सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने और नक्सलियों से मिलीभगत के आरोप में पुणे पुलिस द्वारा की गई पांच लोगों की गिरफ्तारी पर दायर याचिका की सुनवाई करते हुए असहमति का सम्मान करने की सलाह दी है। वामपंथी विचारक रोमिला थापर, देवकी जैन, प्रभात पटनायक, सतीश देशपांडे और मेजा दारूवाला की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्डपीठ के घटक न्यायमूर्ति वाईडी चंद्रचूड़ ने कहा है कि -असहमति के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता। यह लोकतंत्र की सुरक्षा नली है, अगर असहमति की अनुमति नहीं दी जाती तो लोकतंत्र फट जाएगा। खण्डपीठ ने पांचों आरोपियों को चाहे फौरी राहत दी है परंतु दोषमुक्त भी नहीं किया है, लेकिन न्यायालय ने देश को यह नहीं बताया कि कोई अपराध किस आधार पर 'असहमति' बन सकता है। न्यायालय की इस टिप्पणी की गूंज लंबे समय तक न्याय व राजनीतिक प्रणाली में सुनी जाती रहेगी। आशंका है कि यह अनावश्यक और अतित्वरित टिप्पणी भविष्य में अपराधियों को अपना चेहरा छिपाने की आड़ भी प्रदान कर सकती है। 'अपराध' और 'असहमति' के पृथक-पृथक श्रेणियों में रखा जाना ही हमारी स्वस्थ न्यायिक प्रणाली के लिए श्रेष्ठ होगा।
उक्त मामले में गिरफ्तार आरोपियों की शैक्षिक योग्यता व उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से आंखें चुंधियाने से पहले इनकी वास्तविकता व माओवाद-नक्सलवाद समर्थक पृष्ठभूमि भी देखी जानी चाहिए थी। गिरफ्तार किए गए वरवर राव तेलंगाना मूल के 1957 वामपंथी विचारक और कवि हैं। उन्हें सबसे पहले 1973 में मीसा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। इसके बाद उन्हें 1975 से लेकर 1986 तक कई मामलों में गिरफ्तार किया गया। 1986 के रामनगर षड्यंत्र मामले में गिरफ्तार होने के 17 साल बाद उन्हें 2003 में रिहाई मिली। 19 अगस्त 2005 को आंध्र प्रदेश सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत उन्हें फिर से गिरफ्तार करके हैदराबाद स्थित चंचलगुडा जेल भेजा गया। बाद में 31 मार्च 2006 को सार्वजनिक सुरक्षा कानून के खत्म होने सहित राव को अन्य सभी मामलों में जमानत मिल गई। इसी तरह सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा भी शहरी नक्सलवादी चेहरे के रूप में कुख्यात हस्तियों में शामिल हैं। आंध्रप्रदेश सरकार के साथ बातचीत के लिए नक्सलियों ने वरवर राव को अपना प्रतिनिधि भी बनाया था। इसी तरह से अरुण फरेरा और वरनान गोंजाल्विस को इसके पहले 2007 में भी नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है और कई साल जेल की सजा भी काट चुके हैं। एक अन्य आरोपी मुंबई स्थित सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओ) की संचार और प्रचार इकाई के प्रमुख है। शहरी और पढ़े लिखे नक्सली किस तरह आदिवासी क्षेत्रों में जाकर लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काते हैं, विकास की परियोजनाओं में व्यवधान पैदा करते हैं इसके यह लोग जीवंत उदाहरण हैं। इनका उद्देश्य यही रहता है कि उद्योग धंधे पिछड़े क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाएं। यदि कोई परियोजना लगे तो स्थानीय लोगों को जमीन और संस्कृति छिन जाने का भय दिखा कर विरोध करवाओ और इतना भड़काओ कि पुलिस गोलीबारी में कुछ लोग मारे जायें, सरकार मुश्किल में पड़ जाये और आखिरकार परियोजना को वापस ले ले। जो नक्सली वनों में छिप कर बंदूकों और बमों से हमले कर रहे हैं उनसे घातक ये शहरी नक्सली हैं क्योंकि यह लोगों को नक्सलवाद की ओर मोड़ते हैं और उनके दिमाग में सिर्फ बम-बंदूक की बात भर देते हैं। भीमा-कोरेगांव मामला एक बड़ा उदाहरण है कि कैसे भड़काऊ बयानों से हिंसा भड़काई जाती है।
