Thursday, 19 October 2017

ताज पर विवाद, झूठे इतिहास की दरारों का शोर

रेल गाड़ी ट्रैक बदलती है तो खडख़ड़ाहट होती है, सत्य का प्रकाश अंधकार के दुकानदारों को सालता है क्योंकि इससे असत्य के तारे टिमटिमाना बंद कर देते हैं। झूठ दरकता है तो शोर मचता ही है, मच भी रहा है ताजमहल पर। बौद्धिक झूठ फैलाने वाले इतिहास पर दावे की लड़ाई को मोहब्बत के विरोध में खड़ा करने की फिराक में है, कहते हैं यह दुनिया का आठवां अजूबा, प्रेम का मानसरोवर, पर्यटकों के लिए चुंबक और भी न जाने क्या क्या है। इनका कहना बिल्कुल ठीक है, ताजमहल यह सबकुछ है भाई, परंतु ताजमहल बनाने वालों की भी तो बात हो। इतिहास का एकतरफा विमर्श कितनी देर चलेगा। ताज तो प्रेम प्रतीक है परंतु इसको बनाने वाले कितने मानवता प्रेमी थे, इस पर भी तो चर्चा होनी चाहिए। सच बतलाएं तो ताज के बहाने तुष्टिकरण की राजनीति हमलावर व अत्याचारी मुगलों को कवरिंग फायर दे रही है, एकपक्षीय बुद्धिजीवी व इतिहासकार अब इतिहास का दूसरा पक्ष उजागर होते ही असहिष्णु हो कोहराम मचा रहे हैं। चेहरा नंगा होने से बेचैन ये बुद्धिजीवी देश को चीख-चीख कर बता रहे हैं कि ध्रुवीकरण हो रहा है, सांप्रदायिकता फैलाई जा रही है, देश को बांटा जा रहा है।

देश में ताजमहल पर चर्चा जोरों पर है। चर्चा तब छिड़ी जब उत्तर प्रदेश सरकार ने एक पुस्तिका प्रकाशित कर देशवासियों को यह बताया कि 'रामायण सर्किट' योजना के तहत किन-किन हिंदू व बौद्ध पर्यटनस्थलों का पुर्नोद्धार कर उन्हें दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनाया जा रहा है। यह कोई उत्तर प्रदेश के पूरे पर्यटनस्थलों की सूची नहीं थी बल्कि इसमें उन स्थलों का विवरण था जिनका पुर्नोद्धार होना है। स्वभाविक तौर पर इसमें ताजमहल का नाम शामिल नहीं किया जा सकता था। इस साधारण सी घटना का सांप्रदायिक विश्लेषण किया हमारे अति उत्साही मीडिया ने जिसने बिना तथ्यों को खोजे यह चर्चा शुरु कर दी कि यूपी के पर्यटन स्थलों से ताजमहल का नाम जानबूझ कर निकाला गया है।

चर्चा के बीच उत्तर प्रदेश के विधायक संगीतसोम ने कह दिया कि ताजमहल हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं बल्कि हमारे इतिहास पर धब्बा और गुलामी के प्रतीक हैं। उनके इतना कहते ही देश का सारा सेक्युलर ताना-बाना टूट पड़ा पूरे लावलश्कर के साथ संगीत सोम पर। एमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि लालकिला, संसद भवन भी तुड़वा दो जो विदेशी शासकों ने बनवाईं। कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं ने तो इस मुद्दे पर भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ खूब जहरीली जुगाली की। टीवी चर्चाओं में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल सहित सभी धर्मनिरपेक्ष दलों के प्रवक्ता कपड़े फाडऩे तक उतारू हो गए। ताज के बहाने अकबर, बाबर, औरंगजेब, शहंशाह आदि विदेशी शासकों का खूब गुणगान हुआ और उन्हें मसीहा बताने का प्रयास किया गया।

ताजमहल का चारण भाटों की तरह गुणगान करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि इसका निर्माण उस काल में हुआ जब देश में अकाल फैला था। देशवासी भूख से मर रहे थे और मोहब्बत के शहंशाह अपनी बेगम की याद में आंसुओं के साथ-साथ गरीबों के गाढ़े खून पसीने की कमाई बहा रहे थे। बताते हैं कि उस अकाल में लाखों लोग मौत का ग्रास बने और अकाल के बावजूद गरीब किसानों से कर वसूला गया। ताज की सुंदरता ने शहंशाह को इतना अभिभूत कर दिया कि उन्हें भय सताने लगा कहीं ऐसी ईमारत दूसरी और न बने। कहते हैं कि शाही फरमान से ताज बनाने वाले 20000 कारीगरों के हाथ काट दिए गए। पूरी दुनिया में शायद ही किसी जाति ने इतना अत्याचार सहा हो जितना हिंदुओं ने सहा कि दुनिया की श्रेष्ठ ईमारत बनाने का उपहार उन्हें हाथ कटा कर मिला। 

