कांग्रेस पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि राहुल गांधी अब उनके भी बॉस हैं। पार्टी की संसदीय दल की बैठक में उन्होंने अपनी भूमिका को लेकर तमाम शंकाओं और अफवाहों पर पूर्ण विराम लगाने की कोशिश की। उन्होंने कहा, ''हमारे पास नए कांग्रेस अध्यक्ष हैं और मैं आपकी व खुद अपनी ओर से उन्हें शुभकामनाएं देती हूं। राहुल गांधी अब मेरे भी बॉस हैं। इस बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।'' इस ब्यान के बाद प्रश्न उठना स्वभाविक है कि एक लोकतांत्रिक देश में किसी लोकतांत्रिक दल के अध्यक्ष को सार्वजनिक रूप से 'बॉस' कहा जाना आखिर कितना लोकतांत्रिक है?
अंग्रेजी के बॉस शब्द के हिंदी में मालिक, शासक, हाकिम और स्वामी सहित कई इसी तरह की भावना लिए अर्थ हैं। रोचक बात है कि चाहे आज बहुत से नेताओं पर उक्त व्याख्या स्टीक बैठ सकती है परंतु हर कोई सार्वजनिक रूप से अपने आप को बॉस कहलवाने से गुरेज करेगा। लेकिन सोनिया गांधी ने राहुल को कांग्रेस का अध्यक्ष कहने की बजाय बॉस कह कर पार्टी की अब तक की स्वामी और दासत्व वाली मानसिकता पर पहली बार ठप्पा लगा दिया लगता है। लोकतंत्र जनता की जनता के लिए और जनता के लिए प्रणाली एक सर्वमान्य परिभाषा है और नेताओं को जनसेवक माना जाता है परंतु सोनिया गांधी ने जो संदेश दिया है वह जनतंत्र के बिलकुल विपरीत है। बॉस किसी कंपनी में हो सकते हैं परंतु राजनीतिक दल में उनके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
इटली की मूल नागरिक होने के चलते हिंदी का अल्पज्ञान होने के कारण सोनिया गांधी गुजरात चुनाव में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मत का सौदागर' कहने की बजाय 'मौत का सौदागर' कह गईं परंतु अंग्रेजी भाषा में तो वो पूर्ण रूप से पारंगत हैं। यह नहीं माना जा सकता कि वे बॉस शब्द का सही अर्थ नहीं जानती होंगी। क्या सोनिया गांधी की इस गलती को कांग्रेस की स्वीकारोक्ति मान लिया जाए कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी नेतृत्व भाव से नहीं बल्कि स्वामी और सेवक भाव से चलती है। कांग्रेस पर अकसर विरोधी आरोप लगाते रहे हैं कि दल पर एक परिवार विशेष का कब्जा है और उक्त परिवार निजी कंपनी के तौर पर इसका संचालन करता रहा है। याद करें कांग्रेस के संस्थापक ब्रिटिश अधिकारी एओ ह्यूम की हैसीयत किसी मालिक से कम न थी। स्वतंत्रता के उपरांत देश की 15 कांग्रेस कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने को मंजूरी दी और 3 ने किसी के पक्ष में भी मतदान नहीं किया, परंतु पार्टी के तत्कालिक किसी मालिक ने पं. जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया। नेहरू के बाद पार्टी उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के हाथों में आगई। साल 1977 में आपात्काल खत्म होने के बाद कांगेस की बदहाली शुरू हुई। इसी दौर में चुनाव आयोग ने गाय बछड़े के चिन्ह को भी जब्त कर लिया। रायबरेली में करारी हार के बाद सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के हालात देखकर पार्टी प्रमुख इन्दिरा गांधी काफी परेशान हो गईं। श्रीमती गांधी ने उसी वक्त कांग्रेस (आई) अर्थात कांग्रेस (इंदिरा) की स्थापना की और एक तरह से पार्टी अपने नाम करवा ली। इंदिरा के बाद राजीव और उनके बाद सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष, याने उन्हीं के शब्दों में कहा जाए तो 'बॉस' बनीं। यह सोनिया गांधी का स्वामी भाव ही था कि उन्होंने दिवंगत होने के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी के शव को कांग्रेस मुख्यालय में नहीं घुसने दिया। कारण था कि सोनिया व केसरी के बीच वैचारिक मतभेद पैदा हो गए थे।
साल 2002 में कांग्रेस केंद्र की सत्ता में आए तो मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने या बनाए गए। सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह अपने दस सालों के कार्यकाल के दौरान गांधी परिवार के इसी एहसान के बोझ तले दबे नजर आए। राहुल गांधी ने तो मनमोहन सरकार द्वारा पारित अध्यादेश तक फाड़ डाला, लेकिन मनमोहन सिंह सहित किसी भी कांग्रेसी नेता में इसहरकत की निंदा करने की हिम्मत न हुई। मनमोहन सिंह सरकार पर लगने वाले सबसे बड़े आरोपों में यही भी था कि उनकी सरकार की बागडोर दस जनपथ रोड निवासियों के हाथ में थी। आरोप यहां तक लगे कि प्रधानमंत्री कार्यालय की फाइलें यहीं से फाइनल होकर जाती थीं। दस साल चली यूपीए सरकार में सोनिया गांधी की भूमिका किसी राजमाता जितनी प्रभावी थी। इस कार्यकाल में सोनिया के नेतृत्व में गठित नैशनल एडवाइजरी काउंसिल पीएमओ से भी अधिक शक्तिशाली संस्था बन चुकी थी। याने पूरी तरह उस समय कांग्रेस के साथ-साथ पूरी सरकार की बॉस सोनिया गांधी ही थीं। वर्तमान में भी चाहे कांग्रेस के अध्यक्ष सोनिया के ही पुत्र राहुल गांधी बन चुके हैं परंतु कांग्रेस में तो सोनिया की भूमिका आज भी राजमाता जैसी ही दिखती है। कांग्रेसी नेता कुलदेवी उन्हीं को ही मानते हैं और यही कारण रहा होगा कि सोनिया को कहना पड़ा कि उनके बॉस भी राहुल गांधी हैं।
कांग्रेस की आखिर कैसी अलोकतांत्रिक मानसिकता है, कभी राहुल गांधी अमेरिका में जाकर बड़े गर्व के साथ कह आते हैं कि भारत में तो परिवारवाद ही चलता है। अब सोनिया गांधी पार्टी को बताती हैं कि उनके याने कांग्रेस के साथ-साथ खुद सोनिया के बॉस भी राहुल गांधी हैं। लगता है कि कसूर केवल गांधी-नेहरू परिवार का ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी कार्यकर्ताओं व निचले स्तर के नेताओं का भी है जो दासत्व स्वीकार कर चुके हैं। अगर ऐसा न होता तो हाल ही में पार्टी के आंतरिक चुनाव के समय केवल अपना नामांकन दाखिल करने पर तहसीन पूनावाला की इस कदर अपमानजनक विदाई व लानत मलानत न होती। 'बॉस' कांग्रेस व इसके नेताओं के राजनीतिक ध्येयवाक्य हो सकता है, इस देश का नहीं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और शनै-शनै सबसे सफल गणतंत्र होने की दिशा में बढ़ रहा है। कांग्रेस ने अगर अपना रवैया, लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण और राजनीतिक शब्दावली नहीं सुधारी तो शीघ्र ही वह पूरी तरह से राजनीतिक हाशिए पर धकेली जा सकती है। इसके लिए कोई और नहीं बल्कि वह खुद कांग्रेसी ही जिम्मेवार होंगे।
राकेश सैन
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जालंधर।
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