Monday, 27 May 2019

मोदी फकीर की झोली

2019 के आम चुनावों में रिकार्ड तोड़ सफलता से सत्ता में वापसी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली स्थित भारतीय जनता पार्टी मुख्यालय में कहा कि 130 करोड़ हिंदुस्तानियों ने फकीर की झोली भर दी। उन्होंने संकल्प जताया कि वह बद इरादे और बदनीयत से कोई काम नहीं करेंगे और अपने लिए कभी भी कुछ नहीं करेंगे। चुनाव के समय देश में 'नमो-नमो' थी और जीत की विनम्रता ने महौल को 'नम: नम:' बना दिया। यह देश स्वभाववत् ऐसा ही है, जिसके चोले में जेब न हो यहां की जनता उसकी झोली भर ही देती है। बिना जेब वाली धोती धारण करने वाले गांधी को इस देश ने महात्मा बना दिया तो नेताजी सुभाष बाबू के लिए महिलाओं ने अपने गहने तक उतार कर दे दिए। विदुर नीति में ठीक ही कहा है कि विश्वास और जन आशीर्वाद के सामने धन बल, सत्ता बल, षड्यंत्र, छल-प्रपंच बोने पड़ जाते हैं। आम चुनावों में मोदी की जीत व विपक्ष की पराजय की मिमांसा हो रही है तो राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, ध्रुवीकरण, सरकारी योजनाओं, विपक्ष की नकारात्मक राजनीति, विकल्प की कमी सहित अनेक मुद्दे विमर्श में हैं, लेकिन लगता है कि शायद बुद्धिजीवियों को कुछ समय के लिए अपनी खोपड़ी को आराम देना चाहिए। ये जीत इन मुद्दों के बावजूद इनसे इतर है, यह जीत है जनता के विश्वास की, वह जनता जिसने विश्वास किया उस फकीर पर जिसकी चोले को जेब नहीं लगी है। जिसकी माँ आज भी दस-बीस रूपये की हवाई चप्पल डालती है और परिवार के लोग छोटा-मोटा व्यवसाय कर जीवनयापन करते हैं। यह फकीर अपने लिए कुछ नहीं करता, उससे गलती हो सकती है, गति न्यूनाधिक होने की पूरी संभावना है परंतु नीयत साफ और इरादे नेक हैं। आखिर क्यों न विश्वास हो  इस फकीर पर।

विपक्ष की ही दृष्टि से देखें तो चुनाव में मोदी के सामने अनेक चुनौतियां भी थीं। आरोप था कि बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ी, किसानों की आय नहीं बढ़ी और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई। विपक्ष की मानें तो भारतीयों को नोटबंदी से काफी नुकसान उठाना पड़ा। जीएसटी को लेकर भी कई शिकायतें थीं, लेकिन विश्वास के चलते लोगों इन सबके लिए मोदी को जिम्मेदार नहीं माना। मोदी अपने भाषणों में लगातार कहते आए कि उन्हें 60 साल की अव्यवस्था को सुधारने के लिए पांच साल से अधिक समय चाहिए। लोगों ने उनकी बात पर विश्वास कर लिया और लबालब भर दी फकीर की झोली। लगातार दूसरी बार शानदार जीत हासिल करने वाले मोदी की तुलना 1980 के दशक लोकप्रिय अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से की जा सकती है, जिन्हें उस समय की आर्थिक मुश्किलों के लिए जनता ने जिम्मेदार नहीं माना। 

