Thursday, 18 March 2021

किसान आंदोलन से किसान और किसानी लापता

 

किसान आंदोलन की आड़ में गणतंत्र दिवस की शर्मनाक हिंसा रूपी तूफान के बाद स्वयंभू आंदोलन से सभी मुद्दे उड़ गए, अब केवल एक टिकैत नामक मुद्दा बचा दिख रहा है। वह टिकैत जो मई, 2024 यानि लोकसभा चुनावों तक धरना देने, चुनावी राज्यों में जाकर भाजपा का विरोध करने की बात करते हैं। लेकिन हाल ही में 2 मार्च को गुजरात में सत्तारूढ़ भाजपा ने सभी 31 जिला पंचायतों के साथ ही 231 तालुका पंचायतों में से 196 में और 81 नगरपालिकाओं में से 74 में स्पष्ट बहुमत ले निकाय चुनावों में बड़ी जीत हासिल की। कृषि कानूनों के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उपचुनावों सहित अनेक प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों में भाजपा को मिली जीत ने बता दिया कि देश का असली किसान किसके साथ है और किसान नेताओं के उजागर हुए राजनीतिक एजेंडे से भी साफ हो गया है कि आंदोलन से तीन कृषि कानून, एमएसपी पर कानून व सभी तरह के किसानी मुद्दों सहित सबकुछ उड़ गया है। आंदोलन में शेष केवल मोदी व भाजपा विरोध की राजनीति रह गई जिसके प्रतीक भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत बनते जा रहे हैं।

लाल किले की घटना और ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा के बाद किसान आंदोलन का हश्र भी शाहीनबाग जैसा होता दिखाई दिया। हिंसा के दूसरे दिन ही दो किसान संगठन आंदोलन से अलग हो गए। कुछ किसान संगठनों ने हिंसा के लिए सरकार पर ही आरोप लगाये। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो देश जानता है, लेकिन आंदोलन मार्ग भटक चुका, यह सच साबित हो चुका है। देश की राजधानी में हुई खुलेआम हिंसा ने किसान आंदोलन और उनकी जायज मांगों के प्रति आम आदमी की सहानुभूति को खो पूरी तरह दिया।

आंदोलनकारी किसान संगठन शुरू से कृषि कानून खत्म करने जैसा अतिवादी सिरा पकड़े हुए थे, जिसे मोदी तो क्या कोई भी संवैधानिक सरकार शायद ही स्वीकार करती। आंदोलन के संचालक किसान नेताओं को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के उस प्रस्ताव पर सकारात्मक ढंग से विचार करना था, जिसमें कृषि कानूनों को डेढ़ साल स्थगित करने की बात कही गई थी। यह सही है कि किसान आंदोलन के कारण सरकार दबाव में थी। आंदोलन की इसी शक्ति ने किसान नेताओं को मुगालते में ला दिया। वरना गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड करने का कोई औचित्य नहीं था।

अतीत पर नजर डालें तो इस देश में ज्यादातर बड़े और निर्णायक किसान आंदोलन आजादी के पहले भी हुए और बाद में भी। आजादी के बाद दो ऐसे बड़े किसान आंदोलन हुए जिन्होंने देश की राजनीतिक धारा को प्रभावित करने का काम किया। ये दोनो आंदोलन भी वामपंथियों ने ही खड़े किए थे। पहला था 1947 से 1951 तक हैदराबाद रियासत में सांमती अर्थव्यवस्था के खिलाफ आंदोलन। दूसरा बड़ा किसान आंदोलन 1967 में पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन के रूप में हुआ। इसके परिणामस्वरूप बंगाल में भूमि सुधार लागू हुए, लेकिन हिंसक होने के कारण यह आंदोलन जल्द ही सहानुभूति खो बैठा ठीक मौजूदा किसान आंदोलन की तरह। इसके बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने अस्सी और नब्बे के दशक में कई किसान आंदोलन किए। उन्होंने 1988 में उन्होंने पांच लाख किसानों के साथ एक सप्ताह तक दिल्ली के बोट क्लब पर धरना दिया और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी। लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन पूरी तरह पथभ्रष्ट दिखने लगा है।

बेशक, नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में संशय हो सकते हैं, जिनके समाधान कारक उत्तर तो इन कानूनों के व्यवहार मे आने के बाद ही मिल सकते थे। फिर भी सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए इन कानूनों को आधार बनाकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया। यहां तक कि इन कानूनों के पास होने के बाद राकेश टिकैत सहित कई किसान नेताओं ने इन कानूनों का यह कहते हुए स्वागत किया कि उनकी बरसों की मेहनत सफल हुई और सरकार ने उनकी सुन ली है। लेकिन एकाएक उन्हीं मुखों से इन कानूनों के काला कानून होने की बात सुन कर देश दंग रह गया। हालांकि यह बात अलग है कि न तो कोई किसान नेता और न ही विपक्ष अभी तक यह बता पाया कि इन तीन काले कानूनों में काला क्या है ?

