Friday, 25 January 2019

कठुआ कांड, कानून की आंखों में धूल झोंकी ?

कठुआ बलात्कार व हत्याकांड में पीडि़ता बच्ची के परिजन आज बेनामी जिंदगी जी रहे हैं। साल पहले ऐसा नहीं था, देश की सड़कें मोमबत्तीवादियों से अटी पड़ी थीं, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया पीडि़त परिवार की चौखट पर पंक्तिबद्ध हो कर खड़ा था। बड़े-बड़े संपादक अपनी मेज पर सिर पटके कलम से आग उगले जा रहे थे। अभियानवादी सरकार को कोस रहे थे, हिंदू समाज व धर्म को लांछित किया जा रहा था। रचनात्मक कलाकार त्रिशूल पर कंडोम लगे कार्टून बना कर वितंडावादी स्वच्छंदता पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बरक चढ़ा रहे थे। लेकिन आज ट्रेजडी टूरिज्म पर की दुकान पर ताला लगा है। पीडि़ता के लिए मर मिटने के दावे करने वाली वकील एक साल में ही केस से हट चुकी हैं। केस की आड़ में उसने सरकारी ऐशो आराम व वीआईपी सुविधा की मांग की परंतु पूरी नहीं हुई तो इंसाफ के प्रति उनका प्यार फीका पड़ गया। पीडि़ता के परिजन कहते हैं कि उन्हें भरोसा दिया जा रहा था कि 90 दिन में इंसाफ मिल जायेगा, लेकिन पूरा एक साल बीत गया है हमें अभी भी इंसाफ नहीं मिला। इतना कहते ही कठुआ जिले के रसाना गांव की आठ साल की बकरवाल लड़की की माँ अपनी आँखें भर लेती हैं और रोने लगती हैं। वो कहती हैं, हमें आज भी 24 घंटे अपनी बच्ची की याद सताती है। एक साल हो गया उसे नहीं देखा, खेलते-खेलते उसको उठा कर ले गए और बेरहमी से मार डाला, बदतमीज़ी की उस बच्ची के साथ।

इस प्रकरण से दुखी केवल यही परिवार नहीं बल्कि आसपास के लोग भी हैं। यहां तक कि आरोपियों के परिवार वाले भी कहते हैं कि बच्ची के साथ दुराचार हुआ है तो करने वालों को फांसी दे दो परंतु बेकसूरों को क्यों फंसाया गया है। आरोपी सांजी राम के परिवार का दुख यह भी है कि किसी साजिश के तहत पुलिस ने उनके प्रियजनों को आरोपी बना दिया, बाद में मीडिया ट्रायल ऐसा चला कि दुनिया भर में उनके परिवार को बदनाम किया गया। यह परिवार आज भी पूरे मामले की सीबीआई से जांच करवाने की मांग कर रहा है। उनका दावा है कि दुनिया में यह पहला केस होगा जब आरोपी पक्ष के लोग सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं और अभियोग लगाने वाले इससे बचते दिख रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों ? सच्चाई सामने आने से कौन डर रहा है?

पिछले साल 17 जनवरी, 2018 में जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में बकरवाल समुदाय की एक नाबालिग लड़की के साथ सामूहिक दुराचार कर उसकी हत्या करने की घटना सामने आई। पुलिस के मुताबिक आठ साल की उस बच्ची को एक जगह में कैद रखा गया। हफ्ते भर उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। यहां तक कि गला घोंटकर मारे जाने से चंद मिनट पहले तक बलात्कार होता रहा और फिर लाश जंगल में फेंक दी गई।  जांच एजेंसी ने इस मामले में सांजी राम और उनके बेटे विशाल कुमार समेत नौ अभियुक्तों को गिरफ्तार किया था। इसमें एक पुलिस हेड कॉन्स्टेबल, दो एसपीओ और एक सब-इंस्पेक्टर भी शामिल हैं। तत्कालीन महबूबा मुफ्ती सरकार ने 23 जनवरी को पूरे मामले को जम्मू कश्मीर अपराध शाखा को सौंप दिया और एसआईटी का गठन किया गया। ये जांच 9 अप्रैल को पूरी हो गई और पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर दिए। मई 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने कठुआ गैंगरेप और हत्या मामले को पंजाब के पठानकोट स्थानांतरित कर दिया था। आरोप पत्र के मुताबिक बलात्कार और हत्या की साजिश पूर्व राजस्व कर्मचारी सांजी राम ने रची। उसने विशेष पुलिस अधिकारी दीपक खजूरिया और नाबालिग भतीजे को साजिश में शामिल किया। चार्जशीट अनुसार, 10 जनवरी को सांजी राम के भतीजे और उसके दोस्त मन्नू ने बच्ची को भटका कर जंगल में दुराचार किया। वे लड़की को गांव के मंदिर परिसर 'देवस्थान' में ले गए, जहां उसे बंधक बनाकर रखा गया। उसे हाई डोज की 'क्लोनाजेपम' नाम की नशीली दवा दी गयी ताकि वो चीख ना सके। 11 जनवरी को किशोर आरोपी ने सांजी राम के बेटे विशाल जंगोत्रा को लड़की के किडनैपिंग के बारे में जानकारी दी, कहा कि अगर वह भी हवस बुझाना चाहता है तो मेरठ से आ जाए। आरोपपत्र अनुसार, 13 जनवरी को बच्ची के साथ विशाल जंगोत्रा और किशोर ने रेप किया। 14 जनवरी को सांजी राम के निर्देश पर बच्ची को मंदिर से हटाया गया और उसे खत्म करने के इरादे से मन्नू, जंगोत्रा और किशोर उसे पास के जंगल में ले गए। खजुरिया भी मौके पर पहुंचा और उनसे इंतजार करने को कहा क्योंकि वह बच्ची की हत्या से पहले उसके साथ फिर से बलात्कार करना चाहता था। बच्ची से एक बार फिर गैंगरेप किया गया और बाद में किशोर ने उसकी हत्या कर दी। किशोर ने बच्ची के सिर पर एक पत्थर से दो बार वार किया और उसके शव को जंगल में फेंक दिया। आरोपपत्र अनुसार, दरअसल गाड़ी का इंतजाम नहीं हो पाने के चलते नहर में शव को फेंकने की उनकी योजना नाकाम हो गई। केस के जांच अधिकारी हेड कांस्टेबल तिलक राज और सब इंस्पेक्टर आनंद दत्त भी नामजद हैं जिन्होंने राम से कथित तौर पर 4 लाख रूपए लिए और अहम सबूत नष्ट किए। 

