Monday, 13 August 2018

विदेशियों को शूरवीरता का सबक सिखा गए ये चूडिय़ों वाले हाथ

भारतीय संस्कृति में महिला को शक्ति और प्रेरणा के रूप में पूजा और स्वीकार किया गया है। देश की स्वतंत्रता के लिए 1200 साल तक चले संग्राम में हमारी मातृशक्ति ने विदेशियों को एहसास करवा दिया कि उन्हें यूं ही शक्ति का अवतार नहीं माना गया। इस स्वतंत्रता संग्राम में महिलाएं न केवल पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ती नजर आईं बल्कि बहुत से समय पर पुरुषों की प्रेरणा भी बनी व संग्राम का नेतृत्व भी किया। कितने गौरव की बात है कि भारत पर पहला हमला करने वाला इस्लामिक अक्रांता राजा दाहिर की दो बेटियों की सूझबूझ से मारा गया। इन शूरवीर बालाओं ने न केवल अपने देश के अपमान, पिता की मौत का बदला लिया बल्कि बड़ी चालाकी से अपनी अस्मत भी बचाई।

राजा दाहिर की बेटियों का नाम था सूरजदेवी और परमाल। वे कासिम की सेना के साथ अंत तक लड़ीं परंतु दो गद्दारों के चलते उनकी सेना परास्त हुई। कासिम की सेना ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कासिम ने अपने खलीफा को खुश करने के लिए इन बेटियों के साथ अन्य दास दसियों और खूब सारा धन खलीफा सुलयमान बिन अब्द अल मलिक को भेजा। दाहिर सेन की उन बेटियों को देखते ही वो खलीफा मोहित हो गया। सूरजदेवी और परमाल ने इस बात को जान लिया और उन्होंने खलीफा के पास जाकर कहा  की कासिम ने उनके कौमार्य को पहले ही उनसे छीन लिया तब आपके पास भेजा है। खलीफा उन बातो से इतना नाराज हुआ की उसने तुरंत मोहम्मद बिन कासिम को बैल की चमड़ी में लपेटकर अरब लाने का आदेश दे दिया। और इस बैल की चमड़ी में जब उसे लपेटकर लाया जा रहा था। तभी रास्ते में उसकी मृत्यु हो गयी। कासिम की मौत के बाद उन्होंने सच्चाई  खलीफा को बताई तो खलीफा आग बबूला हो गया और दोनो युवतियों का सिर कलम करवा दिया। इस तरह सूरज और परमाल ने एक विदेशी आक्रांता को खत्म करवा दिया और अपनी इज्जत भी बचाई। इस तरह की अग्निशिखा मानी गई हैं भारत की महिला जो मर्यादा और त्याग में सीता है तो जरूरत पड़े तो रानी लक्ष्मीबाई भी बनती रही हैं।

देश के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस की गुप्तचर विभाग की नेत्री सावित्री बाई फूले को कौन भूला है। इन्हें 'सीक्रेट कांग्रेस रेडियोÓके नाम से भी जाना जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान कुछ महीनों तक कांग्रेस रेडियो काफी सक्रिय रहा था। इस रडियो के कारण ही उन्हें पुणे की यावरदा जेल में रहना पड़ा। वे महात्मा गांधी की अनुयायी थीं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मीं पंडित भी आजादी की लड़ाई में शामिल थीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल में बंद किया गया था। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली महिला मंत्री थीं। वे संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष थीं और स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत। सुचेता कृपलानी एक स्वतंत्रता सेनानी थी और उन्होंने विभाजन के दंगों के दौरान महात्मा गांधी के साथ रह कर कार्य किया था। इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उन्हें भारतीय संविधान के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के एक सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया था। आजादी के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया। इसी तरह भारतीय कोकिला के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू सिर्फ स्वएतंत्रता संग्राम सेनानी ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छी कवियत्री भी थीं। सरोजिनी नायडू ने खिलाफत आंदोलन की बागडोर संभाली और अग्रेजों को भारत से निकालने में अहम योगदान दिया। आजाद हिंद सेना की महिला सेनापति लक्ष्मी सहगल को कौन नहीं जानता। पेशे से डॉक्टर रहते हुए लक्ष्मी सहगल ने सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनका पूरा नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की अटूट अनुयायी के तौर पर वे इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हुईं थीं। उन्हें वर्ष 1998 में पद्म विभूषण से नवाजा गया था।

