Saturday, 21 July 2018

अविश्वास प्रस्ताव बनाम विराट युद्ध

कीचक वध के बाद कौरवों को ज्ञात हो गया कि पांडव विराट नगरी में रह रहे हैं। उनका अज्ञातवास भंग करने के लिए पूरी कौरव सेना ने विराट राज्य पर हमला कर दिया परंतु कोई भी योद्धा वनवास के दौरान प्रतिशोध की अग्नि में जलने वाले अर्जुन का सामना नहीं कर पाया। चाहे कर्ण हो या अश्वथामा, भीष्म हो या द्रोणाचार्य या खुद दुर्योधन अर्जुन के गांडीव ने सभी को धाराशाई कर दिया। इतिहास साक्षी है कि विराट का युद्ध कुरुक्षेत्र महासमर का पूर्वाभ्यास और परिणामों की भविष्यवाणी करने वाला साबित हुआ। विपक्ष द्वारा शुक्रवार 20 जुलाई को सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ लाया गया अविश्वास प्रस्ताव कहीं न कहीं विराट युद्ध से मिलता जुलता दिख रहा है। सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ के कुछ सहयोगियों के बिदकने व एक आध के खिसकने से विपक्ष को लगने लगा था कि सरकार को घेरा जा सकता है। सरकार गिरे चाहे न गिरे परंतु सत्तारूढ़ गठजोड़ की दरारों को तो उभारा जा सकता है। कांग्रेस इस प्रस्ताव के जरिए 2019 के होने वाले महासमर को मोदी बनाम राहुल गांधी बनाने का प्रयास करने के साथ-साथ अपने राजनीतिक अस्त्र शस्त्र आजमाती दिखाई दी परंतु इन सभी प्रयासों का परिणाम विराट युद्ध जैसा नजर आने लगा है। अविश्वास प्रस्ताव गिरने और राहुल गांधी की हास्यस्पद हरकतों के बाद जहां एक बार फिर उनके विपक्ष का सेनापति बनने पर प्रश्न चिन्ह लगता नजर आया, वहीं यह भी स्पष्ट हो गया कि विरोधियों के पास भाजपा को घेरने की रणनीति में अभी तक तो इतना दम नहीं कि वह मोदी-शाह के अश्वमेघ अश्व की लगाम थाम पाए।
चाहे अविश्वास प्रस्ताव से पहले कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अति उत्साह में आकर कह दिया कि उनके पास पर्याप्त संख्या बल है परंतु कांग्रेसी इतने भी अज्ञानी नहीं है कि वे इसका हश्र न जानते हों। कांग्रेसी रणनीति के केंद्र में मोदी सरकार नहीं बल्कि खुद राहुल गांधी थे। अखिलेश यादव, मायावती, ममता बैनर्जी, तेजस्वी यादव जैसे क्षत्रपों के उभार व कांग्रेस के निरंतर निराशाजनक प्रदर्शन से इस बात पर संदेह पैदा होने लगा है कि 2019 में मोदी विरोधी मोर्चे की कमान किसके हाथ में हो। आज विपक्ष की राजनीति में उक्त क्षत्रप राहुल पर भारी नजर आने लगे हैं, लेकिन कांग्रेस विपक्ष का नेतृत्व किसी को देने को तैयार नहीं दिखती। विश्लेषक कहते हैं कि इसी कारण उसने अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लिया। कांग्रेस जानती है कि संसद में न तो मायावती न ही अखिलेश, ममता व तेजस्वी की मौजूदगी और मैदान राहुल के लिए साफ है कि वो देश की राजनीति को मोदी बनाम अपने नाम कर ले। परंतु गांधी खानदान के चश्मोचिराग ने नेतृत्व को निराश ही किया दिखाई दे रहा है। संसदीय राजनीति में यह पहला अवसर होगा कि जब किसी नेता ने इस तरह प्रधानमंत्री को जबरन झप्पी दी हो और बाद में आंख मटकाई हो। यह हरकत राजनीतिक शालीनता का उल्लंघन हैं और यही कारण है कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी इस पर नाराजगी जताई। सोशल मीडिया पर इस हरकत पर खूब चुटकले सामने आरहे हैं और यह किसी दल के लिए अत्यंत दुखद और चिंताजनक समय होता है जब उसका कोई राष्ट्रीय नेता हास्य-विनोद की सामग्री बनता है।
अविश्वास प्रस्ताव के दौरान हुई बहस में उठे सरकार विरोधी मुद्दों पर जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनके सहयोगियों ने एक-एक आरोप का विस्तार व तथ्यों से जवाब दिया उससे विपक्ष के राजनीतिक हथियार युद्ध से पहले ही कुंद नजर आने लगे हैं। राफेल मुद्दे पर मोदी ने कहा कि यह सौदा दो सरकारों के बीच हुआ है दो व्यापारियों के बीच नहीं। बेरोजगारी के मौके पर सरकार की ओर से तथ्यों के आधार पर बताया गया है कि देश में किस तरह रोजगार के नए मौके पैदा हो रहे हैं। आर्थिक अपराधियों के देश छोड़ कर भागने के आरोप का जवाब भाजपा इसी लोकसभा सत्र में विधेयक ला कर दे चुकी है और प्रधानमंत्री ने जिस तरह बैंकों के एनपीए मुद्दे पर विपक्ष को घेरा तो विरोधी बैंच पर बैठे लोगों के होश फाख्ता नजर आने लगे। भीड़तंत्र द्वारा हत्या (मोब लिंचिंग) पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने  सरकार की स्थिती पूरी तरह स्पष्ट कर दी और सिख विरोधी दंगों को इससे जोड़ कर कांग्रेस को बचाव की मुद्रा में लाकर खड़ा कर दिया। 
अब अविश्वास प्रस्ताव गिरने के बाद बबने वाली स्थिती से कांग्रेस का राजनीतिक पथ कंटीला होता दिख रहा है। राहुल गांधी की हरकतों ने पूरे देश में उनकी छवि अपरिपक्व राजनेता की छवि को और पुष्ट कर दिया है। आशंका पैदा हो गई है कि अब कोई क्षत्रप राहुल को अपनी संयुक्त सेना का सेनापति स्वीकार करेगा। सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री ने जिस तरीके से कांग्रेस की हर बाल पर हिट किया उससे  साफ हो गया है कि कांग्रेस के पास वर्तमान में कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिसके आधार पर वह 2019 में देश की जनता के बीच जाए और अपने प्रति विश्वास पैदा कर पाए। अविश्वास प्रस्ताव के रूप में हुई विराट युद्ध की हार ने कांग्रेस की हालत को और पतली कर दिया है।
दूसरी ओर भाजपा ने इस अवसर का खूब लाभ उठाया और अपने खिलाफ लगने वाले सभी प्रकार के आरोपों पर अपनी स्थिती देश की जनता के सामने स्पष्ट कर दी। संभावना है कि भाजपा की इस मनोवैज्ञानिक जीत से जहां पार्टी का उत्साह बढ़ेगा वहीं एनडीए के सहयोगियों में पैदा हुई खदबदाहट पर ठंडे पानी के छींटे पडेंग़े। राहुल की नेतृत्व कलीवता स्पष्ट होने से भाजपा के दोनों हथों में लड्डू दिखने लगे हैं। अगर लोकसभा चुनाव में संयुक्त विपक्ष की बागडोर राहुल के हाथ में हुई तो भाजपा के लिए जीत आसान हो जाएगी और अगर राहुल विरोधी सेना के कमांडर नहीं बन पाए तो स्वभाविक है कि विपक्षी दलों में एकता भी नहीं हो पाएगी। बंटे हुए विपक्ष से निपटना मोदी के लिए और भी आसान होगा। 2019 के महासमर का परिणाम अभी भविष्य के गर्भ में हैं परंतु विराट युद्ध सरीखे हालात संकेत दे रहे हैं कि विपक्ष के लिए फिलवक्त तो दिल्ली दूर लग रही है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
मो. 097797-14324