चुनाव में एक ओर झोली वाला फकीर था तो दूसरी ओर सूटकेस संस्कृति के प्रतीक, जो बार-बार कह रहे थे कि चौकीदार चोर है। मोदी के प्रति जनता के विश्वास का ही परिणाम दिखता है कि इस गाली गलौच से जनता ने खुद को अपमानित होता महसूस किया। खाऊंगा न खाने दूंगा के मोदी वचन पर जनता को इतना विश्वास था कि हजार बार झूठ दोहरा कर उसे सच बनाने वाली हिटलर के मंत्री गॉबल्स की थ्यूरी ही धाराशाही हो गई। पुलवामा आतंकी हमले के बाद मोदी ने पाकिस्तान को साफ जता दिया कि उसकी सेना बहुत बड़ी गलती कर चुकी है। शुरू में इसे पाकिस्तान को लेकर अपनाई जाने वाली नीति की रस्म माना परंतु बालाकोट पर हुई एयर स्ट्राईक ने उनके प्रति जनता का विश्वास का स्तर इतना ऊंचा कर दिया कि देश की सबसे पुरानी व सबसे अधिक शासन करने वाली कांग्रेस अपने साथियों के साथ उसमें आकण्ठ डूब गई। गरीबों के लिए बिजली, मकान, शौचालय, क्रेडिट कार्ड और रसोई गैस की व्यवस्था ने विश्वास की इस ईमारत की नींव पहले ही तैयार करके रखी थी। मोदी आम लोगों को विश्वास दिलवाने में कामयाब रहे कि अगर वे सत्ता में लौटते हैं तो देश सुरक्षित हाथों में रहेगा। अकसर आम लोगों की विदेश नीति में दिलचस्पी नहीं होती है, लेकिन चुनावी रिपोर्टिंग के दौरान विदेशी मीडिया ने भी माना कि अधिकतर मतदाताओं का विचार है कि मोदी के नेतृत्व में भारत का सम्मान विदेशों में बढ़ा है। मजबूत नेता की चाहत केवल भारत में पिछले कुछ दशकों से देखने को मिल रही थी, लोग मानने लगे हैं कि कद्दावर नेता के बिना देश न तो सम्मानपूर्वक जी सकता है और न ही विकास कर सकता। शिक्षित वर्ग के सामने रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, जापानी राष्ट्राध्यक्ष शिंजो आबे, तुर्की के राष्ट्रपति रेचैप तैय्यप आर्दोऑन, हंगरी के विक्टर ओर्बान, ब्राजील के जैर बोलसोनारो आदि उदाहरण बन कर आए जिनके मजबूत नेतृत्व ने अपने देशों को विकास के शिखर तक पहुंचाया। भारतीयों को मोदी के नेतृत्व में विश्वास हो गया कि डोकलाम में चीन जैसे अडिय़ल पड़ौसी को झुकाने वाले मोदी उनकी यह कमी पूरी कर सकते हैं। इसी विश्वास के चलते अबकी बार लगभग हर भारतीय स्थानीय प्रतिनिधि की अनदेखी कर मोदी के नाम पर मतदान करता नजर आया। 

जनता के विश्वास की शक्ति व इसमें छिपी आकांक्षाओं को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पहचाना है। तभी तो विजयी भाषण में उन्होंने कहा कि आपेक्षाएं निजी हित के लिए हों तो तनाव पैदा करती हैं परंतु किसी के प्रति जनाकांक्षाएं व जनविश्वास उस व्यक्ति को ऊर्जा प्रदान करता है। यही ऊर्जा है जो किसी नेता या सरकार को काम करने को मजबूर करता है। 2014 में नरेंद्र मोदी ने जनता से पांच साल नहीं बल्कि कम से कम दस साल मांगे थे ताकि वो अपनी योजनाओं को वास्तविक रूप में मूर्त रूप प्रदान कर सकें। उन्होंने गांधी जी की 150 वीं जयंती २ अक्तूबर, 2019 को स्वच्छ भारत अभियान, 2022 को किसानों की आय दोगुना करने जैसी अनेक योजनाएं आरंभ कीं और फोकस दस सालों पर केंद्रित रखा। विद्यार्थियों से बातचीत के दौरान जब एक युवक ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जताई तो मोदी ने सहज स्वभाव में कहा कि 2024 तक कोई वैकेंसी नहीं है। लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी को गले लगाने के लिए उनसे अपनी सीट से उठने को कहा तो अपने मोदी ने जवाब दिया कि यहां पर बैठाने या उठाने का काम जनता जनार्दन करती है, कोई व्यक्ति नहीं। असल में इसी तरह के आत्मविश्वासी नेता ही जनता में विश्वास पैदा करते हैं और यही विश्वास समाज में भी आत्मविश्वास का संचार करता है। शिवाजी ने समाज का आत्मविश्वास जगाया तो अदने से मराठा मुगलों के काल बन गए, गुरु गोबिंद सिंह जी ने निर्बल कहे जाने वाले समाज को इस कदर आत्मविश्वासी बना दिया कि एक-एक सिख सवा-सवा लाख से लडऩे की हिमाकत करने लगा। भारतीय समाज और राजनीतिक नेतृत्व आज विश्वास और आत्मविश्वास से सराबोर हैं, ऐसे में विकसित व शक्तिशाली भारत की उम्मीद बंधवना स्वभाविक है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां, 
जालंधर।

