Monday, 9 April 2018

राहुल गांधी, कमजोर कंधे भारी जिम्मेवारी

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पार्टी की बागडोर संभाले 4 महीने का समय बीता है और अभी सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या वे गांधी-नेहरू खानदान के महाराजा दलीप सिंह साबित होंगे ? इतिहास का सिंहावलोकन किया जाए तो सामने आता है कि अतीत में अनेकों ऐसे महान शासक हुए जिनकी संतानें उतनी योग्य नहीं हुईं और उनके शासन का पतन हुआ। अंग्रेजों, पुर्तगालियों व पठानों को हर मोर्चे पर शिकस्त देने वाले शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र महाराजा दलीप सिंह उन्हीं कमजोर संतानों के प्रतीक हैं जो ब्रिटिश शासन के सामने कूटनीतिक, रणनीतिक व राजनीतिक रूप से परास्त हुए। आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में कहीं न कहीं महाराजा दलीप सिंह की छवि दिखनी शुरू हो चुकी है, जिसे तत्काल बदलने की जरूरत है।

यह बात चुनावी हार-जीत की नहीं है कि किस तरह राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद की कुर्सी संभालने के बाद गुजरात के बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों ेमें करारी शिकस्त का स्वाद चखा। आजकल देखने में आ रहा है कि गाहे-बगाहे किसी राजनीतिक दल व नेता की सफलता-असफलता की कसौटी को केवल चुनावी प्रदर्शन को ही मान लिया गया है, जो गलत है। अगर ऐसा होता तो आज महात्मा गांधी, भीमराव रामजी आंबेडकर, डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं के नाम इतने आदर से न लिए जाते जो चुनावी अंकगणित के इतने बड़े विशेषज्ञ तो नहीं थे परंतु अपनी परिपक्वता के लिए आज भी देश की राजनीति के मार्गदर्शक बने हुए हैं। वैसे तो राहुल गांधी के पूरे राजनीतिक जीवन में एक-आध अवसर को छोड़ कर इस परिपक्वता के दर्शन नहीं हुए परंतु एक राष्ट्रीय दल कांग्रेस के सर्वेसर्वा होने के नाते उनमें जो समझ विकसित होनी चाहिए थी उसकी अभी झलक दिखाई नहीं पड़ी। पार्टी के अन्य पदों पर रहते हुए उन्होंने जो भी भूलें की हों वह क्षम्य हैं क्योंकि उसका असर कांग्रेस पर इतना नहीं पडऩा था परंतु अब अध्यक्ष होने के नाते उन्हें संभल-संभल कर चलने व शब्दों को चबा-चबा कर उगलने की जरूरत है जिसका अभी अभाव खल रहा है। हाल ही में हुए दलित आंदोलन के दौरान उनका व्यवहार देश को गुमराह करने वाला व अपरिपक्व ही कहा जा सकता है। उन्हें आंदोलन कारियों को समर्थन देते समय उनसे शांति बनाए रखने की अपील करनी चाहिए थी परंतु उन्होंने ट्वीट कर कहा कि भाजपा-आरएसएस दलित विरोधी है और यह गुण उनके डीएनए में है। भाजपा से उनके लाख मतभेद व राजनीतिक भेद हो सकते हैं परंतु यह अवसर संकीर्ण राजनीति करने का नहीं था। उनके इस ट्वीट ने सड़कों पर उतरे लाखों-करोड़ों प्रदर्शनकारियों को एक तरह से उकसाने का काम किया। देश के सबसे पुराने एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष होने के नाते उनका संवैधानिक दायित्व बनता था कि वे लोगों को सर्वोच्च न्यायालय के एससीएसटी अधिनियम पर दिए फैसले  की भावना को खुद समझते और लोगों को भी समझाते और सरकार से अपील करते कि वह अदालत में पूरी दृढ़ता के साथ इस अधिनियम के साथ खड़ी हो। परंतु उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अदालत ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया है। एक राष्ट्रीय नेता जब सुधार को निरस्त बताता है तो यह या तो उनकी अपरिपक्वता का उदाहरण हो सकता है या फिर राजनीतिक मौकापरस्ती का।

यह कोई पहला अवसर नहीं है जब राहुल गांधी ने असत्य तथ्यों का सहारा लिया हो। याद हो कि गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने राज्य में बेरोजगार युवाओं की संख्या 50 लाख बताई और चार घंटे बाद अगली ही जनसभा में इसे घटा कर 20 लाख कर दिया। इस पर उनको काफी फजीहत का भी सामना करना पड़ा। उनकी परिपक्व समझ का इसी से संकेत मिलता है कि जब देश डोकलाम विवाद पर चीन से भिड़ रहा था तो राहुल गांधी चीन के राजनयिक से बैठकें कर रहे थे। वे कितना समझ कर बोलते हैं इसका इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि उन्हें कई बार अपने ही किए ट्वीट हटाने पड़े हैं। अभी हाल ही में एक विश्वविद्यालय में वे एनसीसी व आरएसएस में अंतर नहीं कर पाए। लगता है कि राहुल तो राहुल, उनके रणनीतिकार व सलाहकार भी उनकी छवि सुधारने की ओर इतना ध्यान नहीं दे रहे या फिर उनके इन सहयोगियों को आशातीत सफलता नहीं मिल रही है।

राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी में दलित वोटबैंक को लेकर एक तरह से रस्साकशी शुरू हो चुकी है। कांग्रेस बसपा से अपना छिना दलित आधार वापिस पाने को तिलमिला रही है तो मायावती को डर है कि दलित पुन: कांग्रेस के खेमे में चले जाते हैं तो उनके हाथी को लकवा मार सकता है। इसके लिए देश की सामाजिक एकता, कानून व्यवस्था, संवैधानिक जिम्मेवारी आदि सबकुछ ताक पर रखी जा रही हैं। देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले आम चुनाव के कारण  आज की राजनीति में 'दलित चालीसा' का पाठ कुछ ज्यादा ही ऊंचे और विभाजनकारी स्वरों में किया जाने लगा है। ऐसा करते हुए दलित उत्पीडऩ का राग अलापने वाले राहुल गांधी इस प्रश्न का उत्तर देना भूल जाते हैं कि देश में सर्वाधिक शासन करने वाली कांग्रेस साठ सालों में इस वंचित समाज को उनका समूचित अधिकार क्यों नहीं दिलवा पाई? दलित की बेटी होने का दंभ भरने वाली मायावती भूल जाती है कि साल 2007 में उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने भी यही नियम लागू किए थे जो आज एससीएसटी अधिनियम को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने दिए हैं। अवसर है कि खुद दलित समाज भी इस तरह के अपरिपक्व व गुमराह करने वाले नेताओं से खुद को बचाए। देश की 125 करोड़ की जनसंख्या में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो दलित व वंचित समाज को उसका अधिकार देने का विरोध करता हो परंतु याद रहे कि किसी भी तरह की न्याय की लड़ाई अन्यायपूर्ण तरीके से नहीं लड़ी जा सकती।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

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