कठुआ दुराचार व हत्याकांड कई सवालों के घेरे में है। क्राइम ब्रांच की चार्जशीट में पकाई गई कहानी लगती है। बताया गया है कि देवस्थान में नाबालिग को तीन दिन तक रखकर रेप होता रहा। लेकिन देवस्थान की स्थिति देखकर इस पर कई सवाल उठते हैं। इस देवस्थान के तीन दरवाजों की चार चाबियां हैं। तीन चाबियां रसाना के 13 घरों में बदल-बदल कर रखी जाती हैं। इसके अलावा एक चाबी पाटा गांव में है। इस गांव में 30 के करीब घर हैं। सुबह 6 से लेकर 10 बजे और शाम 6 से 8 बजे तक सब लोग देवस्थान में ज्योति जलाने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि कुल देवता के स्थान पर प्रतिदिन दो बार ज्योति जलाई ही जाती है।  सांझी राम की बेटी मोनिका शर्मा ने कहा कि क्राइम ब्रांच ने बताया कि तीन दिन तक बच्ची से देवस्थान के भीतर रेप हुआ, लेकिन उक्त तीन दिनों में सुबह शाम लोग आकर माथा टेक कर गए। यदि लड़की को यहां छुपाया होता, तो पता चल जाता। जम्मू बार एसोसिएशन के मुताबिक क्राइम ब्रांच ने जिस विशाल जंगोत्रा को दुष्कर्म का आरोपी करार दिया है, वो घटना के समय सैकड़ों मील दूर मुजफ्फरनगर के एक परीक्षा केंद्र में परीक्षा दे रहा था। एसोसिएशन ने अपने दावे के समर्थन में दस्तावेजी सबूत भी पेश किए हैं। जिसमें वो 12 तारीख को मृदा विज्ञान का पेेपर दे रहा था। क्राइम ब्रांच की चार्जशीट में बताया गया कि बच्ची को देवस्थान में पड़े टेबल के नीचे छिपा कर रखा गया था। लेकिन पुलिस जिस टेबल की बात करती है वह करीब दो फुट ऊंता और लंबाई ढाई फुट है। इसके नीचे किसी को छुपाकर रखना जाए तो साफ तौर पर पता चल जाएगा। बेशक इसे सभी तरह से कवर करके रखा जाए। 

पुलिस की चार्जशीट में बताया गया है कि घर के रास्ते में शव मिला था। जिस जगह पर नाबालिग का शव मिला। वो जगह सांजी राम के घर और देवस्थान को जोड़ती है। यह भी एक सवाल है कि सांजी राम के घर के रास्ते के बीच शव क्यों फेंका, जबकि आरोपियों को मालूम था कि वहां से चौबीस घंटों लोग गुजरते हैं। यह रास्ता सांजी राम के अलावा अन्य घरों को शार्टकट रास्ते के रूप में जोड़ता है। स्थानीय लोगों में सवाल पनप रहा है कि अगर सांजीराम आरोपी है तो वो अपने घर के रास्ते में बच्ची के शव को क्यूं फेंकेगा। रसाना गांव के लोगों का कहना है कि अगर सांजी राम सहित अन्य लोग दोषी हों तो उन्हें सख्त सजा दो। लेकिन इसकी जांच सीबीआई से कराओ। क्योंकि क्राइम ब्रांच ने सिर्फ एक ही पक्ष की बात सुनी है। सीबीआई की जांच में यदि साबित हो तो वह लोग तैयार हैं। सांझी राम की बेटी मोनिका शर्मा का कहना है कि उसके भाई विशाल को पकड़ा लिया। उसके पिता को मास्टरमाइंड बना दिया। कौन पिता होगा जो अपने बेटे को कहेगा कि किसी मासूम से रेप कर दो। क्राइम ब्रांच ने मनगढ़ंत कहानी बनाकर उसके पिता को फंसा दिया। उसके पिता की बकरवाल परिवार से कोई पुरानी दुश्मनी नहीं थी। न ही कोई जमीन का विवाद था। यदि ऐसा होता तो बच्ची का परिवार 40 साल से यहां रहता आ रहा है। अगर कोई रंजिश होती भी तो बच्ची पे क्यों निकालते।

सभी तथ्य बताते हैं कि कठुआ केस की सच्चाई कुछ और है जो देश के सामने आई नहीं और शायद कुछ लोगों का सच्चाई छिपाने में लाभ हो सकता है। इस मामले को लेकर अभियानवादी शक्तियों, देशविरोधी ताकतों, हिंदुत्व विरोधी मानसिकता ने जिस तरह मिल कर शोर मचाया वह अपने आप में अबूझ पहेली है। अपनी वकील के बारे में बात करते हुए पीडि़ता के पिता ने कहा कि उन्होंने दीपिका सिंह राजावत को केस से इसलिए हटा दिया क्योंकि वो 110 में से सिर्फ दो बार अदालत के सामने पेश हुई थी और सिर्फ अपने बारे में सोचती थी। वो हमारी सुरक्षा की कम और अपनी सिक्योरिटी, गाड़ी की बात करती थी। यह वही दीपिका सिंह राजावत हैं जो टीवी पर चीख-चीख कर कहती थीं कि यह केस लेने के बाद उसे कई तरह की धमकियां मिल रही हैं। एक साल में ही पूरे ड्रामे की पोल खुलती दिख रही है परंतु दुखद बात यह है कि पीडि़ता बच्ची के अपराधी अभी अंजान हैं और बेकसूर जेलों में बंद हैं। लगता है कि पूरे मामले में कानून की आंखों में धूल झोंकी गई है।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

