Friday, 13 October 2017

शुचिता का पर्व दीपावली

पांच पर्वों का समूह दीपावली अपने साथ संदेश भी बहुपक्षीय लेकर आती है। इसके सांस्कृति, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत पक्ष होने के साथ-साथ सामाजिक सरोकार भी इसके साथ जुड़े हैं। समुद्रमंथन के समय लक्ष्मी जी की उत्पति से लेकर भगवान श्रीराम के अयोध्या वापिस लौटने, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा मुगलों की कैद से अपने देश के राजाओं को मुक्ति दिलवाने जैसी अनेक एतिहासिक व पौराणिक घटनाओं से जुड़ा यह पर्व जीवन के हर पक्ष में शुचिता का संदेश भी लेकर आता है। 

वेद से वेदान्त, श्रुति से स्मृति, शास्त्र से महाकाव्य तक भारतीय संस्कृति में शुचिता को केवल धर्म का आधार ही नहीं, धर्म ही माना गया है। धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। मनुस्मृति में मनु ने धर्म के दस अंग बताये है। वे कहते हैं- धृति क्षमा दम अस्तेय शौच इन्द्रियनिग्रह धी विद्या सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण है। शुचिता केवल भौतिक जीवन के लिए ही नहीं आध्यात्मिक और मानसिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य है। इसलिए मनु ने अपने धर्म के 10 लक्षणों में शौच को स्थान दिया है। इसी प्रकार दर्शन के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अष्टांगिक योग के निरूपण में दूसरे चरण यानि नियम में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान  में शौच को महत्वपूर्ण स्थान इसलिए दिया है कि शुचिता एक समग्र-साधना है जिसे हम 'अन्त:शुद्धि' और 'बहिर्शुद्धि' दोनों को समेट लेती है। शरीर एवं मन का परस्पर संयोग आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का आवास होता है। उसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के लिए हमें शारीरिक, मानसिक क्रियाओं की संगति बैठानी होगी।
आज देश में स्वच्छता की जोरों से चर्चा की जा रही है तो दीपावली अवसर है कि
हम अपने जीवन में स्वच्छता को केवल बाहरी क्रियाकलापों तक सीमित न रखें
बल्कि अपने धर्मग्रंथों के निर्देशानुसार इसको समग्र रूप से धारण करें।
मनुष्य शरीर की रचना पंच-तत्व से हुई है। साथ-साथ इसका परिपालन भी होता है। अत: इन पर ध्यान रखना आवश्यक है जो व्यक्ति प्रकृतिक वातावरण में ज्यादा रहेगा, उसे प्रकृति का आशीर्वाद भी अधिक प्राप्त होगा। जब शरीर संपोषित एवं स्वस्थ रहेगा, उसकी मानसिक साधना भी अच्छी रहेगी। जिस तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है, उसी प्रकार मन की एकाग्रता आदि के लिए सुन्दर स्वास्थ्य भी जरूरी है। जो व्यक्ति मन में रोग, द्वेष, क्रोध, अहंकार आदि को पालेगा तो वह मानसिक रूप से अस्थिर रहेगा। अत: शारीरिक स्वास्थ्य के साथ अन्त:करण की शुद्धि आवश्यक है। वर्तमान में वैश्विक खतरा पर्यावरण के बढ़ते प्रदूषण से है। प्रकृति अपनी सीमाओं में मानव जाति का पोषण करती है इसलिए उसका असीमित भोग या शमन नहीं कर सकते। पर्यावरण की शुचिता भी हमें बनाए रखनी होगी और इसके साथ-साथ जीवन में ईमानदारी के गुण का भी समावेश करना होगा। मनु कहते हैं -

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि स: शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:॥

सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है। मात्र मिट्टी एवं पानी के माध्यम से शुद्धि प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थ में शुद्ध नहीं हो जाता। मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं। एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं। उक्त नीति वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है। ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्त्व की बात है धन संबंधी शुचिता। वही व्यक्ति वस्तुत: शुद्धिप्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो। जिसने धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धनसंग्रह न किया हो।

क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिण:।
प्रछन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमा:॥

विद्वजन क्षमा से और अकरणीय कार्य कर चुके व्यक्ति दान से शुद्ध होते हैं। छिपे तौर पर पापकर्म कर चुके व्यक्ति की शुद्धि मंत्रों के जप से एवं वेदाध्ययनरतों का तप से संभव होती है। क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता समाप्त कर देते हैं। इनसे मुक्त होने पर ही विद्वद्गण की शुद्धि कही जाएगी। क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्धि प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है। धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करने वाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जाप शुद्धि के साधन होते हैं और वेदपाठ जैसे कार्य में लगे व्यक्ति के दोषों के मुक्ति का मार्ग तप में निहित रहता है। इन सब बातों में प्रायश्चित्त की भावना का होना आवश्यक है। 

अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मन: सत्येन शुद्धयति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्र्ञानेन शुद्धयति॥

शरीर की शुद्धि जल से होती है। मन की शुद्धि सत्य भाषण से होती है। जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है। मन में सद्विचार पालने और सत्य का उद्घाटन करके मनुष्य मानसिक शुचिता प्राप्त करता है। सफल परलोक पाने के लिए जीवात्मा को शौचशील होना चाहिए और उसकी शुचिता विद्यार्जन एवं तपश्चर्या से संभव होती है। व्यक्ति की बुद्धि उचित अथवा अनुचित, दोनों ही, मार्गों पर अग्रसर हो सकती है। समुचित ज्ञान द्वारा मनुष्य सही दिशा में अपनी बुद्धि लगा सकता है। यही उसकी शुचिता का अर्थ लिया जाना चाहिए है। आज देश में स्वच्छता की जोरों से चर्चा की जा रही है तो दीपावली अवसर है कि हम अपने जीवन में स्वच्छता को केवल बाहरी क्रियाकलापों तक सीमित न रखें बल्कि अपने धर्मग्रंथों के निर्देशानुसार इसको समग्र रूप से धारण करें।
- राकेश सैन
३२, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
मो. 097797-14324



No comments:

Post a Comment

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...