Tuesday, 17 July 2018

कुमार स्वामी के आंसुओं से विपक्षी एकता का गर्भपात

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार कहा था कि सत्ता उनके लिए विष के समान है, उनकी बात सत्य साबित हो रही है। कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने दो महीनों के कार्यकाल में ही अपने सहयोग से चल रही सरकार के मुख्यमंत्री कुमार स्वामी को विषकंठ बना दिया जो सत्ता का हलाहल पीने को अभिशप्त हैं। राज्य के मुख्यमंत्री और जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) के नेता कुमारस्वामी ने कहा है कि वह सत्ता में तो हैं लेकिन इसके लिए उन्हें नीलकंठ की तरह विष पीना पड़ रहा है। मैं भगवान शंकर की तरह विष पी रहा हूं। कुमार स्वामी ने यह बात अपनी पार्टी द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में कही। इतना कहते हुए कुमार स्वामी की आंखें भर आईं और वे मंच पर ही रोने लगे। कुमारस्वामी के आंसुओं को चाहे कांग्रेस के कुछ नेताओं ने मन ही मन अपनी उपलब्धि माना हो परंतु दो आंसुओं से आई बाढ़ से कर्नाटक में ही डली विपक्षी एकता की ईमारत की नींव के बहने का खतरा पैदा हो गया है। कांग्रेस के व्यवहार से संकेत गया है कि उसका रवैया सहयोगियों के प्रति मित्रता का नहीं बल्कि उस स्वार्थी बंदरिया की भांति है जो गर्मी में पांव जलने पर अपने बच्चों को ही पैरों के नीचे ले  लेती है। कमजोर कांग्रेस और ऊपर से अहंकारी स्वभाव विपक्षी एकता के गर्भपात का कारण बन सकता है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था, हालांकि भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस और जनता दल (ध) ने चुनाव बाद गठबंधन किया था। कांग्रेस ने ज्यादा सीटें  (78) जीतने के बावजूद जद (ध) नेता कुमारस्वामी (37 सीटें) को मुख्यमंत्री बनवा दिया। कुमारस्वामी के पिता एचडी देवेगोड़ा के कनिष्ठ रहे निवर्तमान मुख्यमंत्री व वर्तमान में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सिद्धारमैय्या के बीच तल्खी के संबंध रहे हैं। एचडी देवेगोड़ा की मेहरबानी से दो बार राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे सिद्धारमैय्या को जनता दल में कुमार स्वामी के बढ़ते प्रभाव के चलते ही पार्टी छोड़ कांग्रेस में आना पड़ा था। चाहे सिद्धारमैय्या ने कुमार स्वामी के मजबूरीवश मुख्यमंत्री बनवा तो दिया परंतु इसे वे अपनी पराजय मान रहे हैं। यही कारण है कि कदम-कदम पर कुमार स्वामी के रास्ते में कांटे बीजे जा रहे हैं। सरकार गठित होने के दो महीने से भी कम समय में मंत्री पद के बंटवारों, किसान कर्जमाफी, पेट्रोल-डीजल की कीमत जैसे मसलों पर कई बार जनता दल और कांग्रेस आमने-सामने आ चुकी है। झगड़ा सुलझाने के लिए कुमारस्वामी और खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की कई बार मुलाकात हो चुकी है। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल की सरकार बड़ी कोशिशों से बनी थी और अब इस सरकार पर भी एक के बाद एक आफतें आती दिख रही हैं। जून में ही सिद्धारमैया के दो वीडियो टेप सामने आए। इनमें से एक में सिद्धारमैया कुछ विधायकों से कह रहे हैं, आम तौर पर नई सरकार बजट पेश करती है, लेकिन यहां तो पहले ही बजट पेश हो चुका है। तो ऐसे में नए बजट की तैयारियां कैसे शुरू हो सकती हैं जब हमने सांझा न्यूनतम कार्यक्रमों पर चर्चा तक नहीं की है। सियासी गलियारों में बजट को लेकर इतना विवाद इसलिए भी हुआ क्योंकि सिद्धारमैया ने मैसूर में मीडिया से कहा था कि कुमार स्वामी सिर्फ एक पूरक बज पेश करेंगे और इसके ठीक बाद कुमार स्वामी ने नया बजट पेश करने के लिए राहुल गांधी की मंज़ूरी ले ली। इससे सिद्धारमैय्या की सरकार के प्रति नाराजगी और बढ़ गई। वे अपने कार्यकर्ताओं को सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि सरकार चलाते रहने के लिए वे बाध्य नहीं है और 2019 (लोकसभा चुनाव) के बाद कुछ भी हो सकता है। एक स्थानीय टीवी चैनल पर जब उनसे पूछा गया कि क्या कांग्रेस-जेडीएस सरकार पांच साल तक चल पाएगी तो उन्होंने कहा, पांच साल तो मुश्किल है...लोकसभा चुनाव तक तो सरकार है, लेकिन इसके बाद क्या होगा, ये देखा जाएगा।

