Friday, 23 March 2018

भगवान राम ने नवाब को चुकाया गोपन्ना का ऋण


भगवान अपने भक्तों की खुद रक्षा करता है। भक्त सैन की नौकरी बचाने के लिए भगवान खुद नाई बन राजा की सेवा में गए तो नरसी भक्त की बेटी का भात भी भरा। केवल इतना ही नहीं धन्ना जाट तो अपने ठाकुर से खेतों में जुताई तक करवाते रहे। भक्त और भगवान के बीच घनिष्ठ रिश्तों की परंपरा में अग्रणी नाम है भद्राचल के रामदास का जिसका ऋण खुद भगवान श्रीराम व उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने उतारा और वह भी तुगलक वंश से जुड़े नवाब अब्दुल हसन तानाशाह के दरबार में जाकर।

बात सन् 1620 की है, गोलकुंडा रियासत (वर्तमान तेलंगाना राज्य) में स्थित भद्राचल के पास गांव नेलाकोड़ापल्ली में नियोगी ब्राह्मण परिवार में गोपन्ना का जन्म हुआ। उनका परिवार रामभक्ति में निपुण था और पिता पुरोहिती का काम करते। गोपन्ना के मामा तानाशाह के दरबार में बड़े कर्मचारी थे। गोपन्ना बड़ा हो गया परंतु अभी रामभक्ति के भजन गाता फिरता था। पिता चिंतित थे और एक दिन मामा उनके यहां मिलने आए तो वे गोपन्ना को अपने साथ गोलकुंडा तानाशाह के दरबार में ले गए। मामा की सिफारिश पर तानाशाह ने गोपन्ना को भद्राचल के आसपास गांवों की तहसीलदारी सौंप दी और किसानों से राजस्व वसूलने का काम सौंपा गया।  गोपन्ना ने बड़े परिश्रम से अपना काम किया परंतु रामभक्ति उनके मन में और भी जोर मारने लगी। एक बार कुछ ग्रामीण उन्हें गांव में स्थित भगवान श्रीराम के मंदिर ले गए और बताया कि वनवास के समय श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ यहां आए और यहीं पर सुग्रीव और हनुमान जी से मिलन हुआ। इतिहास में इस स्थान को किष्किंधा बताया गया है।
गोपन्ना मंदिर में आकर खूब प्रसन्न हुए परंतु मंदिर की क्षतिग्रस्त हालत ने उन्हें दु:खी भी कर दिया। गांव वालों से जब बात की तो उन्होंने कहा कि यहां साधारण किसान इतने अमीर नहीं कि मंदिर का निर्माण करवा सकें और मुस्लिम शासन होने के कारण सरकारी सहायता की कोई आस न थी। रामभक्त गोपन्ना ने इसी गांव में अपना डेरा जमा लिया और राजस्व वसूली के साथ-साथ मंदिर के लिए दान इक्ट्ठा करने लगे। लोगों सहयोग से मंदिर का निर्माण होने लगा, लोग धन दान, अन्न दान, श्रमदान करने लगे परंतु मानो प्रभु अपने भक्तों की परीक्षा ले रहे थे। लोग गोपन्ना को भद्राचल के रामदास के नाम से जानने लगे। लेकिन मंदिर निर्माण में धन कम पड़ गया और काम रुक गया। दूर-दूर से आए शिल्पी अपने घरों को जाने लगे।  
गांव के सरपंच ने उन्हें एक सुझाव दिया कि राजस्व वसूली में मिले धन का प्रयोग मंदिर में कर लिया जाए और जब फसल आएगी तो गांव के लोग यह धन वापिस कर देंगे। थोड़ी बहुत ना नुकर के बाद गोपन्ना ने यह बात मान ली परंतु ईश्वर की करनी है कि उस साल फसल इतनी नहीं हुई कि ग्रामीण तानाशाह के हिस्से का धन लौटा सकें। धीरे-धीरे बात नवाब तानाशाह के कानों में पड़ी तो उसने गोपन्ना को गिरफ्तार करवा दिया। उस समय गोपन्ना के खाते में एक लाख रूपये निकाले गए जिसकी भरपाई गोपन्ना का गरीब परिवार नहीं कर सका। तानाशाह ने आदेश दिया कि जब तक ब्याज सहित वसूली नहीं हो जाती तब तक गोपन्ना को जेल में रखा जाए।
गोपन्ना जेल में भी भगवान की भक्ति में लीन रहते और उन्होंने जेल में रहते हुए भी तेलगु में गद्यात्मक व पद्यात्मक शैली में रामायण की रचना की। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया ब्याज लगने से कर्ज बढ़ता गया और यह राशि 6 लाख तक पहुंच गई। भद्राचल के रामदास की रिहाई की आशा की किरण धुंधली पड़ती गई लेकिन एक दिन दो अति सुंदर युवक नवाब तानाशाह के दरबार में उपस्थित हुए। एक ने अपना नाम राम और दूसरे ने लक्ष्मण और खुद को अयोध्यावासी बताया। उन्होंने गोपन्ना के कर्ज के बारे जानकारी ली और तत्काल 6 लाख सोने की मोहरें तानाशाह को सौंप दी। शुद्ध सोने की मोहरें देख कर नवाब की आंखें भी फटी की फटी रह गईं परंतु सोने की चकाचौंध में वह भगवान को नहीं पहचान पाया।
उधर गोपन्ना जेल में बंद था और तानाशाह उससे मिलने आया। तानाशाह ने गोपन्ना को सारी कथा सुनाई तो भक्त की आंखें भर आईं और कहा वे कोई और नहीं बल्कि मेरे प्रभु राम ही थे। तानाशाह ने गोपन्ना की तहसीलदारी बहाल कर दी परंतु भक्त ने इंकार कर दिया और सारी उम्र भद्राचल के राम मंदिर में जाकर रामभक्ति में जीवन गुजार दिया। 1680 में भद्राचल के रामदास राम को प्यारे हो गए परंतु उनकी भक्ति आज भी समाज को मार्ग दिखा रही है।
यहाँ के मंदिर के आविर्भाव के विषय में एक जनश्रुति वनवासियों से जुड़ी हुई है। इसके अनुसार, एक राम भक्त वनवासी महिला दम्मक्का भद्रिरेड्डीपालेम ग्राम में रहा करती थी। इस वृद्धा ने राम नामक एक लड़के को गोद लेकर उसका पालन-पोषण किया। एक दिन राम वन में गया और वापस नहीं लौटा। पुत्र को खोजते-खोजते दम्मक्का जंगल में पहुँच गई और राम-राम पुकारते हुए भटकने लगी। तभी उसे एक गुफ़ा के अंदर से आवाज आई कि माँ, मैं यहाँ हूँ। खोजने पर वहाँ सीता, राम और लक्ष्मण की प्रतिमाएँ मिलीं। उन्हें देखकर दम्मक्का भक्ति भाव से सराबोर हो गई। इतने में उसने अपने पुत्र को भी सामने खड़ा पाया। दम्मक्का ने उसी जगह पर देव प्रतिमाओं की स्थापना का संकल्प लिया और बाँस की छत बनाकर एक अस्थाई मंदिर बनाया। धीरे-धीरे स्थानीय वनवासी समुदाय भद्रगिरि या भद्राचलम नामक उस पहाड़ी पर श्रीराम की पूजा करने लगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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