चाहे कुछ लोग इसे गलत मानते हैं और कहते हैं कि शाहजहां ने इन कारीगरों के हाथ नहीं काटे बल्कि करार करवाया कि वे ऐसी ईमारत कहीं दूसरे स्थान पर नहीं बनाएंगे। इसके बदले उन्हें मुआवजा दिया गया। परंतु यह तर्क देने वाले इसके प्रमाण नहीं दे पा रहे हैं। वे कहते हैं कि हाथ काटने के भी प्रमाण लाओ। हाथ काटने के प्रमाण हैं, हमारी जनश्रुतियों में, आम बातचीत में आने वाली इस घटना के जिक्र में। हमारे पूर्वज बताते रहे हैं इस घटना को। हमसे प्रमाण मांगने वालों को ज्ञात होने चाहिए कि इतिहास लेखन का काम केवल भौतिक प्रमाणों के आधार पर ही नहीं बल्कि जनश्रुतियों के आधार भी होता है और कई बार यह ठोस प्रमाणों से भी अधिक ठोस होता है। भौतिक प्रमाण तो गढ़े भी जा सकते हैं परंतु जनश्रुतियां विशुद्ध सच्चाई पर आधारित होती है। तो क्या ताज के साथ-साथ उन कारीगरों पर हुए अत्याचारों का स्मरण करना सांप्रदायिकता हो गया?
बौद्धिक पक्षपाती बताते हैं कि ताज हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। कोई पूछे भला विदेशी हमलावरों की यादें हमारी संस्कृति का हिस्सा कब से बन गईं? भारत पर हमला करने वाले बाबर, हुमायुं के वंशज भारतीय कैसे हो गए? बाबर से लेकर सभी मुगल शासक आक्रांता थे जिन्होंने हम पर जीत हासिल कर शासन किया और खूब अत्याचार किए। मुगलों, गुलामों, तुर्कों, अरबों के आठ सौ साल के शासन में 80 लाख हिंदू शहीद कर दिए गए। क्या दुनिया में किसी अन्य जाति ने किया इतना बड़ा बलिदान ? क्या दुनिया की किसी अन्य जाति ने लिया इतना बड़ा इम्तिहान? दोनों प्रश्नों का उत्तर है नहीं। यहां यह भी स्पष्ट करने वाली बात है कि मुद्दा सांप्रदायिक नहीं, हिंदू-मुस्लिम का नहीं बल्कि भारतीय व अभारतीया का है। इस देश में रहने वाले मुस्लिम भाई भी विदेशी हमलावरों के वंशज नहीं बल्कि हमारे ही शरीर का अंग हैं। उन्हें जबरन मुस्लिम बनाया या वे इस्लाम से प्रेरणा पा कर बने, इस्लाम उन्हें मुबारक। हम इस्लाम के विरोधी नहीं बल्कि सल्लाह वाले वसल्लम हजरत मोहम्मद साहिब का उतना ही सम्मान करते हैं जितना कि भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण व श्री गुरु नानक देव जी का। देश का संघर्ष विदेशी प्रतीकों, विदेशी मानसिकता, आत्मनिंदा की कुप्रथा, इतिहास के साथ हुई बेईमानी से है, जो मुगलों जैसे अत्याचारियों को हमारे शासक व कल्याणकारी बताती है।

कहते हैं कि ताजमहल, लाल किला, संसद भवन, कुतुबमिनार तोड़ दो। भाई क्यों तोड़ें? यही तो प्रतीक हैं जो हमें याद दिलवाते हैं कि जब-जब हम अलग हुए, जब-जब आपस में लड़े तब-तब इस देश में ताज व लाल किले बनाने वालों का राज आया। जब-जब हमारी राष्ट्रीय चेतना का अवसान हुआ तब-तब श्रीराम जन्मभूमि, काशी विश्वानाथ, मथुरा हमसे छिनी। ये गुलामी के प्रतीक तो हमारे सचेतक व प्रकाशस्तंभ होने चाहिएं जो हमें रास्ता दिखाते रहें कि मुगल, तुर्क, पठान, अंग्रेज आज भी समाप्त नहीं हुए हैं और आज भी तैयार बैठे हैं भारत पर गिद्धदृष्टि डाले हुए। हम एक न हुए, हमारे में राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं हुआ तो हमारी सस्यश्यामला भारत भूमि फिर पट जाएगी इन मुर्दाखोरों से। बाकी बात रही झूठ के इतिहास की तो देर-सवेर इस झूठ के किले का दरकना तो तय है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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