Monday, 14 January 2019

मोदी, बाहमण-बाणियों के अंबेडकर

सम्मान से सभी उसे चाचीजी कहते। पड़ौस में मेहनत-मजदूरी पर पलने वाला ईमानदार ब्राह्मण परिवार था। चाचीजी दैनिक कामकाज निपटा कर लिफाफे बनाती जो परिवार की आय का मुख्य साधन था। हमारे चाचाजी मौजी ठाकुर थे केवल मौज करना ही मुख्य व्यवसाय था। अमावस या तीज त्यौहार वाले दिन गली-मोहल्ले के लोग उन्हें सिद्धे के रूप में थोड़ा-थोड़ा आटा, घी, दाल व बाकी सामान दे आते। आसपास होने वाले शादी-विवाह तो मानो उनके गीतों के बिना अधूरे माने जाते थे, जो परिवार की आय को कुछ गति देते। कुल मिला कर सात-आठ जनों का परिवार बड़ी मुश्किल से गुजर बसर करता। बात साल 1990-91 की होगी, एक दिन चाचीजी को तीन सौ रूपयों की जरूरत पड़ी तो वो घर माँ के पास आईं। घर पर कोई नहीं था, सौभाग्य से उसी दिन मुझे 450 रुपये स्टाईपेंड के मिले थे। मैने उसमें से तीन सौ रूपये चाचीजी को थमा दिये। उस समय हमारे जैसे अत्यंत साधारण परिवार के लिए अच्छी खासी राशि मानी जाती थी सौ-दो सौ रूपये भी। मेरे पास इतने रूपये देख कर चाचीजी ने तमक कर पूछा, 'तेरा कनै इतना रुपईया कठा सै आया?' मैने हंसते हुए बताया कि दलित व पिछड़ा वर्ग के विद्यार्थियों को सरकार हर साल कुछ आर्थिक सहायता देती है और यह सुविधा डा. भीमराव अंबेडकर ने हमारी जातियों के लिए की थी। इस पर चाची के मुख से निकला, 'हे भगवान! कदै बाहमण-बाणियों का अंबेडकर बण कै भी कोई आवैगा।'
विगत दिनों जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की तो न जाने कैसे टीवी की स्क्रीन पर चाचीजी की मुखाकृति उभरती नजर आई। पितृाणी सी छवि, सफेद लिबास, मुख पर वही पसरी हुई मुस्कान, चेहरे पर संतोष के भाव और दोनों हाथ आशीर्वाद के लिए उठे हुए मानो मुझे कह रहे हों हम ब्राह्मण-बनियों को भी कोई अंबेडकर मिल गया है। पिछली सदी के अंबेडकर ने सदियों से उत्पीडऩ सहते हिंदू समाज की कथित दलित जातियों को न्याय दिलवाया तो आज के अंबेडकर ने गरीबी, लाचारी, आक्रोश परंतु बेबसी से युक्त सवर्ण जाति के लोगों को उनका अधिकार दिया है। मोदी सरकार ने आर्थिक निर्बलता के आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने का जो फैसला किया है वह निश्चित रूप से साहसिक कदम और एक बड़ी पहल है। इस फैसले से आर्थिक असमानता के साथ ही जातीय वैमनस्य को दूर करने की दिशा में नयी फिजाएं उद्घाटित होंगी। मोदी सरकार ने आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए यह आरक्षण की व्यवस्था करके केवल एक सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ही काम नहीं किया है, बल्कि आरक्षण व्यवस्था को भी एक नया मोड़ दिया है। संभावना है कि इस फैसले से समाज में आरक्षण को लेकर हो रहे हिंसक एवं अराजक माहौल पर भी विराम लगेगा। देशभर की सवर्ण जातियां आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करती आ रही हैं। 

भारतीय संविधान में आरक्षण का आधार आर्थिक निर्बलता न होकर सामाजिक भेदभाव व शैक्षणिक पिछड़ापन है। आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को नौकरियों में आरक्षण देने का फैसला एक सकारात्मक परिवेश का द्योतक है, इससे आरक्षण विषयक राजनीति करने वालों की कुचेष्टाओं पर लगाम लग सकेगी। आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीडि़त व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी समाज के बराबर आ सकें। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय सभी के गले कभी नहीं उतरा। संविधान एवं राजनीति की एक बड़ी विसंगति एवं विडम्बना को दूर करने में यह फैसला निर्णायक भूमिका का निर्वाह करेगा। इससे उन सवर्णों को बड़ा सहारा मिलेगा जो आर्थिक रूप से विपन्न होने के बावजूद आरक्षित वर्ग से जुड़ी सुविधा पाने से वंचित रहे हैं। इसके चलते वे स्वयं को असहाय-उपेक्षित तो महसूस कर ही रहे थे, उनमें आरक्षण व्यवस्था को लेकर गहरा असंतोष एवं आक्रोश भी व्याप्त था, जो समय-समय पर हिंसक रूप में व्यक्त भी होता रहा है। हम जातपात का विरोध करते रहे हैं, जातिवाद समाप्त करने का नारा भी देते रहे हैं और आरक्षण भी दे रहे हैं। सही विकल्प वह होता है, जो बिना वर्ग संघर्ष को उकसाये, बिना असंतोष पैदा किए, सहयोग एवं सौहार्द की भावना पैदा करता है। संभवत: मोदी की पहल से यह सकारात्मक वातावरण बन सकेगा, जिसका स्वागत होना ही चाहिए। 

देश में जातिवाद सैंकड़ों वर्षों से है, पर इसे संवैधानिक अधिकार का रूप देना उचित नहीं माना गया है। हालांकि राजनैतिक दल अपने वोट स्वार्थ के कारण इसे नकारते नहीं, पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। और कुछ नारे, जो अर्थ नहीं रखते सभी पार्टियां लगाती रही हैं। इसका विरोध आज नेता नहीं, जनता कर रही है। वह नेतृत्व की नींद और जनता का जागरण है। यह कहा जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान विधान में नहीं है। पर संविधान का जो प्रावधान राष्ट्रीय जीवन में विष घोल दे, जातिवाद के वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दे, वह सर्व हितकारी कैसे हो सकता है? पं. नेहरू व बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी सीमित वर्षों के लिए आरक्षण की वकालत की थी तथा इसे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी पहलू न बनने का कहा था। डॉ. लोहिया का नाम लेने वाले शायद यह नहीं जानते कि उन्होंने भी कहा था कि अगर देश को ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, शेख, सैयद में बांटा गया तो सब चौपट हो जाएगा। जाति विशेष में पिछड़ा और शेष वर्ग में पिछड़ा भिन्न कैसे हो सकता है? गरीब की बस एक ही जाति होती है और वह है गरीब। गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की मांग कोई नई नहीं है। यह हमेशा ही जहां-तहां उठती रही है, यहां तक कि दलितों की नेता मानी जाने वाली मायावती भी इसके पक्ष में खड़ी दिखाई दी हैं। लेकिन पहली बार इसे बड़े पैमाने पर लागू करने का फैसला संविधान संशोधन के वादे के साथ हुआ है। यह पहली बार है, जब किसी तबके की कमजोर आर्थिक स्थिति को आरक्षण से जोड़ा गया है। अभी तक देश में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण मिलता रहा है, उसमें यह पैमाना नहीं था। आरक्षण के बारे में यह धारणा रही है कि यह आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का औजार नहीं है। यह दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण करके उन्हें सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा दिलाने का मार्ग है। आरक्षण को सामाजिक नीति की तरह देखा जाता रहा है, साथ ही यह भी माना जाता रहा है कि आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का काम आर्थिक नीतियों से होगा। अब जब आरक्षण में आर्थिक आधार जुड़ रहा है, तो जाहिर है कि आरक्षण को लेकर मूलभूत सोच भी कहीं न कहीं बदलेगी और यह बदलाव राष्ट्रीय चेतना को एक नया परिवेश देगा। क्योंकि जाति-पाति में विश्वास ने देश को जोडऩे का नहीं, तोडऩे का ही काम किया है। हमें जातिविहीन स्वस्थ समाज की रचना के लिए संकल्पित होने की जरूरत है क्योंकि भारतीयता में एवं भारतीय संस्कृति में मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से छोटा-बड़ा होता है। आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले ने यकायक भारतीय राजनीति की सोच के तेवर और स्वर बदल दिए हैं। आर्थिक आधार पर आरक्षण की भविष्य में स्थितियां क्या बनेंगी, यह समय के गर्भ में हैं, लेकिन इतना तय है कि न्यायिक स्थितियां भी इसकी अनदेखी नहीं कर पाएंगी, क्योंकि संविधान का मूल उद्देश्य लोगों की भलाई है और वह इस देश के लोगों के लिये बना है, न कि लोग उसके लिये बने हैं। भारतीय समाज में एक सकारात्मक पहल मोदी ने की है। नई सदी के अंबेदकर के रूप में इतिहास सदैव उनका स्मरण करेगा।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
मो. 070098-05778

