Saturday, 14 October 2017

हिंदुत्व की जड़ें काटती कांग्रेस

कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी के मंदिरों में तीर्थाटन के नए शौक को देख कर जिनको लगा कि पार्टी अपनी अघोषित हिंदुत्व विरोधी नीति में सुधार करने जा रही है वे तनिक प्रतीक्षा करें। कर्नाटक में घट रहे घटनाक्रम को जानकर उन्हें अपनी राय को फिर से बदलनी पड़ेगी। कर्नाटक में कांग्रेस सत्तारूढ़ है, वहां जल्द विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। हिंदुत्व रूपी गुलदस्ते का खूबसूरत पुष्प लिंगायत समाज भाजपा समर्थक माना जाता है। कांग्रेस इस समाज में फूट डाल कर उसमें अलगाववाद को हवा दे रही है। कांग्रेस के साथ-साथ धर्मांतरण की व्यापारी इसाई मिशनरियां व जिहादी ताकतें लिंगायत समाज को भड़का रही हैं कि उनका संप्रदाय हिंदुत्व का हिस्सा नहीं। इससे प्रभावित हो कर लिंगायत समाज के बहुत से लोग अपने संप्रदाय को हिंदुत्व से अलग धर्म घोषित करने की मांग करने लगे हैं और कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इसके लिए कानूनी प्रक्रिया शुरू भी कर दी है।   
विगत दिनों कर्नाटक के सीमावर्ती जिले बीदर में बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ जुटी। बीदर एक तरफ महाराष्ट्र से लगा हुआ है तो दूसरी तरफ तेलंगाना से। कहा जा रहा है कि इस जनसभा में 75,000 लोग आए थे और वे अपने समुदाय के लिए अलग धार्मिक पहचान की मांग लेकर आए थे। लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है। कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं। पास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी लिंगायतों की मांग का खुलकर समर्थन किया है। सिद्धारमैया सरकार के पांच मंत्री अब इस मसले पर लिंगायतों का पुरोहित वर्ग की सलाह लेने जा रहे हैं और इसके बाद वे मुख्यमंत्री को एक रिपोर्ट भी पेश करेंगे। इसके पीछे विचार ये है कि लिंगायतों को अलग धर्म की मान्यता देने के लिए राज्य सरकार केंद्र सरकार को लिखेगी।
कौन हैं लिंगायत? 
वीरशैव संप्रदाय, या लिंगायत मत, हिन्दुत्व के अंतर्गत दक्षिण भारत में प्रचलित एक मत है। इसके उपासक लिंगायत कहलाते हैं। यह शब्द कन्नड़ शब्द लिंगवंत से व्युत्पन्न है। ये लोग मुख्यत: पंचाचार्यगणों एवं बसव की शिक्षाओं के अनुगामी हैं। 'वीरशैव' का शाब्दिक अर्थ है - 'जो शिव का परम भक्त हो'। किंतु समय बीतने के साथ वीरशैव का तत्वज्ञान दर्शन, साधना, कर्मकांड, सामाजिक संघटन, आचारनियम आदि अन्य संप्रदायों से भिन्न होते गए। यद्यपि वीरशैव देश के अन्य भागों - महाराष्ट्र, आंध्र, तमिल में भी पाए जाते हैं किंतु उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में है। शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासों और दर्शन का उद्गम वेदों तथा 28 शैवागमों से मानते हैं। वीरशैव भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते किंतु उनके दर्शन, कर्मकांड तथा समाजसुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएं विकसित हो गई हैं जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवागमों तथा ऐसे अंतर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है जो वचनकार कहलाते हैं। 12वीं से 16 वीं शती के बीच लगभग तीन शताब्दियों में कोई 300 वचनकार हुए हैं जिनमें से 30 स्त्रियाँ रही हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम बासव का है जो कल्याण (कर्नाटक) के जैन राजा विज्जल (12वीं शती) के प्रधान मंत्री थे। वह योगी महात्मा ही न थे बल्कि कर्मठ संघटनकर्ता भी थे जिसने वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की। वासव का लक्ष्य ऐसा आध्यात्मिक समाज बनाना था जिसमें जाति, धर्म या स्त्रीपुरुष का भेदभाव न रहे। वह कर्मकांड संबंधी आडंबर का विरोधी था और मानसिक पवित्रता एवं भक्ति की सच्चाई पर बल देता था। वह मात्र एक ईश्वर की उपासना के समर्थक थे और उन्होंने पूजा तथा ध्यान की पद्धति में सरलता लाने का प्रयत्न किया। जाति भेद की समाप्ति तथा स्त्रियों के उत्थान के कारण समाज में अद्भुत क्रांति उत्पन्न हो गई। ज्ञानयोग भक्तियोग तथा कर्मयोग - तीनों वचनकारों को मान्य हैं किंतु भक्ति पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है। वासव के अनुयायियों में बहुत से हरिजन थे और उसने अंतर्जातीय विवाह भी संपन्न कराए।