इस आंदोलन पर अब राकेश टिकैत का ही दबदबा दिखाई देने लगा है। बाकी किसान नेताओं का कहीं कोई अता पता नहीं है। टिकैत अपने हिसाब से आंदोलन को चला रहे हैं और वह भी विशुद्ध रूप से राजनीतिक एजेंडे के साथ। किसान मोर्चा अपना मंच किसी राजनेता से सांझा न करने के दावे करते थे परंतु टिकैत अपने प्रिय व हितैषी नेताओं की खूब सार्वजनिक आवाभगत कर रहे हैं। उन्हें मंच पर पूरा समय और सम्मान दिया जा रहा है। केवल इतना ही नहीं टिकैत सरेआम सरकार को धमका भी रहे हैं और सत्ता परिवर्तन की धमकी भी दे रहे हैं। टिकैत ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के एक बयान के जवाब में कहा कि जब लोग जमा होते हैं तो सरकारें बदल जाती हैं। उन्होंने कहा कि अगर तीन नए कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया गया तो सरकार का सत्ता में रहना मुश्किल हो जाएगा। टिकैत सोनीपत जिले के खरखौदा की अनाज मंडी में किसान महापंचायत में को संबोधित कर रहे थे। ज्ञात रहे कि श्री तोमर ने ग्वालियर में कहा था कि केंद्र सरकार नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों से बात करने को तैयार है लेकिन, महज भीड़ जमा हो जाने से कानून रद्द नहीं होंगे। इस पर राकेश टिकैत ने कहा, 'राजनेता कह रहे हैं कि भीड़ जुटाने से कृषि कानून वापस नहीं हो सकते, जबकि उन्हें मालूम होना चाहिए कि भीड़ तो सत्ता परिवर्तन का भी सामर्थ्य रखती है। यह अलग बात है कि किसानों ने अभी सिर्फ कृषि कानून वापस लेने की बात की है, सत्ता वापस लेने की नहीं। टिकैत ने कहा, 'सरकार को मालूम होना चाहिए कि अगर किसान अपनी उपज नष्ट कर सकता है तो आप उनके सामने कुछ नहीं हो। टिकैत हरियाणा, दिल्ली के आसपास, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महापंचायतें करके जिस तरह लोगों के बीच ब्यानबाजी कर रहे हैं उससे साफ हो जाना चाहिए कि पूरे आंदोलन में किसान तो केवल कंधा हैं और उस पर बंदूक रख कर चांदमारी विपक्ष कर रहा है।

दूसरी ओर केंद्र के साथ टकराव के मार्ग पर चल रहे राज्यों महाराष्ट्र व पश्चिमी बंगाल को लेकर प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिक्खस फार जस्टिस (एसजेएफ) ने इनसे अपील की है कि वे भारत से अलग हो जाएं। ज्ञात रहे कि पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई.एस.आई. के गुप्त एजेंडे पर चल रहा यह संगठन किसान आंदोलन के दौरान भी काफी सक्रिय रहा और किसानों को हिंसा के लिए भड़काता रहा है। किसान आंदोलन में एक अन्य खालिस्तानी संगठन 'पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन' का नाम भी सामने आया जिसका संचालक कनाडा का निवासी मो. धालीवाल है। हाल ही में सामने आया टूल किट प्रकरण का सूत्रधार भी यही संगठन है। टूलकिट एक तरह की गाइडलाइन है जिसके जरिए ये बताया जाता है कि किसी काम को कैसे किया जाए। ज्ञात रहे कि किसान आंदोलन को लेकर पूरी दुनिया में सोशल मीडिया पर अभियान चला था, जिसका उद्देश्य हिंसा को बढ़ावा देना और भारत की छवि को तार-तार करना था। इस दस्तावेज का जुड़ाव 'पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन' नामक खालिस्तानी समर्थक समूह से होने का पता चला। इस 'टूलकिट' का मकसद भारत सरकार के खिलाफ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जंग छेडऩा था।

हरित क्रांति का क्षेत्र कहे जाने वाले पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है उनका इस कथित किसान आंदोलन में जिक्र तक नहीं। देश का यह उपजाऊ मैदान निरंतर सूख रहे भू-जल, खतरनाक स्तर पर पहुंचे रासायनिक खादों के प्रयोग, धरती की कम हो रही उर्वरा शक्ति, बिगड़ रहे पर्यावरण, इन्हीं कारणों से समाज में फैल रही कैंसर जैसी घातक बिमारियों जैसी समस्याओं से सर्वाधिक परेशान है परंतु किसान आंदोलन में इनका जिक्र तक नहीं मिलता। पंजाब के किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्याएं कर रहे हैं और केंद्र सरकार जब इन्हीं किसानों की आय बढ़ाने के उद्देश्य से उन्हें फसलों की खरीद के वैकल्पिक नए अवसर प्रदान करना चाहती है तो यही कथित किसान नेता उसका विरोध करते दिखाई दे रहे हैं, वह भी विपक्ष के राजनीतिक एजेंडे और देश विरोधी शक्तियों की साजिशों का जाने-अनजाने में हितपोषण करते हुए। देश व देश के किसानों के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की क्या बात हो सकती है ?


- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां
जालंधर।
संपर्क - 77106-55605

किसान हितैषी होने के कांग्रेसी दावे की खुली पोल

कांग्रेस के किसान हितैषी होने के दावे की उस समय पोल खुलती नजर आई जब केंद्र सरकार ने पंजाब सरकार को फसलों के भुगतान के लिए नए निर्देश जारी किए कि किसानों को फसलों का भुगतान सीधे उनके खाते में किया जाए। इसके साथ ही किसानों को फसल बेचने वाले किसानों को अपनी जमीन का भी विवरण देना भी अनिवार्य किया गया है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसे अव्यवहारिक बताया है और कहा है कि ऐसे में ठेके पर खेती करने वालों को भुगतान कैसे होगा।


केंद्र सरकार की इस कदम के खिलाफ पंजाब आढ़ती एसोसिएशन ने एक अप्रैल से हड़ताल करने का भी ऐलान कर दिया है। पंजाब मुख्यमंत्री ने केंद्र द्वारा आढ़तियों के बजाय के फसलों की खरीद का भुगतान सीधे किसानों के बैंक खातों में करने के केंद्र सरकार के निर्देश की आलोचना करते हुए केंद्र के प्रस्ताव को किसानों को भड़काने वाला कदम बताया है।


उन्होंने कहा कि एफसीआई की तरफ से किसानों को ई-भुगतान के द्वारा सीधी अदायगी के लिए जमीन रिकार्ड मांगने से स्थिति बद से बदतर होगी। उन्होंने कहा कि पंजाब में 1967 से जांची-परखी व्यवस्था चल रही है, जहां किसान आढ़तियों के द्वारा अदायगी लेते हैं, जिनके साथ उनका बहुत पक्का रिश्ता है और वह कठिन समय में आढ़तियों से ही वित्तीय सहायता लेते हैं। उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा कि किसान संकट की घड़ी में कार्पोरेट घरानों पर कैसे निर्भर रह सकता है।


गौरतलब है केंद्रीय खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय ने एक के बाद एक लगातार दो पत्र जारी करके पंजाब सरकार से कहा है कि किसानों को उनकी फसल की खरीद का भुगतान सीधा उनके बैंक खातों में किया जाए। अभी यह व्यवस्था है कि किसानों को भुगतान आढ़तियों के माध्यम से किया जाता है। इसके साथ ही एक और पत्र जारी किया गया है, जिसमें कहा गया है कि अनाज खरीद पोर्टल पर फसल बेचने वाले किसान अपना जमीन का रिकार्ड भी देंगे। ऐसे में पंजाब सरकार के लिए किसानों को सीधे भुगतान का मुद्दा पंजाब सरकार के गले की फांस बन गया है।


केंद्र सरकार के पत्र में यह भी कहा गया कि इस रिकार्ड को मंत्रालय के पास भेजा जाए ताकि वे भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के माध्यम से जब कभी चाहें तो रिकार्ड को सत्यापित भी करवा सकें। एफसीआई ने एक पत्र जारी करके कहा है कि राज्य सरकार रबी फसल शुरू होने से पहले पहले अपने एपीएमसी एक्ट 1961 में बदलाव करे।


फिलहाल, केंद्र व राज्य की खरीद एजेंसियां फसल खरीद का काम आढ़तियों के माध्यम से करती हैं। किसान फसल को अपने आढ़ती के पास लाते हैं और आढ़ती फसल की सफाई आदि की व्यवस्था करते हैं। खरीद एजेंसियों की ओर से खरीदे जाने वाले अनाज का भुगतान आढ़तियों को उनके बिल भेजने पर कर दिया जाता है और आढ़ती किसानों के खातों में ऑनलाइन अदायगी करते हैं। यह व्यवस्था कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार ने तीन साल पहले एपीएमसी में संशोधन करके की थी।


इससे पहले भी किसानों को सीधी अदायगी का मुद्दा काफी गरमाया रहा है। अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार के समय उच्च न्यायालय ने भी किसानों को चेक से फसल की अदायगी करने का आदेश दिया था। आढ़तियों ने इसका विरोध किया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा था कि यह फैसला किसानों पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह एजेंसी से भुगतान लेना चाहते हैं या आढ़ती से लेना चाहती है।


हालांकि ई-मोड से किसानों को भुगतान की व्यवस्था कई राज्यों में पहले से ही लागू है। हरियाणा में पिछले साल धान की खरीद इसी तरह की गई थी, लेकिन पंजाब में इसने अभी रफ्तार नहीं पकड़ी है। पंजाब और हरियाणा में गेहूं खरीद अगले कुछ सप्ताहों में शुरू होने वाली है। उत्तर प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बायोमेट्रिक मॉडल से किसानों को भुगतान किया जाएगा।


प्रश्न उठता है कि किसानों के खाते में सीधा पैसा जाने से आखिर आपत्ति किसे हो सकती है? स्वभाविक है इसमें आढ़तियों की भूमिका कम होगी और सीधा लाभ किसानों को मिलेगा। केंद्र द्वारा लाए गए तीन कृषि सुधार कानूनों में भी यही व्यवस्था है कि किसानों व उपभोक्ताओं के बीच बिचौलियों की भूमिका को खत्म किया जाए ताकि किसानों को बाजार का सीधा लाभ मिले।


