Friday, 5 January 2018

खुले मन से दलित चिंतन शुरू हो

देश में कुछ वैधानिक प्रावधान ऐसे हैं जिसके दुरुपयोग से भयभीत हमारे समाज में खुले मन से दलित चिंतन नहीं हो पा रहा है। साधारण नागरिक तो क्या बड़े से बड़ा बुद्धिजीवी भी इस बात से भयाक्रांत रहता है कि सच्ची बात कहने से कहीं कानूनी पचड़े में न पड़ जाए। दलितों व पिछड़ों की रक्षा के लिए बने इन प्रावधानों का किसी तरह का विरोध नहीं है परंतु लगता है कि इससे कहीं न कहीं स्वस्थ दलित चिंतन रुक गया और दलितों के तुष्टिकरण का दौर शुरु हो गया। इन दोनों कारणों से समाज का अहित हो रहा है और इसका लाभ विभाजक ताकतें उठा रही हैं। महाराष्ट्र में हुई जातीय हिंसा प्रमाण है कि विघटनकारी शक्तियों द्वारा भारतीय समाज में जाति के आधार पर पहले से मौजूद विभाजन की खाई को गहरा किया जा रहा है। इसके लिए केवल यह शक्तियां ही नहीं बल्कि कहीं न कहीं समाज का कथित अगड़ा वर्ग, दलित, बुद्धिजीवी भी बराबर के जिम्मेवार हैं। राजनीतिक शक्तियां इसमें लाभ-हानि का आकलन कर रही हैं तो बुद्धिजीवी वर्ग भयाक्रांत हो सच्ची बात कहने से पहरेज कर रहा है। समाज में या तो दलित चिंतन होता नहीं, होता भी है तो कथित अगड़ी जातियों को कोसने, भारतीय धर्मग्रंथों की छवि मलिन करने, मान-अपमान की सच्ची-झूठी घटनाओं का ब्योरा देने, आरक्षण की सार्थकता या निरर्थकता जैसे घिसे-पिटे विषयों पर चर्चा के बाद संपन्न हो जाता है। कथित अगड़ों को समानता का पाठ तो पढ़ाया जाता है परंतु दलितों व पिछड़ों को कोई नहीं समझाता कि वह अतीत में मिले जख्मों की नुमाइश बंद करे, उत्पीडऩ व अपराधिक घटनाओं को जातिवाद से जोडऩा छोड़ें, इन घटनाओं का वर्णन करते समय अतिवाद से बचें, इतिहास का सही अध्ययन करते हुए दुषप्रचार से बचें।

रेड लाइटों पर भिखारियों को कारों के आसपास चिपटे हुए देखा जा सकता है, जो अपने जख्म दिखा कर दुकानदारी चलाते हैं। इनकी मानसिकता होती है कि जख्मों को सूखने न दिया जाए, उन्हें ज्यादा से ज्यादा कुरेदा जाए, स्वस्थ अंगों को नए घाव दिए जाएं ताकि उनका धंधा चोखा हो। कमोबेश यही हालत आज दलित व पिछड़ा समाज के बहुत बड़े वर्ग की हो चुकी है। इसके नेता न तो अतीत के जख्मों को सूखने दे रहे और स्वस्थ अंगों को भी घायल करने को तत्पर रहते दिखते हैं। इन जख्मों की कमाई से यह नेता व विभानजकारी शक्तियां तो खूब मालामाल हो रही हैं, अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर रही हैं परंतु दर्द बेचारे शरीर अर्थात दलित समाज को झेलनी पड़ रही है। दरअसल लार्ड मैकाले व कार्ल माक्र्स के अनुयाइयों द्वारा अभी तक इतना विकृत इतिहास पढ़ाया गया है जो समाज को तोडऩे का काम कर रहा है। दलितों व पिछड़ों को मिले कथित जख्मों की सच्चाई का एतिहासिक मूल्यांकन किया जाए तो इनमें अधिसंख्य घटनाएं कपोलकल्पित ही मिलेंगी।

इतिहास में झूठ फैलाया गया कि दलितों व पिछड़ों को शिक्षा का अधिकार व आर्थिक स्वतंत्रता नहीं रहा। इस तथ्य को इतिहास की ही कसौटी पर परखें तो पाएंगे कि यह सिवाय झूठ के अतिरिक्त कुछ नहीं। दलित चिंतक व लेखक डा. सोनकर शास्त्री अपने अध्ययन में बताते हैं कि 10वीं शताब्दी तक विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से अधिक थी, 15वीं शताब्दी तक सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) की दृष्टि से हम दुनिया में दूसरे नंबर पर रहे। देश में साक्षरता दर शत प्रतिशत थी। देश के हर गांव में विद्यालय थे जिनका संचालन समाज के सभी वर्गों द्वारा किया जाता था। यह तथ्य इसका साफ प्रमाण है कि शिक्षा और आर्थिक स्तर पर भारतीय समाज में पूरी समानता थी। बिना समानता के आर्थिक व शैक्षिक संपन्नता के लक्ष्य को प्राप्त ही नहीं किया जा सकता था।

