Wednesday, 29 August 2018

नक्सली अपराध 'असहमति' न बने

सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने और नक्सलियों से मिलीभगत के आरोप में पुणे पुलिस द्वारा की गई पांच लोगों की गिरफ्तारी पर दायर याचिका की सुनवाई करते हुए असहमति का सम्मान करने की सलाह दी है। वामपंथी विचारक रोमिला थापर, देवकी जैन, प्रभात पटनायक, सतीश देशपांडे और मेजा दारूवाला की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्डपीठ के घटक न्यायमूर्ति वाईडी चंद्रचूड़ ने कहा है कि -असहमति के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता। यह लोकतंत्र की सुरक्षा नली है, अगर असहमति की अनुमति नहीं दी जाती तो लोकतंत्र फट जाएगा। खण्डपीठ ने पांचों आरोपियों को चाहे फौरी राहत दी है परंतु दोषमुक्त भी नहीं किया है, लेकिन न्यायालय ने देश को यह नहीं बताया कि कोई अपराध किस आधार पर 'असहमति' बन सकता है। न्यायालय की इस टिप्पणी की गूंज लंबे समय तक न्याय व राजनीतिक प्रणाली में सुनी जाती रहेगी। आशंका है कि यह अनावश्यक और अतित्वरित टिप्पणी भविष्य में अपराधियों को अपना चेहरा छिपाने की आड़ भी प्रदान कर सकती है। 'अपराध' और 'असहमति' के पृथक-पृथक श्रेणियों में रखा जाना ही हमारी स्वस्थ न्यायिक प्रणाली के लिए श्रेष्ठ होगा।

उक्त मामले में गिरफ्तार आरोपियों की शैक्षिक योग्यता व उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से आंखें चुंधियाने से पहले इनकी वास्तविकता व माओवाद-नक्सलवाद समर्थक पृष्ठभूमि भी देखी जानी चाहिए थी। गिरफ्तार किए गए वरवर राव तेलंगाना मूल के 1957 वामपंथी विचारक और कवि हैं। उन्हें सबसे पहले 1973 में मीसा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। इसके बाद उन्हें 1975 से लेकर 1986 तक कई मामलों में गिरफ्तार किया गया। 1986 के रामनगर षड्यंत्र मामले में गिरफ्तार होने के 17 साल बाद उन्हें 2003 में रिहाई मिली। 19 अगस्त 2005 को आंध्र प्रदेश सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत उन्हें फिर से गिरफ्तार करके हैदराबाद स्थित चंचलगुडा जेल भेजा गया। बाद में 31 मार्च 2006 को सार्वजनिक सुरक्षा कानून के खत्म होने सहित राव को अन्य सभी मामलों में जमानत मिल गई। इसी तरह सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा भी शहरी नक्सलवादी चेहरे के रूप में कुख्यात हस्तियों में शामिल हैं। आंध्रप्रदेश सरकार के साथ बातचीत के लिए नक्सलियों ने वरवर राव को अपना प्रतिनिधि भी बनाया था। इसी तरह से अरुण फरेरा और वरनान गोंजाल्विस को इसके पहले 2007 में भी नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है और कई साल जेल की सजा भी काट चुके हैं। एक अन्य आरोपी मुंबई स्थित सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओ) की संचार और प्रचार इकाई के प्रमुख है। शहरी और पढ़े लिखे नक्सली किस तरह आदिवासी क्षेत्रों में जाकर लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काते हैं, विकास की परियोजनाओं में व्यवधान पैदा करते हैं इसके यह लोग जीवंत उदाहरण हैं। इनका उद्देश्य यही रहता है कि उद्योग धंधे पिछड़े क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाएं। यदि कोई परियोजना लगे तो स्थानीय लोगों को जमीन और संस्कृति छिन जाने का भय दिखा कर विरोध करवाओ और इतना भड़काओ कि पुलिस गोलीबारी में कुछ लोग मारे जायें, सरकार मुश्किल में पड़ जाये और आखिरकार परियोजना को वापस ले ले। जो नक्सली वनों में छिप कर बंदूकों और बमों से हमले कर रहे हैं उनसे घातक ये शहरी नक्सली हैं क्योंकि यह लोगों को नक्सलवाद की ओर मोड़ते हैं और उनके दिमाग में सिर्फ बम-बंदूक की बात भर देते हैं। भीमा-कोरेगांव मामला एक बड़ा उदाहरण है कि कैसे भड़काऊ बयानों से हिंसा भड़काई जाती है।

