Thursday, 27 July 2017

पृथिवी मातर्मा मा हिंसीर्मो अहं त्वाम।


आज अपनी धरती माँ क्रोध में लगती है, तभी हर मौसम काल का रूप धारण करके आरहा है। मोरों को नचाने वाले कालिदास के 'मेघदूत 'यमदूत बन कर टूटते हैं, आनंददायी शीत ऋतु सफेद कफन ओढ़ दस्तक देती है तो प्राणदायिनी फसलें पकाने वाली गर्मी साल दर साल मृत्यु के आंकड़े बढ़ा रही है। गोस्वामी जी भगवान की तुलना माँ के साथ करते हुए कहते हैं 'पुत्र चाहे बाल खींचे या अघात करे परंतु माता फिर भी अपनी संतान का अमंगल नहीं करती। पर हमसे ऐसी क्या चूक हुई कि धरती जिसे वेदघोष 'माता भूमि पुत्रोहम पृथिव्या अनुसार हम माँ मानते हैं वह सबसे बदला ले रही है?
इस प्रश्न का उत्तर कोई गौरीशंकर की चोटी पर चढऩे जितना दुरुह नहीं बल्कि अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो सहज ही समझ में आजाता है कि 'माता आखिर 'कुमाता क्यों हुई। न जाने क्यों हम धरती के हर हिस्से को पक्का करने की जिद्द ठाने हैं। सड़कों पर सीमेंट व बजरी परत बिछा दी, आंगन में मकराना का संगमरमर। कच्ची जमीन जो गर्मी सोखती थी आज वही पक्की हो तवे का रूप धारण कर चुकी है। दस पुत्रों के बराबर सुखदायक मानने वाले पेड़ हमारे बरामदे से तो क्या जंगलों व खेतों से भी गायब हो रहे हैं। तालाब पूर दिए, कुएं बावडिय़ां बंद कर दीं। यानि अपने हाथों से फंदा लगा कर हम हाय मरे-हाय मरे चिल्ला रहे हैं।
गर्मी युगों से आरही है जो इस बरस भी आई, लेकिन अबकी बार जला गई सैंकड़ों चिताएं। आंकड़े बताते हैं कि गर्मी से मरने वालों की गिनती हर वर्ष नया रिकार्ड बना देती है। प्रश्न कौंधता है कि सूरज अधिक औजस्वी हो गया या धरती उसके आलिंगन में चली गई? पर ऐसा नहीं है, वही सूरज वो ही धरती और उसी तरह गर्मी है लेकिन जो बदले वो हम हैं। हम पांव पर कुल्हाड़ी मारने को विकास बताने लगे। वृक्ष हमारे जीवन से निकल गए। ज्यादा पुरानी बात नहीं, स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा वनों से अच्छादित था जो आज सरकारी फाईलों में 13 और वास्तव में 7 प्रतिशत के आसपास सिमट चुका है। गर्मी के ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने इन्हीं पेड़ोंं से छन कर धरती पर पड़ते थे परंतु हमने अपनी वनों की चादर को तार-तार कर लिया है। ऐसे में गर्मी हमारी जान न लेगी तो फिर किसकी लेगी?
ऐसा भी नहीं है कि हम या हमारे पूर्वज वनों, नदियों, तालाबों, कुुओं के महत्त्व से अनजान थे। हमारे धर्मग्रंथ, साहित्य, परंपराएं चीख-चीख कर इनके पर्यावरणीय गुणों का बखान कर रहे हैं परंतु हमने इन संदेशों को ग्रहण करना छोड़ दिया है। यजुर्वेद में प्रार्थना की गई है पृथिवी मातर्मा मा हिंसीर्मो अहं त्वाम। अर्थात हे माता! तुम हमारा पालन पोषण उत्तम रीति से करती हो। हम कभी भी तुम्हारी हिंसा न करें। मत्स्यपुराण में पेड़ों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा गया है दश कूप समा वापी,दशवापी समोहृय:। दशहृद सम: पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुम:। अर्थात दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावडिय़ों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। हम मंदिरों में शांतिमंत्र से प्रार्थना करते हैं ओम् द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वम् शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि॥ श्री गुरु ग्रंथ साहिब में पर्यावण का सारगर्भित संदेश है जिसमें कहा गया है कि पवन गुरु पाणी पिता माता धरति महतु।। अर्थात हवा गुरु, पानी पिता व धरती माता के समान है। लेकिन वास्तविक जीवन में हम अपने धर्मग्रंथों, अपने ऋषि-मुनियों के कहे का कितना सम्मान करते हैं यह सभी भलिभांति जानते हैं। हम अपने गुरुओं, ऋषि-मुनियों व ग्रंथों 'को तो मानते हैं परंतु 'उनकी नहीं मानते। केवल मत्था टेक अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अगर इन संदेशों को जीवन में ढाला होता तो आज गर्मी हमें जला नहीं, बरसात डुबो नहीं रही होती।
बरसात का मौसम चल रहा है और यह हमारे लिए स्वर्णिम अवसर है कि अपनी गलतियों का पश्चाताप करें। जहां कहीं भी उचित जगह जैसे घर के आंगन, बाग-बगीचों, पार्कों, सड़कों के किनारे, विद्यालय, महाविद्यालय, औषधालय इत्यादि में मिले वहां पेड़ लगाएं। बरसात के पानी को बचाने के प्रयास करें। भविष्य में पर्यावरण से छेड़छाड़ करने से कान पकड़ें। धरती अपनी माँ है वह हमें जरूर माफ करेगी, उसका वात्सल्य व क्षमाशीलता तो असंदिग्ध है।           - राकेश सैन

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