को जोडऩे वाली संस्कृति से घृणा करता है। इसी दर्शन से तमिलनाडू की राजनीति भी अभिशप्त है जो अर्य-द्रविड़ रूपी अलगाववादी सिद्धान्त से प्रभावित है। निर्विवाद रूप से भारत विविधताओं से भरा और बहुलतावाद से ओतप्रोत राष्ट्र है जिसे इसकी प्रेरणा अनादिकाल से यहां की सनातन संस्कृति और कालजयी परम्परा से मिल रही है।  गांधी जी ने 1909 में अपनी पुस्तक ‘हिन्द-स्वराज्य’ में एक स्थान पर लिखा है, ‘दो अंग्रेज जितने एक नहीं, उतने हम भारतीय एक थे और एक हैं। विदेशियों के दाखिल होने से राष्ट्र खत्म नहीं हो जाते।’
भारत सहस्राब्दियों से सांस्कृतिक रूप से एक राष्ट्र रहा है। इसकी संस्कृति में ऊपरी तौर पर जो विविधता दिखाई देती है वह एक विशाल राष्ट्र की भू-गौलिक परिस्थितियों के चलते है। हमारे उत्तर में हिमअच्छादित पर्वत हैं तो उसकी तलहटी पर गंगा-जमना के उपजाऊ मैदान, पश्चिम में विशाल रेगिस्तान है तो पूर्व में अलांघ्य वन और दक्षिण में पठार। 500-600 वर्षों से पहले तक राज्यों को एक-दूसरे से सम्पर्क और तारतम्य स्थापित करने में भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। तब पर्याप्त यातायात और संचार व्यवस्था नहीं होने पर केन्द्रीय रूप से राज्यों को नियन्त्रित करना दुस्साध्य था, इसलिए राज्यों का बनना-बिगडऩा स्वाभाविक था। किन्तु सबके लिए भारत भावनात्मक रूप से और लोकमानस के चिन्तन में सदैव एक राष्ट्र ही रहा। चाणक्य अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में कहते हैं कि हमारे जनपद चाहे विभिन्न हों परन्तु हमारा राष्ट्र एक और माँ भारती सबकी एक ही है।
कुछ पश्चिमी व वामपंथी चिंतक भारत की तुलना यूएसएसआर (रूस का पुराना नाम) से करते हैं और यह बताने का प्रयास करते हैं कि इसी तरह भारत कई राष्ट्रीयताओं का समूह है। केवल इतना ही नहीं ये लोग इसी आधार पर भारत का विभाजन भी चाहते हैं। कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडू, देश के पूर्वी राज्यों में चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों को विदेशों से समर्थन और मध्य भारत में नक्सली आतंक को वामपन्थी शक्तियों का सहयोग मिलना इसी बात का प्रमाण है कि विखण्डनकारी शक्तियां गलत विमर्श स्थापित कर भारत की एकता-अखण्डता को छिन्न-भिन्न करना चाहती हैं। देशवासियों, विशेषकर राजनेताओं को इस प्रकार की राष्ट्रविच्छेदक शक्तियों से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि जो राजनेता उनकी हां में हां मिला कर इस तरह का दुष्प्रचार करता है उसके अधिकतर समर्थक उसी का अन्धानुकरण करते हैं। राष्ट्र के रूप में भारत प्राचीनकाल से एक था, आज भी एक है और सृष्टि के अंत तक एक ही रहेगा।







- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्म कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ा,
जालन्धर।
सम्पर्क : 77106-55605

Saturday, 2 March 2024

यात्रा से भटकी कांग्रेस

 


पंजाबी में कहावत है- ‘बुहे आई जन्न, विन्नो कुड़ी दे कन्न’ अर्थात दरवाजे पर बारात आने पर लडक़ी के कान बींधना साधारण शब्दों में कहें तो असमय कार्य करना। हिन्दी में इसकी समानार्थी कहावत है ‘फेरों के समय जूएं देखना’, कांग्रेस के साथ आजकल यही कुछ होता दिख रहा है, आम चुनाव सिर पर हैं और पार्टी जुटी है न्याय यात्रा में। स्कूली भाषा में बोलें तो फाइनल परीक्षा के समय एजुकेशनल टूअर पर निकलना। देखने में आ रहा है कि इस यात्रा में न केवल कांग्रेस बल्कि वह ‘इण्डी गठजोड़’ भी भटकता और झटके खाता नजर आ रहा है जो अभी भ्रूण अवस्था में भी नहीं आया है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की दूसरी यात्रा 14 जनवरी को मणिपुर से शुरू हुई और 20 मार्च को मुम्बई में संपन्न होगी। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हो रही यह यात्रा 67 दिन में 6713 किलोमीटर लम्बा सफर तय करने के लिए देश के 15 राज्यों के 110 जिलों और 100 लोकसभा क्षेत्रों से गुजरेगी।  यह राहुल गांधी की दूसरी यात्रा है। इससे पहले उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा निकाली थी, जो 7 सितंबर, 2022 को कन्याकुमारी से शुरू हो कर 30 जनवरी, 2023 को कश्मीर में संपन्न हुई। 136 दिन की उस यात्रा में 12 राज्यों और दो केन्द्र शासित प्रदेशों के 75 जिलों और 76 लोकसभा क्षेत्रों से गुजरते हुए चार हजार किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय किया गया था। पहली यात्रा पदयात्रा ही थी, जबकि न्याय यात्रा में हर दिन आठ से दस किलोमीटर पैदल चल कर शेष सफर विशेष वाहनों से तय किया जाएगा। राहुल की इस नई यात्रा का राजनीतिक आकलन तो लोकसभा चुनाव के बाद ही हो पाएगा लेकिन पहली यात्रा को एक नजरिए से देखें तो उसका परिणाम मिलाजुला रहा। कर्नाटक और तेलंगाना विधानसभा चुनावों में कांग्रेस जीत गई तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसे करारी हार झेलनी पड़ी। कांग्रेस को विश्वास है कि अबकी बार न्याय यात्रा परिवर्तनकारी साबित होगी। राहुल गान्धी की इन दो यात्राओं के बीच एक बड़ी घटना यह हुई है दो दर्जन से भी ज्यादा विपक्षी दल मिल कर नया ‘इंडि गठबंधन’ बना चुके हैं। लेकिन इस बार की यात्रा में सबसे बड़ी चूक साबित हो सकती है इसका समय, पहली यात्रा के समय देश के कुछ राज्यों में ही विधानसभा चुनाव होने थे परन्तु अब इस यात्रा के समय आम चुनाव होने हैं जो हर राजनीतिक दल के लिए जीवन-मरन का प्रश्न माने जाते हैं। अभी सबसे बड़ा सवाल न्याय यात्रा के समय को लेकर ही उठ रहा है। मार्च के दूसरे पखवाड़े में जब यह यात्रा संपन्न होगी, तब तक शायद देश में लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम घोषित हो चुके होंगे या होने वाले होंगे। ऐसे में फरवरी और मार्च के महीने कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव की तैयारी के हिसाब से महत्वपूर्ण समय है। ऐसे समय पार्टी की पूरी ऊर्जा केवल यात्रा के आयोजन और उससे जुड़े विवादों से जूझने में लग जाए, यह राजनीतिक आत्महत्या करने जैसा होगा।