केवल आज ही नहीं विगत में भी इन शहरी माओवादियों पर कार्रवाईयां होती रही हैं। निवर्तमान मनमोहन सिंह सरकार के दौरान ऐसे नक्सलियों की पहचान कर उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई थी। इसी सिलसिले में दिल्ली में छिपे कोबाड गांधी को गिरफ्तार किया गया था जो अभी तक जेल में है। यही नहीं, नक्सली हिंसा की साजिश में शामिल होने के आरोप में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रध्यापक जी साईबाबा को गिरफ्तार किया गया था और आरोपपत्र भी दाखिल किया गया था। इसी तरह से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेम मिश्रा को नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। मनमोहन सरकार के दौरान गृहमंत्रालय ने पूरे देश में फैले 128 संगठनों की पहचान की थी, जो मानवाधिकार व दूसरे छद्म गतिविधियों की आड़ में नक्सली हिंसा को बढ़ावा देने में जुटे थे। उस समय सभी राज्यों सरकारों को इन नक्सलियों से जुड़े संगठनों और उससे जुड़े लोगों के खिलाफ कारवाई के लिए भी कहा गया था। भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में जून से लेकर अब तक जिन 10 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनसे से सात इन्हीं संगठनों से संबंधित हैं। इनमें वरवर राव, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन, अरुण फरेरा, वरनोन गोंजाल्विस और महेश राऊत शामिल हैं। शहरी नक्सलियों के खिलाफ ताजा कार्रवाई सिर्फ भीमा कोरेगांव हिंसा तक सीमित नहीं बल्कि इस हिंसा की जांच के सिलसिले में यह भी पता चला है कि नक्सली प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश भी कर रहे थे।

पुणे पुलिस को इसी साल 18 अप्रैल को रोणा जैकब द्वारा कॉमरेड प्रकाश को लिखी गयी चिट्ठी मिली थी, जिसमें कहा गया कि अब हिंदू अतिवाद को हराना जरूरी हो गया है क्योंकि मोदी के नेतृत्व में यह लोग आगे बढ़ते चले जा रहे हैं और बंगाल और बिहार को छोड़कर अधिकतर बड़े राज्यों की सत्ता इनके हाथों में आ चुकी है। चि_ी में लिखा गया है कि मोदी को रोकने के लिए उनके रोड शो को टारगेट करना ठीक रहेगा, जो आत्मघाती हमला भी हो सकता है। 28 अगस्त मंगलवार को कई राज्यों में छापे के दौरान पांच माओवादी विचारकों की गिरफ्तारी इसलिए संभव हो पाई क्योंकि माओवादियों के दो गोपनीय पत्र पुलिस के हाथ पहले ही लग गए थे। इन पत्रों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना का जिक्र था। इन पत्रों के जरिये ही मंगलवार को पकड़े गए वामपंथियों के माओवादियों के साथ रिश्ते उजागर हुए। सर्वोच्च न्यायालय ने इन संदिग्ध अपराधियों की गिरफ्तारी को असहमति की संज्ञा दे कर एक तरह से अपराधियों को रक्षा कवच उपलब्ध करवाने की भूल कर दी है जिसका खमियाजा देश व इसकी कानून व्यवस्था को भुगतना पड़ सकता है। कोई टिप्पणी करने से पहले अदालत को सोचना चाहिए था कि आरोपियों को भारतीय दंडावली की धारा 153 (ए) के तहत गिरफ्तार किया गया। यह धारा धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, आवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने और सौहार्द बनाए रखने में बाधा डालने वाली गतिविधियों से संबद्ध है। इन लोगों पर आईपीसी की कुछ अन्य धाराएं और उनकी कथित नक्सली गतिविधियों को लेकर गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून की धाराएं भी लगाई गईं हैं। चाहे न्यायालय ने किसी को दोषमुक्त नहीं किया है परंतु अपनी टिप्पणी से देश की शासन व्यवस्था व शांतिप्रिय लोगों को तो हतप्रभ कर ही दिया है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Tuesday, 28 August 2018

