ब्रिटिश सरकार ने हिंदू समाज में विभाजन पैदा करने के लिए कम्यूनल एवार्ड योजना के तहत मुसलमानों की तरह दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव किया तो महात्मा गांधी ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि समाज का यह विभाजन अंतत: देश में विभाजन के बीज बोएगा। गांधी जी ने इसके खिलाफ सत्याग्रह किया। इस पर 26 सितंबर, 1932 को पुणे की यावरदा जेल में गांधी जी व बाबा साहिब भीमराव अंबेदकर के बीच समझौता हुआ। इस तरह हिंदू समाज के विभाजन को रोक दिया गया। गांधी जी की ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने देश की 5 सौ से अधिक रियासतों को एकजुट कर सशक्त राष्ट्र का निर्माण किया परंतु आज वही कांग्रेस लिंगायतों के रूप में हिंदू समाज में विभाजन की रेखा खींच कर देश में बिखराव का नया बखेड़ा खड़ा करने के प्रयास में है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सिद्धारमैया सरकार ने हिंदू समाज के अभिन्न घटक लिंगायत समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का फैसला किया है और अपनी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी है। लिंगायतों में इसाई मिशनरियों द्वारा काफी समय से अलगाव के बीज बोए जा रहे थे जिसको कांग्रेस ने खाद-पानी देकर विषबेल का रूप दिया और अब इस पर विभाजन के फलों की खेती के प्रयास फलीभूत होते दिख रहे हैं। अगर अलगाव को नहीं रोका गया तो भविष्य में इस विभाजन की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हिंदू समाज अपने भीतर विभाजन कदापि स्वीकार नहीं करेगा और इस तरह के प्रयास करने वाले राजनीतिक दल में शत्रु की छवि के दर्शन करेगा।
आओ जानें कौन हैं लिंगायत, वीरशैव संप्रदाय या लिंगायत मत, हिन्दुत्व के अंतर्गत दक्षिण भारत में प्रचलित एक मत है। इसके उपासक लिंगायत कहलाते हैं। यह शब्द कन्नड़ शब्द लिंगवंत से व्युत्पन्न है। ये लोग मुख्यत: पंचाचार्यगणों एवं बसव की शिक्षाओं के अनुगामी हैं। वीरशैव का शाब्दिक अर्थ है- जो शिव का परम भक्त हो। किंतु समय बीतने के साथ वीरशैव का तत्वज्ञान दर्शन, साधना, कर्मकांड, सामाजिक संघटन, आचार-नियम आदि अन्य संप्रदायों से भिन्न होते गए। यद्यपि वीरशैव देश के अन्य भागों-महाराष्ट्र, आंध्र, तमिलनाडू में भी पाए जाते हैं किंतु उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में है। शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासों और दर्शन का उद्गम वेदों तथा 28 शैवागमों से मानते हैं। वीरशैव भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते किंतु उनके दर्शन, कर्मकांड तथा समाजसुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएं विकसित हो गई हैं जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवागमों तथा ऐसे अंतर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है जो वचनकार कहलाते हैं। 12वीं से 16 वीं शती के बीच लगभग तीन शताब्दियों में कोई 300 वचनकार हुए हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम बासव का है जो कल्याण के 12 शताब्दी के राजा विज्जल के प्रधानमंत्री थे। वह योगी महात्मा ही न थे बल्कि कर्मठ संगठनकर्ता भी थे जिसने वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की। वासव का लक्ष्य ऐसा आध्यात्मिक समाज बनाना था जिसमें जाति, धर्म या स्त्रीपुरुष का भेदभाव न रहे। वह कर्मकांड संबंधी आडंबर का विरोधी था और मानसिक पवित्रता एवं भक्ति की सच्चाई पर बल देता था।
वीरशैवों का संप्रदाय शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाता है। वीरशैवों ने एक तरह की आध्यात्मिक अनुशासन की परंपरा स्थापित कर ली है जिसे शतस्थल शास्त्र कहते हैं। यह मानव की साधारण चेतना का अंगस्थल के प्रथम प्रक्रम से लिंगस्थल के सर्वोच्च क्रम पर पहुँच जाने की स्थिति का सूचक है। साधना अर्थात् आध्यात्मिक अनुशासन की समूची प्रक्रिया में भक्ति और शरण याने आत्मार्पण पर बल दिया जाता है। वीरशैव महात्माओं की कभी कभी शरण या शिवशरण कहते हैं याने ऐसे लोग जिन्होंने शिव की शरण में अपने आपको अर्पित कर दिया है। उनकी साधना शिवयोग कहलाती है। इसमें संदेह नहीं कि वीरशैवों के भी मंदिर, तीर्थस्थान आदि वैसे ही होते हैं जैसे अन्य संप्रदायों के, अंतर केवल उन देवी देवताओं में होता है जिनकी पूजा की जाती है। जहाँ तक वीरशैवों का सबंध है, देवालयों या साधना के अन्य प्रकारों का उतना महत्व नहीं है जितना इष्ट लिंग का जिसकी प्रतिमा शरीर पर धारण की जाती है। आध्यात्मिक गुरु प्रत्येक वीरशैव को इष्ट लिंग अर्पित कर उसके कान में पवित्र षडक्षर मंत्र ओम् नम: शिवाय फूँक देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक वीरशैव में सत्यपरायणता, अहिंसा, बंधुत्वभाव जैसे उच्च नैतिक गुणों के होने की आशा की जाती है। वह निरामिष भोजी होता है और शराब आदि मादक वस्तुओं से परहेज करता है। बासव ने इस संबंध में जो निदेश जारी किए थे, उनका सारांश यह है-चोरी न करो, हत्या न करो और न झूठ बोलो, न अपनी प्रशंसा करो न दूसरों की निंदा, अपनी पत्नी के सिवा अन्य सब स्त्रियों को माता के समान समझो।
इन शिक्षाओं से स्पष्ट होता है कि लिंगायत समाज किसी भी दृष्टि से हिंदुत्व से अलग नहीं है। अलगाववादी तर्क देते हैं कि लिंगायत वैदिक संस्कृति में विश्वास नहीं रखते तो उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि हिंदुत्व में इसकी बाध्यता भी नहीं है। लिंगायत समाज के हिंदुत्व से अलग होने के कोई तर्क नहीं बल्कि केवल राजनीतिक चालबाजियां व हिंदुत्व को कमजोर करने की कवायद है जो कांग्रेस, इसाई मिशनरियां व जिहादी ताकतें मिल कर इनको अंजाम दे रही है। देश में चल रही अल्पसंख्यकवाद की राजनीति ने पहले सिख पंथ, बौद्ध संप्रदाय व जैन समाज को हिंदुत्व की मुख्यधारा से अलग किया और अब लिंगायत समाज का विच्छेद करने का प्रयास हो रहा है जिसे हिंदू समाज किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेगा।
राकेश सैन
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