Saturday, 18 May 2019

Vote For Nation-Vote For Modi


देशभक्ति : साथ दो-अपराध है तो सजा दो

न्यायाधीश : आप
फैसले की तारीख : 19 मई, 2019
केस : मोदी बनाम बाकी सब
आरोपी : नरेंद्र दामोदर दास मोदी
अपराध : देशभक्ति
अपराधों का विवरण -
1.  आतंकवाद के घर में घुस कर जड़ पर प्रहार। कश्मीर में आतंक की कमर तोड़ी।
2.  पाकिस्तान की न्यूक्लीयर बम की हेंकड़ी निकाली। डोकलाम में चीन को उसकी हैसियत का एहसास दिलवाया।
3.  किसी समय देश के सात राज्यों में फैले नक्सलवाद को कुछ जिलों तक सीमित कर दिया।
4.  विदेशी चंदे पर पलने वाले एनजीओ की दुकानें बंद करवाईं।
5.  योग को दुनिया में मान्यता दिलवाई। संयुक्त राष्ट्र ने 21 जून को विश्व योग दिवस घोषित किया।
6.  गीता, गांधी, गौतम के रूप में भारतीय अध्यात्म को दुनिया में स्थापित किया।
7.  सत्ता के गलियारों में दलालों की भूमिका को खत्म किया।
8.  स्वच्छ भारत अभियान से सफाई को जनांदोलन बनाया।
9.  हथियारों के सौदों में दलालों की भूमिका को खत्म किया।
10.भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का प्रयास।
11.करोड़ों शौचालयों का निर्माण, करोड़ों गरीबों को मुफ्त मकान, करोड़ों गरीब महिलाओं को मुफ्त गैस सिलेंडर, करोड़ों स्वरोजगार के अवसरों का सृजन, लाखों युवाओं को नौकरियां दीं।
12.राष्ट्रनीति को राजनीति से ऊपर रखा।
13.अपमान का विषपान किया और 24 में से 18 घंटे जनकल्याण के काम किए।
14.पांच साल में एक भी अवकाश नहीं।
15.परिवार के सदस्यों के लिए कुछ नहीं किया, जो कुछ किया देश के लिए किया।
16.मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर पूर्ण विराम, सबका साथ-सबका विकास पर काम किया।
17.मजबूत अर्थव्यवस्था खड़ी की।
18.महंगाई पर पूर्ण नियंत्रण इत्यादि...इत्यादि।
पत्थर नहीं वो भी इंसान है, सारा जीवन ईमानदारी से जीने के बाद भी कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा उसे चोर कहता है तो उसके दिल को भी चोट पहुंचती होगी। कोई उसकी माँ को गाली देता है तो दिल उसका भी आहत होता होगा। पाकिस्तान हो या दुनिया का कोई भी जिहादी आतंकी संगठन, नक्सली हों या देश के टुकड़े-टुकड़े करने का ख्वाब देखने वाले, भ्रष्टाचारी हों या सत्ता का दलाल मीडिया का एक वर्ग सभी का सांझा दुश्मन है नरेंद्र मोदी। साथी हाथ बढ़ाना-एक अकेला थक जाएगा मिल कर बोझ उठाना, देशभक्ति सही है तो उसका साथ दो और अपराध है तो उसे सजा दो। आज फैसले का दिन है। अपने घरों से निकलें और आपको लगता है कि मोदी जो कर रहे हैं वो ठीक है तो उनके पक्ष में मतदान कर उनका साथ दें और गलत मानते हैं तो सजा दें। फैसला आपके हाथ।
- राकेश सैन

Wednesday, 15 May 2019

वंदे वाणीविनायकौ

17 वीं लोकसभा के लिए चुनावी शोर 19 मई को थम जाएगा। लगभग दो महीने चले चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अगर किसी पर सर्वाधिक अत्याचार हुआ तो वह है वाणी अर्थात जो आशीर्वाद है मां सरस्वती की। प्रचार के दौरान किस नेता ने किसके बारे क्या कहा इसे दोहराना उचित नहीं परंतु दुर्भाग्य है कि यह उस देश के वासियों की भाषा थी जिसके पूर्वजों ने भाषा को प्रथमेश गणपति जी से भी पहले स्थान दिया है। रामचरितमानस में तुलसीदास जी बालकाण्ड के आरंभ में मंगलाचरण में वाणी की सर्वप्रथम वंदना करते हुए लिखते हैं : -

