Tuesday, 19 December 2017

विपक्ष में हैं तो कुछ भी बोलेंगे

गुजरात व हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद पूरे देश का राजनीतिक ज्वार अब भाटे का रूप ले उतराव पर है। नेताओं की बदजुबानी के चलते हर चुनाव अपने प्रचार अभियान के दौरान लोकतंत्र को ऐसे जख्म दे जाता है जिसकी महरमपुर्सी में महीनों लग जाते हैं परंतु अगले चुनाव में यही समस्या दोगुनी विकराल समस्या धारण कर सामने आजाती है। प्रचार के दौरान विरोधी दल पर आरोप लगाना, उसकी कमियां गिनवाना, कमजोरियों को मतदाताओं के सम्मुख लाना हर राजनीतिक दल का अधिकार है परंतु जब तथ्यों व सच्चाई की अनदेखी कर इस अधिकार का प्रयोग होता है तो वह दुष्प्रचार का रूप धारण कर लेता है। चिंताजनक बात यह है कि आज दुष्प्रचार से न तो विपक्ष को पहरेज है और न ही सत्ताधारी दलों को किसी तरह की हिचक। भाजपा और कांग्रेस के बीच जीवन मरण का प्रश्न बने गुजरात चुनाव के दौरान इतने उच्च स्तर पर दुष्प्रचार हुआ जिसका हिसाब तक लगाना मुश्किल है। विशेषकर विपक्षी दल होने के नाते कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने तो इसे अपने विशेषाधिकार ही बना लिया नजर आया, लेकिन ध्यान रहे दुष्प्रचार से मतदाताओं को प्रभावित तो किया जा सकता है परंतु स्वस्थ जनमत नहीं तैयार किया जा सकता जो लोकतंत्र की वास्तविक पूंजी है।

गुजरात की चुनावी सभाओं में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को गब्बर सिंह टैक्स बता कर खूब तालियां बटोरीं। पार्टी के बाकी नेताओं ने भी इस जुमले का जीभर कर प्रयोग किया परंतु यह भूल गए कि यह मूल रूप से कांग्रेस पार्टी की सरकार के समय तैयार किए गए कानून का प्रारूप है। इसको लागू करवाने में कांग्रेस पार्टी की भी बराबर की भूमिका थी। अगर यह गब्बर सिंह टैक्स था तो संसद में कांग्रेसी नेता क्यों 'कालिया' और 'धौलिया' की भूमिका में रहे। जीएसटी लगाने की सबसे ज्यादा मांग कांग्रेसी राज्यों की सरकारें ही करती रही हैं। एक रोचक तथ्य यह भी है कि जीएसटी परिषद् की बैठकों में कांग्रेस के प्रतिनिधि हर प्रस्ताव को सर्वानुमति देते रहे और मंचों पर उसी कांग्रेस के नेता जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बताते हैं।

गुजरात में ही एक सभा के दौरान राहुल गांधी ने रोजगार के मोर्चे पर केंद्र व गुजरात की भाजपा सरकार को घेरने का प्रयास किया। जितना सार्थक मुद्दा था उसके साथ उतना ही उपहास हुआ। श्री गांधी ने एक तरफ राज्य में 50 लाख युवाओं के बेरोजगार होने की बात कही तो अगली चुनावी सभा में यह आंकड़ा 30 लाख पर समेट दिया। जबकि राज्य सरकार ने जो सरकारी आंकड़ा दिया वह इन दोनों से भिन्न रहा। राहुल से केवल यहीं चुकें नहीं हुई बल्कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पांच उद्योगपतियों को लाखों-करोड़ एकड़ जमीन मुफ्त में देने का आरोप लगाया जिसका बाद में आकलन किया गया तो सामने आया कि इस आंकड़े में तो पूरी धरती समा सकती है। प्रश्न है कि विपक्ष में होने से क्या इस तरह झूठ फैलाने का अधिकार मिल जाता है।

अभी 9-10 माह पहले ही पंजाब के संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में खूब दुष्प्रचार देखने को मिला था। कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ सत्ता के सपने ले रही आम आदमी पार्टी तत्कालीन सत्तारूढ़ अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगा रही थी। सत्ताधारी नेताओं को नशों के सौदागर, जमीन-रेत माफिया, किसानों की आत्महत्याओं के लिए जिम्मेवार और न जाने क्या-क्या नहीं कहा गया। दस सालों की सत्ताविरोधी लहर के चलते राज्य की जनता भी इस दुष्प्रचार को सच्चाई मानने लगी परंतु आज सच्चाई सबके सामने है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी राज्य में पहले की तरह ही नशा बिक रहा है। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बठिंडा में चुनावी सभा के दौरान गुटका साहिब (सिख धर्म से संबंधित पवित्र ग्रंथ) की सौगंध उठा कर एक महीने के भीतर बड़े नशा तस्करों, भू-माफियाओं को सींखचों के भीतर करने का दावा किया था परंतु मुख्यमंत्री का वह एक महीना पंचांग के 9 महीनों से लंबा हो गया लगता है। पंजाब में पहले की तरह रेत की कालाबाजारी, अवैध खनन का काम चल रहा है, पिछले एक साल से कम समय में 300 के करीब किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं परंतु राज्य सरकार किसानों की ऋण माफी के नाम पर अभी तक केवल सहानुभूतिपूर्वक ब्यान दर्ज करवाने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पा रही है।

आलोचना व दुष्प्रचार के भीतर अंतर करना भारतीय नेताओं को सीखना होगा। यह एच्छिक नहीं बल्कि राजनीति के लिए अनिवार्य भी है कि कोई नेता बोले तो उसके शब्दों में तथ्यों की सच्चाई हो अन्यथा कुछ समय बाद जनता का जब विश्वास डोल जाता है तो बड़े से बड़े नेता की राजनीतिक प्रासंगिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल इसके ज्वलंत उदाहरण हैं जिन पर विश्वास कर वहां की जनता ने 70 में से 67 सीटें जितवा कर एक तरह का रिकार्ड कायम किया था। एक समय ऐसा था जब उन्हें राष्ट्रीय स्तर का नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था लेकिन दुष्प्रचार व मिथ्यावाचन के चलते आज वो अपने अस्तित्व की लड़ाई में उलझे नजर आरहे हैं।

रही बात राहुल गांधी की तो गुजरात में चाहे कांग्रेस हार गई परंतु निजी रूप से राहुल की छवि एक उदयीमान नेता की बनी है। आम आदमी पार्टी  के विपरीत देश में कांग्रेस की एतिहासिक व गौरवशाली भूमिका रही है। राहुल को अपनी पार्टी के साथ-साथ नेहरु-गांधी वंश की उच्च परंपराओं को भी आगे बढ़ाना है। देश को आज मजबूत विपक्ष व विपक्षी दल के नेता की अत्यधिक जरूरत महसूस हो रही है और जनता इसके लिए कांग्रेस की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है। राहुल को ध्यान रखना होगा कि देश, अपनी पार्टी और परिवार के प्रति इतनी बड़ी जिम्मेवारी झूठ के सहारे तो कतई नहीं निभा सकते।


- राकेश सैन
32-खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14234

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