Wednesday, 12 February 2020

AAP Victory will be lead to appeasement policy

'आप' की जीत तुष्टिकरण का पुन: गर्भाधान

दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में शानदार तरीके से जीत प्राप्त की है। चुनाव परिणामों के विश्लेषणों में कोई इसे कोई विकास तो कोई कुशल रणनीति की सफलता बता रहा है, परन्तु विजयोल्लास में लोकतन्त्र के सम्मुख फिर से खड़े हुए तुष्टिकरण की राजनीति के उस खतरे की या तो अनदेखी की जा रही है या उस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया, जिसे देश में 2014 के बाद मरा हुआ समझ लिया गया। नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में जिस तरीके से एक समुदाय विशेष ने खुद को संकुचित कछुए की भान्ति भाजपा विरोध की धुरी पर समेट लिया उससे आशंका बलवति हो गई है कि इससे देश में अल्पसंख्क तुष्टिकरण की राजनीति का नए सिरे से गर्भाधान हो सकता है। विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक भाषण में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के प्रतीक बने शाहीन बाग को संयोग नहीं बल्कि प्रयोग बताया था और उसी का दुष्परिणाम हो सकता है अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति का पुनर्जन्म।

विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि शाहीन बाग से भाजपा को भारी नुकसान हुआ है। जिस तरह से मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी को छप्परफाड़ जीत मिली है, उससे साफ है कि अल्पसंख्यक वर्ग धर्म के नाम पर एकजुट हुआ है। मुस्लिम बहुल सात सीटों पर 'आप' का आंकड़ा देखेंगे तो किसी भी सीट पर उसे 50-52 प्रतिशत से कम मत नहीं मिले। इनमें ओखला में 'आप' को 74.1 प्रतिशत, मटियामहल में 75.96, चान्दनी चौक में 65.92, बाबरपुर में 59.39, बल्लीमारान  64.65, सीलमपुर में 56.05 और मुस्तफाबाद में 53.2 प्रतिशत मत मिले हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक -2019 के विरोध में जिस तरह से भ्रमित हो अल्पसंख्यक समाज पूरे देश में सड़कों पर उतरा उससे इन चुनाव परिणामों को इस समाज की राष्ट्रव्यापी सोच का नमूना कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगा।
भारतीय जनता पार्टी व हिन्दुत्व-विरोधी ताकतों ने 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद से जो भी चुनाव हुए, उनके परिणामों को केवल और केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की। यही कारण है कि मोहल्ला या ग्राम या वार्ड स्तर पर भी अगर कहीं भाजपा हारती है तो इसको राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व की पराजय बताया जाने लगता है। भाजपा की हर शिकस्त को राष्ट्रवादी विचारधारा, नेतृत्व और संगठन की पराजय के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती रही है। यही दिल्ली के जनादेश आने के बाद हो रहा दिखता है। राजनीति में कई दशकों का आधिपत्य तोड़कर भाजपा ने जब से अपनी विचारधारा और संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया, तभी से हाशिये की ताकतें एकजुटता के साथ इसकी हर विफलता को अपनी सफलता बताने की कोशिश करती रही है। ये वहीं ताकते हैं जो राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाने को उत्सुक रहती हैं। अतीत की भान्ति कल को यही मानसिकता एकजुट हुए अल्पसंख्यक समाज को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देती दिखाई दे सकती है।
तुष्टिकरण की राजनीति के चलते देश ने क्या खोया और हमें कितना नुक्सान हुआ उसका शायद ही कभी अनुमान लगाया जा सके। असल में तुष्टिकरण की राजनीति वह आग है जिसे बुझाने के लिए डाला गया पानी घी का काम करता है। देश में मुस्लिम लीग के जन्म के साथ ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की परम्परा शुरू हो गई। अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए उनकी जितनी उचित-अनुचित बातें मानी जाती उनकी ख्वाहिशों की सूची और सुरसा के मुंह की भान्ति और बड़ी होती जाती। विभाजन से पूर्व कोई मांग पूरी होने पर मुस्लिम लीगी अकसर कहते थे कि 'ये उनकी 'लीस्ट' डिमाण्ड है 'लास्ट' नहीं, लेकिन हमारा नेतृत्व निरन्तर उनके समक्ष झुकता जाता। इस खतरनाक प्रवृति का परिणाम यह हुआ कि छोटी-छोटी चीजें व सुविधाएं मांगते-मांगते मुस्लिम लीग ने एक दिन बंटवारा मांग लिया और अपनी लाश पर पाकिस्तान बनने का दम्भ भरने वाले भारतीय कर्णाधारों ने देश का एक अभिन्न हिस्सा थाली में रख कर इन लीगियों को सौंप दिया। इतना होने के बाद भी दुर्भाग्यवश या कह लें कि सत्ता के लोभवश परन्तु विभाजन के बाद भी तुष्टिकरण के रोग का उपचार नहीं हो पाया बल्कि खाज से कोढ़ और आगे बढ़ता-बढ़ता नासूर का रूप धारण कर गया। अयोध्या में राम मन्दिर का अन्ध विरोध, शाहबानो प्रकरण, तीन तलाक जैसी सामाजिक कुरीतियों की बेशर्म वकालत, घुसपैठियों को संरक्षण, हिन्दू आतंकवाद के मनगढ़न्त जुमले, एक वर्ग विशेष के खुराफाती लोगों की धमाचौकड़ी की अनदेखी, सन्विधान की भावना के विपरीत अल्पसंख्यक आरक्षण की बार-बार की जाने वाली कोशिशों सहित अनेक असंख्यों उदाहरण हैं जिनको तुष्टिकरण की राजनीति की श्रेणी में रखा जा सकता है।
असल में तुष्टिकरण की इस राजनीति से देश इतना उकता गया कि नरेन्द्र मोदी ने जैसे ही 'सबका साथ-सबका विकास' का नारा दिया तो पूरे देश ने उसे हाथों हाथ लिया। तीन तलाक, रमा मन्दिर, जम्मू-कश्मीर में धारा 370, 35-ए का उन्मूलन, पड़ौस के इस्लामिक गणराज्यों पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने में छूट देने के आदि कदमों ने आशा जगाई थी कि देश की राजनीति अब राष्ट्रहित को सम्मुख रख कर चलना सीख लेगी। देश अभी तुष्टिकरण की शब्दावली भूलने का प्रयास कर ही रहा था कि नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में भ्रमित हो भारतीय समाज के एक वर्ग ने जैसे अपने आप को लामबंद किया उससे एक बार पुन: आशंका हो गई है कि मृत समझे जाने वाली इस राजनीतिक बुराई का एक बार फिर से गर्भाधान हो गया है। इसके  खतरे से निपटने के लिए देश के समाज को सदैव अपने आँख-कान खुले रखने होंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां,
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

No comments:

Post a Comment

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...