वर्णानां अर्थसंघानां रसानां छंद सामपि।
मंगलानां च कत्र्तारौ वंदे वाणीविनायकौ।।

अर्थात अक्षरों, अर्थ, रसों, छंदों और मंगल करने वाले वाणी विनायक जी की मै वंदना करता हूं। वाणी विनायक ऐसे शुभ चिंतन और विवेक के प्रतीक हैं जिनके अह्वान से भाषा में कल्याणकारी तत्व दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इन तत्वों में भाषाई वर्णों-शब्दों के ज्ञान, अर्थ की जानकारी और रसमयी व मंगल वाणी गिनाए गए हैं। लेकिन देश के राजनेताओं को तो छोडि़ए इन दिनों बुद्धिजीवियों या साहित्य की भाषा में भी क्या इन गुणों का पालन देखने को मिल रहा है? देश का तो यह सनातन विचार रहा है कि जो सत्य कड़व हो और हित न करता हो तो भी अनुकरणीय नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो हित करने वाला असत्य भी अहितकारी सत्य से ज्यादा श्रेष्ठ है। जैसे एक मरणासन्न व्यक्ति को डाक्टर दिलासा दिलाता है कि वह ठीक हो जायेगा। यद्यपि यह असत्य है पर गलत नहीं, क्यूंकि यह झूठ मरीज में नई जान भी फूंक सकता है। देश के बहुत से नेता अपनी बदजुबानी के लिए जाने जाते हैं परंतु इनके इतर अन्यों ने भी जहर से जहर धोने का ही काम किया है। जिस तरह महाभारत में धर्म का उल्लंघन दोनों तरफ से हुआ उसी तरह आज भी भाषा की गिरावट के लिए एक दल या नेता को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। इस बदजुबानी ने लोकतंत्र का जो अहित किया है उसकी भरपाई में काफी समय लग सकता है।

इस चुनाव में देशवासियों ने प्रधानमंत्री के लिए पहली बार 'चोर' जैसा अश्लील और असभ्य शब्द सुनने को मिला और वह भी बिना किसी प्रमाण के।  देखने में आया है कि प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थियों में भी इतनी सूझबूझ होती है कि वे बड़ों के प्रति सम्माजनक भाषा का प्रयोग करते हैं परंतु  न जाने क्यों चोर-चोर चिल्लाने की जिद्द में कुछ लोग इतनी ढिठाई पर क्यों उतर आए कि सर्वोच्च न्यायालय में माफी मांगने के बावजूद निरंतर भाषा का चीरहरण करते रहे। याद रहे कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, लक्खू भाई पाठक व सेंट किट्स रिश्वत मामलों में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव का नाम लिया गया तो विपक्ष के कुछ लोगों ने संसद में 'श्री 420' के नारे लगाए। इस पर विपक्ष के नेता दिवंगत श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इनको डांटा और प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ध्यान रखने को कहा। हालांकि एक मामले में तो अदालत ने राव को कसूरवार ठहरा दिया था परंतु इसके बावजूद उनके पद के मान-सम्मान का विपक्ष ने पूरा ध्यान रखा। इसके विपरीत वर्तमान विपक्ष ने तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाएं तार-तार करके रख दीं। याद रखें कि अभद्र वाणी कटुता को जन्म देती है और कटुता हिंसा को। बंगाल में ममता बैनर्जी उदाहरण हैं कि जिस पार्टी के नेता ज्यादा कंटीली जुबान का प्रदर्शन करते हैं वे अपरोक्ष रूप से अपने समर्थकों को हिंसा के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वैचारिक मतभेद लोकतंत्र का शृंगार है जबकि कटुता व बदजुबानी उसके दुश्मन।

