वरिष्ठ पत्रकार गोबेल्स हिटलर के प्रचार मंत्री थे और मानते थे कि अगर एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच लगना शुरू हो जाता है। नाजीवादी हिटलर जिसको कम्यूनिस्ट और कांग्रेस के लोग पानी पी-पी कर कोसते हैं परंतु महान क्रांतिकारी, विचारक, स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, कवि और भी न जाने कितनी ही विशेषताएं अपने भीतर समेटे वीर सावरकर को लेकर उसी नाजीवादी गोबेल्स की नीति अपनाते हैं। अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों, सत्ताधारी कांग्रेसी नेताओं ने वीर सावरकर द्वारा अंग्रेजों से माफी मांगने को लेकर इतना झूठ बोला कि आज आम आदमी तो क्या बुद्धिजीवियों को भी यह झूठ सत्य लगने लगा है। वामपंथी व कांग्रेस जिस वीर सावरकर के जिस माफीनामे का जिक्र करते हैं वह वास्तव में ब्रिटिश सरकार और क्रांतिकारियों के मध्य होने वाला बीच का फार्मूला था और केवल सावरकर ही क्यों अनेक क्रांतिकारियों ने इस फार्मूले पर हस्ताक्षर किए थे। इतिहास गवाह है कि इस फार्मूले के बाद भी वीर सावरकर ने न तो देश की स्वतंत्रता का संघर्ष छोड़ा था और न ही सार्वजनिक जीवन से अवकाश लिया। वीर सावरकर की जयंती पर आज समय है कि वह वामपंथी व कांगे्रसी बंधू देश के इस महान क्रांतिकारी से माफी मांगें जिनको वे आज तक बदनाम करते रहे हैं।
आजादी की लड़ाई से जुड़े दस्तावेजों में यह साफ है कि सावरकर की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेज परेशान थे। इसी चलते उन्हें काला पानी भेज दिया गया, जहां उन्हें भयानक यातनाएं दी गईं। अंग्रेज और उस वक्त कांग्रेस के तमाम बड़े नेता भी यही चाहते थे कि वीर सावरकर की मृत्यु उधर ही हो जाए। भयानक शारीरिक, मानसिक यातनाओं और जानवरों की तरह बेड़ी में जकड़ कर रखे जाने के कारण वीर सावरकर को कई बीमारियों ने जकडऩा शुरू कर दिया था। इसी दौरान काला पानी जेल के डॉक्टर ने 1913 में ब्रिटिश हुकूमत को रिपोर्ट भेजी कि वीर सावरकर की सेहत बहुत खराब है और वो थोड़े दिन के ही मेहमान हैं। इस रिपोर्ट पर जनता में भारी गुस्सा भड़क उठा। दबाव में आकर गवर्नर जनरल ने रेजिनॉल्ड क्रेडॉक को अपना प्रतिनिधि बनाकर पोर्ट ब्लेयर भेजा। उन्हें डर था कि अगर वीर सावरकर को कुछ हुआ तो इससे अंग्रेजी राज की बदनामी होगी और आजादी की लड़ाई इतनी तेज हो जाएगी कि उसे काबू करना आसान नहीं होगा। वीर सावरकर भी इस तरह से जेल में तिल-तिलकर मरने के बजाय आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते थे। लिहाजा अंग्रेजों और वीर सावरकर के बीच एक बीच का फॉर्मूला निकला। इसके तहत एक करार पत्र तैयार किया गया। इसमें लिखा गया था कि - मैं (कैदी का नाम) आगे चलकर पुन: अवधि न तो राजनीति में भाग लूंगा न ही राज्यक्रांति में। यदि पुन: मुझ पर राजद्रोह का आरोप साबित हुआ तो आजीवन कारावास भुगतने को तैयार हूँ। ऐसे ही करारनामे पर दस्तखत करवाकर वीर सावरकर ने उस वक्त अपने जैसे कई और कैदियों को काले पानी से आजादी दिलवाई थी। उनके नाम और दस्तावेज भी अंडमान की सेलुलर जेल में उपलब्ध हैं। अंग्रेजों के चंगुल से निकलने के लिए, ऐसा ही एक माफीनामा फैजाबाद की जेल में बंद शहीद अशफाकउल्ला खां ने भी लिखा था। वो काकोरी ट्रेन लूट कांड के आरोपी थे। अशफाकउल्ला से अंग्रेज इतना डरे हुए थे कि उन्हें फाँसी दे दी। तो क्या अशफाक को भी अंग्रेजों का वफादार, देश का गद्दार मान लिया जाए ? कांग्रेसी और वामपंथी इसी दस्तावेज को माफीनामा कहते हैं, जबकि ये माफीनामा नहीं, बल्कि एक तरह का सुलहनामा था। छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानने वाले वीर सावरकर के लिए ये सुलहनामा उन्हीं के आदर्शों के मुताबिक था।