याद रहे कि कुमार स्वामी के शपथग्रहण समारोह के दौरान देश के लगभग सभी भाजपा विरोधी दल एक मंच पर एकत्रित हुए थे और इसके बाद शुरू हुई थी विपक्षी एकता की चर्चा। लेकिन बहुत से कारण हैं जो इस संभावित एकता पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। सबसे पहले तो अरविंद केजरीवाल की पार्टी को लेकर कांग्रेस और खुद आप में ही काफी विरोध हो चुका है। कांग्रेस के दिल्ली के स्थानीय नेता केजरीवाल को फूटी आंख पसंद नहीं करते। उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा का कद कांग्रेस से इतना बड़ा हो चुका है कि संभावित महागठजोड़ के कोटे से कांग्रेस को यूपी की 80 सीटों में कांग्रेस को केवल दो या तीन सीटें ही लडऩे के लिए दिए जाने की बातें हो रही हैं। यूपी कांग्रेस इससे ज्यादा की मांग कर रहा है। उधर महागठजोड़ की धुरंधर नेता कहे जाने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बैनर्जी खुद अपने राज्य में इतनी बुरी तरह से घिर गई हैं कि उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। अब रही सही कसर कर्नाटक में कांग्रेस ने अपने सहयोगी जनता दल के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करना शुरू करके पूरी कर दी है। कुमार स्वामी के आंसू प्रकरण से कांग्रेस के सहयोगी दलों में उसकी नीयत को लेकर संदेह पैदा कर दिया है जो महागठजोड़ की भ्रूण हत्या का कारण बन सकता है।

वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं है जब कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को रोकने के लिए पहले किसी भी दल का साथ दिया और मौका आते ही उसे लातिया कर बाहर कर दिया हो। इससे पूर्व कांग्रेस पार्टी चंद्रशेखर व इंदर कुमार गुजराल की सरकारों के साथ ऐसा व्यवहार कर चुकी है। चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापिस लेने का कांग्रेस ने जो कारण बताया वह आज तक का सबसे बड़ा राजनीतिक परिहास है, जिसमें कांग्रेस ने दस जनपथ के बाहर गिरफ्तार हरियाणा पुलिस के चार जवानों का हवाला देते हुए कहा था कि तत्कालीन केंद्र सरकार राजीव गांधी व गांधी परिवार की जासूसी करवा रही है। आज कर्नाटक में यही कुछ हो रहा है। कांग्रेस अपने समर्थन का मूल्य वसूल रही है और जनता दल (ध) को अपने एजेंडे पर चलने को मजबूर कर रही है। मुख्यमंत्री होते हुए भी कुमार स्वामी अपने आप को असमर्थ मान रहे हैं। प्रश्न पैदा होता है कि कांग्रेस के इस रवैये के चलते आखिर कौन सा दल 2019 में कांग्रेस के साथ मोदी विरोधी मोर्चे पर डटेगा?

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
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Tuesday, 10 July 2018

सावन के गीतों में परिवारिक संबंधों के नवरस

सावन, नाम सुनते ही मन में राहत की फुहारें से बरस जाती हैं और मन में तैर जाते हैं उमड़ते-घुमड़ते बादल, कूकती कोयल और पंख फैलाए मोर, सेवीयां, घेवर, बागों में पड़े झूले और पींघ झूलती युवतियों के गीत। भारतीय समाज में सावन केवल बरसात व भीषण गर्मी से राहत के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि इसका सांस्कृतिक रूप से इतना महत्त्व है कि इसको लेकर अनेक ग्रंथ अटे पड़े हैं। सावन आते ही हर भारतीय के घर में अनेक तरह की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। सावन जहां बिरहन को जलाता है वहीं इसके गीतों में माँ-बेटी, भाई-बहन, पति-पत्नी, सास-बहु, देवरानी-जेठानी, सखी-सहेली के बीच संबंधों के संबंधों में व्याप्त नवरस का पान करने का अवसर मिलता है। नवरस यानि वह रस जो मीठा भी है और कड़वा भी, कसैला भी है और फीका भी, जिसमें चौसे आम की खटमिटाहट है तो आंवले का कसैलापन भी। इन्हीं सभी रसों यानि संबंधों से ही तो बनता है परिवारिक जीवन। नवब्याहता दुल्हन अपने मायके आती है तो कहीं भाई सिंधारा लेकर अपनी बहन के घर पहुंचता है। ससुराल से सावन की छुट्टी ले मायके में एकत्रित हुई युवतियां व नवब्याता झूला झूलती हुई अपने-अपने पति, सास, ससुर, देवर, ननद के बारे में अपने संबंधों का बखान करती हैं। नवब्याहता ससुराल व मायके की तुलना करते हुए गाती है कि :-

कड़वी कचरी हे मां मेरी कचकची जी
हां जी कोए कड़वे सासड़ के बोल
बड़ा हे दुहेला हे मां मेरी सासरा री
मीठी कचरी है मां मेरी पकपकी री
हां जी कोए मीठे मायड़ के बाल
बड़ा ए सुहेला मां मेरी बाप कै जी

सावन में मनाई जाने वाली तीज पर हर बहन को सिंधारे के साथ अपने भाई के आने की प्रतीक्षा होती है। सिंधारे के रूप में हर माँ-बाप अपनी बेटी को सुहाग-बाग की चीजें, सेवीयां-जोईये, अचार, घेवर, मिठाई, सासू की तील (कपड़े), बाकी सदस्यों के जोड़े भेजता है। भाई की तैयारी को देख कर उसकी पत्नी पूछती है :- 

झोलै मैं डिबिआ ले रह्या
हाथ्यां मैं ले रह्या रूमाल
खसमड़े रे तेरी कित की त्यारी सै
बहाण मेरी सुनपत ब्याही सै
हे री तीज्यां का बड़ा त्युहार
सिंधारा लै कै जाऊंगा

भारी बरसात में बहन के घर जाते हुए अपने बेटे की फिक्र करती हुई माँ कहती है कि भयंकर बरसात में नदी-नाले उफान पर है। तुम कैसे अपनी बहन के घर जाओगे तो बेटा जवाब देता है :-

क्यूँ कर जागा रे बेटा बाहण के देस
आगे रे नदी ए खाय
सिर पै तो धर ल्यूँ मेरी मां कोथली
छम दे सी मारूंगा छाल
मीहां नै झड़ ला दिए