इस बार लोकसभा में इतनी बेजुबानी हुई कि पूरी चर्चा में जनता के मुद्दे व राजनीतिक दलों के वैचारिक सिद्धांत गौण हो कर रह गए। पहले चुनावों में नेहरु के समाजवाद, वामपंथियों के माक्र्सवाद, भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्मवाद सहित अनेक तरह के सिद्धांतों पर खुल कर बहसें सुनने को मिलती थीं परंतु अब पूरे फसाने में इनका जिक्र तक नहीं थाा। न तो बुद्धिजीवियों ने वैचारिक विषयों के बारे  लिखना जरूरी समझा और आज के नेताओं की तो बात ही क्या करें। जब नवजोत सिंह सिद्धू जैसों की बेलगाम जिव्हा, अरविंद केजरीवाल जैसों का वाचालपन, ध्रुवीकरण फैलाती यूपी के धुरंधरों की जुबान, मणिशंकर जैसे पढ़ेलिखों की गालियां सुर्खियां बटोरती हों, टीवी पर चीखना चिल्लाना ही प्रस्तोताओं (एंकरों) और प्रवक्ताओं की योग्यता मानी जानी लगे तो भला कौन मत्थापच्ची करे सिर खपाउ सिद्धांतों पर। सारगर्भित चर्चा के लिए जरूरी है किताबों में दिमाग खपाने की परंतु जब आरोप-प्रत्यारोपों पर छिछोरी चर्चाओं से काम चलता हो तो बौद्धिक परिश्रम की जहमत कौन उठाए। पढऩा,पढ़ाना और स्वाध्याय वैसे भी गूगल गुरु के दौर में पुराना फैशन माने जाने लगा है। गाली देने व गाली लिखने से काम चलता हो तो राजनीतिक सिद्धांत जाएं भाड़ में। लेकिन याद रहे, इस तरह का राजनीतिक व वैचारिक शार्टकट इस्तेमाल करके राजनीतिक आकांक्षाओं की तो पूर्ति हो सकती है परंतु स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह घातक है। लोकतंत्र सत्ता की म्यूजिकल रेस सरीखा खेल नहीं बल्कि इसका उद्देश्य अंतत: जनकल्याण है जिसको हासिल करना अस्वस्थ साधनों से संभव नहीं। अब्राहिम लिंकन ने जनतंत्र की परिभाषा करते हुए इसे जनता द्वारा, जनता की और जनता के लिए शासन प्रणाली बताया था। नेताओं की बदजुबानी से इस प्रणाली को आघात पहुंच रहा है तो जरूरी है कि सभी मिल कर इस विषय में विचार करें। श्री मद्भगवद गीता के 17वें अध्याय के 15वें श्लोक में वाणी के तप के बारे में कहा गया है कि : -  
             
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्याय अभ्यसनम चैव वाड़्मयम् तप उच्यते।।

अर्थात जो वाक्य उद्वेग न करने वाले हों, किसी को पीड़ा न पहुंचाने वाले हों, सत्य हों, प्रिय हों और हित करने वाले भी हों ,जो स्वाध्याय, सद्ग्रंथों के पढऩे, मनन करने के अभ्यास का परिणाम हों, वे वाणी का तप कहलाते हैं। अक्षर को भारतीय संस्कृति में ब्रह्म का ही स्वरूप माना गया है। हमें बोलते-सुनते, लिखते-पढ़ते समय वाणी की मर्यादा का पालन करना सीखना ही होगा।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

Monday, 6 May 2019

बोफोर्स घोटाला, कांग्रेस की दुखती रग छेड़ी गई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी अभियान के दौरान स्वर्गीय राजीव गांधी व बोफोर्स घोटाले का जिक्र क्या किया कि साठ के दशक में हिट हुए गीत  'हाल-ए-दिल हमने सुनाया तो बुरा मान गए' की तर्ज पर आज कांग्रेस पार्टी तिलमिलाती दिखाई दे रही है। मोदी ने उत्तर प्रदेश की एक चुनावी सभा में राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कहा, 'आपके पिताजी को आपके राग दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था। गाजे-बाजे के साथ मिस्टर क्लीन मिस्टर क्लीन चला था, लेकिन देखते ही देखते भ्रष्टाचारी नंबर वन के रूप में उनका जीवनकाल समाप्त हो गया।' कांग्रेस पार्टी ने चुनाव आयोग से मांग की है कि मोदी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। प्रधानमंत्री के लिए 'चोर' जैसा असभ्य शब्द प्रयोग करने वाले बड़बोले गांधी भाई-बहन से लेकर गली-मोहल्ला स्तर तक के कांग्रेसी ही नहीं नैतिक स्यापा कर रहे, बल्कि इस गाली गलौज को अपने संपादकीय कालम में स्थान देने वाले मीडिया के एक वर्ग को भी यह आपत्ति है कि राजनीतिक लाभ के लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव की छवि को तारतार किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि फरवरी-मार्च 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्वर्गीय राजीव गांधी और एक अन्य आरोपी भटनागर को मामले से बरी कर दिया तो फिर उस व्यक्ति को क्यों बदनाम किया जा रहा है जो अपनी सफाई देने के लिए दुनिया में जिंदा नहीं।

