एक छोटा सा प्रसंग है, आज के चिकित्सक सुनें तो। सौराष्ट्र के बढ़वाना राज्य के झंडू भट्ट नेकदिल और अनुभवी वैद्य थे। एक बार महाराज ठाकुर साहब बाल सिंह बहुत बीमार पड़ गए। किसी भी वैद्य से फर्क न पड़ते देख ठाकुर जी की चिकित्सा के लिए जामनगर से झंडू भट्ट को बुलाया गया। 3 महीने बाद एक दिन ठाकुर साहब ने भट्ट से कहा कि आप औषधि और उपचार आदि का बिल क्यों नहीं देते हैं? भट्ट ने हंसते हुए कहा कि ऐसी जल्दी भी क्या है? आप अच्छे हो जाएं फिर आप जो कुछ देंगे मुझे स्वीकार होगा। एक दिन ठाकुर जी स्वर्ग सिधार गए। उनके अंतिम संस्कार के बाद भट्ट जी बिना किसी से कुछ कहे-सुने अपने घर लौट आए। बाद में राज्य की ओर से भट्ट जी को 2 हजार रुपए का एक चैक भेजा गया। भट्ट जी ने वह लौटाते हुए राज्य अधिकारी को लिखा, 'ठाकुर साहब थोड़े दिन के मेहमान हैं। वैद्य का धर्म निभाते हुए मैं उनकी सेवा करता रहा लेकिन जो रोगी मेरे हाथों से स्वस्थ नहीं होता मैं उसका पैसा नहीं लिया करता।' लेकिन धनवंतरि की इस पावन धरा पर आज कुछ ऐसे अस्पताल भी हैं जिनका हाथ मरीज की नब्ज पर और नजरें जेब पर टिकी रहती हैं।
भारतीय संस्कृति में चिकित्सा व शिक्षा को जनसेवा का साधन माना जाता रहा है। ईश्वर के बाद किसी न्यायाधीश के पास ही मौत देने का अधिकार है परंतु जीवन बचाने का दैवीय कार्य केवल चिकित्सक ही कर सकता है। दर्द के मारे राम-राम चिल्लाते मरीज के सामने जब चिकित्सक आता है तो वह मरीज ईश्वर को यह समझ कर पुकारना बंद कर देता है कि सफेद कपड़ों में हाथ में स्कैथोस्कोप लिए स्वयं ईश्वर उसके सम्मुख उपस्थित हो चुका है। अपनी संस्कृति जहां चिकित्सक को जीवन रक्षक ईश्वर का दर्जा देती है वही उसे जनकल्याण, रुग्णों की निस्वार्थ सेवा का दायित्व भी सौंपती है। ऋग्वेद चिकित्सक को आदेश देता है -
युवो रथस्य परि चक्रमीयत इमान्य द्वामिष्णति।
अस्मा अच्छा सुभतिर्वा शुभस्पती आधेनुरिव धावति।।
अर्थात - हे अश्वनी कुमारो! आपके दिव्य रथ स्वास्थ्य-सेवा चक्र का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है। चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याणकारी होना चाहिये। उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समादान हेतु तत्पर। लेकिन हरियाणा के गुरुग्राम के अस्पताल फोर्टिस ने सात साल की एक डेंगू की मरीज बच्ची के इलाज का सोलह लाख रुपए का बिल उसके परिजनों को देने के बाद नहीं लगता कि आज का चिकित्सक गाय की भांति आप तृण और घासफूस खा कर भी समाज को अमृत तुल्य दूध दे रहा है अर्थात गाय की भांति सेवा कर रहा है। यह केवल गुरुग्राम की ही नहीं बल्कि पूरे देश की कहानी बन चुकी है। जब से साहूकारों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में पैर रखा या फिर यूं कह लें कि स्वास्थ्य सेवाओं का अंध निजीकरण हुआ मरीजों का शोषण तब से शुरु हुआ और आज यह अपने चरम पर पहुंच गया है। लचर कानूनी व्यवस्था, विज्ञापनों के लालची मीडिया, अस्पताल संचालकों की ऊंची पहुंच के चलते साधारण मरीज व उसके परिजन इन धनकुबेरों के आगे बेबस होने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते। वैसे खुशी की बात यह है कि फोर्टिस का उक्त मामला मीडिया की सक्रियता से ही प्रकाश में आया है परंतु इस तरह की घटनाएं आज सामान्य हो चुकी हैं जो सामने