जम्मू-कश्मीर को लेकर भारतीय जनता पार्टी की रणनीति रपट कर गिरे पंडेजी की भांति हर-हर गंगे जाप से स्नान करती दिख रही है। राष्ट्रवाद की खैरख्वाही का दावा करने वाली भाजपा और कश्मीर घाटी को ही सर्वस्व मानने वाली पीडीपी के बीच गठजोड़ एक प्रयोगधर्मी राजनीति का उदाहरण था। इसे सावधानी पूर्वक चलाया जाता तो देश के उत्तरी-पूर्वी राज्यों के अलगाववादी संगठनों और पंजाब में अकाली दल के साथ हुए गठजोड़ की भांति इसको भी नाजीर बनाया जा सकता था। केवल इतना ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में सुलग रहे अलगाववादी आंदोलनों को भी इस तरह के प्रयोगों से मुख्यधारा में लाने का मार्ग खुलता परंतु सावधानी हटी और दुर्घटना घट गई। इसे राजनीतिक गठजोड़ की सफलता या असफलता नहीं बल्कि देशविरोधी, अलगाववादी, हिंसक विचारधाराओं को संविधान के दायरे में लाने के प्रयासों को झटके के रूप देखा जाना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि इस झटके से भविष्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलगाव को समाप्त करने के प्रयासों में कमी नहीं आएगी। भाजपा को विश्लेषण करना चाहिए कि उससे चूक कहां हुई, क्यों उसे रपटना पड़ा। फिसल कर गिरने की बजाय आचमन कर गंगा जी में उतरा जाता उसकी गंगासाधना ज्यादा सहजता से जनता के गले उतरती।
राजनीतिक प्रक्रिया से अलगाववाद व हिंसा का ज्वर कम करना नया प्रयास नहीं है। अतीत में अनेकों बार ऐसा प्रयोग दुनिया के अनेक हिस्सों में हो चुका है। चाणक्य ने परस्पर शत्रु गणराज्यों यहां तक कि अलक्षेंद्र का साथ देने वाले तक्षशिला नरेश आंभी को भी मुख्यधारा में जोड़ कर पूरे देश को एकसूत्र में पिरोने का काम किया और सारा देश यवनों की सत्ता से खिलाफ उठ खड़ा हुआ। अंग्रेजों ने जब मुसलमानों की भांति दलितों को भी हिंदुओं से अलग निर्वाचन की योजना रखी तो महात्मा गांधी ने इसके खिलाफ अनशन किया। इसी के चलते उनका डाक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर के साथ समझौता हुआ जो आज पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। गांधी जी इस अलगाव के खिलाफ राजनीतिक पहल न करते तो संभव है कि देश में पाकिस्तान की तरह दलितस्तान की भी मांग उठने लगती जो देश के बिखराव का कारण बनती। स्वतंत्रता आंदोलन के समय कांग्रेस छतरी संगठन बना क्योंकि इसके बैनर तले हर विचारधारा पली-बढ़ी और कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी भी रहीं। हिंदू महासभा, अकाली दल, कई आदिवासी व मुस्लिम संगठन अलग विचारधारा होने के बावजूद कांग्रेस के नेतृत्व में एक लक्ष्य के लिए काम करते रहे।
देश के विभाज के बाद भी राजनीतिक पहल से अलगाववाद का उन्मूलन किया जाता रहा। दार्जिलिंग इलाका किसी दौर में राजशाही डिवीजन (अब बांग्लादेश) में शामिल था। वर्ष 1947 में इसका पश्चिम बंगाल में विलय हो गया। अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को एक ज्ञापन सौंप कर बंगाल से अलग होने की मांग उठायी और आंदोलन शुरु किया। अस्सी के दशक के शुरूआती दौर में वह आंदोलन दम तोड़ गया। उसके बाद गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के बैनर तले सुभाष घीसिंग ने पहाडिय़ों में अलग राज्य की मांग में हिंसक आंदोलन शुरू किया, जिसमें 13 सौ लोग मारे गए थे। राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने सुभाष घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद् का गठन किया। चाहे गाहे बगाहे आंदोलन की आग कभी सुलग उठती है परंतु सभी जानते हैं कि एक राजनीतिक पहल से हिंसक व अलगाववादी विचारधारा अंतत: मुख्यधारा में शामिल हो गई।
भाजपा इसी तरह का एक सफल प्रयोग त्रिपुरा विधानसभा में कर चुकी है। भाजपा ने अलगाववादी आदिवासी संगठन के साथ गठबंधन किया है जिसे देशज पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) कहा जाता है। इस संगठन के इतिहास के बारे में देश की जनता अच्छी तरह से परिचित है। आदिवासी और गैर-आदिवासी संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए हिंसा का उपयोग करना और एक अलग आदिवासी राज्य की मांग करना इसका एजेंडा रहा है। आईपीएफटी है जिसने जुलाई 2017 में त्रिपुरा को बाकी देश से जोडऩे वाले एकमात्र राष्ट्रीय राजमार्ग को दो सप्ताह तक नाकाबंदी की और त्रिपुरा के भीतर से एक नए राज्य तिप्रालैंड बनाने की मांग रखी। लेकिन भाजपा के राजनीतिक गठबंधन के चलते नाकाबंदी को हटाना पड़ा। नगालैंड में भाजपा ने नगालैंड जन विमुक्ति मोर्चे के साथ हाथ मिलाकर चुनाव लड़ा। ये मोर्चा आजाद नगालैड की माँग का हिमायती रहा है। राजनीतिक गठजोड़ों से असम में उल्फा, दक्षिण में अलगाववादी द्रविड़ आंदोलनों, नक्सल प्रभावित इलाकों में कुछ माओवादी व नक्सली नेताओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ा जा चुका है।