असल में बोफोर्स घोटाला कांग्रेस पार्टी विशेषकर गांधी गौत्र के राजनीतिक परिवार की वह दुखती रग है जिस पर हाथ पड़ते ही पूरी पार्टी कराह जाती है। कई विश्लेषक तो यहां तक कहते हैं कि बोफोर्स के दाग धोने के लिए ही तो बिना प्रमाण के राफेल-राफेल के नाम से झूठ बिलोया गया था परंतु आम चुनाव के लगभग अंतिम चरण में बोफोर्स का जिक्र होते ही अब कांग्रेस का बिलबिलाना समझ में आता है। यह ठीक है कि उच्च न्यायालय ने इस घोटाले में राजीव गांधी को आरोपमुक्त कर दिया परंतु इसके बावजूद भी बहुत से अनुत्तरित प्रश्न अभी भी शेष हैं जिनका कांग्रेस विशेषकर गांधी परिवार को जवाब देर सवेर देना ही होगा। सन् 1987 में यह बात सामने आई थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें आपूर्ति करने का सौदा हथियाने के लिये दलाली चुकाई थी। उस समय प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे इसका पर्दाफाश किया। आरोप था कि गांधी परिवार के नजदीकी इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोच्ची ने इस मामले में बिचौलिये की भूमिका अदा की, जिसके बदले में उसे दलाली की रकम का बड़ा हिस्सा मिला। यह ऐसा मसला है, जिस पर 1989 में राजीव गांधी की सरकार चली गई थी। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह नायक के तौर पर उभरे। बोफोर्स वह घपला जिसके बाद कभी भी कांग्रेस अकेले के दम पर सरकार में नहीं आ सकी।

घोटाले के इतिहास का सिंहावलोकन किया जाए तो सामने आता है कि 24 मार्च, 1986 को भारत और स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 155 एमएम की 400 होवित्जर तोप की सप्लाई के लिए 1437 करोड़ रुपये का सौदा हुआ। स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारी को 60 करोड़ रूपये घूस दिए हैं। 20 अप्रैल, 1987 को  लोकसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बताया था कि न ही कोई रिश्वत दी गई और न ही बीच में किसी बिचौलिये की भूमिका थी। सदन सहित पूरे देश में शोर मचने पर सरकार ने 6 अगस्त, 1987 को मामले की जांच के लिए पूर्व मंत्री बी.शंकरानंद के नेतृत्व में संयुक्त संसदीय कमिटी का गठन किया। 22 जनवरी, 1990 को सीबीआई ने आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी और जालसाजी का मामला दर्ज किया। मामला एबी बोफोर्स के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो, कथित बिचौलिये विन चड्ढा और हिंदुजा बंधुओं के खिलाफ दर्ज हुआ। मामले का एक अन्य इटली का व्यापारी बिचौलिया क्वात्रोच्ची था जिस पर बोफोर्स घाटाले में दलाली के जरिए घूस खाने का आरोप था। वह भारत छोड़कर फरार हो गया और फिर कभी नहीं आया। दिसंबर 2000 में क्वात्रोच्ची को मलेशिया में गिरफ्तार कर लिया गया। जनवरी 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और सीबीआई को निर्देश दिया कि क्वात्रोच्ची के खातों के जब्त करने पर यथापूर्व स्थिति बनाए रखा जाए लेकिन उसी दिन ही उसके खाते से पैसा निकाल लिया गया। मार्च-अप्रैल 2011 दिल्ली स्थित सीबीआई के विशेष न्यायालय ने क्वात्रोच्ची को बरी कर दिया और टिप्पणी की कि जनता की गाढ़ी कमाई को देश उसके प्रत्यर्पण पर खर्च नहीं कर सकता हैं क्योंकि पहले ही करीब 250 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। 14 जुलाई, 2017 को सीबीआई ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार आदेश दे तो फिर से बोफोर्स मामले की जांच शुरू कर सकती है। 2 फरवरी, 2018 को सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल करके दिल्ली उच्च न्यायालय के 2005 के फैसले को चुनौती दी परंतु यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि याचिका दायर करने में 13 साल विलंब क्यों किया गया।

