मुनि क्षमासागर जी महाराज के अनुसार- चिडिय़ा के सामने पूरा खेत खुला है, परंतु वह जरूरत के दो दाने ही चुगती है। उसी से अपना व परिवार का पालन-पोषण करती और वर्षा ऋतु के लिए बचा कर भी रखती है। वह खेत पर बोझ नहीं डालती, दो दानों के बदले फसलों से शत्रु कीटों का नाश कर उसकी रक्षा करती है। यही है ममत्व में समत्व यानि ममता में समता और साथ में भारतीय आर्थिक चिंतन भी। ब्रिटिश इंडिया कंपनी व उसके बाद बर्तानवी सरकार की शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था के चलते देश की आर्थिकता में गरीबों की भूमिका शुन्य हो गई। इसका समाधान जवाहर लाल नेहरू ने समाजवादी अर्थचिंतन के रूप में स्वीकार किया। इंदिरा गांधी ने माक्र्सवाद से प्रभावित हो 1969 में बैंकों का सरकारीकरण कर दिया, लेकिन नई व्यवस्था के दूसरी तरह के विपरीत परिणाम निकले। सरकारीकरन में श्रम संस्कृति की जगह राजनीति संस्कृति व यूनियनबाजी ने ले ली, सार्वजनिक संस्थानों में लूट-खसूट बढ़ी और बड़े लोगों के प्रभाव से उनके कद मुताबिक ही घोटाले होने लगे। देश में नीरव मोदी से लेकर ललित मोदी, हर्षद मेहता से लेकर विजय माल्या जैसे आर्थिक भस्मासुर पैदा हुए, जिन्होंने जिन वित्तीय संस्थाओं से आर्थिक पोषण प्राप्त किया उन्हीं को बर्बाद भी किया। आज पूंजीवाद और माक्र्सवाद दोनो ही समय की परीक्षा में रहे असफल विद्यार्थियों की तरह सिर झुकाए खड़े दिख रहे हैं, तो क्यों न उस अर्थ चिंतन को पुन: व्यवहार में लाया जाए जो युगों से प्रमाणिक है। जिसके बल पर भारत कभी सोने की चिडिय़ा बना, भारत की वैश्विक अर्थव्यवस्था में 52 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी जा पहुंची। वह व्यवस्था जो मानववादी, प्रकृति हितैषी व पूरे विश्व के लिए मंगलकारी है।
महर्षि याज्ञवलक्य कहते हैं -अर्थशास्त्र बलवत् धर्मशास्त्र इति स्थिति अर्थात अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र में अगर टकराव हो तो नीतिशास्त्र को अधिमान दिया जाना चाहिए। यही बात कौटिल्य ने भी 2500 साल पहले लिखे अपने ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' में कही। इसी परंपरा को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आगे बढ़ाते हुए कहा कि ''मैं अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र में विभाजक रेखा मान कर नहीं चलता। जो शास्त्र एसा करता है वह अनैतिक और उससे भी आगे कहें तो पापपूर्ण है।''
'ए न्यू पैराडाइम आफ डिवेल्पमेंट-सुमंगलम्' पुस्तक के लेखक, प्रसिद्ध चिंतक व अर्थशास्त्री डा. बजरंग लाल गुप्ता बताते हैं कि भारतीय चिंतन में अर्थ साधन है साध्य नहीं, खाना जीने के लिए है जीवन खाने के लिए नहीं। शास्त्र कहते हैं कि अगर कोई पड़ौसी भूखा है और आप पेट भर कर सोते हैं तो आपका पकवान विष्ठा के समान है। हमारे यहां उपभोग को वर्जित नहीं बल्कि संयमित, सीमित और सदाचारी माना गया है। जीवन के चार पुरुषार्थों की शृंखला धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में धर्म को नेतृत्व दिया गया है। इनकी क्रमश: व्याख्या करें तो धर्मानुसार अर्जन (कमाई) करते हुए काम सेवन अर्थात उपभोग करके ही मोक्ष अर्थात जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। जब अर्थ प्रणाली इसी चिंतन पर चली देश दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बना और इसको विस्मृत करने के बाद गरीबी, आर्थिक असमानता, शोषण, लूट-खसूट, भ्रष्टाचार, घोटालों, रिश्वतखोरी ने हमारे समाज में अपने पैर जमा लिए।