Saturday, 12 January 2019

राममंदिर, तासु पंथ को रोकन पारा।।

अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण के काम में कुछ शक्तियां कालनेमि की भांति विघ्न डालने व विलंब करवाने में जुटी दिख रही हैं परंतु इन शक्तियों को खुद उस मायावी से ही सीख लेनी होगी। मूर्छित लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी लाने निकले हनुमान जी के काम में विलंब कराने के लिए रावण अपने साथी मायावी कालनेमि के पास जाता है। राम की वास्तविकता से परिचित कालनेमि रावण को ही समझाते हुए कहता है -

देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। 
तासु पंथ को रोकन पारा।।

अर्थात रावण की योजना सुन कर कालनेमि अपना सिर धुनते हुए कहता है, वो हनुमान जिसने देखते ही देखते तुम्हारे नगर को जला डाला उसका मार्ग कौन रोक सकता है। सर्वोच्च न्यायालय में अयोध्या विवाद पर जिस तरह न्याय के मार्ग में रोड़े अटकाने व अनावश्यक विलंब करने की चेष्टा हो रही है उससे कालनेमि एकाएक स्मृति में आता है। सर्वोच्च न्यायालय अलाहबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ द्वारा 30 सितंबर, 2010 को दो-एक के मत से दिए फैसले को लेकर दिवानी मामले की सुनवाई कर रहा है। उक्त पीठ ने विवादित स्थान पर मंदिर होना स्वीकार किया परंतु सरकार द्वारा अधिग्रहित 2.77 एकड़ जमीन को तीन पक्षकारों जिनमें स्वयं रामलला, निर्मोही अखाड़ा व बाबरी मस्जिद में बराबर-बराबर बांटने को कहा। इसके खिलाफ तीनों पक्षों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिस पर अब कालनेमि छाया पड़ती दिख रही है।

सभी जानते हैं कि गुजरात विधानसभा चुनाव के समय 7 दिसंबर, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय में अयोध्या मामले पर सुनवाई के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व कैबिनेट मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने अपील की थी कि इस विवाद की सुनावाई लोकसभा चुनाव के बाद जुलाई, 2019 तक टाल देनी चाहिए। कांग्रेस ने केवल अपील ही नहीं की बल्कि महाभियोग के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा को धमकाने का भी प्रयास किया। कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने तीन न्यायाधीशों द्वारा इतिहास में पहली बार की गई प्रेस कान्फ्रेंस व एक न्यायाधीश की मौत को लेकर तरह-तरह की बातें कीं। कांग्रेस, सपा, बसपा व वामपंथी दलों के 71 सांसदों ने उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा अध्यक्ष श्री एम. वैंकेया के पास इसके लिए आवेदन भी दिया परंतु 24 अप्रैल, 2018 को श्री नायडू ने इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया। लेकिन कालनेमि ने हार नहीं मानी और अपना प्रयास जारी रखा। 27 सितंबर, 2018 को सर्वोच्च न्यायालय से पहले 1994 को इस्माईल फारूकी के उस फैसले पर विचार करने को कहा गया जिसमें मस्जिद को इस्लाम में इबादत के लिए जरूरी नहीं बताया गया था। चाहे इस निर्णय का अयोध्या विवाद से कोई लेना देना नहीं था परंतु सभी जानते हैं कि यह केवल कालनेमि प्रयास था। न्यायालय ने इस पर भी विचार करने का निर्णय लिया तो मंदिर विरोधियों  ने विवाद की सुनवाई बड़ी न्यायिक पीठ से करवाने की मांग रख दी। इस अपील पर विचार करते-करते न्यायाधीश मिश्रा सेवानिवृत हो गए और नए न्यायाधीश श्री रंजन गगोई ने नए सिरे से मामले की सुनवाई शुरू की। अदालत ने 29 अक्तूब, 2018 से इस मामले की नियमित सुनवाई करने का निर्णय लिया था परंतु अज्ञात कारण से न्यायालय ने इसे अपनी प्राथमिकता में शामिल नहीं होने की बात कही जिससे देशवासियों को काफी आघात लगा। अदालत ने 2 जनवरी,2019 को मामले की सुनवाई को पीठ गठित करने की तारीख दे दी और उसके इसे बढ़ा कर 10 जनवरी कर दिया। इस बीच 8 जनवरी को अदालत ने नए मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गगोई के नेतृत्व में पांच सदस्यीय पीठ का गठन किया गया जिसमें न्यायाधीश सर्वश्री यूयू ललित, एसए बोबडे, एनवी रमन्ना, डीवाई चंद्रचूड़ को शामिल किया गया। पांच सदस्यीय पीठ गठित होने पर मुस्लिम पक्षकार श्री इकबाल अंसारी ने इस पर भी आपत्ति जतानी शुरू कर दी। हालांकि सुनवाई से पहले न्यायालय ने पीठ का गठन कर दिया और अगर इस पर किसी को आपत्ति थी तो वह पहले ही दर्ज करवा सकता था परंतु 10 जनवरी को सुनवाई एन मौके पर सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से पेश हुए वकील श्री राजीव धवन ने इस बात पर आपत्ति जताई कि पीठ में शामिल न्यायाधीश श्री यूयू ललित उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के केस (सन 1994) में वकील के तौर पर पेश हो चुके हैं। इस पर मुख्य न्यायाधीश श्री गगोई ने नई पीठ गठित करने की घोषणा की और अगली तारीख 29 जनवरी डाल दी है। न्यायविदों के अनुसार, हालांकि न्यायाधीश श्री ललित का पीठ में बने रहना किसी तरह गलत नहीं था क्योंकि वे श्री कल्याण सिंह के जिस केस में अदालत में हाजिर हुए वह आपराधिक था और अयोध्या मामला दीवानी है। कल्याण सिंह के केस का इस केस से कोई सरोकार भी नहीं है लेकिन इसके बावजूद भी यह हमारी न्यायिक प्रक्रिया की सरलता ही कही जा सकती है कि केस की अगली तारीख मिल गई। 