स्पष्ट है कि किसान हित के नाम पर नए कृषि सुधारों का विरोध करके कांग्रेस किस तरह इन बिचौलियों का बचाव कर रही है। दूसरा तथ्य यह है कि पंजाब में बड़े किसान आढ़त का काम भी करते हैं। वे औने-पौने दामों पर छोटे किसानों की फसल खरीद कर उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केंद्र को बेच देते हैं। कमाई के इस खेल में केवल बड़े किसान ही नहीं, बल्कि लगभग हर राजनीतिक दल के कई नेता भी शामिल रहते हैं।


यही नहीं, कई बार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश से गेहूं-धान की फसल सस्ते दामों पर मंगवा कर उसे एमएसपी के नाम पर महंगे दामों में बेच दिया जाता है। दलाली के इस खेल में पंजाब के साथ-साथ उन राज्यों के छोटे किसान भी पिस जाते हैं, जो कम दामों पर अपनी फसल बेचने को विवश होते हैं। सस्ती फसल खरीद कर उसे एमएसपी पर बेचने और इसमें भी आढ़त के नाम पर कमीशन खाकर पंजाब के बड़े लोग खूब मालामाल हो रहे हैं। वहीं, छोटा किसान गरीबी की दलदल में रहने को विवश है। अगर पंजाब सरकार किसानों को भुगतान का मार्ग सीधा केंद्र से करने की व्यवस्था करती है और जमीन का रिकार्ड उपलब्ध करवा देती है तो यह सारा खेल अपने आप खत्म हो जाएगा और लाभ असली व छोटे किसानों को मिलेगा जिसका अभी तक शोषण होता आया है।


- राकेश सैन
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रामराज्य में लोकतान्त्रिक मूल्य

लोकतन्त्र के दो रूप कहे जा सकते हैं, एक दण्डात्मक व दूसरा गुणात्मक। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतन्त्र की सुन्दर व्याख्या करते हुए इसे लोगों पर लोगों के द्वारा लोगों की व्यवस्था बताया, लेकिन इसमें मजबूत राष्ट्र, सुरक्षा प्रणाली और निष्पक्ष न्यायपालिका की अनिवार्यता अपरिहार्य है। व्यवस्था सुन्दर तो है परन्तु इसका क्रियान्वयन राजकीय शक्ति पर निर्भर है अर्थात इस प्रणाली को न मानने वाले को दण्ड दिया जा सकता है, या यूं कह लें कि डर से जनतान्त्रिक मूल्यों का पालन करवाया जाता है। दूसरी ओर अगर कोई निरंकुश और स्वेच्छाचारी राजतन्त्र जनकल्याण को ध्यान में रख कर आत्मप्रेरणा से इस व्यवस्था का अनुसरन करता है तो यही प्रणाली गुणात्मक हो जाती है। गणतन्त्र और गुणतन्त्र मिल कर इस तरह एकरस हो जाते हैं जैसे कि आम और दूध के मिलन से अमृततुल्य अमरस। इसी गुणात्मक गणतन्त्र के प्रतीक हैं भगवान श्रीराम। एक शक्तिशाली, निरंकुश व राजपरिवार निष्ठ व्यवस्था के स्वामी होने के बावजूद उन्होंने लोककल्याण को ध्यान में रख कर जिन लोकतान्त्रिक परम्पराओं का निर्वहन किया इसका दूसरा उदाहरण अति दुर्लभ है।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है 'रामो विग्रहवान धर्म:', अर्थात् राम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं। उन्होंने किसी दण्डात्मक प्रणाली के तहत नहीं बल्कि धर्म को केन्द्र में रख कर लोकतान्त्रिक प्रणाली की व्यवस्था की। लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती है, अभिव्यक्ति अर्थात बोलने की आजादी जिसको लेकर आजकल लम्बी-चौड़ी बहस छिड़ती रही है। रामराज्य में इस पर कितना जोर दिया गया वह उस युग के लिए ही नहीं बल्कि आधुनिक काल के लिए भी अद्भुत है। रामराज में जनसाधारण को भी बोलने व राजा तक का परामर्श मानने या ठुकराने की कितनी स्वतन्त्रता थी इसके बारे तुलसीदास जी कहते हैं -

सुनहुसकल पुरजन मम बानी। कहउं न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुुम्हहि सोहाई।।
श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठ जी, ब्राह्मणों व जनसाधारण को बुला कर कहते हैं कि संकोच व भय छोड़ कर आप मेरी बात सुनें। इसके बाद अच्छी लगे तो ही इनका पालन करें।

