दिखने में तीन विभिन्न तरह के शब्दों में भला क्या समानता हो सकती है, लेकिन है। अगर तीनों को मिला दिया जाए तो सामने संयुक्त शब्द आता है षड्यंत्र जो जम्मू संभाग को हिंदू विहीन करने का रचा जा रहा है, धारा 370 की आड़ में और भी इन रोहिंग्याओं के माध्यम से। जम्मू-कश्मीर में अधिकारिक तौर पर दस हजार रोहिंग्या मुसलमान हैं यह सभी जानते हैं परंतु रोचक बात है कि सभी रोहिंग्या आबादी केवल जम्मू संभाग में है। कश्मीर की घाटी जो कि मुस्लिम बाहुल्य है और इन रोहिंग्याओं के लिए सर्वाधिक सुरक्षित स्थान हो सकती थी वहां एक भी रोहिंग्या परिवार नहीं है। अब आपके भी कान खड़े हो गए होंगे।
अपने मूल से लगभग तीन-चार हजार किलोमीटर दूर जम्मू-कश्मीर राज्य में रोहिंग्याओं का होना अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है। अगर इन पर म्यांमार में अत्याचार हुआ है और इनको भारत में घुसपैठ करनी पड़ी तो इन्हें म्यांमार की सीमा व आसपास के इलाकों में होना चाहिए था। हजारों किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऐसे राज्य में इनको कौन लेकर आया ? इनको रास्ता किसने दिखाया ? उस राज्य में इनको शरण कैसे दे दी गई जहां धारा 370 जैसा सख्त प्रावधान है कि जम्मू-कश्मीर से बाहर के कोई राज्य का नागरिक वहां मकान नहीं बना सकता ? असल में यह बहुत बड़ी साजिश व गुप्तचर एजेंसियों के लिए खोज का विषय है कि आखिर इतनी दूर से ये लोग चुपचाप कैसे चले आए और इनको रोकने वाला कोई नहीं मिला।
जम्मू-कश्मीर एक केवल सीमांत राज्य ही नहीं बल्कि आतंकवाद प्रभावित राज्य भी है। यहां आतंकवाद भी सामान्य नहीं बल्कि इस्लामिक जिहाद के नाम पर किया जा रहा है। कश्मीर घाटी से 1990 के दशक में हिंदुओं के जबरन पलायन के बाद कश्मीर घाटी लगभग हिंदू शुन्य हो चुकी है। जम्मू संभाग हिंदू और लद्दाख संभाग बौद्ध है परंतु रोचक बात है कि इन रोहिंग्याओं को मुस्लिमों के लिए सुरक्षित स्थान घाटी में न बसा कर जम्मू, सांभा, डोडा, पुंछ जैसे उन इलाकों में बसाया जा रहा है जहां अभी तक हिंदू बहुसंख्या में हैं। यह सीधा-सीधा भुगौलिक संरचना बदलने का प्रयास है जो संभवत: राजनीतिक या आतंकी गतिविधियों के संचालन की दृष्टि से किया जा रहा है। सरकार, गुप्तचर एजेंसियों के साथ-साथ समाज को भी इसके प्रति सावधान हो जाना चाहिए।
अब बहुत से लोग पूछ सकते हैं कि कुछ हजार रोहिंग्याओं से इस इलाके का सांख्यिीकी बदलाव कैसे संभव है और हो भी गया तो क्या होने वाला है ? तो उन्हें पता होना चाहिए कि यह हजारों की संख्या में रोहिंग्या मुसलमान तो केवल समस्या का प्रारंभ मात्र हैं। इसके बाद इस बात की गारंटी कोई नहीं ले सकता कि इनकी संख्या बढ़ेगी नहीं। जो लोग सांख्यिीकी बदलाव को खतरनाक नहीं मानते उन्हें म्यांमार की ही हालत देखनी चाहिए जहां से इन रोहिंग्याओं को भागना पड़ा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 1983 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में मुसलमानों की संख्या केवल 29 प्रतिशत थी। अल्पसंख्यक होते हुए यह छोटे-मोटे दंगा फसाद व अपराध