कालनेमि इतमें ही संतुष्ट हो जाए इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। सुनने में आरहा है कि केस से जुड़े 14000 से अधिक पृष्ठों का संस्कृत, गुरमुखी, उर्दू, फारसी भाषाओं के अनुवाद पर अगली तारीख लिए जाने की तैयारी है। हालांकि मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने रिकार्ड 15 दिनों में इन पन्नों का अनुवाद करवा कर केस में गति प्रदान करने का काम किया परंतु दूसरा पक्ष इस पर विवाद पैदा करने की सोच चुका है। मुस्लिम पर्सनल ला के एक सदस्य ने न्यायिक पीठ में कोई मुस्लिम न्यायाधीश न होने का सवाल उठा दिया। हो सकता है कि दूसरा पक्ष इसको लेकर भी कोई अपील करे और मामले को लटकाने, अटकाने व भटकाने के प्रयास और भी तेज हों। इस बीच ज्यों-ज्यों केस लंबा खिंच रहा है त्यों-त्यों कांग्रेस नेता श्री कपिल सिब्बल की अदालत को चुनाव तक केस टालने की अपील स्वत: ही स्वीकृत होती दिख रही है। देश की न्याय व्यवस्था में इस तरह के प्रावधान किसी पीडि़त को न्याय दिलवाने व गलत ढंग से फंसे आरोपी को बचाने के लिए की गई थीं परंतु वर्तमान में कालनेमि रूपी चालाक लोग इसका गलत लाभ उठाते दिख रहे हैं।

कालनेमि ने अपनी माया से साधू का वेष धारण कर हनुमानजी के मार्ग में कुटिया डाल ली और ऊंचे-ऊंचे स्वरों में रामनाम का जाप करने लगा। उसे देख एक बार तो हनुमानजी भी भ्रमित हुए परंतु उसका कपट अधिक देर तक नहीं चल पाया। आज भी राममंदिर के मार्ग में बाधा पहुंचाने वाले कोट के ऊपर जनेऊ धारण कर मंदिर-मंदिर परिक्रमा करते दिख रहे हैं और सार्वजनिक बहस में राममंदिर के हिमायती भी बनते हैं परंतु उनकी पार्टी के नेता कैसे-कैसे षड्यंत्र करते हैं और विवाद के निपटारे में बाधा पैदा कर रहे हैं वह किसी से छिपा नहीं। इस केस में 14 अपील दायर हुई हैं जिससे साफ पता चलता है कि कुछ कालनेमि ज्ञात हैं तो कुछ अज्ञात शक्तियां भी हैं जो इस विवाद को जिंदा रख कर देश में सांप्रदायिक सौहार्द को बारूद के ढेर पर बैठाए रखना चाहती हैं।

दूसरी ओर केस को लटकाने के प्रयास इशारा करते हैं कि कहीं न कहीं मंदिर विरोधियों को पूरी आशंका है कि केस की नियमित सुनवाई होती है तो बहुत जल्द फैसला आ सकता है और वह भी उनके विरोध में। न्यायिक प्रणाली विवादित स्थान पर मंदिर होना स्वीकार कर ही चुकी है और इसके एतिहासिक, भू-गौलिक साक्ष्य भी मंदिर के पक्षकारों के साथ हैं। कांग्रेस सहित बाकी छद्म सैक्यूलर दलों का हित इसी में है कि विवाद को जितना हो उतना लटकाया व भटकाया जाए क्योंकि फैसला समय पर आता है तो उन्हें यह निर्धारण करने में असुविधा होगी कि वे मंदिर के पक्ष में बोलें या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के कोढ़ को खुजाएं। बाबरी पक्ष विलंब को ही अपनी जीत मान रहा है परंतु मंदिर विरोधियों को कालनेमि से ही सीख लेनी चाहिए। रावण को समझाते हुए कालनेमि कहता है - 

मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। 
महा मोह निसि सूतत जागू।
काल ब्याल कर भच्छक जोई। 
सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई।

हे रावण, हमें मूढ़ता त्याग देनी चाहिए क्योंकि जो राम काल रूपी सर्प के भी भक्षक हैं उनको क्या कोई सपने में भी जीत सकता है?


- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
मो. 070098-05778

Tuesday, 8 January 2019

नसीरुद्दीन, शाह बनाम स्याह


कहावत है कि, नुक्ते के हेरफेर से खुदा भी जुदा हो गया। जैसे नुक्ते बात का अर्थ बदल देते हैं उसी प्रकार इंसान का व्यवहार उसकी छवि बनाता- बिगाड़ता है जिससे शाह भी स्याह दिखने लगते हैं। निर्विवाद रूप से कलात्मक चलचित्रों से लेकर मसाला मूवी और रंगमंच तक पर प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले नसीरूद्दीन शाह इस युग के महानतम कलाकारों में से एक हैं। उनको कई तरह के फिल्म फेयर पुरस्कारों के साथ-साथ 1987 में पद्मश्री और 2003 में पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है, लेकिन नुक्तों के हेरफेर से वे शाह से स्याह भूमिका निभाते दिखने लगे हैं। भारत में अपने बच्चों की सुरक्षा के बारे में दिए बयान के बाद नसीरुद्दीन ने एक बार फिर आरोप लगाया है कि देश में नफरत और घृणा फैली है। शाह का ये बयान एमनेस्टी इंडिया ने अपने ट्वीटर हैंडल पर 2.14 मिनट के वीडियो में दिखाया है। वीडियो में शाह कहते हैं कि- देश में अब कलाकारों को दबाया जा रहा और पत्रकारों की आवाज को शांत किया जा रहा है। अन्याय के खिलाफ जो भी खड़ा होता है, उनके ऑफिस में छापे मारे जाते हैं, लाइसेंस कैंसिल कर दिए जाते हैं। बैंक खाते फ्रीज कर दिए जाते हैं। एमनेस्टी इंडिया ने अपने विडियो के साथ ट्वीट में लिखा है- 2018 में भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के साथ खड़े रहने वालों का तेजी से दमन किया गया। इस नए साल पर चलिए हम सब संवैधानिक मूल्यों के लिए खड़े हों और भारत सरकार को कहें कि दमन बंद हो। इसके पहले नसीरूद्दीन शाह ने कहा था कि वो अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए चिंतित हैं। यहां गाय की हत्या को पुलिस इंस्पेक्टर के कत्ल से बड़ा बताया जा रहा है। उनके इस ब्यान के बाद देश में राजनीतिक मंच के साथ-साथ मीडिया व सोशल मीडिया में खूब कोहराम मचा और एवार्ड वापसी गौत्र वाले फिर से नथुने फैलाते नजर आने लगे।

