Thursday, 14 September 2017

हिंदुओं के ज्ञान का फिर से डंका


पांडुलिपि में दाईं तरफ नीचे की पंक्ति में सातवां वर्ण छोटा सा बिंदु नजर आता है।
एक प्राचीन भारतीय पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग से पता चला है कि शून्य की मौजूदगी का सबसे पहला रिकॉर्ड हमारे अब तक के ज्ञान से भी पुराना है। पश्चिम की जानकारी केवल 5000 साल पुरानी है और वे दुनिया को इसी परिधि में समेटने का प्रयास करते रहे हैं। कोई सभ्यता इससे आगे की बात करती है तो उसके ज्ञान को 'मिथ' कह कर संबोधित करते हैं। इतिहास सौ पर्दे फाड़ कर बाहर आया और आज सरस्वती नदी की कल्पना ठोस रूप ले चुकी है, वह सरस्वती नदी वेदों के अनुसार जो आज से लगभग 60000 साल पहले लुप्त हुई को फिर खोज निकाला गया है। सरस्वती के लुप्त होने का जिक्र वेदों में है तो अनुमान लगाया जा सकता है कि कम से कम सरस्वती युग में तो वेद विद्यमान रहे ही होंगे। अब दूसरी ओर हमारे ज्ञान के सनातन होने की पुष्टि कार्बन डेटिंग ने भी कर दी है तो क्या अब समय नहीं आगया कि भारत अपने इतिहास व ज्ञान-विज्ञान को देखने के दृष्टिकोण बदले?
हम भारतीयों के लिए गौरव की बात है कि आज विश्व हमारे ज्ञान-विज्ञान की प्राचीनता का लोहा मान रहा है और हमारी सभ्यता के युगों प्राचीन व सनातन होने की सच्चाई को सत्यापित कर रहा है। हमारी संस्कृति व विज्ञान को कुछ हजारों सालों में समेटने वाले पश्चिम के वैज्ञानिकों ने अब माना है कि भारत का ज्ञान का रिकार्ड दुनिया के अब तक के ज्ञान से भी सदियों पुराना है। शून्य के अविष्कार को 8 वीं से 12 वीं शताब्दी के बीच का बताया जाता रहा है परंतु अभी नए तथ्यों से पता चला है कि शून्य का अविष्कार आज के ज्ञान के रिकार्ड से सदियों पुराना है। 'द गार्डिन' समाचारपत्र में प्रकाशित समाचार के अनुसार, भारत में मिली एक पांडुलिपी की कार्बन डेटिंग से पता चला है कि यह वर्तमान ज्ञान की जानकारी से सदियों प्राचीन है। इस पांडुलिपी में शून्य का वर्णन है।
कार्बन डेटिंग से पता चला है कि शून्य की मौजूदगी का सबसे पहला रिकॉर्ड हमारे अब तक के ज्ञान से भी पुराना है। ये जानकारी एक प्राचीन भारतीय पांडुलिपि में मिले प्रमाण से पुष्ट होती है। 1902 से ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में रखी गई बखशाली पांडुलिपि तीसरी या चौथी शताब्दी की बताई जा रही है। इतिहासकारों के पास इस पांडुलिपि के बारे में जो जानकारी थी उससे ये कई सौ साल पुरानी बताई जा रही है। ये पांडुलिपि पाकिस्तान के पेशावर में 1881 में मिली थी जिसे बाद में ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड में बडलियन लाइब्रेरी ने संग्रहित किया था। बडलियन लाइब्रेरी के रिचर्ड ओवेन्डेन कहते हैं कि ये नई जानकारियां गणित के इतिहास के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण हैं। 
बखशाली पांडुलिपि 1881 में पाकिस्तान के पेशावर में मिली थी जहां से इसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भेजा गया था। प्राचीन भारत में गणित में इस्तेमाल होने वाला बिंदु समय के साथ शून्य के चिह्न के रूप में विकसित हुआ और इसे पूरी बखशाली पांडुलिपि में देखा जा सकता है। बडलियन लाइब्रेरी के मुताबिक बिंदु से प्रारंभिक तौर पर संख्या प्रणाली में क्रम के गुरुत्व की समझ बनती थी, लेकिन बीतते समय के साथ मध्य में छेद वाला आकार विकसित हुआ। पहले के शोध में बखशाली पांडुलिपि को 8वीं और 12 वीं शताब्दी के बीच का माना जा रहा था, लेकिन कार्बन डेटिंग के मुताबिक ये कई शताब्दियों पुरानी है। बडलियन लाइब्रेरी के मुताबिक इससे पहले पांडुलिपि किस समय की है ये बता पाना शोधकर्ताओं के लिए काफी मुश्किल था क्योंकि ये 70 भोजपत्रों से बनी हुई है और इसमें तीन अलग-अलग काल की सामग्रियों के प्रमाण मिले हैं। द गार्डियन अखबार के मुताबिक संस्कृत के एक स्वरूप में लिखी गई इस पांडुलिपि के अनुवाद से पता चलता है कि ये सिल्क रूट के व्यापारियों के लिए प्रशिक्षण पुस्तिका थी और इसमें गणित के व्यावहारिक अभ्यास हैं जो बीजगणित के समान प्रतीत होता है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में गणित के प्रोफेसर मार्कस ड्यू सॉतॉय ने द गार्डियन अख़बार से कहा है, ''इसमें ये भी देखने को मिलता है कि अगर कोई सामान खरीदें और बेचें तो आपके पास क्या बच जाता है?''
देखने में आता है कि पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी केवल 5000 साल पुरानी है और इसी कारण वे पूरी दुनिया को इसी परिधि में समेटने का प्रयास करते आते रहे हैं। कोई समाज या सभ्यता इससे आगे की बात करती है तो उसके ज्ञान को 'मिथ' कह कर संबोधित करते हैं। असल में पश्चिम के इस पांच हजारी सिद्धांत का आधार उनका अहंकार है जो कहता है कि दुनिया में जो कुछ जानते हैं वे ही जानते हैं अन्यथा बाकियों का ज्ञान-विज्ञान मिथ्या है। आत्मविस्मृति के वशीभूत हमारा समाज, हमारे इतिहासकार व वैज्ञानिक भी पश्चिम के इसी भ्रम के शिकार रहे हैं तभी तो जब सरस्वती नदी के अस्तित्व की बात की जाती थी तो यह पांच हजारी समाज हमारा मजाक उड़ाता था। लेकिन इतिहास सौ पर्दे फाड़ कर बाहर आया और आज सरस्वती नदी की कल्पना ठोस रूप ले चुकी है, वह सरस्वती नदी वेदों के अनुसार जो आज से लगभग 60000 साल पहले लुप्त हुई को फिर खोज निकाला गया है। रोचक बात है कि सरस्वती के लुप्त होने का जिक्र वेदों में है तो इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कम से कम सरस्वती युग में तो वेद विद्यमान रहे ही होंगे। अब दूसरी ओर हमारे ज्ञान के सनातन होने की पुष्टि कार्बन डेटिंग ने भी कर दी है तो क्या अब समय नहीं आगया है कि भारत अपने इतिहास व ज्ञान-विज्ञान को देखने के दृष्टिकोण बदले? अब पांच हजारी इतिहास ढोते रहना कहां तक की बुद्धिमता है ?

- राकेश सैन
मो. 097797-14324

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