उधर बहन अपने भाई की बड़ी तल्लीनता से प्रतीक्षा करती हुई कभी घर के चौखट पर आती है तो कभी घर के अंदर। बेसब्री हो कर गाती है :- 

आया तीजां का त्योहार
आज मेरा बीरा आवैगा
सामण में बादल छाए
सखियां नै झुले पाए
मैं कर लूं मौज बहार
आज मेरा बीरा आवैगा

अपने मायके से भाई द्वारा लाये गये सिंधारे को बहन बड़े चाव से रिश्तेदारों व आस-पड़ौस को दिखाती और पांच को पचास-पचास बताती हुई गाती है कि :-

अगड़ पड़ोसन बूझण लागी, 
के के चीजां ल्यायो जी।
भरी पिटारी मोतियां की, 
जोड़े सोलां ल्यायो जी।
लाट्टू मेरा बाजणा, 
बजार तोड़ी जाइयो जी।

बहन अपने भाई को घी-शक्कर से बने चावल परोसती है। उसके लिए खीर, माल-पुए कई तरह के पकवान तैयार करती है और खाना खिलाते खिलाते सुख-दुख भी सांझे करती हुई है :-

सासू तो बीरा चूले की आग
ननद भादों की बीजली
सौरा तो बीरा काला सा नाग
देवर सांप संपोलिया
राजा तो बीरा मेंहदी का पेड़
कदी रचै रे कदी ना रचै

जिसके कंत (पति) बाहर देस-परदेस में कमाने गए हैं उस दुल्हन के मन की व्यथा भी कोई उसके जैसी ही समझ सकती है। अपने गीत में इस व्यथा को ब्यान करती हुई वह कहती है कि -

तीजां बड़ा त्योहार सखी हे सब बदल रही बाना
हे निकली बिचली गाल जेठानी मार दिया ताना
हे जिनका पति बसें परदेस ऐसे जीने से मर जाना
हे बांदी ल्यावो कलम दवात पति पै गेरूं परवाना
लिखी सब को राम राम गोरी के घर पै आ जाना

लोकगीत हमारे जीवन के हर पक्ष से जुड़े हैं, चाहे मौका सुख का हो या दु:ख का, विरह का हो या मिलन का। यह हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर है जिन्हें सहेज कर रखना बहुत जरूरी है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
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Wednesday, 4 July 2018

जीव दया, भारतीय दृष्टिकोण पर अदालती मोहर

वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने वाली भारतीय संस्कृति में पूरी पृथ्वी को एक परिवार माना गया है और इस परिवार में केवल मनुष्य ही शामिल नहीं बल्कि पशु-पक्षी जगत, जलचर, पातालवासी व वनस्पति को भी शामिल किया गया है। एक परिवार के सदस्य होने के नाते सभी को परस्पर प्रेम से रहने, सह-अस्तित्व के सिद्धांत का पालन करने, परस्पर जीवन के अधिकार का सम्मान करने के संदेश हमारे वेदों-शास्त्रों में जगह-जगह दिए गए हैं। यह विचार व संस्कार भारतीयों के भीतर गुणसूत्रों की तरह विद्यमान हैं और अब इस विचार को अब कानूनी मान्यता भी मिल गई है। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक अनोखे फैसले में राज्य में जानवरों को कानूनी तौर पर व्यक्ति या इकाई का दर्जा देने की घोषणा की है। न्यायालय ने कहा कि जानवरों का भा एक अलग व्यक्तित्व होता है। जीवित मनुष्य की तर्ज पर उनके पास भी अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व होते हैं। न्यायाधीश राजीव शर्मा और लोकपाल सिंह की पीठ ने जानवरों को यह विशेष दर्जा प्रदान करते हुए उनके खिलाफ क्रूरता रोकने के लिए भी कई निर्देश जारी किए। जानवरों की सुरक्षा और कल्याण के लिए कोर्ट ने उत्तराखंड के सभी निवासियों को सभी जानवरों का अभिभावक घोषित किया है और इनकी सुरक्षा-स्वास्थ्य, संरक्षण, सम्मान को लेकर कई तरह के निर्देश जारी किए हैं। बता दें कि उच्च न्यायालय पहले स्वर्गवासिनी गंगा नदी को भी जीवित मानव घोषित कर चुका है।

ईशोपनिषद् समस्त मानव जाति को निर्देश देते हुए कहता है- ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्। अर्थात जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। अपने शास्त्र कहते हैं कि इस धरती पर सभी जीवों के अधिकार एक समान हैं, किसी को अधिकार नहीं है कि दूसरे का जीवन छीने या उसे कष्ट दे। अधिकार न तो इंसानी होते हैं ना पाश्विक वो सार्वभौमिक होते हैं। जानवरों के अधिकार, इंसानों के हक को चुनौती नहीं देते, वो सिर्फ शोषण का विरोध करते हैं। मौलिक अधिकार सबको बराबरी का है। जानवर बेजुबान होते हैं, मगर उन्हें भी जीने का अधिकार है। जैसे तमाम देश अपने अस्तित्व के लिए सजग हैं, वैसे ही जानवरों के भी इलाके हैं। हम ये सोच लें कि जानवरों के पास हमसे कम अक्ल है, इसलिए हम उनसे बदसलूकी कर सकते हैं, तो ये गलत है। इस तरह तो हम ये मान लेंगे कि जो अक्लमंद हैं वो कम अक्ल वालो का शोषण कर सकते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो इंसानों को जानवर के शोषण का अधिकार कैसे मिल सकता है? जिसने भी कुत्ते-बिल्लियों या दूसरे पालतू जानवरों के साथ समय बिताया होगा, उसे ये पता है कि जानवर भी तमाम जज्बात समझते हैं, महसूस करते हैं। हमें पता है कि जानवर भी अपने बच्चों की परवरिश करते, उन्हें सिखाते हैं। उन्हें भी खान-पान और भविष्य की चिंता होती है। उन्हें भी घर की याद सताती है, जानवरों को भी मौत से डर लगता है।