जो लोग नसीरुद्दीन के इस दर्द को गैर राजनीतिक व स्वस्थ बहस बता रहे हैं वे अपने मत पर पुनर्विचार करें। शाह न तो अराजनीतिक व्यक्ति हैं और न ही उनकी बहस स्वस्थ है। नसीरुद्दीन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मंच पर उनके लिखे संवाद पढ़ते नजर आए। सभी जानते हैं कि प्रवर्तन निदेशालय ने गत वर्ष 25 अक्तूबर को विदेशी वित्तपोषण की जांच के लिए बैगलुरु स्थित एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यालय में छापामारी की और खातों को सील किया। निदेशालय विदेशी सहयोग (नियंत्रण) अधिनियम के तहत एमनेस्टी इंटरनेशनल को मिले 36 करोड़ रुपये के विदेशी चंदे की जांच कर रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल एक अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था होने का दावा करती है जो अपना उद्देश्य मानवीय मूल्यों, एवं मानवीय स्वतंत्रता को बचाने एवं भेदभाव मिटाने के लिए शोध एवं प्रतिरोध करने एवं हर तरह के मानवाधिकारों के लिए लडना बताती है। इसकी स्थापना ब्रिटेन में 1961 में हुई थी। इस संस्था पर विकासशील देशों पर विकसित देशों के अंकुश व उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के आरोप भी लगते रहे हैं। आतंकवाद के मोर्चे पर लड़ते हुए भारत को कई बार इस एजेंसी के कथित पक्षपाती रवैये के चलते अंतरराष्ट्रीय समुदाय में आलोचना का सामना भी करना पड़ा। 

दूसरी ओर नासीर जिन गैर सामाजिक संगठनों के लाइसेंस रद्द होने की दुहाई दे रहे हैं उनकी वास्तविकता भी देश के सामने आचुकी है। 27 दिसंबर, 2016 को केंद्रीय गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने बताया कि केंद्र सरकार विदेशी सहयोग (नियंत्रण) अधिनियम के उल्लंघन में देश में चल रहे 33000 गैर सरकारी संगठनों में से 20000 के लाइसेंस रद्द कर चुकी है। शेष 13000 गैर सरकारी संगठनों में से 3000 ने अपने लाइसेंस रिन्यू करवाने के आवेदन दिए और 2000 ने पंजीकरन के लिए आवेदन किया। यानि ये संगठन अभी तक बिना लाइसेंस व मंजूरी के चले आरहे थे। इन संगठनों पर विदेशी ताकतें कितनी मेहरबान रहीं इसका अनुमान इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय गृहराज्य मंत्री श्री किरन रिजीजू ने 20 दिसंबर, 2017 को राज्यसभा में बताया कि इन संगठनों को साल 2015-16 में 17773 करोड़ और अगले वित्त वर्ष में 6499 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। यह वो राशि है जो एक प्रमाणिक प्रक्रिया से इन संगठनों को मिली और अवैध तरीके से मिले धन के बारे अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। सभी गैर सरकारी संगठनों को गलत नहीं ठहराया जा सकता परंतु यह भी सही है कि अधिकतर की गतिविधियां संदिग्ध ही रही हैं। इसका जीवंत उदाहरण है कि 24 फरवरी, 2012 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तमिलनाडू के कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ चल रहे गैर सरकारी संगठनों के आंदोलन के पीछे विदेशी हाथ का खुलासा कर चुके हैं। राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत भारतीय नागरिक होने के बावजूद अगर नसीरुद्दीन इस तरह की संदिग्ध एजेंसी व गैर सरकारी संगठनों की वकालत करते हैं तो इसे अवश्य ही उनके चरित्र का स्याह पक्ष कहा जाना चाहिए।

दूसरी ओर नसीरुद्दीन किसी राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेते वह दूसरी बात है परंतु वे पूरी तरह गैर राजनीतिक व्यक्ति हैं यह कहना अर्धसत्य होगा। शाह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े हैं। बीबीसी लंदन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, उनकी पत्नी रत्ना पाठक शाह, इप्टा के संस्थापकों में एक श्रीमती दीना पाठक की बेटी हैं। श्रीमती दीना पाठक स्वयं हिंदी फिल्मों की उम्दा कलाकार रही हैं। फिल्मों में संघर्ष के शुरुआती दिनों में नसीर इप्टा से जुड़ गए थे। इप्टा के 1975 में आए नाटक 'संभोग से संन्यास' तक में नसीर और रत्ना पाठक ने एक साथ अभिनय किया। इप्टा शुरु से ही वामपंथी विचारधारा से प्रभावित और उसके मंच के रूप में काम करती रही है। औपनिवेशीकरण, साम्राज्यवाद व फासीवाद के विरोध में इप्टा की स्थापना 25 मई, 1943 को की गई। 'इप्टा' का यह नामकरण सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया। ऐसे कलाकार जो सामाजिक सरोकारों जुड़े हुए थे और कला के विविध रूपों यथा संगीत, नृत्य, फिल्म व रंगकर्म आदि को वृहद मानव कल्याण के परिप्रेक्ष्य में देखते थे, एक-एक कर इप्टा से जुड़ते गये। इनमें बलराज साहनी, एके हंगल, शबाना आजमी, संजीव कुमार, ओमपुरी, गीतकार कैफी आजमी, पृथ्वीराज कपूर सहित अनेक भारी भरकम नाम जुड़े हैं। इसी वामपंथी विचारधारा से जुड़े 60 लोगों जिनमें इमित्याज अली, विशाल भारद्वाज, नंदिता दास, गोविंद निहलानी, सैयद मिर्जा, जोया अख्तर, कबीर खान, महेश भट्ट इत्यादि ने साल 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले  एक अपील जारी कर लोगों को श्री नरेंद्र मोदी का विरोध करने को कहा था। कईयों ने चेतावनी भी दी कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बने तो वे भारत छोड़ देंगे। साल 2015 में जब बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहे थे तो इन्हीं वामपंथी बुद्धिजीवियों ने देश में असनशीलता फैलने का बवंडर पैदा कर पुरस्कार वापसी का ऐसा अभियान चलाया जिसके चलते मोदी सरकार को विश्वव्यापी आलोचना का शिकार होना पड़ा और इन चुनावों में भाजपा को भी पराजय का सामना करना पड़ा। देश वर्तमान में भी चुनावी मुहाने पर खड़ा है और पुरी दुनिया की नजरें इन पर टिकी हैं। अगर नसीरुद्दीन शाह ने चुनावों के मद्देनजर कुछ बोला है तो यह कहने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उन्होंने खुद अपना स्तर काफी नीचे गिरा लिया है। आज देश में ऐसे हालात नहीं है कि जिससे किसी को भयभीत होना पड़े या कहीं नहीं लगता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है। अगर किसी ने झूठ-फरेब की राजनीति करनी है तो यह बात इतर है लेकिन देश नासीर भाई को 'शाह' के रूप में पसंद करता है 'स्याह' के नहीं।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
मो. 070098-05778