तो करते थे परंतु बड़ी वारदातों व साजिशों को अंजाम देने में समर्थ नहीं थे। वर्तमान में यह जनसंख्या 60 प्रतिशत को भी पार कर चुकी है। इसी जनसंख्या के बल पर इन्होंने म्यांमार से अलग होने का संघर्ष छेड़ दिया और स्थानीय लोगों को वहां से भागने को मजबूर कर दिया। केवल म्यांमार ही नहीं भारत भी आसाम, त्रिपुरा, पश्चिमी बंगाल जैसे सीमांत राज्यों में बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण जानसांख्यिकी बदलाव की समस्या पेश आरही है। इसके चलते यहां आतंकवाद, तस्करी, बलात्कार, नकली करंसी का कारोबार, गो-तस्करी का कारोबार फलफूल रहा है और अलगाववाद की समस्या भयंकर रूप लेती जा रही है। अगर जम्मू-कश्मीर में इन रोहिंग्याओं को यूं ही बसाया जाता रहा और इनको निष्कासित नहीं किया गया तो पहले से वैश्विक जिहादी आतंकवाद की आग में झुलस रहे जम्मू-कश्मीर में यह बिन बुलाए मेहमान आग में घी का काम करेंगे।
धारा 370 जम्मू-कश्मीर सरकार को कुछ विशेषाधिकार देती है। यहां के राजनीतिक नेतृत्व ने अपनी इस्लामिक सांप्रदायिक सोच व मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते इस धारा का प्रयोग यहां से हिंदुओं को भगाने व मुसलमानों को चाहे वे विदेशी ही क्यों न हो बसाने का प्रयास किया है। याद करें कि देश के विभाजन व पाकिस्तानी हमले के समय सीमापार से आए हिंदू-सिखों को 70 सालों के बाद भी अभी तक वहां की नागरिकता नहीं मिली है। इन लोगों को जब भी नागरिकता देने का सवाल पैदा होता है तो देश के सेक्युलर तानाबाने से लेकर यहां का राजनीतिक नेतृत्व कोपभवन में चला जाता है। चीन के हमले के बाद तिब्बत से निर्वासित हो कर भारत आए बौद्धों को इन सेक्युलरों व जिहादियों ने लद्दाख में नहीं रहने दिया। हालांकि लद्दाख की संस्कृति, वातावरण, रहन-सहन इन निवार्सित बौद्धों के अनुकूल था। इन्हें मजबूरन हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नगर में बसाया गया। इस राज्य के नेताओं की सांप्रदायिक सोच देखिए कि तिब्बत से आए बौद्धों का विरोध करने के बाद इन्होंने तिब्बत से आए मुसलमानों को कश्मीर की मस्जिद में शरण दे दी।
और तो और साल 2008 में जब श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने बाबा बर्फानी के श्रद्धालुओं को मेडिकल कैंप, लंगर लगाने हेतु कुछ एकड़ जमीन देने की कोशिश की तो अब्बदुल्ला से लेकर मुफ्ती और अलगाववादियों ने पूरे राज्य को बंधक बना लिया था। जबकि सभी जानते हैं कि जिस इलाके में श्रद्धालुओं को जगह दी जानी थी वहां पर कोई गर्मियों में भी नहीं रह सकता। अब भी जब विस्थापित कश्मीरी पंडितों को वहां बसाने का प्रयास किया जाता है तो वहां के सभी राजनीतिक दल, विदेश पोषित अलगाववादी एक ही भाषा में इसका विरोध करना शुरु कर देते हैं। यही लोग जब रोहिंग्याओं को जम्मू संभाग में बसाने के प्रयास करते और मानवीय आधार पर इन्हें शरण देने की बात करते हैं तो समझ में आजाना चाहिए कि दाल में कुछ और नहीं बस काला ही काला है।
- राकेश सैन
मो. 097797-14324
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