Saturday, 29 July 2017

राजमहल में जनसाधारण की आवाज थीं 'राजमाता मोहिंद्र कौर'


पटियाला राजघराने की राजमाता मोहिंद्र कौर केवल इस अलंकार को धारण करने वाली ही नहीं थी बल्कि उन्होंने अपनी पदवी के अनुरूप हर अवसर पर 'राजमाता के धर्म' का पालन किया। बात चाहे राजपाट का कामकाज संभालने की हो या देश विभाजन के समय पीडि़तों की सहायता करने, लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाने की या फिर परिवार की मुखिया होने के नाते सदस्यों का मार्गदर्शन करने की उनका वात्सलय व जिम्मेवारी का भाव सदैव मुखरित हो कर सबके सामने आया। इतिहास जब उनके जीवन का मूल्यांकन करेगा तो उन्हें आदर्श पत्नी, वात्सलय पूर्ण माता, सबकी राजमाता व सफल जननेता की श्रेणी में रखेगा। वे पटियाला राजघराने में आम लोगों की आवाज थी।
सितंबर 14, 1922 में लुधियाना के एक भलमानस स. हरचंद सिंह जेजी के घर जन्मी मोहिंद्र कौर बचपन से प्रतिभाशाली थीं। उनके पिता कांग्रेस पार्टी के संलग्न पटियाला के जनसंगठन पटियाला रियायत प्रजा मंडल के सदस्य थे। अगस्त 1938 में 16 वर्ष की आयु में उनकी शादी पटियाला के महाराजाधिराज यादविंद्र सिंह के साथ हो गई। यह महाराजा की दूसरी शादी थी। संयोग से उनकी पहली पत्नी का नाम भी मोहिंद्र कौर था जिसके चलते परिवार के लोग इन्हें अलग पहचान देने के लिए मेहताब कौर के नाम से बुलाने लगे परंतु अंत तक उनकी सार्वजनिक पहचान मोहिंद्र कौर के रूप में ही रही। इनकी पहली संतान हेमइंद्र कौर (वर्तमान में धर्मपत्नी पूर्व विदेश मंत्री श्री नटवर सिंह), दूसरी संतान रूपइंदर कौर, मार्च 1942 में अमरिंदर सिंह (पंजाब के मुख्यमंत्री) और 1944 में मालविंद्र सिंह के रूप में चौथी संतान हुई।
मोहिंद्र कौर न केवल पत्नी बल्कि राजपाट के कामों में महाराजा यादविंद्र सिंह की निकटतम सहयोगी रहीं। वे राजपाट के काम का संचालन करती तो जनता से भी इनका संपर्क बना रहा। इन्होंने राजघराने और जनसाधारण के बीच सेतु का काम किया, जिसके चलते इनकी लोकप्रियता बढ़ी। इस बीच 15 अगस्त, 1947 को देश का विभाजन हुआ। विभाजन का सबसे बुरा असर पंजाब राज्य पर पड़ा और महापंजाब आधे हिस्से में सिमट कर रह गया। विभाजन की त्रासदी झेलने के साथ-साथ सबसे बड़ी चुनौती बनी नए देश पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आने वाली लाखों हिंदू-सिखों की आबादी। अपनी मातृभूमि से लुट-पिट कर आरहे इन लोगों के पास न तो खाने को अन्न था, न रहने को छत और न ही जीवन की अन्य कोई सुविधा। संकट की इस घड़ी में महाराजा यादविंद्र के साथ-साथ राजमाता ने अपने राजधर्म का बाखूबी पालन किया। पटियाला के आसपास शरणार्थी शिविर लगा कर लाखों लोगों को खाने को भोजन, दवाएं, कपड़े दिए और उनके पुनर्वास में उनकी सहायता की। राघराने ने अपने राजकोष के साथ-साथ राजमहल के दरवाजे भी खोल दिए। उन दिनों को याद कर आज भी इस इलाके के लोगों की आंखें राजमाता के प्रति श्रद्धा से झुक जाती हैं।
देश विभाजन के बाद स. पटेल ने देश के एकीकरण का काम शुरु किया तो 15 जुलाई, 1948 को पटियाला राजघराने ने अपने राज्य का विलय भारतीय संघ में कर दिया। उस समय राजमाता मोहिंद्र कौर ने अपने राजकीय दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। पंजाब और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (पेप्सू) का गठन किया गया तो महाराजा यादविंद्र सिंह को राजप्रमुख नियुक्त किया गया। महाराजा यादविंद्र सिंह को भारत सरकार की तरफ से 1956 में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा, 1957-58 में युनेस्को, 1959 में यूएनएफएओ में प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। वे 1965 से 66 तक इटली और 1971 से 74 तक नीदरलैंड में भारतीय राजदूत भी रहे।
राजमाता मोहिंद्र कौर ने सन् 1964 में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1964 से 67 तक राज्यसभा और 1967 से 71 तक लोकसभा सदस्य रहीं। 1974 में महाराजा यादविंद्र सिंह का हेग में देहांत हो गया तो वे परिवार सहित वापिस भारत लौट आईं। कांग्रेस पार्टी में रहते हुए उन्होंने अनेक उच्च दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपात्काल लगा दिया तो राजमाता मोहिंद्र कौर ने इसके खिलाफ आवाज वठाई। लोकतंत्र की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किए। वर्तमान राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने राजमाता के देहांत पर भेजे अपने शोक संदेश में रहस्योद्घाटन किया है कि आपात्काल के दौरान वे पटियाला के मोती महल में शरण लेते रहे। आपात्काल के खिलाफ 1977 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और जनता पार्टी में शामिल हो गईं। 1978 से 1984 तक वे फिर राज्यसभा सदस्य रहीं। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए उनके पुत्र कैप्टन अमरिंदर सिंह दूसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने और बाकी परिवार के सदस्य भी राजनीतिक ऊंचाईयों को छूने में सफल रहे।
सक्रिय राजनीति से किनारा करने के बावजूद भी उनका सार्वजनिक जीवन बरकरार रहा। वे पटियाला में अनेक तरह के सामाजिक कामों में सक्रिय रहीं और विभिन्न संगठनों के माध्यम से इलाके के लोगों की सेवा करती रही हैं। 96 वर्ष की आयु में भी उनकी सक्रियता वर्णननीय रही। ईश्वर के शाश्वत नियम के अनुरूप 24 जुलाई, 2017 को राजमाता मोहिंदर कौर की आत्मा ने अपने सांसारिक वस्त्र त्याग दिए और चल पड़ी मोक्ष प्राप्ति की ओर। आज राजमाता मोहिंद्र कौर हमारे बीच नहीं परंतु अपने गुणों के चलते वे सदैव स्मरण की जाती रहेंगी।


  1. राकेश सैन


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