भारतीय महिलाओं की शक्ति व देशभक्ति की प्रतीक रानी लक्ष्मी बाई तो मानो अमर है। भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रेरणा कस्तूरबा गांधी के बारे गांधी जी खुद स्वीकार किया था कि उनकी दृढ़ता और साहस खुद गांधीजी से भी उन्नत थे। महात्मा गांधी की आजीवन संगिनी कस्तूीरबा की पहचान सिर्फ यह नहीं थी, आजादी की लड़ाई में उन्होंने हर कदम पर अपने पति का साथ दिया था, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का निर्णय लिया। गांधी जी ही नहीं बल्कि नेहरू जी की धर्मपत्नी भी कोई कम दृढ़व्रती न थीं। कमला नेहरू कम उम्र में ही दुल्हन बन गई थीं लेकिन समय आने पर यही शांत स्वाभाव की महिला लौह स्त्री साबित हुई, जो धरने-जुलूस में अंग्रेजों का सामना करती, भूख हड़ताल करतीं और जेल की पथरीली धरती पर सोती थी। इन्होंने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की थी।

महान स्वतंत्रता सेनानी दुर्गा बाई देशमुख महात्मा गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित थीं। शायद यही कारण था कि उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया व भारत की आजादी में एक वकील, समाजिक कार्यकर्ता, और एक राजनेता की सक्रिय भूमिका निभाई। वो लोकसभा की सदस्य होने के साथ-साथ योजना आयोग की भी सदस्य थी। अरूणा आसफ अली को भारत की आजादी के लिए लडऩे वाली एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में पहचाना जाता है। उन्होंने एक कार्यकर्ता होने के नाते नमक सत्याग्रह में भाग लिया और लोगों को अपने साथ जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। साथ ही वो 'इंडियन नेशनल कांग्रेस'की एक सक्रिय सदस्य थीं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मासिक पत्रिका 'इंकलाब' का भी संपादन किया। 

जंगे-आज़ादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज़्यादा समय तक आजाद रहा। इस बीच बेगम हजरत महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की। तकरीबन पूरा अवध उनके साथ रहा और तमाम दूसरे ताल्लुकेदारों ने भी उनका साथ दिया। बेगम हजरत महल की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आजादी के दौरान नजरबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी।

थियोसोफिकल सोसाइटी और भारतीय होम रूल आंदोलन में अपनी खास भागीदारी निभाने वाली ऐनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर, 1847 को लंदन शहर में हुआ था। 1890 में ऐनी बेसेंट हेलेना ब्लावत्सकी द्वारा स्थापित थियोसोफिकल सोसाइटी, जो हिंदू धर्म और उसके आदर्शों का प्रचार-प्रसार करती हैं, की सदस्या बन गईं। भारत आने के बाद भी ऐनी बेसेंट महिला अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। महिलाओं को वोट जैसे अधिकारों की मांग करते हुए ऐनी बेसेंट लागातार ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखती रहीं। भारत में रहते हुए ऐनी बेसेंट ने स्वराज के लिए चल रहे होम रूल आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मैडम भीकाजी कामा ने आजादी की लड़ाई में एक सक्रिय भूमिका निभाई थी। इनका नाम इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। स्वतंत्रता की लड़ाई में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वो बाद में लंदन चली गईं और उन्हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली।

दुर्गावती देवी या दुर्गा भाभी क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह के साथ इन्हीं दुर्गावती देवी ने 18 दिसम्बर, 1928 को वेश बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर दि फिलॉसफी आफ बम दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती बोहरा क्रांतिकारियों के बीच दुर्गा भाभी के नाम से मशहूर थीं। सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। तत्कालीन बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया था, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलाई थी।

लेख की शुरूआत एतिहासिक प्रसंग से की गई तो अंत भी इसी तरह के प्रेरक घटनाक्रम से करना चाहूंगा। चालीस सिख गुरु गोबिंद सिंह जी को अकेला छोड़ कर अपने घर चले गए। जब वे अपने घरों को पहुंचे तो घर की महिलाओं ने उन्हें खूब फटकार लगाई कि वे कितने कृतघ्न हैं कि संकट की घड़ी में गुरुजी का साथ छोड़ आए। इन पूजनीय महिलाओं ने पुरुषों के आत्मसम्मान को झकझोरा और कहा कि आप घर में बैठ कर बच्चों को खेलाओ हम दुश्मनों से जाकर लड़ेंगी। इन शूरवीर महिलाओं में एक थीं माता भागभरी जो इतिहास में माई भागो के नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने केवल कहा ही नहीं बल्कि खुद तलवार उठा कर गुरुजी की सेना में शामिल हों दुश्मनों के साथ लड़ी भीं। भारत का इतिहास भरा पड़ा है मातृशक्ति के इस तरह के वीररस पूर्ण प्रसंगों से। देश आज महिला सशक्तिकरण की ओर अग्रसर है तो उक्त घटनाएं प्रमाण हैं कि भारत की महिलाएं अपने आप में शक्ति का जीवंत प्रमाण हैं। आज देश स्वतंत्रता की 72 वीं वर्षगांठ मना रहा है तो हम सब नमन करते हैं अपनी इन महान माताओं-बहनों को जिन्होंने समय-समय पर हमारे देश व समाज का नेतृत्व किया और इनके बलिदानों के फलस्वरूप ही आज हम स्वतंत्रता रसास्वाद करने के योग्य हुए हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

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