जानवरों का सम्मान करना, उनके अधिकारों को मानना हमारी जिम्मेदारी है। जानवर न तो संपत्ति हैं और न ही संसाधन। वो हमारी सेवा के लिए नहीं हैं, उनके अधिकार देने के लिए हमे ये समझना होगा कि हम उनके साथ बर्ताव कैसा करते हैं। लड़ाई मानवाधिकार और जानवरों के हक की नहीं है। ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम जानवरों का शोषण न करें। जब भी इंसानों और जानवरों के हित टकराते हैं तो हमें उन्हें बराबरी के तराजू पर तोलना होगा। अगर हमारी खाने की आदत बदलने से हमारे शाकाहारी होने से जानवरों की जान बचती है तो हमें खाने की आदत बदलनी चाहिए। हम खाने के अधिकार के नाम पर करोड़ों जानवरों के साथ राक्षसों जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं। चिकन टिक्का खाते हुए कोई यह नहीं सोचता कि किस तरह कोई मासूम चूजा उसकी जीभ की बलिवेदी पर बलिदान हुआ होगा। फर व खालों से बने कोट, जैकेट, बूट, बैल्ट डालते हुए शायद ही कोई सोचता होगा कि इस चमड़े के लिए किस तरह बिलबिलाते हुए जिंदा जानवरों की चमड़ी उधेड़ी गई होगी। शर्म की बात तो यह है कि इंसान अपनी सुंदरता बढ़ाने, मर्दानगी को चार चांद लगाने तक के लिए जानवरों पर अत्याचार करता है। और तो और कई बिगड़े हुए परिवारों के अमीरजादे अपने शोक के लिए मूक पशुओं को शिकार के नाम पर बिना कारण उनकी हत्या करते हैं। जानवर कोई बहुत बड़े बड़े अधिकार नहीं मानते वो सिर्फ जीने का अधिकार और अत्याचारों से आजादी चाहते हैं। जानवरों को ये अधिकार नहीं देने वालों की सोच बहुत ही छोटी होगी। जैसे हमने गुलामी, जातिवाद और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है वैसे ही आजादी की हर लड़ाई भेदभाव के खिलाफ होती है। ये हमारी नैतिकता का दायरा बढ़ाती है, जो लोग जानवरों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसमें उनका कोई निजी हित नहीं है। ये सिर्फ नैतिकता की लड़ाई है। महात्मा गांधी, आइंस्टाइन और लियोनार्डो दा विंची सबने जानवरों से अच्छे बर्ताव की वकालत की थी। जानवरों को अधिकार देने से सिर्फ जानवरों की सुरक्षा नहीं होती बल्कि पूरे चराचर जगत की सुरक्षा इससे जुड़ी है। 

अपने ऋषि-मुनियों ने कोई भावना में बह कर पूरी सृष्टि को एक परिवार नहीं कहा, बल्कि इसका वैज्ञानिक आधार है। आज वैज्ञानिक भी मानते हैं कि भोजन शृंखला के चलते एक जीव का जीवन दूसरे पर और वनस्पती व जीवों का जीवन परस्पर अस्तित्व पर टिका है। अप्राकृतिक रूप से कोई एक जीव मरता है तो उससे पूरी शृंखला प्रभावित होती है। आशा की जाना चाहिए कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का जीवों को लेकर दिया गया ताजा फैसला एक उदाहरण बनेगा और हमें हर छोटे-बड़े जीवों, पेड़-पौधों के प्रति अपने दायित्वों के प्रति सोचने को विवश करेगा।
- राकेश सैन
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Tuesday, 3 July 2018

उड़ता पंजाब भाग - 2



पंजाब में विधानसभा चुनाव के समय नशों को लेकर बनी हिंदी फिल्म 'उड़ता पंजाब' के निर्माताओं के पास अवसर है कि वे एक बार फिर इस विषय पर मसाला मूवी का निर्माण कर सकते हैं और नई फिल्म का नाम उड़ता पंजाब भाग-2 या उड़ता पंजाब रिटर्न रख सकते हैं। नशे जैसी सामाजिक समस्या पर राजनीति करते हुए सिख पंथ के धार्मिक ग्रंथ गुटका साहिब को हाथ में लेकर एक महीने में नशा समाप्त करने के दावे करने वाले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंद्र सिंह को समझ आगया होगा कि वचनवीर व कर्मवीर होना दो अलग-अलग विषय हैं। पंजाब विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राज्य में नशे के पीछे न केवल तत्कालीन अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की सरकार के सिर असफलताओं का ठीकरा फोड़ा बल्कि अकाली दल बादल के कुछ बड़े नेताओं के इस गंदे कारोबार में शामिल होने के गंभीर आरोप भी लगाए थे। राज्य में कांग्रेस सरकार के सत्तारूढ़ हुए को सवा साल से भी अधिक का समय बीत चुका है, राज्य में नशा समाप्त तो क्या होना बल्कि पहले के मुकाबले बढ़ा ही दिख रहा है। पिछले लगभग एक महीने में पूरे पंजाब में अत्यधिक नशे के सेवन के चलते 30 युवक अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं और पुलिस बल के जवान ही लोगों को नशे में धकेलते हुए पाए गए हैं। राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंद्र सिंह ने जहां लोगों से अपील की है कि वे अपने बच्चों पर नजर रखें वहीं मंत्रीमंडल ने स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम (एनडीपीएस एक्ट-1985) में संशोधन कर इसमें मौत की सजा का प्रावधान किया है और जल्द ही यह अधिनियम स्वीकृति के लिए केंद्र के पास भेजा है।


