डा. भागवत ने कहा कि हिन्दू समाज में एक अलग प्रभावी सगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं हैं। संघ तो सम्पूर्ण समाज को संगठित करना चाहता है और इसलिए हमारे लिए कोई पराया नहीं हैं और वास्तव में किसी भारतवासी के लिए दूसरा कोई भारतवासी पराया नहीं है। विविधता में एकता ये अपने देश की हजारों वर्षों से परंपरा रही है। हम भारतवासी हैं ही यानी क्या हैं? संयोग से इस धरती पर जन्में या पैदा हुए इसलिए केवल हम भारतवासी ही नहीं हैं। ये केवल नागरिकता की बात नहीं है। भारत की धरती पर जन्मा प्रत्येक व्यक्ति भारतपुत्र है। इस मातृभूमि की निसीम भाव से भक्ति करना उसका काम है। और जैसे-जैसे उसको समझ में आता है छोटे तरीके से, बड़े तरीके से सभी लोग ऐसा करते हैं। इस भारत भूमि ने केवल हमको पोषण और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधन नहीं दिए है, उसने हमको हमारा स्वभाव भी दिया है।
सुजल, शुफल, मलयज, शीतल मातृभूमि और चारों ओर से प्राकृतिक दृष्टि से सुरक्षित, इसमें बाहर के लोगों का आना-जाना बहुत कम हो सकता था और अन्दर भरपूर स्मृद्धि थी इसलिए जीवन जीने के लिए हमको किसी से लडऩा नहीं पड़ा। स्वभाविक दृष्टि से इस मनोवृति के बने कि सर्वत्र भरपूर है, हम उसका उपभोग कर रहे हैं, अपने जीवन समृद्ध कर रहे हैं। कोई आता है तो ठीक है तुम भी आ जाओ, तुम भी साथ रहो। भाषाओं की, पंथ, सम्प्रदायों की विविधता तो पहले से है, अलग-अलग प्रकार से प्रान्त बनते हैं, रचनाएं बदलती रहती हैं। राजनीतिक मत प्रवाह, विचार प्रणालियां पहले से रही हैं। लेकिन इस विविधता में हम सब भारत माता के पुत्र है और अपने-अपने विविधता वैशिष्ट्य पर पक्का रहते हुए, दूसरों की विविधताओं का सम्मान करते हुए, स्वागत करते हुए और उनके अपनी विविधता पर रहने को स्वीकार करते हुए मिलजुल कर रहना। विविधता में जो अंतर्निहित एकता है, भारत के उत्थान लिए परिश्रम करने वाले सभी प्रमाणिक बुद्धि के निस्वार्थ महापुरुषों ने अभी तक जिसका उल्लेख करना कभी छोड़ा नहीं, ऐसी उस अंतर्निहित एकता का साक्षात्कार करके अपने जीवन में रहना, ये हमारी संस्कृति बनी और उसी संस्कृति के अनुसार इस देश में जीवन बने और सारे विश्व के भेद और स्वार्थ मिटाकर विश्व के कलह मिटाकर सुख-शांतिपूर्ण संतुलित जीवन देने वाला प्राकृतिक धर्म उसको दिया जाए। इस प्रयोजन से इस राष्ट्र को अनेक महापुरुषों ने इसे खड़ा किया। अपने प्राणों की बलि देकर सुरक्षित रखा, अपने पसीने से सींचकर बड़ा किया। उन सभी महापुरुषों के हमारे पूर्वज होने के कारण गौरव का स्थान हम अपने हृदय में हम रखते हैं और उनके आदर्शों का अनुसरण करने का अपने-अपने हिसाब से प्रयास करते है। मत-मतान्तर हो ही जाते हैं। मत का प्रतिपादन करने का शास्त्रार्थ करते समय और विवाद भी करने पड़ते हैं। लेकिन इन सब बातों की एक मर्यादा रहती है। अंततोगत्वा हम सब लोग भारत माता के पुत्र हैं। मत-मतान्तर कुछ भी होंगे हम अपने-अपने मत के द्वारा ये मान कर चल रहे हैं कि भारत का भाग्य हम बदल देंगे, हम उसको परम वैभव संपन्न स्थिति में पहुचाएंगे। एक ही गन्तव्य के लिए अलग-अलग रास्ते लेने वाले लोगों को अपनी विशिष्टता, विविधता को लेकर तो चलना चाहिए ही, उससे हमारा जन-जीवन समृद्ध होता है। विविधता होना यह सुन्दरता की बात है, स्मृद्धि की बात है। उसको स्वीकार करके तो हम चलते ही हैं, परन्तु ये दिखने वाली विविधता एक ही एकता से उपजी है। उस भाव का भान रखकर हम सब एक हैं, इसका भी दर्शन समय-समय पर होते रहना चाहिए। क्योंकि किसी राष्ट्र का भाग्य बनाने वाले समूह नहीं होते, व्यक्ति नहीं होते, विचार तत्व ज्ञान नहीं होता, सरकारें नहीं होती। सरकारें बहुत कुछ कर सकती है लेकिन सरकारें सब कुछ नहीं कर सकती। देश का सामान्य समाज जब तक गुण संपन्न बनकर अपने अंत:करण से भेदों को तिलांजलि देकर, मन के सारे स्वार्थ हटाकर देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होता है तब सारी सरकारें, सारे नेता, सारे विचार समूह उस अभियान के सहायक बनते हैं और तब देश का भाग्य बदलता है।
- राकेश सैन
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