भारतीय समाज की विडंबना ही है कि अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की 21वीं सदी में भी जरूरत पड़ रही है। लगभग सात दशक पहले संविधान में दी गई समानता के अधिकार के बाद भी देश में जाति आधारित भेदभाव समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलु भी है, वंचितों व शोषितों को बचाने के लिए बनाए गए कानूनों के दुरुपयोग होने के भी उदाहरण सामने आने लगे हैं। समाज जोडऩे के उद्देश्य से लाए गए कानून उसी को बांटते दिखने लगे हैं और आग में तेल का काम कर रही है जातिवादी सियासत जो सत्ता के लिए समरसता की शहादत लेने से भी नहीं हिचकिचा रही। 20 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने एससी-एसटी एक्ट को लेकर एक निर्णय दिया जिसके बाद देश में जातिवादी राजनीति लोकलाज त्याग तन-मन उघाड़ कर सरे बाजार नाचती दिखी। एक न्यायिक विषय को राजनीतिक बना दिया जिसके चलते 2 अप्रैल को वंचित समाज और 10 अप्रैल को सामान्य वर्ग से जुड़े लोगों ने अपने-अपने तर्कों व दावों के आधार पर भारत बंद किया। इस दौरान कई लोगों की जानें गईं और अरबों की संपत्ति स्वाह हुई। सामाजिक एकता और सद्भाव को जो हानि हुई उसका तो किसी ने अनुमान ही नहीं लगाया। विपक्ष ने अदालत के फैसले को सत्तारूढ़ भाजपा व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अस्त्र के रूप में प्रयोग करने का प्रयास किया और इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक को घसीटने का प्रयास हुआ।
आओ पूरे प्रकरण की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें, 1955 के प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट के बावजूद न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही वंचितों पर अत्याचार रुके। 1989 में भाजपा के सहयोग से चलने वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार ने अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निरोधक कानून बनाया परंतु कुछ समय बीतने के बाद पाया गया कि इसमें कुछ कमियां रह गईं। देश की चौथाई आबादी इन्हीं हिंदू समुदायों से बनती है और आजादी के इतने साल बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति तमाम मानकों पर बेहद खराब है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2016 में इसमें संशोधन कर इस कानून को और कड़ा किया गया। इसके तहत अनुसूचित वर्गों के विरुद्ध किए जाने वाले नए अपराधों में जूते की माला पहनाना, सिंचाई सुविधाओं से रोकना या वन अधिकारों से वंचित रखना, मानव और पशु कंकाल को निपटाने, कब्र खोदने के लिए बाध्य करना, सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उपयोग और अनुमति, इन वर्गों की महिलाओं को देवदासी के रूप में समर्पित करना,जाति सूचक गाली देना,जादू-टोना को बढ़ावा देना, बहिष्कार करना, चुनाव लडऩे से रोकना, महिलाओं के वस्त्र हरण करना, किसी को घर, गांव और आवास छोडऩे के लिए बाध्य करना, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना, यौन दुव्र्यवहार करना दंडनीय अपराध बनाए गए। लेकिन शिकायतें आने लगीं कि इस कानून का दुरुपयोग होना शुरू हो गया है और कुछ काईयां किस्म के लोग व राजनेता इसका प्रयोग ब्लैकमेलिंग के रूप में कर रहे हैं।
धनरूआ पुलिस ने 2017 में दो दंगाईयों को गिरफ्तार किया। इस हंगामे को कराने में मसौढ़ी की विधायक रेखा देवी के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया। इस पर विधायक ने मसौढ़ी डीएसपी सुरेंद्र कुमार पंजियार के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने की प्राथमिकी दर्ज करा दी। इससे पुलिस प्रशासन में खलबली मच गई लेकिन आरोपों की जांच की गयी, तो गलत मिले। यह केवल एकमात्र उदाहरण नहीं बल्कि इनकी फेरहिस्त काफी लंबी है। महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारियों के खिलाफ उक्त कानून के दुरुपयोग पर विचार करते हुए 20 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि इसके तहत दर्ज ऐसे मामलों में फौरन गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और यूयू ललित की पीठ ने कहा कि किसी भी लोकसेवक की गिरफ्तारी से पहले न्यूनतम पुलिस उपाधीक्षक रैंक के अधिकारी द्वारा प्राथमिक जांच जरूर होनी चाहिए। लोक सेवकों के खिलाफ दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसके तहत दर्ज मामलों में सक्षम अधिकारी की अनुमति के बाद ही किसी लोक सेवक को गिरफ्तार किया जा सकता है।