खालिस्तानी सांपों को दूध पिला रहे वामपंथी

विदेशी धरती पर बढ़ रही खालिस्तानी आतंकियों व अलगाववादियों की बढ़ रही गतिविधियों की अब और अनदेखी करना शुतरमुर्ग की नीति का अनुसारन करना होगा जो खतरे को सामने देख कर रेत में सिर छिपा लेता है। अभी हाल ही में विदेशी दौरे के दौरान खालिस्तानी तत्वों ने अकाली दल बादल के नेता मनजीत सिंह जीके व कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की रैली में नारेबाजी करके अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने का प्रयास किया। अलगाववादियों व पूर्व आतंकियों द्वारा संचालित संगठन सिख्स फार जस्टिस की बढ़ी सक्रियता ने देशवासियों को चिंता में डाल दिया है और दुखद बात है कि इस संगठन को राजनीतिक संरक्षण भी मिलना शुरू हो चुका है। ब्रिटेन की वामपंथी विचारधारा वाली ग्रीन पार्टी भारत विरोधी इस लॉबी के खुल कर समर्थन में आगई है और पार्टी की उपनेता कैरोलीन ल्यूकस का कहना है कि अलगाव की मांग कर रहे खालिस्तानियों को भी अपने भाग्य के फैसले का अधिकार मिलना चाहिए।

अमेरिका के कैलेफोर्निया शहर में खालिस्तानी तत्वों ने दिल्ली गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमेटी (डीएसजीएमसी) के अध्यक्ष व अकाली दल के नेता मनजीत सिंह पर जानलेवा हमला कर दिया। इस घटना के चार दिन पहले उन पर इन्हीं तत्वों ने न्यूयार्क में भी हमला किया था। लंदन दौरे के दौरान तीन खालिस्तानी तत्वों ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की कान्फ्रेंस में घुस कर हंगामा मचाया। अलगाववादियों द्वारा किसी भारतीय नेता पर इस तरह के हमले कोई पहली घटना नहीं है। इससे पूर्व पंजाब के  मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह, निवर्तमान सरकार के मंत्री सिकंदर सिंह मलूका पर भी विदेशी धरती पर इस तरह के हमले हो चुके हैं। लेकिन इन दिनों विदेशी धरती पर खालिस्तानी अलगाववादियों व आतंकवादियों की गतिविधियां बढऩे के संकेत मिल रहे हैं। अभी हाल ही में पूर्व आतंकवादी परमजीत सिंह पम्मा के नेतृत्व में सिख्स फार जस्टिस द्वारा लंदन में जनमत 2020 के समर्थन में रैली की जा चुकी है। चाहे इस रैली को सिख समाज की ओर से इतना सकारात्मक जवाब नहीं मिला और भारतीयों ने इनके समानांतर भारत समर्थक रैली करके अलगाववादियों का मुंहतोड़ जवाब देने का प्रयास किया परंतु इतना तो साफ हो चुका है कि खालिस्तानी तत्व हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठे हैं। पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी इंटर सर्विस इंटेलीजेंस (आई.एस.आई.) व ब्रिटेन में मिले राजनीतिक समर्थन से भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं।

कुछ समय पहले जर्मनी में खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स के दो आतंकियों को गिरफ्तार किया गया और इस मामले की जांच के दौरान सामने आया कि यूरोप में इन आतंकी संगठनों की गतिविधियां बढ़ रही हैं और इन्हें ब्रिटेन की वामपंथ ग्रीन पार्टी का राजनीतिक समर्थन हासिल है। आतंकी संगठन अपनी सारी गतिविधियां सिख्स फार जस्टिस के नाम से गठित संगठन के छद्मावरण में चला रहे हैं। यह संगठन पंजाब में चले आतंकवाद के दौरान भगौड़े हुए अलगाववादी व खालिस्तानी आतंकियों द्वारा चलाया जा रहा है। इसमें भारत से गए लोगों की दूसरी पीढ़ी के युवा भी शामिल हैं जो मूल रूप से तो पंजाबी या भारतीय हैं परंतु इनका जन्म और लालन-पालन विदेशी धरती पर ही हुआ। भारत व पंजाब से इनका कोई भावनात्मक लगाव नहीं है। इसके अलावा विदेशों में अवैध तरीके से जाने वाले पंजाबी युवकों को सिख्स फार जस्टिस शरण दे कर अपने साथ मिलाने का काम करती है। इन युवाओं के माध्यम से अलगाववादी इनके परिवारों से संबंध स्थापित कर रहे हैं। पंजाब में पिछले कुछ सालों में हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिंदू संगठनों के नेताओं की हत्या के पीछे इसी तरह के युवाओं का हाथ साबित हो चुका है और कई अनिवासी भारतीय युवा गिरफ्तार किए जा चुके हैं।