इस सुलहनामे के बावजूद अंग्रेजों को वीर सावरकर पर रत्ती भर भरोसा नहीं था। उनकी रिहाई आने वाली मुसीबत से बचने के लिए जरूरी थी। लेकिन अंग्रेज मानकर चल रहे थे कि वो फिर से लड़ाई तेज करेंगे। गवर्नर के प्रतिनिधि रेजिनॉल्ड क्रेडोक ने सावरकर के सुलहनामे पर अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा है कि- इस शख्स को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने हृदय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है। सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है। भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसमें खाते हैं और अगर उसे भारत भेज दिया गया तो वो पक्के तौर पर भारतीय जेल तोड़कर उसे छुड़ा ले जाएंगे। इस रिपोर्ट के बाद कुछ अन्य कैदियों को तो रिहा किया गया मगर डर के मारे अंग्रेजों ने वीर सावरकर को जेल में ही रखा। इस दौरान उनका इलाज शुरू हो गया था। करीब 11 साल काला पानी जेल में बिताने के बाद 1921 में वीर सावरकर रिहा हुए। ये वो वक्त था जब आजादी की लड़ाई को नेहरू और गांधी की चौकड़ी ने पूरी तरह कब्जे में ले लिया था। वीर सावरकर इस दौरान लगातार सक्रिय रहे।
1921 में घर लौटने के बाद उन्हें फिर से 3 साल जेल भेज दिया गया था। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर काफी कुछ लिखा। यहां से छूटने के बाद भी वो हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर सक्रिय रहे। 1925 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार के संपर्क में आए। 1931 में उन्होंने मुंबई (तब बंबई) में पतित पावन मंदिर की स्थापना की, जो हिंदुओं में छुआछूत की बुराई को खत्म करने की नीयत से था। इसके बाद उन्होंने बंहई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की। उनका कहना था कि भारत की एकता के लिए हिंदुओं की एकता जरूरी है और इसके लिए जाति-पाति और छुआछूत का खात्मा जरूरी है। 1937 में वो अहमदाबाद में हिंदू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 22 जून 1941 को वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मुलाकात बेहद खास मानी जाती है। ये वो वक्त था जब उनके लिखे साहित्य पर प्रतिबंध था। उनके कहीं भी आने-जाने पर अंग्रेजी सरकार का कड़ा पहरा रहता था। वो भारत के बंटवारे के सख्त खिलाफ थे। यही कारण है कि कांग्रेसी सरकार ने उनका नाम महात्मा गांधी की हत्या में भी लपेटने की कोशिश की। उनके कहीं भी आने-जाने और लोगों से मिलने जुलने पर पाबंदियां आजादी के बाद भी बनी रहीं। हालांकि इस दौरान उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डीलिट की मानद उपाधि दी। 1966 में उनकी तबीयत बिगडऩी शुरू हुई। इसके बाद उन्होंने मृत्युपर्यंत उपवास का निर्णय लिया और अपनी इच्छा से 26 फरवरी 1966 को बंबई में प्राणों का त्याग कर दिया।
वीर सावरकर के निधन के बाद उनके खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान शुरू हो गया। कांग्रेसी और वामपंथी इतिहासकारों ने सुलहनामे के आधार पर कहना शुरू कर दिया कि वो अंग्रेजों को माफी की चि_ी लिखा करते थे। जबकि सच्चाई इसके उलट थी। इसी दुष्प्रचार का नतीजा है कि आज कई लोग इस झूठ पर यकीन भी करने लग गए हैं।
- राकेश सैन
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जालंधर।
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