Wednesday, 17 January 2018

स्कूली प्रार्थना पर आपत्ति या संवैधानिक संकट को आमंत्रण


मध्य प्रदेश के निवासी विनायक शाह ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना अनिवार्य करने के आदेश को चुनौती दी है। इस पर न्यायालय ने केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है। याचिकाकर्ता का दावा है कि प्रार्थना से छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में बाधा पैदा हो रही है। धार्मिक आस्था पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है और छात्रों के सोचने-समझने की प्रक्रिया में इसे बैठाया जा रहा है। याचिकाकर्ता ने इस आदेश को संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के खिलाफ बताया है। ज्ञात रहे कि देश में 1125 केंद्रीय विद्यालय हैं जिनमें 11 लाख से अधिक विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। तीन विद्यालय विदेशों में भी चल रहे हैं। ऊपर से तर्कसंगत आने वाली उक्त बातें वास्तव में धरातल पर भोथरी हैं। वास्तव में प्रार्थना के बहाने देश में एक ऐसे संवैधानिक संकट व व्यर्थ की लंबी बहस को निमंत्रण देने का प्रयास हो रहा है जिसे हर देशवासी को समझना बहुत जरूरी है।


वैसे तो यह पूरी तरह से न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में है कि वह किस याचिका को स्वीकार करता या अस्वीकार, इस पर किंतु नहीं किया जा सकता। लेकिन उक्त याचिका विचारार्थ स्वीकृत होना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। देश क्या पूरी दुनिया में अभी तक ऐसा विश्लेषण या अनुसंधान सामने नहीं आया जिसमें बताया गया हो कि प्रार्थना करने से या किसी तरह की आस्था से व्यक्ति के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में बाधा पैदा हुई हो। इसके विपरीत कई बार मनोवैज्ञानिक विश्लेषण सामने आते रहे हैं कि प्रार्थना या आस्था व्यक्ति में सकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करती है जो जीवन के कई क्षेत्रों में सफलता का कुंजी बनता है। याचिका में प्रार्थना को लेकर जताई गई आशंका याचिकाकर्ता के मन की कल्पना अधिक प्रतीत होती है।

अब बात करते हैं उस आशंकित संवैधानिक संकट की जो इसके पीछे दबे पांव चला आरहा दिखाई दे रहा है। केंद्र सरकार ने जो प्रार्थना के आदेश दिए हैं उनमें 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' व 'सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:' सहित अनेक प्रार्थनाएं हैं। इनका अर्थ है- हे मां मुझे अंधकार से प्रकाश अर्थात अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चलो। दूसरे का अर्थ है-परमात्मन् आप हम दोनों गुरू और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें,हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। वैसे इन प्रार्थनाओं से किसी को आपत्ति है तो वह दुर्भाग्यपूर्ण ही है क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य ही प्रकाश अर्थात ज्ञान की प्राप्ति है। लेकिन याचिकाकर्ता को यह आपत्ति है कि यह प्रार्थनाएं उपनिषदों से ली गई हैं और संस्कृत में हैं जो एक धर्म विशेष से जुड़ी हैं। इस तरह का तर्क देते समय ध्यान रखना चाहिए कि संस्कृत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 344(1) व 351 में दर्ज अनुसूचित भाषाओं में से एक है और संविधान कोई धर्मग्रंथ नहीं है। जहां तक उपनिषदों की बात है तो वह किसी धर्मविशेष से जुड़े नहीं बल्कि देश की युगों पुरानी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इनका लेखन उस समय हुआ जब हिंदू शब्द प्रचलन में नहीं था। रही बात उपनिषदों के घोषवाक्यों की तो इसको देश के हर विभाग, हर शिक्षण संस्थानों, सरकारी संस्थानों ने अपना घोषवाक्य व लोगो बनाया हुआ है। खुद सर्वोच्च न्यायालय का घोष वाक्य है 'सत्यमेव जयते' जिसका संस्कृत विस्तृत रूप 'सत्यं एव जयते' है। इसका अर्थ है, कि सत्य की ही जीत होती है। यह मुण्डक उपनिषद् के मंत्र का अंश है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है -

सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयान:।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम॥

अर्थात अंतत: सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। रोचक बात है कि चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य 'प्रावदा वीत्येजी' (सत्य जीतता है) का भी समान अर्थ है। सर्वोच्च न्यायालय के लोगो में ध्येय वाक्य है 'यतो धर्मस्ततो जया: अर्थात जहां धर्म है वहीं विजय है। यह श्लोक श्रीमद्भगवत गीता से लिया गया है। जहां तक शिक्षण संस्थानों की बात करें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ध्येय वाक्य है 'ज्ञान-विज्ञानं विमुक्तये अर्थात ज्ञान-विज्ञान से विमुक्ति प्राप्त होती है। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) का घोषवाक्य है 'असतो मा सद् गमय' हमें असत से सत की ओर ले चलें। देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के घोषवाक्य वेदों, उपनिषदों से लिए गए हैं। 

केंद्र सरकार की हिंदी अकादमी का घोषवाक्य 'अहम् राष्ट्री संगमनी वसूनाम, डाक तार विभाग का 'अहर्निशं सेवामहे' अर्थ हम दिन रात सेवा करते हैं। सेना एयर डिफेन्स का लोगो 'आकाशेय शत्रुन जहि', नेशनल कौंसिल फॉर टीचर एजुकेशन का लोगो 'गुरु: गुरुतामो धाम:', लोकसभा का लोगो 'धर्मचक्र प्रवर्तनाय', धर्मचक्र के प्रवर्तन (आगे ले जाने) के लिए, वायु सेना का घोष 'नभ:स्पृशं दीप्तम्', सैन्य अनुसंधान केंद्र का लोगो 'बालस्य मूलं विज्ञानम्' विज्ञान ही बल का मूल (आधार) है। इसी तरह श्रम मंत्रालय का लोगो 'श्रम एव जयते'अर्थात श्रम ही विजयी होता है, दूरदर्शन का लोगो 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्', आल इंडिया रेडियो का लोगो 'सर्वजन हिताय सर्वजनसुखाय' अर्थात सबके हित के लिये, सबके सुख के लिये है। खुद लोकसभा व राज्यसभा की दीवारों पर उपनिषदों के अनेकों वाक्य अंकित किए गए हैं।

अगर याचिकाकर्ता की मांग को स्वीकार करते हुए उपनिषदों से ली गई संस्कृत भाषा की स्कूली प्रार्थना को धर्म विशेष से जोड़ कर देखा जाएगा तो कल को इसी आधार पर उक्त सभी विभागों के घोषवाक्यों पर लंबा विवाद और संवैधानिक संकट पैदा हो जाएगा। संवैधानिक संकट इसलिए क्योंकि इनमें से बहुत से विभाग कार्यपालिका के अंतर्गत आते हैं, लोकसभा और राज्यसभा विधानपालिका के तहत। संविधान निर्माताओं व नीति निर्धारकों ने लोकतंत्र के सभी अंगों के सभी विभागों को प्रेरणा देने के उद्देश्य से इन वाक्यों को उद्घोष बनाया न कि किसी धर्म या धर्मग्रंथ को प्रोत्साहन देने या हतोत्साहित करने के लिए। ज्ञात रहे देश के संविधान की प्रस्तावना में इसे धर्मनिरपेक्ष बताया गया है धर्मविमुक्त नहीं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा शिक्षा में सुधार के लिए करवाई गई राष्ट्रव्यापी बहस के दौरान देश के तमाम शिक्षाविदों ने नैतिक शिक्षा की जरूरत जताई है और इसी के आधार पर सरकार नैतिक मूल्य परक शिक्षा देने का कदम उठा रही है। इसका विरोध करना देश के जनमानस का विरोध है जो लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। वैसे मामला अदालत में विचाराधीन है और इस बात की पूरी संभावना है कि देश की सबसे बड़ी अदालत कुछ दिमागों की खुराफात व देश की व्यवस्था, लोकेच्छा के बीच न्याय के संघर्ष में रचनात्मक भूमिका निभाएगी।
राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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