कुछ यक्ष प्रश्न अभी भी कांग्रेस व गांधी कुटुंब के सम्मुख खड़े हैं जिनका जवाब देश मांग रहा है। कांग्रेस बताए कि उसकी सरकार के कार्यकाल के दौरान क्वात्रोच्ची देश छोड़ कर भागने में सफल कैसे हो गया ? पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने क्वात्रोच्ची के खातों  को सील कर दिया तो 2004 में कांग्रेस के सत्ता में आते ही किसके इशारों पर क्वात्रोच्ची बैंकों से राशि निकलवाई गई ? यूपीए सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर क्यों नहीं की ? क्या किसी गबन की जांच को इस हास्यस्पद आधार पर बंद किया जा सकता है कि घोटाला की गई राशि से अधिक खर्च उसकी जांच पर आचुका है ? मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान 2011 में सूचना आयोग को यह क्यों कहना पड़ा कि सीबीआई बोफोर्स घोटाले से जुड़े दस्तावेज उपलब्ध नहीं करवा रही ? आज कांग्रेस के नेता राजीव गांधी का नाम उछालने को लेकर किस आधार पर नैतिकता की बातें कर रहे हैं जो अभी तक सार्वजनिक मंचों पर 'चौकीदार चोर' जैसे नारे लगा कर गर्वोक्ति व विजयी भाव महसूस करते आरहे थे ? जबकि कांग्रेस के पास न तो मोदी के खिलाफ कोई प्रमाण हैं और न ही दलील, जबकि उक्त प्रश्न वो हैं जिससे कांग्रेस आजतक बचती आई है ? शीशे के घर में रहने वाले जब किसी को पत्थर मारते हैं तो उन्हें खिड़कियों के टूटने पर दूसरों को दोष भी नहीं देना चाहिए।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।

Wednesday, 1 May 2019

श्राप की चर्चा और पाप पर मौन

कल्पना करें कि द्वापर युग में आज का मीडिया होता तो किस तरह की महाभारत लिखी जाती। उसमेें द्रोपती द्वारा दुषासन के रक्त से केस धोने की विभत्स प्रतिज्ञा की निंदा, आलोचना और पांचाली को लेकर गाली गलौच तो होता परंतु चीरहरण का जिक्र सुनने को नहीं मिलता। यह तो धन्यवाद हो ईश्वर का कि महर्षि वेदव्यास आज के बुद्धिजीवियों की भांति छद्म प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष न थे और उन्होंने कौरव सभा की कलंक कथा की सच्चाई को समाज के सामने उजागर किया। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर प्रकरण साक्षी है कि आज के वेद व्यास श्राप की तो चर्चा करते हैं परंतु पाप पर मौन धार जाते हैं।

विगत यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान कथित हिंदू आतंकवाद व सैफरन टेरेरिज्म का चेहरा बना कर पेश की गई साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने अपबीती सुनाते हुए बताया कि मालेगांव बम विस्फोट मामले को मनवाने के लिए उन पर किस तरह अमानुषिक अत्याचार ढाए गए। साध्वी प्रज्ञा ने उस समय के एनआईए के अधिकारी व मुंबई आतंकी हमले के शहीद हेमंत करकरे को लेकर श्राप शब्द का प्रयोग किया जिस पर विवाद पैदा होने के बाद उन्होंने माफी भी मांग ली, परंतु उन बुद्धिजीवियों ने शायद साध्वी को अभी तक माफ नहीं किया जिन्होंने यूपीए सरकार के भगवा आतंक के झूठ को खूब उछाला और हिटलर के मंत्री जोसेफ गोयेबल्स की भांति हजारों नहीं लाखों बार इस झूठ का पाठ किया ताकि यह किसी न किसी तरह सच्चाई में बदल जाए। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने तो  शहीद के प्रति कहे गए अपशब्दों के लिए माफी मांग ली परंतु क्या देश के तत्कालीक कर्णाधार कभी अपने अपराध के लिए  देश विशेषकर हिंदू समाज से क्षमा मांगेंगे जिन्होंने साध्वी के बहाने पूरे हिंदू समाज को लांछित करने का अपराध किया?

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की व्यथा कुछ लोगों के लिए नई होगी परंतु साध्वी ने जेल में रहते हुए 2013-14 के रक्षाबंधन पर देश के सभी संपादकों को रक्षासूत्र भेजे और एक पत्र में अपने ऊपर हुए अत्याचारों की सारी कथा सुनाई। जालंधर से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'पथिक संदेश' का संपादक होने के नाते रक्षासूत्र मुझे भी प्राप्त हुआ और तब से साध्वी प्रज्ञा के साथ मेरा अंजान बहन-भाई का नाता जुड़ गया। शहीद हेमंत करकरे के बारे उनके मुख से अपमानजनक शब्द सुन कर मुझे भी दुख हुआ परंतु जब उन्होंने अपने कहे की माफी मांग ली तो लानत-मलानत का क्रम भी तो रुकना चाहिए। राजनीतिक दलों व बुद्धिजीवियों के लिए अगर श्राप की चर्चा इतनी ही जरूरी है तो वह बिना पापकथा के पूरी नहीं हो सकती।