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।
वो ही मेरा श्रेष्ठ सेवक और प्रियतम है जो मेरी बात माने और यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूं तो भय भुला कर बेखटके से मुझे बोलते हुए रोक दे। श्रीराम अपनी प्रजा को केवल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही नहीं देते बल्कि अपनी निन्दा व आलोचना करने वाले को अपना प्रियतम सेवक भी बताते हैं। धोबी द्वारा माता सीता को लेकर दिये गए उलाहने का प्रकरण बताता है कि उन्होंने यह बात केवल कही ही नहीं बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। एक साधारण नागरिक के रूप में धोबी की बात मानने की उनकी कोई विवशता नहीं थी। वे चाहते तो इसे धृष्टता बता कर दण्ड भी दे सकते थे, या विद्वानों-धर्मगुरुओं से जनसाधारण को इसका स्पष्टीकरण भी दिलवा सकते थे परन्तु उन्होंने इन सबकी बजाए अपनी प्राण प्रिय सीता के त्याग का मार्ग चुना। एक राजा द्वारा जनअपवाद के निस्तारण की इससे श्रेष्ठ उदाहरण आज तक नहीं सुनी गई।
यह भी सर्वविदित है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता स्वच्छन्द नहीं, इस पर व्यवस्थाजनक तर्कसंगत प्रतिबन्ध आवश्यक हैं। अपने संविधान में स्वतन्त्रता का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित है। इसकी 19, 20, 21 तथा 22 क्रमांक की धाराएं नागरिकों को बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सहित 6 प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करतीं हैं- जैसे संगठित होना, संघ या सहकारी समिति बनाने की स्वतन्त्रता, सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता, कही भी बसने की स्वतन्त्रता, कोई भी उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता। किन्तु इस स्वतन्त्रता पर राज्य मानहानि, न्यायालय-अवमान, सदाचार, राज्य की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, अपराध-उद्दीपन, लोक व्यवस्था, देश की प्रभुता और अखण्डता को ध्यान में रख कर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। उसी तरह रामराज्य के दौरान भी धर्म एक ऐसा अंकुश था जिसका पालन शासक वर्ग के साथ-साथ हर नागरिक भी आत्मप्रेरणा से करते थे। अपनी संस्कृति में कहा गया है -
सत्यम वद, धर्मं चर
अर्थात सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्म: सनातन:॥
भाव कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो। अप्रिय नहीं बोलना चाहिये चाहे वह सत्य ही क्यों न हो। प्रिय बोलना चाहिए परन्तु असत्य नहीं; यही सनातन धर्म है। लेकिन देखने में आरहा है कि आजकल व्यक्तिगत के साथ-साथ सार्वजनिक जीवन में भी 'सत्यम वद, धर्मं चर' का सिद्धांत लुप्त हो रहा है और दादुर वक्ताओं का बोलबाला बढ़ रहा है। यहां तक कि लोकतन्त्र के मन्दिर विधानमण्डलों में भी कर्कशता व मिथ्यावचनों का प्रचलन खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। इनके बारे रहीम जी कहते हैं -
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन।।
आज एक और श्रीराम मन्दिर निर्माण का कार्य प्रगति पर है और दूसरी ओर देश अपनी स्वतन्त्रता की 75वीं वर्षगांठ के आयोजन ककी तैयारी में भी जुट गया है। यह एतिहासिक अवसर है कि एक कुशल चालक की तरह समाज रूपी वाहन के बैक मिरर पर भी क्षणिक दृष्टिपात करें ताकि देख सकें कि अतीत में हम क्या थे ? हमारी कमजोरियां व बुराईयां कौन सी थीं और हमारी शक्ति व अच्छाईयां क्या। अपनी कमजोरियों व बुराईयों को छोड़ अतीत की शक्ति व अच्छाईयों से अपने आप को आत्मसात करें। राममन्दिर के साथ-साथ राष्ट्रमन्दिर के निर्माण में भी जुटें और रामराज्य के गुणात्मक प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपना कर अपने देश के लोकतन्त्र को दुनिया के सबसे बड़ा होने के साथ-साथ गुणात्मक लोकतन्त्र होने का भी गौरव प्रदान करें।

- राकेश सैन
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ਰਾਮਰਾਜ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਕਦਰਾਂ ਕੀਮਤਾਂ

 

ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੇ ਦੋ ਰੂਪ ਗਿਣਾਏ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ, ਇਕ ਦੰਡਾਤਮਕ ਅਤੇ ਦੂਸਰਾ ਗੁਣਾਤਮਕ | ਅਮਰੀਕਾ ਦੇ ਸਾਬਕਾ ਰਾਸ਼ਟਰਪਤੀ ਅਬਰਾਹਮ ਲਿੰਕਨ ਨੇ ਲੋਕਤੰਤਰ ਦੀ ਸੁੰਦਰ ਵਿਆਖਿਆ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਇਸਨੂੰ ਲੋਕਾਂ ਉੱਤੇ, ਲੋਕਾਂ ਵੱਲੋਂ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਦੱਸੀ ਸੀ, ਪਰੰਤੂ ਇਸ ਲਈ ਇਕ ਮਜਬੂਤ ਰਾਸ਼ਟਰ, ਸੁਰੱਖਿਆ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਅਤੇ ਨਿਰਪੱਖ ਨਿਆਪਾਲਿਕਾ ਲੋੜੀਂਦੀ ਹੈ | ਅਰਥਾਤ ਵਿਵਸਥਾ ਸੁੰਦਰ ਤਾਂ ਹੈ ਪਰ ਲਾਗੂ ਰਾਜਸੀ ਤਾਕਤ ਨਾਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਜਾਂ ਕਹਿ ਲਉ ਕਿ ਵਿਵਸਥਾ ਭੰਗ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਨੂੰ ਜਾ ਨਾ ਮੰਨਣ ਵਾਲੇ ਨੂੰ ਸਜਾ ਦਿੱਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ | ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਜੇਕਰ ਕੋਈ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਰਾਜਾ ਲੋਕ ਕਲਿਆਣ ਦੇ ਉਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਆਪਣੀ ਅੰਤਰ ਆਤਮਾ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਤੇ ਲੋਕਤਾਂਤਰਿਕ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਦੀ ਪਾਲਨਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਇਹ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਗੁਣਾਤਮਕ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ | ਗਣਤੰਤਰ ਅਤੇ ਗੁਣਤੰਤਰ ਮਿਲ ਕੇ ਇਕਰਸ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਜਿਵੇਂ ਖੰਡ ਤੇ ਦੁੱਧ | ਇਸੇ ਗੁਣਾਤਮਕ ਗਣਤੰਤਰ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀਕ ਹਨ ਭਗਵਾਨ ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ | ਇਕ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ, ਨਿਰੰਕੁਸ਼ ਰਾਜਾ ਅਤੇ ਰਾਜਪ੍ਰਣਾਲੀ ਵਿਵਸਥਾ ਦੇ ਸਵਾਮੀ ਹੋਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਲੋਕ ਕਲਿਆਣ ਨੂੰ ਧਿਆਨ ਵਿਚ ਰਖ ਕੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਜਮਹੂਰੀ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਦੀ ਪਾਲਨਾ ਕੀਤੀ ਉਸਦਾ ਦੂਸਰਾ ਉਦਾਹਰਣ ਮਿਲਨਾ ਦੁਰਲਭ ਹੈ |
ਮਹਾਰਿਸ਼ੀ ਵਾਲਮੀਕਿ ਜੀ ਨੇ ਰਾਮਾਇਣ 'ਚ ਲਿਖਿਆ ਹੈ 'ਰਾਮੋ ਵਿਗ੍ਰਹਵਾਨ ਧਰਮਹ' ਅਰਥਾਤ ਰਾਮ ਧਰਮ ਦੇ ਪ੍ਰਤੱਖ ਰੂਪ ਹਨ | ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਦੰਡ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਦੀ ਬਜਾਏ ਧਰਮ ਨੂੰ ਕੇਂਦਰ 'ਚ ਰਖ ਕੇ ਆਪਣੀ ਰਾਜ ਵਿਵਸਥਾ ਉਲੀਕੀ | ਲੋਕਤੰਤਰ ਅੰਦਰ ਪ੍ਰਗਟਾਵੇ ਦੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਨੂੰ ਵੱਡਮੁੱਲਾ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਅੱਜਕਲ ਇਸ ਤੇ ਲੰਬੀ-ਚੌੜੀ ਬਹਿਸ ਵੀ ਛਿੜੀ ਹੋਈ ਹੈ | ਰਾਮਰਾਜ ਦੌਰਾਨ ਇਸ ਅਜ਼ਾਦੀ ਨੂੰ ਜੋ ਮਹੱਤਾ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਉਹ ਕੇਵਲ ਉਸ ਯੁਗ ਲਈ ਹੀ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਅਧੁਨਿਕ ਯੁਗ ਲਈ ਵੀ ਅਚੰਭੇ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੈ | ਰਾਮਰਾਜ ਦੌਰਾਨ ਆਮ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਬੋਲਣ ਦੀ, ਇੱਥੋਂ ਤੀਕ ਕਿ ਰਾਜਾ ਦੀ ਸਲਾਹ ਮੰਨਣ ਜਾ ਨਾ ਮੰਨਣ ਦੀ ਜੋ ਅਜ਼ਾਦੀ ਸੀ ਉਸ ਬਾਰੇ ਤੁਲਸੀਦਾਸ ਜੀ ਆਖਦੇ ਹਨ -

ਸੁਨਹੁਸਕਲ ਪੁਰਜਨ ਮਮ ਬਾਨੀ | ਕਹਉਂ ਨ ਕਛੁ ਮਮਤਾ ਉਰ ਆਨੀ | |
ਨਹਿੰ ਅਨੀਤਿ ਨਹਿੰ ਕਛੁ ਪ੍ਰਭੁਤਾਈ | ਸੁਨਹੁ ਕਰਹੁ ਜੋ ਤੁਮਹਹਿ ਸੋਹਾਈ | |

ਭਗਵਾਨ ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਵਸ਼ਿਸ਼ਠ ਜੀ, ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਅਤੇ ਰਾਜ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਬੁਲਾ ਕੇ ਆਖਦੇ ਹਨ ਕਿ ਭੈਅ ਅਤੇ ਸੰਕੋਚ ਤਿਆਗ ਕੇ ਮੇਰੀ ਗੱਲ ਸੁਣੋ ਅਤੇ ਜੇਕਰ ਚੰਗੀ ਲੱਗੇ ਤਾਂ ਹੀ ਉਸਦਾ ਪਾਲਨ ਕਰੋ |

