Friday, 4 August 2017

जिन्होंने रखी राखी की लाज

राखी युगों से मनाया जाने वाला पर्व है जो बहन-भाई के प्यार का प्रतीक तो है ही साथ में सामाजिक समरसता व एकता का भी प्रतीक है। इतिहास में अनेक प्रसंग आते हैं जिनसे पता चलता है कि रक्षाबंधन का भारतीय संस्कृति में कितना महत्त्व है और इस पर्व ने इतिहास में अपनी महती भूमिका निभाई है।
वामनावतार  
एक सौ 100 यज्ञ पूर्ण कर लेने पर दानवेन्द्र राजा बलि के मन में स्वर्ग का प्राप्ति की इ'छा बलवती हो गई तो का सिंहासन डोलने लगा। इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की। भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली। बलि के गु्रु शुक्रदेव ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर दिया किंतु दानवेन्द्र राजा बलि अपने वचन से न फिरे और तीन पग भूमि दान कर दी। वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।
जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के रसातल निवास से परेशान लक्ष्मी जी ने सोचा कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी यथा रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा। रक्षा विधान के समय निम्न लिखित मंत्रो'चार किया गया था जिसका आज भी विधिवत पालन किया जाता है -
येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
दानवेन्द्रो मा चल मा चल।।  
इन्द्र और महारानी शची
भविष्य पुराण की एक कथा के अनुसार एक बार देवता और दैत्यों में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ परन्तु देवता विजयी नहीं हुए। इंद्र हार के भय से दु:खी होकर देवगुरु बृहस्पति के पास विमर्श हेतु गए। गुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत करके रक्षासूत्र तैयार किए और स्वास्तिवाचन के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में इंद्राणी ने वह सूत्र इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधा जिसके फलस्वरुप इन्द्र सहित समस्त देवताओं की दानवों पर विजय हुई। 
 कृष्ण-द्रोपदी
महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा श्री कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के वृत्तांत मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। श्रीकृष्ण ने बाद में द्रौपदी के चीर-हरण के समय उनकी लाज बचाकर भाई का धर्म निभाया था।
सिख भाईयों ने निभाया राखी का फर्ज
जिस तरह शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों ने विधर्मियों द्वारा अपहृत बहनों को बचाया उसी भांति सिख बंधुओं ने भी मुसलमानों के चंगुल से सैंकड़ों बहनों को बचा कर भाई का फर्ज निभाया। इस प्रसंग को लेकर आज भी रक्खड़ पुन्नया के नाम से मेला लगता है। अहमदशाह अब्दाली व मराठों के बीच पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 में लड़ी गई। छापामार युद्ध में परंगत मराठों को सीधी लड़ाई में पराजय का सामना करना पड़ा। जीतने पर अहमदशाह की सेना ने भारतीयों पर खूब अत्याचार किए। अब्दाली की सेना ने धन-दौलत के साथ कमजोर व निराश्रित 2200 माताओं-बहनों का भी अपहरण कर लिया।
अब्दाली की सेना गोइंदवाल साहिब के पास ब्यास दरिया पार कर रही थी। इसकी सूचना सिख योद्धा नवाब कपूर सिंह, जस्सा सिंह अहलूवालिया तथा जस्सा सिंह रामगढिय़ा को लगी और सिख योद्धा इस खबर से तिलमिला उठे। सिख सेना ने अब्दाली की सेना पर बिजली की गति से हमला किया और इन अपहृत माताओं-बहनों को छुड़वा लिया। यह महिलाएं काफी समय तक सिख सेना में रही और अपने मूंहबोले भाईयों की खूब सेवा की। इन्होंने सेना में शस्त्र चलाना, घोड़ों की सेवा, गुरबाणी पाठ, गुरुघर की सेवा करने का काम सीखा और अपने सिंह भाईयों की खूब सेवा की। जब इन बहनों को उनके घर छोडऩे का अवसर आया तो इन्होंने सिख सेना में रहने की ही जिद्द की परंतु सेना के लिए यह संभव न था। इन बहनों ने इस शर्त पर अपने घर जाना मान लिया कि सिख भाई समय-समय पर उनको मिलते रहा करेंगे। इसके लिए दिन तय हुआ कि रक्षाबंधन वाले दिन यह बहनें बाबा बकाला पहुंच जाया करें। सिख सैनिक वक्त बेवक्त इनको मिल लिया करेंगे और राखी बंधवाया करेंगे। इस एतिहासिक घटना की स्मृति समय बीतने के साथ-साथ मेले का रूप धारण कर गई। आज भी यहां मेला लगता है और माताएं-बहनें अपने सिख भाईयों के लिए रखड़ी व खाने-पीने का सामान लेकर पहुंचती हैं।
रक्षाबंधन और चंद्रशेखर आजाद
फिरंगियों से बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती थी। हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझ कर पहले तो वृद्धा ने शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे दी। बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है। आजाद ने महिला को कहा- मेरे सिर पर पाँच हजार रुपए का इनाम है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ्तारी पर पाँच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं।
यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इजत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकती। यह कहते हुए उसने एक रक्षासूत्र आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रुपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन सारी कथा, प्रसंग, प्रथाओं के माध्यम से व्यक्त होने वाले भाव को अधिक समयोचित स्वरुप दिया। कारण उपरोल्लिखित सारी कथाएं और प्रथाएं भी राखी के साधन से, आत्मीयता के धागों से परस्पर स्नेह का भाव ही प्रकट करती है। यही स्नेह आधार का आश्वासन भी देता है और दायित्व का बंधन भी। समाज में परस्पर संबंध में आये हुए विशिष्ट प्रसंग के कारण पुराण या इतिहास काल में रक्षासूत्र का प्रयोग हुआ होगा। पर ऐसा प्रत्यक्ष संबंध न होते हुए भी हम सब इस राष्ट्र के राष्ट्रीय नागरिक है, हिंदू है, यह संबंध भी अत्यंत महत्वपूर्ण है और व्यक्तिगत से और अधिक गहरा यह महत्वपूर्ण नाता ही सुसंगठित समाज शक्ति के लिये आवश्यक होता है। 
- राकेश सैन

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