साध्वी के शब्दों में मालेगांव बम विस्फोट सहित अनेक अपराध मनवाने के लिए उन्हें न केवल पशुओं की भांति मारा-पीटा गया बल्कि पुरुष पुलिस कर्मचारियों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार भी किया। हिरासत में प्रताडऩा के दौरान उनकी नारी सुलभ मर्यादा का कितना मान सम्मान किया गया होगा इसका अनुमान तो सहज ही लगाया जा सकता है। पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे को एक तरफ कर भी दिया जाए तो आखिर वो कौन सी ताकत थी जो हर हाल में साध्वी प्रज्ञा के बहाने किसी भी कीमत पर हिंदू आतंकवाद का सिद्धांत स्थापित करना चाहती थी। करकरे तो उस यूपीए सरकार के औजार मात्र थे जिसके कर्णाधार राहुल गांधी, पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, सुशील शिंदे जैसे अनेक कई लोग अपने राजनीतिक फायदे के लिए जिहादी आतंकवाद के समानांतर भगवा आतंकवाद का हौवा खड़ा करने की जल्दबाजी में थे। दुर्भाग्य है कि आज का बुद्धिजीवी वर्ग साध्वी के श्राप के लिए तो उन्हें फांसी तक देने को तैयार है और अत्याचारों पर मौनी बाबा बना है। न तो मानवाधिकार वादी और न ही कोई महिलावादी न्याय की बात करने का साहस जुटा पा रहे हैं। मोमबत्ती ब्रिगेड के स्टॉक में तो मानो मोमबत्तियों का अकाल पड़ चुका है। इन बुद्धिजीवियों के समक्ष छोटा सा प्रश्न है कि एक साध्वी के रूप में विचाराधीन महिला कैदी को अवैध हिरासत में रखना, पुरुष कर्मचारियों द्वारा प्रताडि़त करना, गाली गलौच करना, अश्लील वीडियो दिखाना तो भारतीय दंड संहिता, अपराधिक दंड प्रक्रिया, जेल अधिनियम, यौन उत्पीडऩ अधिनियम की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत संगीन अपराध है और कृपया बुद्धिजीवी बताएं कि श्राप देना कौन से अपराध के अंतर्गत आता है? श्राप देने पर आईपीसी, सीआरपीसी की कौन-कौन सी धाराएं लगाई जा सकती हैं? शर्मनाक है कि अपराध की तरफ आंखें बंद करके एक हाय के लिए एक महिला  को प्रताडि़त करने का प्रयास हो रहा है जो किसी भी दुखी हृदय से अक्सर निकल जाती है। क्या निर्बल,असहाय व दुखी व्यक्ति को अब हाय देने का अधिकार भी नहीं है?

साध्वी प्रज्ञा पर हुआ अत्याचार केवल एक व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि उस पूरे हिंदू समाज पर ढाया गया जुल्म है जो कई सदियों से विदेशी आक्रांताओं के उत्पीडऩ, तो कभी खालिस्तानी और कभी जिहादी दहशतगर्दी का शिकार होता आया है। तत्कालीन सरकार का उद्देश्य केवल साध्वी को अपराधी साबित करना नहीं बल्कि उनके बहाने पूरे हिंदू समाज को भगवा आतंकवाद या हिंदू आतंकवाद की गाली से लांछित करना था परंतु वह सफल नहीं हो पाए। उस समय हिंदू आतंकवाद का मनगढ़ंत सिद्धांत स्थापित करने के लिए जिन-जिन लोगों को मोहरा बनाया गया देश की न्यायिक प्रक्रिया एक-एक कर सभी को आरोपमुक्त करती जा रही है। संत सदैव दुनिया के भले की कामना करते हैं और अगर श्राप देते हैं तो उन परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए जिसके चलते वे ऐसा करने को विवश हुए। पांचाली के केशों में लगे दुषासन के लहु से पहले उसके पापी हाथों को भी तो देखा जाना चाहिए जो भरी सभा में एक अबला के वस्त्रों की तरफ बढ़े। अगर साध्वी प्रज्ञा श्राप के लिए अपराधी है तो उनसे बड़ी अपराधी उस समय की सरकार व पूरी व्यवस्था भी है जिसने एक भगवाधारी को श्राप के लिए विवश किया। श्राप पर चर्चा करनी है तो उस पाप का भी जिक्र करना होगा जो एक महिला के साथ हुआ।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां
जालंधर।

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