केवल आज ही नहीं विगत में भी इन शहरी माओवादियों पर कार्रवाईयां होती रही हैं। निवर्तमान मनमोहन सिंह सरकार के दौरान ऐसे नक्सलियों की पहचान कर उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई थी। इसी सिलसिले में दिल्ली में छिपे कोबाड गांधी को गिरफ्तार किया गया था जो अभी तक जेल में है। यही नहीं, नक्सली हिंसा की साजिश में शामिल होने के आरोप में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रध्यापक जी साईबाबा को गिरफ्तार किया गया था और आरोपपत्र भी दाखिल किया गया था। इसी तरह से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेम मिश्रा को नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। मनमोहन सरकार के दौरान गृहमंत्रालय ने पूरे देश में फैले 128 संगठनों की पहचान की थी, जो मानवाधिकार व दूसरे छद्म गतिविधियों की आड़ में नक्सली हिंसा को बढ़ावा देने में जुटे थे। उस समय सभी राज्यों सरकारों को इन नक्सलियों से जुड़े संगठनों और उससे जुड़े लोगों के खिलाफ कारवाई के लिए भी कहा गया था। भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में जून से लेकर अब तक जिन 10 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनसे से सात इन्हीं संगठनों से संबंधित हैं। इनमें वरवर राव, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन, अरुण फरेरा, वरनोन गोंजाल्विस और महेश राऊत शामिल हैं। शहरी नक्सलियों के खिलाफ ताजा कार्रवाई सिर्फ भीमा कोरेगांव हिंसा तक सीमित नहीं बल्कि इस हिंसा की जांच के सिलसिले में यह भी पता चला है कि नक्सली प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश भी कर रहे थे।
पुणे पुलिस को इसी साल 18 अप्रैल को रोणा जैकब द्वारा कॉमरेड प्रकाश को लिखी गयी चिट्ठी मिली थी, जिसमें कहा गया कि अब हिंदू अतिवाद को हराना जरूरी हो गया है क्योंकि मोदी के नेतृत्व में यह लोग आगे बढ़ते चले जा रहे हैं और बंगाल और बिहार को छोड़कर अधिकतर बड़े राज्यों की सत्ता इनके हाथों में आ चुकी है। चि_ी में लिखा गया है कि मोदी को रोकने के लिए उनके रोड शो को टारगेट करना ठीक रहेगा, जो आत्मघाती हमला भी हो सकता है। 28 अगस्त मंगलवार को कई राज्यों में छापे के दौरान पांच माओवादी विचारकों की गिरफ्तारी इसलिए संभव हो पाई क्योंकि माओवादियों के दो गोपनीय पत्र पुलिस के हाथ पहले ही लग गए थे। इन पत्रों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना का जिक्र था। इन पत्रों के जरिये ही मंगलवार को पकड़े गए वामपंथियों के माओवादियों के साथ रिश्ते उजागर हुए। सर्वोच्च न्यायालय ने इन संदिग्ध अपराधियों की गिरफ्तारी को असहमति की संज्ञा दे कर एक तरह से अपराधियों को रक्षा कवच उपलब्ध करवाने की भूल कर दी है जिसका खमियाजा देश व इसकी कानून व्यवस्था को भुगतना पड़ सकता है। कोई टिप्पणी करने से पहले अदालत को सोचना चाहिए था कि आरोपियों को भारतीय दंडावली की धारा 153 (ए) के तहत गिरफ्तार किया गया। यह धारा धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, आवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने और सौहार्द बनाए रखने में बाधा डालने वाली गतिविधियों से संबद्ध है। इन लोगों पर आईपीसी की कुछ अन्य धाराएं और उनकी कथित नक्सली गतिविधियों को लेकर गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून की धाराएं भी लगाई गईं हैं। चाहे न्यायालय ने किसी को दोषमुक्त नहीं किया है परंतु अपनी टिप्पणी से देश की शासन व्यवस्था व शांतिप्रिय लोगों को तो हतप्रभ कर ही दिया है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।