वैसे तो नशे की समस्या राज्य में काफी पुरानी है और इस पर खूब राजनीति हुई है। इसी समस्या को कांग्रेस व आम आदमी पार्टी ने विगत विधानसभा चुनावों में राजनीतिक मुद्दा बनाया और कुछ वरिष्ठ अकाली नेताओं पर इसमें शामिल होने के आरोप भी लगाए। राज्य में कांग्रेस सरकार के सत्तारूढ़ होने को 16 महीने  बीत चुके हैं परंतु नशा पहले से भी अधिक भयानक रूप में समाज के सामने आज भी मुंह बाए खड़ा दिख रहा है। कहने को तो कैप्टन अमरिंद्र सिंह ने सत्ता में आने के बाद छोटे-मोटे नशेडिय़ों को पकड़ कर सक्रियता दिखाने का प्रयास किया परंतु बड़ी मछलियां सरकार की पकड़ से बाहर रहीं। राज्य में इस मुद्दे की दोबारा वापसी उस समय हुई जब लुधियाना की एक युवती ने एक पुलिस अधिकारी पर उसे नशे के कारोबार में धकेलने के आरोप लगाए और इस संबंध में वीडियो भी खूब वायरल हुआ। देखते ही देखते इस तरह के केसों की बाढ़ सी आगई। राज्य में नशे के अत्यधिक सेवन से मरने वाले युवाओं की संख्या में भी अचानक उछाल आना शुरू हो गया और पिछले एक महीने में 30 युवा अपनी जान गंवा चुके हैं। नशे से केवल साधारण युवकों का ही नहीं बल्कि मोगा, गुरदासपुर जिलों में अंतरराष्ट्रीय खिलाडिय़ों का जीवन तबाह होने के केस भी सामने आए। इस बीच राज्य के बुद्धिजीवी वर्ग ने सोशल मीडिया पर 1 से 7 जुलाई तक काला सप्ताह आयोजित करने की घोषणा कर दी जो समाचार लिखे जाने तक जारी है और इससे इस मुद्दे ने पुन: राजनीतिक रंग ले लिया है। अकाली दल बादल ने 2 जुलाई को फरीदकोट जिले में 15 किलोमीटर लंबा मार्च निकाल कर सरकार को नशे की समस्या के लिए जिम्मेवार बताया वहीं भारतीय जनता पार्टी ने इसी दिन पूरे पंजाब में कांग्रेस पार्टी के पुतले फूंके और प्रदर्शन किया। कैप्टन सरकार द्वारा मंत्रिमंडल की बुलाई गई आपात् बैठक इस बात का प्रमाण है कि सरकार इस मोर्चे पर बैकफुट पर आगई है।


हैरोईन की बजाय बढ़ा सीरिंज का प्रयोग

राज्य में बीते कुछ दिनों से नशा की ओवरडोज से मरने वाले युवाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है और नशे का प्रचलन भी बदला दिख रहा है। मालवा के कोटकपूरा से लेकर फिरोजपुर और बठिंडा जिला में जितने भी युवा नशा की वजह से मौत के आगोश में समाए हंै सभी नशीले इजेक्शन के आदी बताए जाते हैं। ऐतिहासिक शहर तलवंडी साबो में 21 वर्षीय युवक बब्बू की रजावहे के पास लाश मिली थी। लाश के पास ही सिरिंज भी बरामद हुई। इसी तरह रामा मंडी के कांग्रेस पार्षद के भाई की मौत के मामले में भी यहीं तथ्य सामने आया है। इससे साफ होता है कि नौजवान अब नशीले टीकों का आदी होने लगे हैं। सूबे में नशीली दवाओं और टीकों का सेवन पिछले दशकों से जारी है। इसके बाद इसकी जगह चिट्टा (हैरोइन) ने ले ली थी। जब चिट्टे के सौदागरों पर दबाव बढ़ा तो नौजवान नशीले टीकों के पीछे हो गए। 

नशा तस्करों को मृत्युदंड

पंजाब में नशे से लगातार हो रही मौतों व भारी जन विरोध के चलते सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सोमवार को बुलाई मंत्रिमंडल की आपात् बैठक में नशा तस्करों और सौदागरों को मृत्युदंड देने का निर्णय किया। हालांकि, इसके लिए अभी एनडीपीएस एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा जाना है। मंजूरी के बाद ही इसे लागू किया जा सकेगा। अभी स्पष्ट नहीं है कि ये सजा नशीले पदार्थ की कितनी मात्रा और कितनी बार दोषी पाए जाने पर दी जाएगी। इसके अलावा मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडलीय उप-समिति बनाई गई है। ये समिति हर हफ्ते नशे के खिलाफ हुई कार्रवाई की समीक्षा करेगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि तस्करों ने युवाओं को बर्बाद कर दिया है। इन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए। सख्त कार्रवाई के लिए कैबिनेट ने अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) एनएस कलसी की अध्यक्षता में विशेष समूह बनाने का फैसला लिया, जो कार्रवाई की समीक्षा व निगरानी करेगा। इसमें एसीएस सतीश चंद्रा, पुलिस महानिदेशक ईश्वर सिंह,  दिनकर गुप्ता और एचएस सिद्धू शामिल हैं। अभी तक नशा तस्करी में 10 से 20 साल तक कैद और 1-2 लाख तक जुर्माने का प्रावधान है। सजा का फैसला पकड़े गए मादक पदार्थ की किस्म और मात्रा पर निर्भर करता है। नशीले पदार्थों की बरामदगी के मामले में 3 वर्ग लघु, अव्यवसायिक व व्यवसायिक है। दूसरी बार भारी मात्रा में नशीले पदार्थों के साथ पकड़े व दोषी पाए जाने पर मौत की सजा का भी प्रावधान है। दूसरी ओर कानूनविदों का मानना है कि एनडीपीएस एक्ट में पहले से ही सख्त सजा का प्रावधान है ऐसे में मौत की सजा तर्कसंगत नहीं है। अक्सर ऐसे केसों में कुछ लोगों को फंसा दिया जाता है। ऐसा करने से उनके सामने बचाव के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे। 

सरकार से सहयोग करेंगे : सुखबीर सिंह बादल

अकाली दल बादल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि कांग्रेस पार्टी व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंद्र सिंह को अब पता चल गया होगा कि नशे पर उनकी राजनीति गलत थी। इस समस्या को राजनीति करने से नहीं बल्कि इसके खिलाफ राजनीतिक एकजुटता से निपटा जा सकता है। नशे के खिलाफ राज्य सरकार जो भी कदम उठाए हम उसका सहयोग करेंगे। हम चाहते हैं कि नशा समाप्त हो और पंजाब खुशहाली की राह चले।

भाजपा ने केंद्र से की सहयोग की अपील : श्वेत मलिक

भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य श्री श्वेत मलिक ने कहा है कि केवल नशा ही नहीं बल्कि कांग्रेस सरकार बेरोजगारी, कृषि, राज्य में कैंसर आदि हर मोर्चे पर असफल साबित हुई है। उन्होंने नशे के मुद्दे पर केंद्रीय गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह से मुलाकात कर विशेष सहयोग की अपील की है। उन्होंने कहा कि भाजपा इस सामाजिक मुद्दे पर कांग्रेस की तरह ओछी राजनीति नहीं करेगी बल्कि जिम्मेवार विपक्षी दल की भांति हर दायित्व का पालन करेगी।

