अरदास में श्री गुरु ग्रंथसाहिब, दसों गुरुओं, चारों गुरुपुत्रों के साथ-साथ चालीस मुक्तों को भी श्रद्धापूर्वक याद किया जाता है। वैसे तो सिख पंथ के इतिहास का एक-एक अक्षर शूरवीरता, बलिदान, मानव कल्याण, जनसेवा और देशभक्ति के गुणों से सराबोर है परंतु इनमें चालीस मुक्तों का इतिहास अपने आप में विलक्षण स्थान रखता है। यह इतिहास है देश की महिलाओं की बहादुरी का जिन्होंने गुरुघर से मुख मोड़ चुके पुरुषों की गैरत को ललकारा, यह प्रसंग संदेश है कि अगर जीवन-मरन से चक्र से मुक्ति चाहिए तो गुरु से कभी मुख न मोड़ें, किसी कारण विमुख हो गए तो दोबारा उसका पल्ला पकडऩे में संकोच न करें और अंतिम सांस तक अपने गुरु, धर्म, समाज व देश की सेवा करते रहें। इन उद्देश्यों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में नहीं झिझकें और चाहे इस मार्ग पर चलते हुए जान ही क्यों न चली जाए। बहुत सारगर्भित है उन चालीस मुक्तों की कथा जिनको आज मकर संक्रांति पर पूरा देश श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहा है और श्री मुक्तसर साहिब में बड़ा भारी मेला आयोजित किया जा रहा है।
आखिर कौन हैं ये चालीस मुक्ते? असल में ये चालीस मुक्ते वे योद्धा हैं जो किसी कारण युद्ध के दौरान श्री गुरु गोबिन्द सिंह का साथ छोड़ गए, परन्तु घर पहुंचने पर उनकी पत्नियों व परिवार के सदस्यों ने इन्हें ऐसी फटकार लगाई कि उनकी अन्तरात्मा गुरु की याद में बिलख उठी। फटकार के बाद चालीसों सैनिक गुरुजी की शरण में लौट आए और हमलावर मुगल सेना का भीषण संहार किया। देश-धर्म के प्रति इनके इस समर्पण को देखकर गुरु गोबिन्द सिंह ने इनको माफ कर दिया (अर्थात मुक्त कर दिया) इतिहास में यही चालीस वीर चालीस मुक्ते कहलाए।
सन् 1704 में चमकौर की गढ़ी के गौरवशाली प्रकरण के बाद गुरु गोबिन्द सिंह जी माछीवाड़ा के जंगलों में आ गए। वहां मुगल सेना उनका पीछा कर रही थी। 1705 में सिख व मुगलों का मुक्तसर के पास भयंकर संघर्ष हुआ। यहीं पर जत्थेदार महा सिंह के नेतृत्व में माझा इलाके के चालीस सिख सैनिक रोज-रोज की मुसीबतों से घबराकर गुरु जी का साथ छोड़ गए। जाते समय महा सिंह गुरुजी को यह पत्र भी लिख गये- आज से न तो वे उनके गुरु हैं और न ही हम सिख हैं। इतिहास में इस पत्र को बेदावा के नाम से जाना जाता है। जब ये चालीस सिख अपने घर पहुंचे तो घर की महिलाओं ने इनको धिक्कारते हुए कहा कि इस मुसीबत की घड़ी में जब गुरुजी को उनकी सबसे अधिक जरूरत थी वे गुरुजी को अकेले कैसे छोड़ आए। और महिलाओं ने भगोड़े सैनिकों को चूडिय़ां व घागरे भेंट कर घर का कामकाज करने को कहा। वे खुद मुगलों की जिहादी फौज से लोहा लेने की तैयारी करने लगीं। पत्नियों-माताओं की फटकार ने इन सैनिकों की आंखें खोल दीं और वे उल्टे पांव रणक्षेत्र की ओर लौट गए। बताया जाता है कि ये चालीस सैनिक मुगल सेना पर काल बन कर टूट पड़े और हमलावर मुगलों के पांव उखाड़ दिए। एक ऊंचे टीले पर बैठे गुरु गोबिन्द सिंह अपनी सेना की इस बहादुरी के कारनामे को देख रहे थे कि इसी दौरान उनकी नजर रणक्षेत्र में अंतिम सांसें ले रहे योद्धा जत्थेदार महान सिंह पर पड़ी। गुरु ने अपने घायल शिष्य का सर गोद में रख लिया और सहलाने लगे। गुरुजी ने इन चालीस सिखों को माफ कर दिया और महान सिंह से कुछ मांगने को कहा। घायल महान सिंह ने गुरुजी को वह बेदावा फाडऩे को कहा जो वे जाते समय लिख कर दे गए थे। गुरुजी ने अपने प्रिय शिष्य की इच्छा पूरी की और उनको पाप मुक्त कर दिया। इतिहास में ये चालीस शहीद चालीस मुक्ते कहलाए और इनकी मुक्ति का स्थान मुक्तिसर अर्थात मुक्तसर कहा जाने लगा।
यह हमारी बहुत बड़ी असफलता है कि हम अपनी विरासत का उचित सम्मान नहीं कर पा रहे हैं। स्वच्छ भारत अभियान के सर्वेक्षण के अनुसार यही मुक्तसर साहिब देश के दस सबसे मलिन शहरों में शामिल है। अर्थात जिस पावन भूमि ने पूरी मानवता को गुरु को समर्पित पाक-साफ जीवन पद्धति दी आज वही धरती हमारी असफलता के कारण गंदगीयुक्त है, साफ-सफाई वहां की सबसे बड़ी आवश्यकता बनी हुई है। आओ हम संकल्प लें कि जहां भी जाएं वहां स्वच्छता का ध्यान रखें, लंगर भी लगाएं तो वहां साफ-सफाई रखें, जूठे पत्तलों, प्लास्टिक के गिलासों को इधर-उधर न फैलाएं बल्कि कूड़ेदान में डालें। हमारी ओर से स्वच्छता ही हमारे प्राणप्रिय गुरुओं के प्रति, महान बलिदानी चालीस मुक्तों के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी।
राकेश सैन
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वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
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