Friday, 4 January 2019

मोदी, पंजाब दे सच्चे दोस्त

देश की राजनीति में यह आम रिवायत रही है कि कोई बड़ा नेता किसी प्रदेश में जाता है तो वहां की वेशभुषा धारण कर वहां की संस्कृति के प्रति सम्मान प्रकट करता है। पंजाब में भी समय-समय पर बड़े नेता व राजनीतिज्ञ आते रहे और पंजाबियों की आन,बान और शान की प्रतीक दस्तार को अपने शीष पर सजाते रहे हैं। वैसे तो यह परंपरा तो कईयों ने निभाई है परंतु अपने सिर पर रखी दस्तार को अपने कामों से उचित सम्मान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ही देते दिखाई दे रहे हैं। विषय चाहे 1984 के सिख दंगा पीडि़तों को न्याय दिलवाने का रहा हो या श्री करतारपुर साहिब गलियारे का या सिख गुरु साहिबानों के जीवन से जुड़े एतिहासिक पर्वों के आयोजन व यहां के भूमिपुत्र किसानों का साथ देने या फिर विकास का मोदी ने हर समय पंजाब, पंजाबियों व पंजाबियत का साथ दिया है।

साल 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश के विभिन्न हिस्सों विशेषक दिल्ली में जिस तरह से सिख समुदाय पर अत्याचार हुए वह देश के इतिहास का काला अध्याय हैं। इन दंगों में तीन हजार निर्दोष लोग मारे गए और असंख्य घायल हुए। दंगों में कितनी संपत्ति स्वाह हुई या लूटी गई इसका शायद ही सभी सही-सही अनुमान लगे। हजारों दंगा पीडि़त सिख परिवारों को दिल्ली से पंजाब सहित देश के विभिन्न हिस्सों में पलायन को विवश होना पड़ा। आहत सिख समाज शायद इन आघातों को तो सह लेता परंतु घायल समाज के रिसते जख्मों पर उस समय के राजनीतिक नेतृत्व ने यह कहते हुए नमक लगाने का पाप किया कि ‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।’ संविधान व देश की एकता-अखण्डता, भाईचारे की शपथ ले सत्तारूढ़ होती रही कांग्रेस के नेतृत्व वाली विभिन्न सरकारों ने अपनी पूरी ताकत इस प्रयास में लगाई कि किस प्रकार दंगा पीडि़तों के लिए न्यायिक प्रक्रिया को अटकाया, लटकाया, भटकाया और झटकाया जाए। इन दंगों को कम कर आंकने का भरसक प्रयास हुआ परंतु भाजपा के शीर्षस्थ नेता श्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा सदन में मुद्दा उठाने के बाद न केवल इन दंगों में मारे गए लोगों, घायलों व फूंकी गई संपत्ति की सही जानकारी देश को प्राप्त हो पाई बल्कि चाहे दिखावे के लिए ही सही तत्कालीन कांग्रेस सरकार को कुछ कार्रवाई करनी पड़ी। धरती हिलने वाले गैर-जिम्मेवाराना ब्यान की प्रतिक्रिया में श्री वाजपेयी ने कहा था कि ‘पेड़ गिरने से धरती नहीं हिलती बल्कि धरती हिलने से पेड़ गिरते हैं।’ उनकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और 2014 के लोकसभा चुनाव में ऐसी धरती हिली कि बड़े-बड़े राजवंशीय पेड़ धाराशाही होते दिखे। दंभी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 125 करोड़ भारतवासियों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाली सरकार का गठन हुआ।

देश की कमान संभालने के बाद साल 2016 में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इन सिख विरोधी दंगों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया। एसआईटी गठन के बाद बंद पड़े केसों को दोबारा खोला गया, फाइलों को खंगाला गया और अपराधियों के गिरेबान तक कानून के हाथ पहुंचने लगे। लगभग दो साल बाद ही इन प्रयासों के सार्थक पारिणाम सबके सामने आने लगे हैं। हाल ही में नवंबर 2018 में दिल्ली की अदालत ने सिख विरोधी दंगों से जुड़े एक मामले में दोषी यशपाल सिंह को सजा-ए-मौत और नरेश सहरावत को उम्रकैद की सजा सुनाई। 34 साल पुराने सिख दंगों से जुड़े किसी मामले में पहली बार किसी दोषी को मौत की सजा सुनाई गई। इस घटना के अगले ही महीने कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता सज्जन कुमार, पूर्व कांग्रेस पार्षद बलवान खोखर, गिरधारी लाल और सेवानिवृत कैप्टन भागमल को दोषी करार दिया गया। बाद में सज्जन कुमार को उम्रकैद व अन्यों को दस-दस साल की सजा सुनाई गई। न्याय के इतिहास में मोदी सरकार ने नई इबारत लिखी और लगभग नाउम्मीद हो चुके सिख दंगा पीडि़तों के जख्मों पर स्नेह, अपनत्व व न्याय का मरहम लगाया। इन दंगों से जुड़े अन्य केसों की सुनावाई भी बड़ी तेजी से चल रही है और बाकी दंगा पीडि़तों में भी विश्वास पैदा हुआ है कि भारतीय न्यायिक प्रणाली में देर भले है परंतु अंधेर नहीं। इन नाउम्मीद चेहरों पर जो उम्मीद का संतोष झलका है इसका श्रेय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार को ही जाता है।