जम्मू-कश्मीर की भांति पंजाब में भी किसी समय आतंकवाद व अलगाववाद की आग कम प्रचंड नहीं थी परंतु राजीव गांधी समझौता, अलगाववादी व आतंकवाद समर्थकों को इसी माध्यम से सफलतापूर्वक पुन: देश की मुख्यधारा से जोड़ा गया। भाजपा ने विपरीत परिस्थितियों में भी अकाली दल बादल का साथ नहीं छोड़ा जिस पर आतंकियों का समर्थन करने के आरोप लगते रहे। बसपा ने अकाली दल अमृतसर से समझौते किए। इसी समन्यवादी राजनीति का परिणाम है कि आज पंजाब का हर राजनीतिक दल व नेता खालिस्तान व अलगाववाद के खिलाफ खड़ा दिखता है। जम्मू-कश्मीर में समझौते से पूर्व भाजपा जानती थी कि पीडीपी की विचारधारा आतंकियों के प्रति नरम है परंतु इस आशा के साथ समझौता किया कि धीरे-धीरे इसे भी मुख्यधारा के साथ जोड़ा जा सकता है। कहने में भी संकोच नहीं है कि भाजपा उस समय अपने उद्देश्य में सफल होती भी दिखी जब पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती आतंकियों व अलगाववादियों को डांटने व डपटने लगी परंतु राज्य में बढ़ी हिंसा ने परिस्थितियां इस तरह की पैदा कर दीं कि गठजोड़ का चल पाना मुश्किल हो गया।
प्रयोगधर्मी राजनीति में भाजपा को समझना होगा कि इसका लक्ष्य देश में अलगाववाद व हिंसा की विचारधारा का उन्मूलन है न कि सत्ता सुख। भाजपा से चूक यहां हुई कि उसने पीडीपी की अलगाववादी हरकतों व अपने कार्यकर्ताओं की आवाज को नजरंदाज करना शुरु कर दिया। जम्मू व लद्दाख क्षेत्र की जनता की अपेक्षाओं को भी ध्यान में रखा जाता तो यह नौबत न आती। रमजान के दौरान एकतरफा युद्धबंदी पर पार्टी आलाकमान ने स्थानीय इकाई की आवाज सुनी ही नहीं जो इसका विरोध कर रही थी। इसी तरह कठुआ में मासूम बच्ची के साथ हुए दुराचार और उसके बाद दर्ज किए गए संदिग्ध पर्चों पर स्थानीय भाजपा नेताओं की आवाज को अनसुना कर दिया गया। पुलिस ने इस केस की जो कहानी तैयार की वह पूरी तरह संदिग्ध दिख रही है। दुनिया के इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा कि सामूहिक बलात्कार केस के आरोपियों ने पूरे मामले की सीबीआई से जांच करवाने की मांग की और इसको लेकर उनके परिवार वालों ने धरना दिया हो। भाजपा अगर इस मामले पर सही स्टैंड लेती व केस की सच्चाई सामने लाने में तत्परता दिखाती तो आज उसे रपट कर गंगा में नहीं गिरना पड़ता। जम्मू में रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने, धारा 370 सहित कुछ मुद्दों पर भाजपा ने अपेक्षा से अधिक नरमी दिखाई जिसका गलत संदेश गया। किसी दल के साथ समझौता या गठजोड़ तभी सफल होना संभव है जब स्थानीय कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान किया जाए और उनकी सुनी जाए न कि आलाकमानशाही के चलते उनका मुंह बंद करने की कोशिश हो।
चरैवेति-चरैवेति अर्थात निरंतर चलते जाना भाजपा के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलमंत्र है, पीडीपी गठजोड़ की अकाल मौत एक झटका तो है परंतु इससे निराश हो कर बैठने की आवश्यकता नहीं बल्कि इस काम में तेजी लाना समय की मांग है। देश में आज दलितवाद, अल्पसंख्यकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, किसान आंदोलन के नाम पर अनेक अलगाववादी व हिंसक संगठन सक्रिय हैं। हिंसा के खिलाफ बल का प्रयोग भी एक समाधान है परंतु उसकी एक सीमा है। इन समस्याओं के स्थाई हल के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही श्रेष्ठ मार्ग हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि भाजपा कश्मीर की रपटन से कुछ सीखेगी और भविष्य में अपने राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन करने में भी सफल होगी और तभी उसका गंगास्नान भी वैतरनी पार करने वाला होगा।
- राकेश सैन
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