क्या हुआ कसम का : भगवंत मान

आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत सिंह मान ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से पूछा है कि उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान गुटका साहिब की कसम खाई थी उसका क्या हुआ? आप नेता ने कहा कि नशा राज्य में गंभीर समस्या है परंतु कैप्टन सरकार कभी भी इसको लेकर गंभीर नहीं दिखी। वे राज्य सरकार को उसकी जिम्मेवारी याद दिलवाते रहेंगे।

कैप्टन गंभीर परंतु मशीनरी में गड़बड़ी : सुनील जाखड़

पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष चौधरी सुनील कुमार जाखड़ ने कहा कि ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंद्र सिंह ने अपने चुनावी वायदे को पूरा करने का प्रयास नहीं किया। वे नशों की समस्या पर गंभीर हैं परंतु सरकारी मशीनरी में गड़बड़ी है जिसे ठीक किया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का वायदा नशामुक्त पंजाब का था जिसे हर कीमत पर पूरा किया जाएगा। नशा तस्करी में मौत की सजा का प्रावधान इसका साक्षी है कि राज्य सरकार कोई समझौता नहीं करने वाली।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
जालंधर।
मो. 097797-14324

Monday, 2 July 2018

हरयावल पंजाब अभियान


जालंधर की जिस कालोनी में निवास कर रहा हूं उसमें वृक्षारोपण का अवसर मिला। वृक्षों के रूप में हमारा छोटा सा परिवार धीरे-धीरे संपन्नता की ओर बढ़ रहा है। जालंधर में दो दिनों से हो रही बरसात का लाभ उठाते हुए नीम के 10, शहतूत का 1, डेक (बकायन) के 5 वृक्षों के पौधे लगाए। इस काम में मेरी धर्मपत्नी श्रीमती वीना देवी, पड़ौस में बहनजी श्रीमती रेखा देवी, श्रीमती गीता देवी, बेटी अंजलि ने भरपूर सहयोग दिया। आज लगाए गए नीम के एक पौधे का नाम मैने अपनी बेटी अंजलि (फोटो में मेरे साथ) के नाम पर रखा। यह बताते हुए और भी प्रसन्नता हो रही है कि हमारे परिवार में वृक्ष सदस्यों की संख्या 150 के आसपास हो चुकी है। अबकी बार घर के बाहर लगे आम के पेड़ों व फूलों की बेल पर कई चिडिय़ों ने न केवल घोंसने बनाए बल्कि अंडे भी दिए। ये चिडिय़ा के बच्चे मुझे अपने बच्चे,पौते-पौती जैसे प्यारे लगते हैं। कृपया ईश्वर से प्रार्थना करें कि वृक्षों, पौधों, पक्षियों से बना हमारा छोटा सा परिवार यूं ही आगे बढ़ता रहे।


- राकेश सैन

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कश्मीर में भाजपा, रपट पड़े तो हर हर गंगे

जम्मू-कश्मीर को लेकर भारतीय जनता पार्टी की रणनीति रपट कर गिरे पंडेजी की भांति हर-हर गंगे जाप से स्नान करती दिख रही है। राष्ट्रवाद की खैरख्वाही का दावा करने वाली भाजपा और कश्मीर घाटी को ही सर्वस्व मानने वाली पीडीपी के बीच गठजोड़ एक प्रयोगधर्मी राजनीति का उदाहरण था। इसे सावधानी पूर्वक चलाया जाता तो देश के उत्तरी-पूर्वी राज्यों के अलगाववादी संगठनों और पंजाब में अकाली दल के साथ हुए गठजोड़ की भांति इसको भी नाजीर बनाया जा सकता था। केवल इतना ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में सुलग रहे अलगाववादी आंदोलनों को भी इस तरह के प्रयोगों से मुख्यधारा में लाने का मार्ग खुलता परंतु सावधानी हटी और दुर्घटना घट गई। इसे राजनीतिक गठजोड़ की सफलता या असफलता नहीं बल्कि देशविरोधी, अलगाववादी, हिंसक विचारधाराओं को संविधान के दायरे में लाने के प्रयासों को झटके के रूप देखा जाना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि इस झटके से भविष्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलगाव को समाप्त करने के प्रयासों में कमी नहीं आएगी। भाजपा को विश्लेषण करना चाहिए कि उससे चूक कहां हुई, क्यों उसे रपटना पड़ा। फिसल कर गिरने की बजाय आचमन कर गंगा जी में उतरा जाता उसकी गंगासाधना ज्यादा सहजता से जनता के गले उतरती।

राजनीतिक प्रक्रिया से अलगाववाद व हिंसा का ज्वर कम करना नया प्रयास नहीं है। अतीत में अनेकों बार ऐसा प्रयोग दुनिया के अनेक हिस्सों में हो चुका है। चाणक्य ने परस्पर शत्रु गणराज्यों यहां तक कि अलक्षेंद्र का साथ देने वाले तक्षशिला नरेश आंभी को भी मुख्यधारा में जोड़ कर पूरे देश को एकसूत्र में पिरोने का काम किया और सारा देश यवनों की सत्ता से खिलाफ उठ खड़ा हुआ। अंग्रेजों ने जब मुसलमानों की भांति दलितों को भी हिंदुओं से अलग निर्वाचन की योजना रखी तो महात्मा गांधी ने इसके खिलाफ अनशन किया। इसी के चलते उनका डाक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर के साथ समझौता हुआ जो आज पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। गांधी जी इस अलगाव के खिलाफ राजनीतिक पहल न करते तो संभव है कि देश में पाकिस्तान की तरह दलितस्तान की भी मांग उठने लगती जो देश के बिखराव का कारण बनती। स्वतंत्रता आंदोलन के समय कांग्रेस छतरी संगठन बना क्योंकि इसके बैनर तले हर विचारधारा पली-बढ़ी और कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी भी रहीं। हिंदू महासभा, अकाली दल, कई आदिवासी व मुस्लिम संगठन अलग विचारधारा होने के बावजूद कांग्रेस के नेतृत्व में एक लक्ष्य के लिए काम करते रहे।

देश के विभाज के बाद भी राजनीतिक पहल से अलगाववाद का उन्मूलन किया जाता रहा। दार्जिलिंग इलाका किसी दौर में राजशाही डिवीजन (अब बांग्लादेश) में शामिल था। वर्ष 1947 में इसका पश्चिम बंगाल में विलय हो गया। अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को एक ज्ञापन सौंप कर बंगाल से अलग होने की मांग उठायी और आंदोलन शुरु किया। अस्सी के दशक के शुरूआती दौर में वह आंदोलन दम तोड़ गया। उसके बाद गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के बैनर तले सुभाष घीसिंग ने पहाडिय़ों में अलग राज्य की मांग में हिंसक आंदोलन शुरू किया, जिसमें 13 सौ लोग मारे गए थे। राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने सुभाष घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद् का गठन किया। चाहे गाहे बगाहे आंदोलन की आग कभी सुलग उठती है परंतु सभी जानते हैं कि एक राजनीतिक पहल से हिंसक व अलगाववादी विचारधारा अंतत: मुख्यधारा में शामिल हो गई।