देश के विभाजन के समय बंटवारे से सर्वाधिक पंजाब के लोग ही पीडि़त हुए। बंटवारे में न केवल लाखों लोग मारे गए बल्कि लाखों परिवारों को अपनी जमीन, जायदाद, कईयों को अपने परिजन वहां छोड़ कर विस्थापित होना पड़ा। विभाजन की पीड़ा का यही अंत नहीं होता, सबकुछ छुटने के साथ-साथ पीछे रह गए पंजाबियों के प्राणप्रिय धर्मस्थान, सिख गुरुओं के जीवन से जुड़े अनेक एतिहासिक गुरुद्वारे। इन गुरुद्वारों में प्रमुख नाम है श्री करतारपुर साहिब का जो पाकिस्तान के नारोवाल जिले में है। यह जगह लाहौर से 120 किलोमीटर दूर है जहां पर आज गुरुद्वारा है वहीं पर 22 सितंबर, 1539 को गुरुनानक देवजी ज्योति ज्योत समाए थे। गुरु जी ने इस जगह पर अपनी जिंदगी के 18 वर्ष बिताए। सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी यह पावन स्थल रावी नदी के करीब स्थित है और डेरा साहिब रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी चार किलोमीटर है। यह गुरुद्वारा भारत-पाकिस्तान सीमा से सिर्फ तीन किलोमीटर दूर है। गुरुद्वारा साहिब भारत की तरफ से साफ नजर आता है। वर्तमान में सीमा पर लगी दूरबीन से श्रद्धालु इस गुरुद्वारा साहिब के दर्शन दीदार करते हैं। सिख समाज अपने धर्मस्थलों के बिछुडऩे का दुख भूला नहीं और आने वाली पीढिय़ों को भी यह याद रहे इसके लिए ‘हे अकाल पुरख आपणे पंथ दे सदा सहाई दातार जीओ! श्री ननकाना साहिब ते होर गुरद्वारेयां, गुरधामां दे, जिनां तों पंथ नूं विछोड़ेया गया है, खुले दर्शन दीदार ते सेवा संभाल दा दान खालसा जी नूं बख्शो’ की अकांक्षा को दैनिक अरदास में शामिल कर लिया। अकाल पुरख ने पंजाबियों की यह अरदास सुनी और पंथ की सेवा करने का सौभाग्य श्री नरेंद्र मोदी को सुपुर्द किया जिन्होने बरसों से लटके आ रहे इस मुद्दे को अंजाम तक पहुँचाया। 

श्री गुरु नानक देव जी के 550 वें प्रकाश पर्व के इस साल में मोदी सरकार द्वारा इस समारोह को देश सहित दुनिया भर में पूरी श्रद्धा से मनाने का निर्णय लिया गया। कार्यक्रमों के तहत डाक टिकट, सिक्के जारी किए जाएंगे और नए साहित्य का सृजन किया जाएगा ताकि गुरुजी की शिक्षाएं और सिद्धांत पूरी दुनिया में फैल सकें। गुरुजी के जीवन से जुड़े सुल्तानपुर लोधी शहर में मुख्य कार्यक्रम आयोजित होंगे और इस नगर को स्मार्ट सिटी में शामिल किया गया। दुनिया भर में फैले भारतीय दूतावासों में भी यह समारोह आयोजित होंगे जिसमें दुनिया भर के विद्वान, लेखक, साहित्यकार, राजनेता, अनुसंधानकर्ता शामिल होंगे। सबसे बड़ी बात श्रद्धालुओं के लिए करतारपुर साहिब गलियारे का निर्माण रही, जिसका 26 नवंबर को उपराष्ट्रपति श्री वैंकेयानायडू के नेतृत्व में शिलान्यास किया जा चुका है। अब जल्द ही श्रद्धालु करतारपुर साहिब जाकर गुरुघर के खुले दर्शन दीदार व सेवा कर पाएंगे। इस गलियारे में वह सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाने की योजना है जो किसी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर यात्रियों को उपलब्ध रहती हैं। इस महान सेवा को निभा कर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने न केवल इतिहास बल्कि समूह पंजाबियों के दिलों में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा लिया है। इसी तरह श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हाल ही में पूरे देशभर में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज  के जन्म की 350वीं जयंती मनाई गई। सार भर चले कार्यक्रमों के दौरान अनेक एतिहासिक समारोह आयोजित किए गए जिनमें गुरुजी के जन्मस्थान श्री पटना साहिब में आयोजित हुआ कार्यक्रम विशेष वर्णननीय है।

पंजाब वीरों और भूमिपुत्रों की धरती है और यहां का जवान व किसान पूरी दुनिया में अपने कर्म तथा शौर्य के बल पर विख्यात है। पूरी दुनिया के साथ-साथ जवानों और किसानों का हाथ थामा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने। देश की स्वतंत्रता के बाद से सेना वन रैंक वन पेंशन की मांग करती आ रही थी। आजादी के छह-सात दशक बीत जाने के बाद भी जवानों को सिवाय राजनीतिक धोखे के कुछ नहीं मिला परंतु प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने सरकार में आते ही अगस्त 2015 में वन रैंक वन पेंशन योजना को लागू कर दिया। जहां तक किसानों का सवाल है किसान सोयल हैल्थ कार्ड, फसल बीमा योजना, गोबरधन योजना, निर्बाध यूरिया की आपूर्ति, निर्विघ्न बिजली की सप्लाई, रबि व खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में आशातीत वृद्धि, पशुधन योजना सहित अनेक किसान व कृषि हितैषी योजनाएं ऐसी चलाई गई हैं जिससे पूरे देश सहित पंजाब के किसानों ने राहत की सांस ली है। श्री मोदी की योजना साल 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की है जिस पर वे बड़ी तेजी से काम कर रहे हैं और इस योजना के परिणाम दिखाई भी देेने लगे हैं। पंजाब में ढांचागत विकास में मोदी सरकार की विशेष भूमिका रही है। उनके प्रयासों से ही राज्य में राष्ट्रीय राजमार्गों, बड़े-बड़े फ्लाइओवरों, पुलों, सडक़ों, ग्रामीण सडक़ों का निर्माण संभव हो पाया है। वर्तमान केंद्र सरकार के प्रयासों से ही अमृतसर में इंडियन इंस्टीच्यूट आफ मैनेजमेंट, बठिंडा में एम्स, फिरोजपुर में पीजीआई सेटेलाइट सेंटर जैसी दीर्घकालिक योजनाएं पंजाब में आनी संभव हुईं। इसके अतिरिक्त भारत सरकार 1919 में हुई जलियांवाला दुखांत की 100वीं सालगिरह मनाने जा रही है जिससे देशभर में देशभक्तिपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। पंजाब के व्यापार,उद्योगों के उत्थान में केंद्र सरकार विशेष रूप से सक्रिय है। पूरे देश के लिए स्टै्ंड अप योजना की शुरुआत प्रधानमंत्री श्री मोदी लुधियाना की सरजमीं से कर चुके हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को पंजाब दा सच्चा मित्र '  कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी।

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...