यात्रा में केवल कांग्रेस ही नहीं भटकी लगता है वह ‘इण्डि गठजोड़’ भी भटकता और झटके खाता दिख रहा है जो अभी भ्रूण अवस्था में भी नहीं आया। सभी जानते हैं कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एकला चलो का राग अलाप चुकी हैं तो देश की नई-नई परन्तु अति महत्वाकांक्षी आम आदमी पार्टी पंजाब, हरियाणा व दिल्ली में कांग्रेस के साथ समझौते से लगभग इंकार कर चुकी है। ‘इण्डि गठजोड़’ को सबसे करारा झटका दिया है बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने जो कहां तो कल तक खुद को इस गठजोड़ का संयोजक मान कर चल रहे थे और अब वे भाजपा के पाले में पलटी मार चुके हैं। केवल इतना ही नहीं गठजोड़ के अन्य दलों में भी इसके भविष्य को लेकर संदेह पैदा होने लगा है।

आज फरवरी का महीना शुरू हो चुका है,  ‘इण्डि गठजोड़’ की सफलता के लिए अभी तक संयोजक का नाम तय और सीटों के बण्टवारे पर बातचीत का काम पूरा हो जाना चाहिए था, परन्तु कांग्रेस के लिए ये कार्य अभी बहुत दूर की कौड़ी लगती है। ‘इण्डि गठजोड़’ के ही अभी तक सहयोगी माने जाने वाले दल तृणमूल कांग्रेस के शासन बंगाल में राहुल गान्धी की यात्रा पर हुई कथित पत्थरबाजी बताती है कि इस यात्रा के लिए गठजोड़ के सहयोगी दलों को न तो विश्वास में लिया गया और न ही उनका सहयोग मांगा गया। इतनी दयनीय स्थिति में भी कांग्रेस का अहं अभी गया नहीं लगता, उसे लगता है कि गठजोड़ में केवल वही एकमात्र दल है जिसकी उपस्थिति देशव्यापी है। तभी तो अपने संभावित सहयोगी दलों को यात्रा से दूर रखा गया। एक तरफ अहं जहां गठजोड़ में बाधा बनता दिख रहा है वहीं यात्रा का बेमौसमी आयोजन कांग्रेस को भी भटका रहा है। 
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि न्याय यात्रा कांग्रेस के लिए शेर की सवारी हो गई है, जिसको न तो जारी रखना और न ही बीच में छोडऩा खतरे से खाली है। पार्टी की सारी शक्तियां अप्रत्यक्ष रूप से राहुल गांधी के हाथों में सीमित हैं तो यात्रा का नेतृत्व भी वही कर रहे हैं। राहुल की अनुमति के बिना न तो पार्टी के अन्य नेता संगठन को लेकर कोई निर्णय कर पा रहे हैं और न ही राहुल गांधी को इसके लिए समय मिल रहा है। यही दुविधा कांग्रेस को भटका रही है और ‘इण्डि’ गठजोड़ को झटके दे रही है। चुनाव सिर पर आ चुके हैं, श्रीराम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा से कमण्डल, पिछड़ा वर्ग के महानायक माने जाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दे कर मण्डल साधने और ‘इण्डि गठजोड़’ के स्तम्भ नीतिश कुमार को साध कर भाजपा ने बड़ी बढ़त हासिल कर ली है, उससे कांग्रेस के नेतृत्व को इस बारे अवश्य सोचना चाहिए कि यात्रा पार्टी के भले के लिए निकालनी है या भटकने के लिए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्म कालोनी,
डाकखाना लिदड़ा,
जालन्धर।
सम्पर्क : 77106-55605

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...