डा. शास्त्री बताते हैं कि 12वीं शताब्दी तक हिंदू समाज में 4 वर्ण, 36 जातियां और 117 गौत्र थे परंतु आज भारत सरकार के गजट में 6500 जातियां, 50 हजार उपजातियां व अनगिनत गौत्र पंजीकृत हैं। याद रहे 12वीं शताब्दी के बाद देश में 1947 तक वह दौर चला जब विभिन्न विदेशी हमलावरों ने हम पर शासन किया। किसी दूसरे देश में शासन करने के लिए वहां के समाज को विखंडित करना पड़ता है और विदेशियों ने ऐसा ही किया अन्यथा हजारों की संख्या में जातियां,उपजातियां अस्तित्व में नहीं आतीं। हिंदू समाज में जाति आधारित जो विभाजन व अलगाव आज दिख रहा है वह धर्मग्रंथों या शास्त्रों के कारण नहीं बल्कि विदेशी षड्यंत्रों के कारण अस्तित्व में आया। अंग्रेजों के आने तक देश की विश्व के सकल घरेलु उत्पाद में 24 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी और जब अंग्रेज गए तो भारत आर्थिक स्तर पर दुनिया में 246वें स्थान पर था। हमारे उद्योग-धंधे, कुटीर उद्योग लगभग शून्य थे। धन की शक्ति अगर कुबेर से छीन लें तो कुछ समय में वह भी दबा-कुचला नजर आने लगेगा और यही कारण बना देश में जातिगत विभाजन व शोषण का।

हिंदू समाज के पिछड़े व दलित वर्ग को मनु स्मृति का नाम लेकर भड़काना का वामपंथियों, विदेशी शक्तियों व इसाई मिशनरियों का पुराना ढंग रहा है परंतु इसको लेकर दलितों को भड़काऊ  लोगों की बात सत्य माननी चाहिए या बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर की। यह ठीक है कि किसी समय आक्रोश में आकर बाबा साहिब ने मनु स्मृति को जलाया परंतु इस घटना के दो दशक बाद 1948 में लिखी अपनी पुस्तक 'दी अनटचेबल' में वे लिखते हैं कि- मनु के युग में कहीं भी अस्पश्र्यता नहीं थी। भारत में शूद्र कभी भी अस्पर्श नहीं रहे। 'हू वर शुद्रा' नामक एक अन्य पुस्तक में बाबा साहिब लिखते हैं दलित वर्ग, वैदिक काल में वर्णित शुद्र नहीं हैं। जो नियम शुद्रों पर लागू होते थे वह दलितों पर नहीं होते। इतिहास पर दृष्टिपात करें तो अंग्रेजों ने हमारे मंदिरों का प्रबंधन आर्थिक रूप से संपन्न घरानों को सौंप दिया। धीरे-धीरे आय व आर्थिक हैसियत के आधार पर मंदिरों में लोगों से व्यवहार होने लगा और उनके प्रवेश को रोका गया या सीमित किया गया। आज भी देखा जाए तो मंदिरों-गुरुद्वारों की प्रबंधक समितियों पर अमीरों का ही कब्जा होता है और जो यजमान ज्यादा दक्षिणा दे उसके लिए पुजारी जी ज्यादा तल्लीनता से मंत्रोच्चार करते हैं। यही बातें समाज के उन लोगों से जिनसे विदेशियों ने धनसंपदा छीन ली, जो वंचित-पिछड़े हो गए के मंदिर प्रवेश के मार्ग में बाधक बनीं, सामाजिक भेदभाव का कारण बनीं। इनके लिए धर्मग्रंथों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

लेकिन सच्चाई कुछ और भी है, इन सभी तथ्यों के बावजूद हम जातिवाद के नाम पर हुए या हो रहे भेदभाव को नकार नहीं सकते। दलित, पिछड़ा व वंचित समाज की शिकायतों को पूरी तरह खारिज व नजरअंदाज नहीं कर सकते। दूसरी ओर सच्चाई यह भी है कि कोई भी समाज पीछे की ओर देखते हुए आगे नहीं बढ़ सकता। उसे अतीत से सबक सीखते हुए आगे का मार्ग प्रशस्त करना पड़ता है। आज समय है कि हिंदू समाज का कथित अगड़ा वर्ग अपने जातीय अहंकार को छोड़े और कथित पिछड़ा व दलित वर्ग  अतीत की कड़वाहट को भुलाए। देश में खुले मन से दलित चिंतन हो जो समाज को जोडऩे का उद्देश्य लेकर आरंभ हो, जो दोनों पक्षों के बीच सेतु का काम करे। इसके लिए बुद्धिजीवियों को अपना भय भुला कर पहल करनी होगी और सही को सही व गलत को गलत कहने का साहस दिखाना होगा।


- राकेश सैन

32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,

वीपीओ रंधावा मसंदा,

जालंधर।

मो. 097797-14324

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