भाजपा इसी तरह का एक सफल प्रयोग त्रिपुरा विधानसभा में कर चुकी है। भाजपा ने अलगाववादी आदिवासी संगठन के साथ गठबंधन किया है जिसे देशज पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) कहा जाता है। इस संगठन के इतिहास के बारे में देश की जनता अच्छी तरह से परिचित है। आदिवासी और गैर-आदिवासी संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए हिंसा का उपयोग करना और एक अलग आदिवासी राज्य की मांग करना इसका एजेंडा रहा है। आईपीएफटी है जिसने जुलाई 2017 में त्रिपुरा को बाकी देश से जोडऩे वाले एकमात्र राष्ट्रीय राजमार्ग को दो सप्ताह तक नाकाबंदी की और त्रिपुरा के भीतर से एक नए राज्य तिप्रालैंड बनाने की मांग रखी। लेकिन भाजपा के राजनीतिक गठबंधन के चलते नाकाबंदी को हटाना पड़ा। नगालैंड में भाजपा ने नगालैंड जन विमुक्ति मोर्चे के साथ हाथ मिलाकर चुनाव लड़ा। ये मोर्चा आजाद नगालैड की माँग का हिमायती रहा है। राजनीतिक गठजोड़ों से असम में उल्फा, दक्षिण में अलगाववादी द्रविड़ आंदोलनों, नक्सल प्रभावित इलाकों में कुछ माओवादी व नक्सली नेताओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ा जा चुका है।

जम्मू-कश्मीर की भांति पंजाब में भी किसी समय आतंकवाद व अलगाववाद की आग कम प्रचंड नहीं थी परंतु राजीव गांधी समझौता, अलगाववादी व आतंकवाद समर्थकों को इसी माध्यम से सफलतापूर्वक पुन: देश की मुख्यधारा से जोड़ा गया। भाजपा ने विपरीत परिस्थितियों में भी अकाली दल बादल का साथ नहीं छोड़ा जिस पर आतंकियों का समर्थन करने के आरोप लगते रहे। बसपा ने अकाली दल अमृतसर से समझौते किए। इसी समन्यवादी राजनीति का परिणाम है कि आज पंजाब का हर राजनीतिक दल व नेता खालिस्तान व अलगाववाद के खिलाफ खड़ा दिखता है। जम्मू-कश्मीर में समझौते से पूर्व भाजपा जानती थी कि पीडीपी की विचारधारा आतंकियों के प्रति नरम है परंतु इस आशा के साथ समझौता किया कि धीरे-धीरे इसे भी मुख्यधारा के साथ जोड़ा जा सकता है। कहने में भी संकोच नहीं है कि भाजपा उस समय अपने उद्देश्य में सफल होती भी दिखी जब पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती आतंकियों व अलगाववादियों को डांटने व डपटने लगी परंतु राज्य में बढ़ी हिंसा ने परिस्थितियां इस तरह की पैदा कर दीं कि गठजोड़ का चल पाना मुश्किल हो गया।

प्रयोगधर्मी राजनीति में भाजपा को समझना होगा कि इसका लक्ष्य देश में अलगाववाद व हिंसा की विचारधारा का उन्मूलन है न कि सत्ता सुख। भाजपा से चूक यहां हुई कि उसने पीडीपी की अलगाववादी हरकतों व अपने कार्यकर्ताओं की आवाज को नजरंदाज करना शुरु कर दिया। जम्मू व लद्दाख क्षेत्र की जनता की अपेक्षाओं को भी ध्यान में रखा जाता तो यह नौबत न आती। रमजान के दौरान एकतरफा युद्धबंदी  पर पार्टी आलाकमान ने स्थानीय इकाई की आवाज सुनी ही नहीं जो इसका विरोध कर रही थी। इसी तरह कठुआ में मासूम बच्ची के साथ हुए दुराचार और उसके बाद दर्ज किए गए संदिग्ध पर्चों पर स्थानीय भाजपा नेताओं की आवाज को अनसुना कर दिया गया। पुलिस ने इस केस की जो कहानी तैयार की वह पूरी तरह संदिग्ध दिख रही है। दुनिया के इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा कि सामूहिक बलात्कार केस के आरोपियों ने पूरे मामले की सीबीआई से जांच करवाने की मांग की और इसको लेकर उनके परिवार वालों ने धरना दिया हो। भाजपा अगर इस मामले पर सही स्टैंड लेती व केस की सच्चाई सामने लाने में तत्परता दिखाती तो आज उसे रपट कर गंगा में नहीं गिरना पड़ता। जम्मू में रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने, धारा 370 सहित कुछ मुद्दों पर भाजपा ने अपेक्षा से अधिक नरमी दिखाई जिसका गलत संदेश गया। किसी दल के साथ समझौता या गठजोड़ तभी सफल होना संभव है जब स्थानीय कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान किया जाए और उनकी सुनी जाए न कि आलाकमानशाही के चलते उनका मुंह बंद करने की कोशिश हो।

चरैवेति-चरैवेति अर्थात निरंतर चलते जाना भाजपा के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलमंत्र है, पीडीपी गठजोड़ की अकाल मौत एक झटका तो है परंतु इससे निराश हो कर बैठने की आवश्यकता नहीं बल्कि इस काम में तेजी लाना समय की मांग है। देश में आज दलितवाद, अल्पसंख्यकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, किसान आंदोलन के नाम पर अनेक अलगाववादी व हिंसक संगठन सक्रिय हैं। हिंसा के खिलाफ बल का प्रयोग भी एक समाधान है परंतु उसकी एक सीमा है। इन समस्याओं के स्थाई हल के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही श्रेष्ठ मार्ग हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि भाजपा कश्मीर की रपटन से कुछ सीखेगी और भविष्य में अपने राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन करने में भी सफल होगी और तभी उसका गंगास्नान भी वैतरनी पार करने वाला होगा।

- राकेश सैन
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कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...