फागोत्सव में वीतराग गा त्यौहार को बेरंग करना मेरा उद्देश्य नहीं। परंतु अपनी माटी, अपने लोगों से बिछुडऩे की जलन वही जानते हैं जो इस पीड़ा से गुजरते हैं। भक्त प्रह्लाद पहाड़ी से गिरा कर भी जिनके धर्म को डिगाया नहीं जा सका, नारायण के प्रति विश्वास को हाथी के पांव तले भी कुचला नहीं जा सका और न ही पाप की अग्नि उनके तप को जला सकी परंतु आज वो अपनी जन्मभूमि मुल्तान की विरहा की आग में जलने को विवश हैं। वही मुल्तान जिसे पुराणों में कश्यप नगरी बताया गया और आज पाकिस्तानी पंजाब का हिस्सा है। जिस समय पूरी दुनिया सच्चाई की जीत के प्रतीक होली पर्व को मना रही होगी उस समय प्रह्लाद की भक्ति की साक्षी धरा, नरसिंह अवतार के रूप में भगवान विष्णु की अवतारस्थली मुल्तान पर सन्नाटा पसरा होगा। जब से देश का विभाजन हुआ है हर साल होली पर प्रह्लाद आकर पूछते हैं क्यों छीन लिया गया उनकी जन्मभूमि को ? किसको सिंहासन की इतनी भूख थी जिसने भारत जैसे जीवंत राष्ट्र की छाती पर विभाजन रेखा खींच दी ? वह होली कब आएगी जब देश के हर प्रह्लाद को कामरूप से कसूर तक बिना रोक टोक आने जाने की छूट होगी?
नजर दौड़ाते हैं प्रह्लाद की जन्मभूमि मुल्तान के इतिहास पर। यह कभी प्रह्लाद की राजधानी था और उन्होंने ही यहां भगवान विष्णु का भव्य मंदिर बनवाया। मुल्तान वास्तव में संस्कृत के शब्द मूलस्थान का परिवर्तित रूप है, वह सामरिक स्थान जो दक्षिण एशिया व इरान की सीमा के चलते सैन्य दृष्टि से संवेदनशील था। यहां माली वंश के लोगों ने भी शासन किया और अलक्षेंद्र (सिकंदर) को यहीं पर भारतीय राजाओं के साथ युद्ध के दौरान छाती में तीर लगा जो उसकी मृत्यु का कारण बना। समय-समय पर इस नगरी पर अनेक हमलावरों ने आक्रमण किए। इस्लामिक लुटेरों ने प्रह्लाद के मंदिर को भी कई बार क्षतिग्रस्त किया और इसके पास भी हजरत बहाउद्दीन जकारिया का मकबरा बना दिया गया। इतिहासकार डॉ. ए.एन. खान के हिसाब से जब ये इलाका दोबारा सिक्खों के अधिकार में आया तो सिख शासकों ने 1810 के दशक में यहाँ फिर से मंदिर बनवाया।
मगर जब एलेग्जेंडर बर्निस इस इलाके में 1831 में आये तो उन्होंने वर्णन किया कि ये मंदिर फिर से टूटे फूटे हाल में है और इसकी छत नहीं है। कुछ साल बाद जब 1849 में अंग्रेजों ने मूल राज पर आक्रमण किया तो ब्रिटिश गोला किले के बारूद के भण्डार पर जा गिरा और पूरा किला बुरी तरह नष्ट हो गया था। बहाउद्दीन जकारिया और उसके बेटों के मकबरे और मंदिर के अलावा लगभग सब जल गया था। एलेग्जेंडर कनिंघम ने 1853 में इस मंदिर के बारे में लिखा कि ये एक ईंटों के चबूतरे पर काफी नक्काशीदार लकड़ी के खम्भों वाला मंदिर था। इसके बाद महंत बावलराम दास ने जनता से जुटाए 11,000 रुपये से इसे 1861 में फिर से बनवाया। उसके बाद 1872 में प्रह्लादपुरी के महंत ने ठाकुर फतेह चंद टकसालिया और मुल्तान के अन्य हिन्दुओं की मदद से फिर से बनवाया। सन 1881 में इसके गुम्बद और बगल के मस्जिद के गुम्बद की उंचाई को लेकर हिन्दुओं-मुसलमानों में विवाद हुआ जिसके बाद दंगे भड़क उठे। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में दंगे रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कुछ नहीं किया। इस तरह इलाके के 22 मंदिर उस दंगे की भेंट चढ़ गए। मगर मुल्तान के हिन्दुओं ने ये मंदिर फिर से बनवा दिया। ऐसा ही 1947 तक चलता रहा जब इस्लाम के नाम पर बंटवारे में पाकिस्तान हथियाए जाने के बाद ज्यादातर हिन्दुओं को वहां से भागना पड़ा। बाबा नारायण दास बत्रा वहां से आते समय वहां के भगवान नरसिंह की प्रतिमा ले आये। अब वो प्रतिमा हरिद्वार में है। टूटी फूटी, जीर्णावस्था में मंदिर वहां बचा है। सन 1992 के दंगे में ये मंदिर पूरी तरह तोड़ दिया गया। अब वहां मंदिर का सिर्फ अवशेष बचा है। सन 2006 में बहाउद्दीन जकारिया के उर्स के मौके पर सरकार ने इस मंदिर के अवशेष में वजू की जगह बनाने की इजाजत दे दी। इसपर कुछ सरकारी संगठनों ने आपत्ति दर्ज करवाई और अदालत से स्थगन ले लिया, जो अभी तक जारी है।
किसी ने ठीक ही कहा है 'हिंदू भाव जब जब भूले आई विपद महान-धरती खोई भाई बिछुड़े छिन गए धर्मस्थान'। आखिर क्या है वह हिंदू भाव, जिसके बारे कम्यूनिस्ट चीन का गुप्तचर विभाग कहता है कि हिंदुत्व न हो तो वह भारत के कई टुकड़े कर सकता है। कुछ लोग हिंदुत्व को केवल पूजा-पाठ, कर्मकांड व रिति-रिवाज से जोड़ते हैं तो कईयों के लिए यह सत्ता शिखर पर चढऩे-उतरने की सीढ़ी और बहुतों के लिए हेय का विषय। परंतु युगों से धरती के इस भू-भाग पर जो संस्कृति विकसित हुई है उसका नाम है हिंदुत्व। यह कोरी भावना नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या है। हिंदुत्व इस देश की संस्कृति है और पूरे देश की सांझी विरासत, जो इस देश को भावनात्मक सूत्र में पिरोती है, संगठित करती है। इतिहास साक्षी है कि देश के जिस-जिस भू-भाग पर हिंदू भाव अर्थात संस्कृति कमजोर हुई कालातीत में वह भाग भारत से अलग हो गया। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांगलादेश, म्यांमार सहित अनेकों उदाहरण हैं कि हम वहां पर अपनी संस्कृति की रक्षा नहीं कर पाए और परिणामस्वरूप हम खुद असुरक्षित हो गए, पलायन करना पड़ा।
वर्तमान में भी अपनी संस्कृति के समक्ष कई चुनौतियां हैं। आत्मविस्मृति, आत्मनिंदा आज अपने भारतीय समाज में ट्यूमर की भांति पैदा हो चुके हैं। समाज अपनी जड़ों से कट रहा है और मूल से उखड़ा हुआ समाज आत्मनिंदा से ग्रसित हो ही जाता है। वर्तमान की सबसे बड़ी संस्कृति केवल और केवल धनार्जन बन चुकी है जो गलत भी नहीं क्योंकि धन के बिना कुछ संभव नहीं, लेकिन केवल धन-संपदा से ही कोई समाज व राष्ट्र पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं रह पाता। हम क्यों भूलते हैं कि कभी हिंदू बाहुल्य रहा मुल्तान दुनिया का एकमात्र वह स्थान है जिसकी मिट्टी भी पंसारियों के मर्तबानों में रख कर बेची जाती रही है। पाकिस्तान से पलायन कर भारत आने वाले हिंदू-सिख व्यापारी, धनाढ्य और बड़े-बड़े जिमींदार थे। अगर केवल धन से सुरक्षा होती तो उन्हें वहां से क्यों भागना पड़ता। जब तक हम अपनी संस्कृति व सांस्कृतिक मूल्यों का पालन नहीं करते राष्ट्र समाज के रूप में सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। सांस्कृतिक पर्व होली में सभी रंग एक ही रंग में भस्मीभूत हो एकता के सूत्र, संगठन के रूप में एकजुट होने का संदेश देते हैं। एकता और संगठन ही हमारी संस्कृति, हमारी ताकत है।
राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा
जालंधर।
मो. 097797-14324
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