दुर्भाग्य है कि न्यायालय की मंशा को समझा नहीं गया या फिर विपक्ष जिनमें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसे जातीवादी दलों ने अदालत का सही संदेश जनता तक जाने नहीं दिया। अदालत के फैसले को सरकार विशेषकर भाजपा का फैसला बताया जाने लगा और जातीय नफरत की भट्ठी में इतने लोगों ने फूंकें मारी कि यह दावानल बनती नजर आई। इसी का परिणाम निकले अपै्रल महीने में हुए दो जातीय आंदोलन जो समाज में भेदभाई की खाई को और भी गहरा गए। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कानून से वंचित व शोषित समाज को सम्मान के साथ जीने में बहुत बड़ा सहारा मिला है परंतु वर्तमान में देखने में यह आने लगा कि यह कानून सामान्य वर्ग के लोगों के उत्पीडऩ व ब्लैकमेलिंग का हथियार भी बनने लगा। सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख महाराष्ट्र के आए केस से ही साफ हो जाता है कि कुछ गलत मानसिकता के लोग इसका दुरुपयोग समाज को बांटने व लोगों को डराने में कर रहे हैं। राज्य के दो अधिकारियों ने आरक्षित वर्ग के कर्मचारी के काम पर प्रशासनिक टिप्पणी की, जिस पर कर्मचारी ने अपने वरिष्ठों पर इस एक्ट की शिकायत दर्ज करवा दी। यह केवल महाराष्ट्र का मामला नहीं, सामान्यत: सरकारी दफ्तरों में देखा जाता है कि कोई अधिकारी अपने जूनियर आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को उनके कामकाज के बारे में कहने से भी कतराते हैं कि कहीं उसके खिलाफ इस तरह की शिकायत न कर दे। यह क्रम यूं ही चलता रहा तो हमारा प्रशासनिक ढांचा कितनी देर तक ठहर पाएगा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, इस एक्ट के तहत दर्ज होने वाले 16 प्रतिशत केस आरंभ में ही बंद हो जाते हैं और 75 प्रतिशत केसों में या तो आरोपी छुट जाते हैं या अदालत के बाहर ही समझौता हो जाता है। बड़ी मुश्किल से 2.4 प्रतिशत केसों में ही किसी को सजा हो पाती है। इसके दो अर्थ निकाले जा सकते हैं, एक या तो कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपना काम सही तरीके से नहीं करतीं। दूसरा कि इस तरह की अधिकतम शिकायतें झूठी होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था दी है उससे इन दोनों कारणों से छुटकारा मिल सकता है। डीएसपी स्तर के सक्षम अधिकारी द्वारा केस फाइल करने से जहां केस में तथ्यात्मक मजबूती आएगी वहीं प्रारंभिक जांच में झूठी शिकायतें स्वत: निरस्त हो जाएंगी। न्यायालय के निर्णय पर हल्ला मचाने वालों को समझना चाहिए कि किसी कानून को समाप्त नहीं किया गया बल्कि यह सामयिक सुधार का प्रयास है। केंद्र सरकार ने न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की है और जरूरत पडऩे पर अधिसूचना जारी करने की बात कही है। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा है कि वास्तव में यह कानून भाजपा की ही उपज है जिसे समाप्त करने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। कितना अच्छा होता अगर विपक्ष पूरे मामले पर जिम्मेवारी से काम लेता और न्यायालय के निर्णय पर एक सामाजिक चर्चा शुरू करता जिससे समाज के सभी वर्गों की अपनेक्षाओं की पूर्ति होती और शंकाओं का समाधान होता। लेकिन दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस व उसके पिछलग्गुओं ने सत्ता की खातिर समरसता को शहीद करना ज्यादा उचित समझा।
- राकेश सैन
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जालंधर।
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