ਸੋਈ ਸੇਵਕ ਪਿ੍ਅਤਮ ਮਮ ਸੋਈ | ਮਮ ਅਨੁਸਾਸਨ ਮਾਨੈ ਜੋਈ¨
ਜੌਂ ਅਨੀਤਿ ਕਛੁ ਭਾਸ਼ੌਂ ਭਾਈ | ਤੌ ਮੋਹਿ ਬਰਜਹੁ ਭਯ ਬਿਸਰਾਈ¨

ਅਰਥਾਤ ਉਹ ਹੀ ਮੇਰਾ ਸ਼੍ਰੇਸ਼ਠ ਅਤੇ ਪਿਆਰਾ ਸੇਵਕ ਹੈ ਜੋ ਮੇਰੀ ਗੱਲ ਮੰਨੇ ਅਤੇ ਜੇ ਮੈਂ ਕੁਝ ਗ਼ਲਤ ਕਹਾਂ ਤਾਂ ਨਿਸੰਕੋਚ ਹੋ ਕੇ ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੋਲਣ ਤੋਂ ਰੋਕ ਦਵੇ | ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ ਆਪਣੀ ਪਰਜਾ ਨੂੰ ਕੇਵਲ ਬੋਲਣ ਦੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਹੀ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦੇ ਬਲਕਿ ਆਪਣੀ ਨਿੰਦਿਆ ਅਤੇ ਅਲੋਚਨਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਪਿਆਰਾ ਸੇਵਕ ਵੀ ਮੰਨਦੇ ਹਨ | ਧੋਬੀ ਵੱਲੋਂ ਮਾਤਾ ਸੀਤਾ ਜੀ ਪ੍ਰਤੀ ਕੀਤੀ ਗਈ ਟਿੱਪਣੀ ਉਦਾਹਰਣ ਹੈ ਕਿ ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ ਨੇ ਇਹ ਗੱਲ ਕੇਵਲ ਕਹੀ ਹੀ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਇਸਨੂੰ ਆਪਣੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਲਾਗੂ ਵੀ ਕੀਤੀ | ਇਕ ਆਮ ਇਨਸਾਨ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਧੋਬੀ ਦੀ ਗੱਲ ਮੰਨਣੀ ਰਾਜਾ ਰਾਮ ਲਈ ਮਜਬੂਰੀ ਨਹੀਂ ਸੀ | ਉਹ ਚਾਹੁੰਦੇ ਤਾਂ ਧੋਬੀ ਨੂੰ ਸਜਾ ਵੀ ਦੇ ਸਕਦੇ ਸਨ ਜਾ ਧਰਮ ਗੁਰੂਆਂ ਅਤੇ ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਦੇ ਮੁਹੋਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਇਸਦਾ ਸਪਸ਼ਟੀਕਰਣ ਵੀ ਦਿਲਵਾ ਸਕਦੇ ਸਨ | ਪਰੰਤੁ ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ ਨੇ ਇਸਦੀ ਬਜਾਏ ਲੋਕਤਾਂਤਰਿਕ ਮਰਿਆਦਾ ਦਾ ਪਾਲਨ ਕਰਦਿਆਂ ਮਾਤਾ ਸੀਤਾ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕੀਤਾ | ਇਕ ਰਾਜਾ ਵੱਲੋਂ ਜਨ ਅਪਵਾਦ ਦੇ ਨਿਪਟਾਰੇ ਦਾ ਇਸ ਤੋਂ ਸੁੰਦਰ ਉਦਾਹਰਣ ਮਿਲਨਾ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਹੀ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਅਸੰਭਵ ਜਿਹਾ ਜਾਪਦਾ ਹੈ |
ਇਹ ਵੀ ਸਾਰੇ ਜਾਣਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਪ੍ਰਗਟਾਵੇ ਦੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਿਰੰਕੁਸ਼ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ, ਅਤੇ ਇਸ ਉਪਰ ਤਰਕਸੰਗਤ ਰੋਕ ਲਗਾਈ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ | ਭਾਰਤੀ ਸੰਵਿਧਾਨ ਦੀ ਧਾਰਾ 19 ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ 22 ਤਕ ਕੁੱਲ 6 ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦਾ ਜਿਕਰ ਹੈ ਪਰੰਤੂ ਇਹ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਿਰੰਕੁਸ਼ ਨਹੀਂ ਹੈ | ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਾਨੂੰ ਬੋਲਣ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਤਾਂ ਹੈ ਪਰ ਕਿਸੇ ਦੀ ਮਾਨਹਾਨੀ ਦਾ ਨਹੀਂ | ਅਜ਼ਾਦੀ ਤੇ ਇਹ ਰੋਕ ਸਰਕਾਰ ਜਾਂ ਅਦਾਲਤਾਂ ਲਗਾਉਂਦੀਆਂ ਹਨ ਲੇਕਿਨ ਰਾਮਰਾਜ ਦੌਰਾਨ ਇਸ ਤੇ ਧਰਮ ਦਾ ਅੰਕੁਸ਼ ਸੀ | ਇਸ ਅੰਕੁਸ਼ ਦੀ ਪਾਲਨਾ ਸ਼ਾਸਕ ਵਰਗ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਆਮ ਲੋਕ ਵੀ ਕਰਿਆ ਕਰਦੇ ਸਨ | ਆਪਣੀ ਸੰਸਕ੍ਰਿਤੀ ਅੰਦਰ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ -

ਸਤਯਮ ਵਦ, ਧਰਮ ਚਰ |
ਅਰਥਾਤ ਸੱਚ ਬੋਲੋ ਅਤੇ ਧਰਮ ਦਾ ਪਾਲਨ ਕਰੋ |

ਸਤਯਮ ਬਰੂਯਾਤ ਪਿ੍ਯਮ ਬਰੂਯਾਤ, ਨ ਬਰੂਯਾਤ ਸਤਯਮ ਅਪਿ੍ਯਮ |
ਪਿ੍ਯਮ ਚ ਨਾਨਿ੍ਤਮ ਬਰੂਯਾਤ, ਏਸ਼ ਧਰਮਹ ਸਨਾਤਨਹ |

ਅਰਥਾਤ ਕਿ ਸੱਚ ਬੋਲੋ, ਮਿੱਠਾ ਬੋਲੋ | ਕੋੜੇ ਬੋਲ ਨਹੀਂ ਬੋਲਨੇ ਚਾਹੀਦੇ ਚਾਹੇ ਉਹ ਕਿੰਨੇ ਵੀ ਸੱਚੇ ਕਿਉਂ ਨਾ ਹੋਣ | ਮਿੱਠਾ ਬੋਲਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਪਰੰਤੂ ਝੂਠ ਨਹੀਂ | ਇਹ ਹੀ ਸਨਾਤਨ ਧਰਮ ਹੈ | ਲੇਕਿਨ ਵੇਖਣ 'ਚ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਅੱਜਕਲ ਨਿਜੀ ਜੀਵਨ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਸਾਵਰਜਨਿਕ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਵੀ ਇਹ ਸਿਧਾਂਤ ਗਾਇਬ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ | ਇੱਥੋਂ ਤੀਕ ਕਿ ਵਿਧਾਨ ਮੰਡਲਾਂ ਵਿਚ ਵੀ ਬੇਸੁਰੀ ਅਵਾਜ਼ਾਂ ਸੁਨਣ ਨੂੰ ਮਿਲਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਸ਼ਰੇਆਮ ਝੂਠ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਲਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ | ਇਸ ਬਾਰੇ ਭਗਤ ਰਹੀਮ ਜੀ ਆਖਦੇ ਹਨ -

ਪਾਵਸ ਦੇਖਿ ਰਹੀਮ ਮਨ, ਕੋਇਲ ਸਾਧੇ ਮੌਨ |
ਅਬ ਦਾਦੁਰ ਵਕਤਾ ਭਏ, ਹਮ ਕੋ ਪੂਛਤ ਕੌਨ |
ਅੱਜ ਇਕ ਪਾਸੇ ਸ਼੍ਰੀਰਾਮ ਮੰਦਿਰ ਦਾ ਨਿਰਮਾਣ ਜੋਰਾਂ ਸ਼ੋਰਾਂ ਨਾਲ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਦੇਸ਼ ਆਪਣੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੀ 75 ਵੀਂ ਵਰ੍ਹੇਗੰਢ ਸਮਾਰੋਹ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ | ਇਹ ਇਤਹਾਸਿਕ ਮੌਕਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਅਸੀਂ ਆਤਮ ਪੜਚੋਲ ਕਰੀਏੇਂ ਕਿ ਅਤੀਤ ਵਿਚ ਅਸੀਂ ਕੀ ਅਤੇ ਕੌਣ ਸੀ | ਆਪਣੀ ਕਮਜੋਰੀ ਕੀ ਸੀ ਅਤੇ ਤਾਕਤ ਕੀ | ਆਉ ਆਪਾ ਆਪਣੀ ਬੁਰਾਈਆਂ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਚੰਗਿਆਈਆਂ ਨਾਲ ਇਕ-ਮਿੱਕ ਹੋਈਏ | ਰਾਮ ਮੰਦਿਰ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਰਾਸ਼ਟਰ ਮੰਦਿਰ ਨਿਰਮਾਣ ਦਾ ਵੀ ਤਹੱਈਆ ਕਰੀਏ | ਰਾਮਰਾਜ ਵਾਲੇ ਗੁਣਾਤਮਕ ਲੋਕਤੰਤਰ ਨੂੰ ਮੌਜੂਦਾ ਲੋਕਤੰਤਰ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਦਾ ਹਿੱਸਾ ਬਣਾਈਏ ਤਾਂ ਜੋ ਅਸੀਂ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੇ ਲੋਕਤੰਤਰ ਹੋਣ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਸਭ ਤੋਂ ਸਫਲ ਲੋਕਤੰਤਰ ਹੋਣ ਦਾ ਮਾਣ ਵੀ ਹਾਸਿਲ ਕਰ ਸਕੀਏ |

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...