
विख्यात विचारक श्री रंगाहरि के शब्दों में जिस तरह सृष्टि में जैसे आकाश की तुलना नहीं हो सकती क्योंकि आकाश जैसा दूसरा कोई नहीं, जैसे जल, अग्निी और वायु अतुलनीय है उसी तरह संघ भी अपने आप में वशिष्ठ चरित्र का संगठन है। संघ के लिए सत्ता साध्य नहीं, संघ का लक्ष्य है व्यक्ति निर्माण से राष्ट्रनिर्माण और इसीसे देश के परंवैभव की प्राप्ति। संघ वशिष्ठ है तो इसका ध्येय वशिष्ठ होना स्वभाविक है और स्पष्ट है कि वह सत्ता प्राप्ति जैसी तुच्छ उपलब्धि तो नहीं हो सकता।
श्री नरेंद्र मोदी 2014 में ही देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं और श्री रामनाथ कोविंद 20 जुलाई को राष्ट्रपति चुन लिए गए। वहीं महात्मा गांधी के पोते श्री गोपाल कृष्ण गांधी यूपीए के और श्री एम.वेंकैया नायडू एनडीए के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। अगर वेंकैया नायडू जीतते हैं (जिसके पूरे आसार हैं) तो पहली बार राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर संघ-भाजपा के कार्यकर्ता होंगे।
संघ का लक्ष्य क्या है इससे स्वयंसेवक भलिभांति परिचित हैं। इसकी दैनिक शाखाओं में गीत गाया जाता है 'मान प्रतिष्ठा या पद-यश, एह तेरी मंजिल नहीं। द्वित्तीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने 25 जून, 1956 को 'ऑर्गेनाइजर में लिखा था- 'संघ कभी भी राजनीतिक दल नहीं बनेगा। लेकिन इसके बावजूद विरोधी संघ के माथे पर राजनीतिक संगठन होने का आरोप लगाते हैं।1925 से 1948 तक संघ ने राजनीतिक क्षेत्र में काम करने के विषय में सोचा ही नहीं था। डॉ. हेडगेवार से जब किसी ने पूछा कि संघ क्या करेगा? डॉक्टर साहब ने उत्तर दिया- 'संघ व्यक्ति निर्माण करेगा। अर्थात् समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने के लिए ऐसे नागरिकों का निर्माण करेगा, जो अनुशासित, संस्कारित और देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत हों। इस दौरान 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। संघ से घबराए तत्कालीन नेताओं ने इस दुखद घड़ी में घृणित राजनीति का प्रदर्शन किया। संघ को बदनाम करने के लिए उस पर गांधीजी की हत्या का दोषारोपण किया। 4 फरवरी, 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। बाद में, जब सरकार को मुंह की खानी पड़ी, 12 जुलाई, 1949 को संघ से प्रतिबंध हटाया गया। लेकिन स्वयंसेवकों को बार-बार यह बात कचोट रही थी कि विरोधियों ने सत्ता की ताकत से जिस प्रकार संघ को कुचलने का प्रयास किया है, भविष्य में इस तरह फिर से परेशान किया जा सकता है। प्रताडऩा के बाद बहस ने जन्म लिया कि संघ को राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहिए। स्वयं को राजनीतिक दल में परिवर्तित करने पर संघ का विराट लक्ष्य कहीं छूट जाता। परिस्थितियां ऐसी थी कि राजनीति से पूरी तरह दूर नहीं रहा जा सकता था। उस समय कोई ऐसा दल नहीं था, जो संघ के अनुकूल हो। इसलिए किसी दल को सहयोग करने का विचार भी संघ को त्यागना पड़ा। लंबे विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि संघ की प्रेरणा से नए राजनीतिक दल का गठन किया जाएगा।
इसी बीच, कांग्रेस की नीतियों से मर्माहत होकर 8 अप्रैल, 1950 को केंद्रिय मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी श्रीगुरुजी के पास सलाह करने के लिए आए। वे नया दल बनाने के लिए प्रयास कर रहे थे। श्रीगुरुजी से संघ के कुछ कार्यकर्ता लेकर डॉ. मुखर्जी ने अक्टूबर, 1951 में जनसंघ की स्थापना की। यह राजनीति को राष्ट्रवादी दिशा देने की सीधी शुरुआत थी। जनसंघ को मजबूत करने में संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख, बलराज मधोक, भाई महावीर, सुंदरसिंह भण्डारी, जगन्नाथराव जोशी, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे, रामभाऊ गोडबोले, गोपालराव ठाकुर और अटल बिहारी वाजपेयी ने अहम भूमिका निभाई। जनसंघ को खड़ा करने में संगठनात्मक जिम्मेदारी पं. दीनदयाल उपाध्याय पर आई। जनसंघ की नीतियों में संघ का सीधा कोई हस्तक्षेप नहीं था। हालांकि सालभर में एक बार पंडित जी और श्रीगुरुजी बैठते थे। यह परंपरा आज तक कायम है। अब इसे कुछ लोग अज्ञानतावश 'संघ की क्लास में भाजपाÓ कहते हंै। इस संदर्भ में श्रीगुरुजी के कथन को भी देखना चाहिए। उन्होंने 'ऑर्गेनाइजर में लिखा था- जनसंघ और संघ के बीच निकटता का संबंध है। दोनों कोई बड़ा निर्णय परामर्श के बिना नहीं करते। लेकिन, इस बात का ध्यान रखते हैं कि दोनों की स्वायत्तता बनी रहे। इससे स्पष्ट है कि संघ राजनीति नहीं करता और इसका लक्ष्य सत्ता नहीं। स्वयंसेवकों व संघ की विचारधारा में विश्वास रखने वालों की यह जीत हर्ष का विषय है परंतु परमलक्ष्य की प्राप्ति नहीं। मोहिते के बाड़े से राष्ट्रपति भवन केवल मीलपत्थर है, मंजिल नहीं।
- राकेश सैन
बहुत अच्छा सर...
ReplyDeleteDhanyavad Pardeep Ji
Deletenece one
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