हाल ही में आई वैश्विक मंदी के कारणों की मिमांसा की गई तो बहुत से कारणों में एक कारण सामने आया कि मंदी का कारण अत्यधिक उपभोगवाद था। उपभोगवाद में हर देश अधिक से अधिक उत्पादन करता है। इसके लिए संसाधनों का बेरहमी से उपयोग किया जाता है। तैयार माल की खपत के लिए अनावश्यक वस्तुओं की बनावटी जरूरत पैदा की जाती है, जैसे कोल्ड डिं्रक्स, चिप्स व पॉपकार्न व इसी तरह की विलासिता की वस्तुएं। कई बार इसके लिए चलने वाली स्पर्धा दो देशों के बीच टकराव का कारण भी बन जाती है। यह व्यवस्था समाज के लिए घातक है क्योंकि वह निर्मम कंपनियों के लिए समाज केवल बाजार बन जाता है। दूसरे शब्दों में यह व्यवस्था न तो प्रकृति और न ही समाज के कल्याण मेंहै। दूसरी ओर भारतीय चिंतन संयमित, सीमित व सदाचारी उपभोग में विश्वास करता है। इसमें प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों का शोषण नहीं बल्कि दोहन किया जाता है। कबीर जी के शब्दों में - साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय। पंूंजीवादी व्यवस्था में संसाधनों का मालिक व्यक्ति और समाजवादी व्यवस्था में सरकार, परंतु भारतीय दर्शन ईश्वर को दुनिया का मालिक मान कर व्यक्ति को उसका न्यासी बताती है। गांधी जी ने इसी व्यवस्था को ट्रस्टीशिप कहा है जो संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण पर जोर देती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में अंत्योदय यानि विकास की पंक्ति में अंतिम स्थान पर खड़े व्यक्ति के तक विकास का लाभ पहुंचाना। वे कहते थे कि अगर विकास केवल कुछ लोगों तक सीमित हो जाए तो उसका कोई अर्थ नहीं है।
भारतीय अर्थ चिंतन को पुनर्जीवित करने व समाज में पुन: स्थापित करने के तीन मार्ग हैं। पहला इसको पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि देश में इस दृष्टिकोण से ओतप्रोत प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारी, उद्योगपति, व्यवसायी पैदा हों। दूसरा सरकारी स्तर पर इसके प्रयास हों। तीसरा और सबसे रोचक मार्ग कि स्वदेशी चिंतन के अनुरूप आज भी बहुत से कामधंधे चलते हैं उनको मान्यता दी जाए। समाज में उनकी स्वीकार्यता बढ़े। केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता को अगर कल्याणकारी व्यवस्था, भ्रष्टाचार मुक्त शासनप्रणाली, प्रकृति हितैषी विकास चाहिए तो उसके लिए अर्थ का भारतीय चिंतन एच्छिक नहीं बल्कि अनिवार्य है। पूंजीवाद,साम्यवाद, मिश्रित प्रणाली जैसी व्यवस्थाएं कल्याणकारी विकास का लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही हैं। इनसे आर्थिक अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, संसाधनों के वितरण में असमानता पैदा हुई हैं। अब समय है कि हम अपनी जड़ों की तलाश करें और वैचारिक भटकाव के मार्ग से खुद को अलग करें। खुद का विकास करते हुए समाज, देश व अंतत: पूरी मानवता के विकास का मार्ग प्रशस्त करें। यही ममत्व में समत्व की भावना है और यही भारतीयता भी।
- राकेश सैन
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जालंधर।
मो. 097797-14324
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