वीरशैवों का संप्रदाय शक्ति विशिष्टाद्वैत कहलाता है। परम चैतन्य या परम संविद् देश, काल तथा अन्य गुणों से परे है। परा संविद् की शक्ति ही इस विश्व का उत्पादक कारण है। विश्व या संसार मिथ्या नहीं है। एक लंबी और बहुमुखी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप बहुरूपधारी संसार की उत्पत्ति होती है। मनुष्य में हम जो कुछ देखते हैं वह विशिष्टीकरण एवं आत्मचेतना का विकास है किंतु यह आत्मचैतन्य ही परम चैतन्य के साथ पुनर्मिलन के प्रयास का प्रेरक कारण है। साधना के परिणाम स्वरूप जब ईश्वर का सच्चा भक्त समाधि की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त होता है तब समरसैक्य की स्थिति अर्थात् ईश्वर के प्रत्येक स्वरूप के साथ पूर्ण एकता की स्थिति उत्पन्न होती है। यही मनुष्य के परमानंद या मोक्ष की स्थिति है। इसे पूर्ण विलयन न मानकर मिलन के परमानंद में बराबरी से हिस्सा ग्रहण करना समझना अधिक अच्छा होगा।
वीरशैवों ने एक तरह की आध्यात्मिक अनुशासन की परंपरा स्थापित कर ली है जिसे शतस्थल शास्त्र कहते हैं। यह मानव की साधारण चेतना का अंगस्थल के प्रथम प्रक्रम से लिंगस्थल के सर्वोच्च क्रम पर पहुँच जाने की स्थिति का सूचक है। साधना अर्थात् आध्यात्मिक अनुशासन की समूची प्रक्रिया में भक्ति और शरण याने आत्मार्पण पर बल दिया जाता है। वीरशैव महात्माओं की कभी कभी शरण या शिवशरण कहते हैं याने ऐसे लोग जिन्होंने शिव की शरण में अपने आपको अर्पित कर दिया है। उनकी साधना शिवयोग कहलाती है।
इसमें संदेह नहीं कि वीरशैवों के भी मंदिर, तीर्थस्थान आदि वैसे ही होते हैं जैसे अन्य संप्रदायों के, अंतर केवल उन देवी देवताओं में होता है जिनकी पूजा की जाती है। जहाँ तक वीरशैवों का सबंध है, देवालयों या साधना के अन्य प्रकारों का उतना महत्व नहीं है जितना इष्ट लिंग का जिसकी प्रतिमा शरीर पर धारण की जाती है। आध्यात्मिक गुरु प्रत्येक वीरशैव को इष्ट लिंग अर्पित कर उसके कान में पवित्र षडक्षर मंत्र 'ओम् नम: शिवाय' फूँक देता है। प्रत्येक वीरशैव स्नानादि कर हाथ की गदेली पर इष्ट लिंग की प्रतिमा रखकर चिंतन और ध्यान द्वारा आराधना करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक वीरशैव में सत्यपरायणता, अहिंसा, बंधुत्वभाव जैसे उच्च नैतिक गुणों के होने की आशा की जाती है। वह निरामिष भोजी होता है और शराब आदि मादक वस्तुओं से परहेज करता है। बासव ने इस संबंध में जो निदेश जारी किए थे, उनका सारांश यह है - चोरी न करो, हत्या न करो और न झूठ बोलो, न अपनी प्रशंसा करो न दूसरों की निंदा, अपनी पत्नी के सिवा अन्य सब स्त्रियों को माता के समान समझो।
इन शिक्षाओं से स्पष्ट होता है कि लिंगायत समाज किसी भी दृष्टि से हिंदुत्व से अलग नहीं है। अलगाववादी तर्क देते हैं कि लिंगायत वैदिक संस्कृति में विश्वास नहीं रखते तो उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि हिंदुत्व में इसकी बाध्यता भी नहीं है। यहां तक कि चार्वाक जैसे ऋषि तो वेदों को आलोचक तक रहे हैं परंतु हिंदुत्व उन्हें ऋषि की उपाधि प्रदान करता है। लिंगायत समाज के हिंदुत्व से अलग होने के कोई तर्क नहीं बल्कि केवल राजनीतिक चालबाजियां व हिंदुत्व को कमजोर करने की कवायद है जो कांग्रेस, इसाई मिशनरियां व जिहादी ताकतें मिल कर इनको अंजाम दे रही है। देश में चल रही अल्पसंख्यकवाद की राजनीति ने पहले सिख पंथ, बौद्ध संप्रदाय व जैन समाज को हिंदुत्व की मुख्यधारा से अलग किया और अब लिंगायत समाज का विच्छेद करने का प्रयास हो रहा है।

राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, जालंधर।
मो. 097797-14324

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