नहीं आ पाती। प्राईवेट अस्पतालों को राजनीतिकों, पूंजीपतियों और अन्य ताकतवर लोगों का संरक्षण होने से उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत किसी सामान्य नागरिक की कैसे हो सकती है। फोर्टिस अस्पताल के ताजा मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय ने जरूर संज्ञान लिया है और उसने सभी प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र भेज कर अस्पतालों पर कड़ी नजर रखने के निर्देश दिए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की ओर से जारी पत्र में कहा गया है कि चिकित्सीय संस्थाओं द्वारा की जाने वाली गड़बडिय़ों से न केवल मरीज की स्थिति बल्कि स्वास्थ्य देखभाल और उपचार लागत में जवाबदेही को लेकर भी चिंताएं पैदा होती हैं। पत्र में क्लीनिकल संस्थापन (पंजीकरण और नियमन) अधिनियम, 2010 का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने को कहा गया है, लेकिन सवाल पैदा होता है कि सरकारें तभी ही क्यों सक्रिय होती हैं जब इस तरह की घटनाएं घट जाएं। अस्पतालों के नियंत्रण, इन पर नजर रखने की प्रणाली आखिर प्रभावशाली क्यों नहीं है?
दुखद तथ्य यह है कि इन अस्पतालों के खिलाफ शिकायतों की कोई प्रभावशाली और निष्पक्ष व्यवस्था नहीं है। ले-देकर पीडि़त व्यक्ति के पास उपभोक्ता फोरमों का सहारा होता है। इन फोरमों की हालत यह है कि वहां शिकायतों का निपटारा लंबे समय तक नहीं हो पाता। ज्यादातर फोरमों में सदस्यों की नियुक्ति भी समयानुसार नहीं होती। ये सारी परिस्थितियां अस्पतालों के पक्ष में जाती हैं, जिसका फायदा वे उठाते रहते हैं। ऐसे में कानूनों और नियमों का पालन कौन कराएगा। हजारों मामलों में इक्का-दुक्का लोग ही न्यायालय जाने की हिम्मत जुटा पाते हैं। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, जिस तरह वे चिकित्सा-व्यवस्था को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ रही हैं और स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं, उसी का नतीजा है कि निजी अस्पताल बेलगाम होते जा रहे हैं। वे सोचते हैं कि सरकारें कुछ भी करें, मरीजों के पास उनकी तरफ रुख करनेके अलावा कोई चारा नहीं है।
दूसरी तरफ देखा जाए चिकित्सा शिक्षा के साथ-साथ समूची शिक्षा प्रणाली के महंगी होने के कारण समाजसेवा, जनकल्याण, सामाजिक जिम्मेवारी, लोकलाज, धर्म और ईमानदारी जैसे शब्द अपनी सार्थकता गंवा चुके हैं। जब कोई युवा पचास हजार का प्रोस्पेक्टस खरीद, करोड़ रूपये के करीब कैपिटेशन, लाखों की पाठ्यक्रम की व अन्य अनाप-शनाप फीसें भर कर डाक्टर की डिग्री हासिल करता है। इसके बाद करोड़ों खर्च कर फाइव स्टार होटलनुमा अस्पताल खोलता है और लाखों रूपये स्टाफ के वेतन पर खर्च करता है तो उससे इंसानीयत की उम्मीद करना ही बेमानी हो जाता है। वास्तव में व्यापारियों के हाथों में सिमटती जा रही शिक्षा पद्धति देश में डाक्टर के रूप में कसाई, कमीशनखोर इंजीनियर, भ्रष्ट नौकरशाह पैदा कर रही है। ऊपर से चिकित्सा के क्षेत्र में आए मुनाफाखोरों, राजनेताओं के गठजोड़ ने हालत को और भी गंभीर कर दिया है। इस सारे दुष्चक्र के बीच पिस रहा आम नागरिक है।

- राकेश सैन
32, रंधावा मसंदा फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324
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