देश हो या विदेश वामपंथी दलों का दोहरा चरित्र रहा है। कहने को तो वह पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने की बात करती है परंतु वास्तव में वामपंथी ही इन खालिस्तानी नागों को पाल-पोस रहे हैं। पंजाब का इतिहास साक्षी है कि यहां 1960-70 के दशक में चले नक्सलवाड़ी आंदोलन के अवशेषों से ही खालिस्तानी आतंकवाद का ढांचा तैयार किया गया। पंजाबी विश्वविद्यालय जो आज भी वामपंथियों का गढ़ माना जाता है वह आतंकवाद के दौरान खालिस्तानियों का वार रूम बन कर सामने आया। खालिस्तान की मांग करने वाले लोग जज्बाती, झगड़ालू और सांप्रदायिक किस्म की मानसिकता के हैं परंतु इन्हें बौद्धिक खाद उपलब्ध करवा रहे हैं वामपंथी। खालिस्तानी तत्वों द्वारा किए जा रहे रेफरेंडम 2020 के पीछे भी वामपंथियों की कार्यशैली दिखाई दे रही है। वामपंथी वर्तमान में वही गलती दोहरा रहे हैं जिस तरह उन्होंने देश विभाजन के समय सांप्रदायिक और जज्बातों के आधार पर पैदा मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को बौद्धिक तर्क-वितर्क उपलब्ध करवाए।

खालिस्तानियों की बढ़ रही खुराफात पर न तो रक्षात्मक होने की आवश्यकता है और न ही भयभीत बल्कि इसका दृढ़ता से जवाब देना समय की मांग है। ब्रिटेन व अमेरिका जैसे इस तर्क की आड़ में अपनी धरती पर आतंकवाद का पोषण होने नहीं दे सकते कि उनके यहां लोकतांत्रिक तरीके से किसी भी तरह की मांग रखने का अधिकार है। इस अधिकार के नाम पर कोई देश कैसे अपने मित्र देश के अमन में अंगारे फेंकने वालों को पलने व बढऩे दे सकता है। भारत सरकार को पनप रहे खालिस्तानी सपोलों का समय रहते ही सिर कुचलना होगा और इनको पोषित करने वालों को चेताना होगा कि चिंगारी का खेल बुरा होता है।


- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Monday, 27 August 2018

अटल जी, रग-रग हिंदू जिनका परिचय

पढ़े लिखे लोगों को लिखित दस्तावेजों पर अधिक विश्वास रहता है। एक बार किसी व्यक्ति ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी से कहा कि वे कभी उनके पास अपना संविधान भेजें, देखते हैं क्या करता है आपका संघ। डाक्टर साहिब ने दोपहर को एक युवा स्वयंसेवक भेज दिया। उस व्यक्ति ने समझा यह संविधान लेकर आया होगा, उसने चाय-पानी पूछने का शिष्टाचार दिखाया और कुछ देर बाद पूछा कि क्या डाक्टर साहिब ने कुछ भेजा है। युवक ने कहा नहीं। कुछ देर बैठ कर युवक अपने घर लौट आया। अगले दिन जब डाक्टर साहिब मिले तो इस व्यक्ति ने कहा शिकायती लहजे में कहा कि आपने संविधान भेजा नहीं। इस पर हेडगेवार जी बोले, जिस युवक को आपके पास भेजा था वह अपने आप में संविधान ही था, एक जीवंत संविधान, जिसके जीवन का एक-एक पहलु संघ का जीता जागता दस्तावेज है। उन्होंने कहा संघ को पढ़-सुन या चर्चा करके नहीं, स्वयंसेवकों के जीवन को देख कर समझा जा सकता है। इसी उदाहरण को हिंदुत्व के धरातल पर उतारा जाए तो दिवंगत नेता अटल बिहारी वाजपेयी को हिंदुत्व के विश्वकोष की प्रस्तावना कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगा। वाजपेयी जी का जीवन हिंदुत्व को देखने का झरोखा है जिसमें झांक कर उस विराट जीवंत सिद्धांत के दर्शन किए जा सकते हैं। अटलजी के श्रीमुख से निकली कविता - रग रग हिंदू मेरा परिचय, मानो उनकी आत्मकथा और हिंदुत्व का सारांश है। इस कविता के एक-एक गद्यांश वाजयेपयी जी के जीवन पर अक्षरश: स्टीक बैठता और हिंदुत्व को परिभाषित करता दिखदता है। कविता के आरंभ में वे लिखते हैं -
मै शंकर का वह क्रोधानल,
कर सकता जगती क्षार क्षार।
डमरू की वह प्रलयध्वनि हूं,
जिसमे नचता भीषण संहार।
कारगिल युद्ध साक्षी है कि वाजपेयी ने शंकर जी का डमरू बन कर पाकिस्तानी सेना में प्रलयध्वनि फैला दी। सौम्य स्वभाव के वाजपेयी ने इस युद्ध के दौरान गजब का साहस व नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया। जब पाकिस्तानी सैनिकों से भारतीय सैनिक लोहा ले रहे थे तो अमेरिका सहित अनेक देशों का दबाव था कि भारत शांति का मार्ग अपनाए परंतु वाजपेयी जी ने किसी की न सुनी। पाकिस्तान ने वाजपेयी से बातचीत की पेश की। तब तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने प्रस्ताव भेजा, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया कहा कि जब तक पाक सेना वापस नहीं जाएगी, तब तक कोई बातचीत नहीं होगी। भारत ने दो महीने में यह युद्ध जीता था और पाकिस्तानी सैनिकों को भागने पर मजबूर कर दिया। हिंदुत्व में वीरता व शौर्य को मानव का नैसर्गिक गुण स्वीकार किया गया है जिसके बिना सुरक्षित, संयत जीवन व विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हिंदुत्व के आदर्श भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण व गुरु गोबिंद सिंह जी जैसे असंख्यों वीरों ने दुनिया को समय-समय पर भारतीय शौर्य का लोहा मनवाया। मर्यादा व वीरता के प्रतीक भगवान श्रीराम कहते हैं - भय बिनु होय न प्रीत अर्थात दुष्ट व्यक्ति को जब तक दंडित नहीं किया जाता तब तक वह सही मार्ग पर नहीं आता। श्रीकृष्ण ने दुष्ट शिशुपाल के सो अवगुण माफ किए परंतु सीमा लांघने पर उसे दंडित भी किया। धर्म की स्थापना के लिए उन्होंने कुरुक्षेत्र का मार्ग चुना। इसी तरह गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों को संदेश दिया कि- न डरों अरि सो जब जाइ लरों निसचै करि अपुनी जीत करों॥
एक पंक्ति में अटल जी लिखते हैं कि -
मै अखिल विश्व का गुरु महान,
देता विद्या का अमर दान।
मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग,
मैने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
वेद मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन और लिखित दस्तावेज हैं। हिन्दुत्व के आदर्श विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। ये वेद ही हैं जिनके आधार पर अन्य धार्मिक मान्यताओं और विचारधाराओं का आरंभ और विकास हुआ है। वेद में लिखे गए मंत्र जिनहे ऋचाएँ कहा जाता है, कहा जाता है की इनका इस्तेमाल आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके लिखे जाने के समय था। ज्ञान, विज्ञान, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, समाज शास्त्र अर्थात मानव जीवन के सभी अंगों से सरोकार रखने वाले हैं वेद जो जितने प्राचीन हैं उतने नित्य नूतन भी। दुनिया के बड़े हिस्से में जिस युग में अज्ञानता  का अंधकार छाया था भारत में ज्ञान-विज्ञान का डंका बजता था। दुनिया के विभिन्न हिस्सों से जिज्ञासु भारत आकर अपनी ज्ञान पिपासा शांत करते और दुनिया के अन्य हिस्सों में प्रकाश फैलाते रहे हैं।
जगती का रच करके विनाश,
कब चाहा है निज का विकास।
शरणागत की रक्षा की है,
मैने अपना जीवन देकर।
यज्ञ के दौरान राजा शिबि की जाँघ पर एक डरा-सहमा कबूतर आकर बैठ गया। बोला- राजन, मैं आपकी शरण में हूँ। मेरे पीछे पड़े शत्रु से मेरी रक्षा कीजिए। तभी एक बाज वहाँ आकर बोला- महाराज, यह मेरा शिकार है। इसे मुझे सौंप दें। शिबि- नहीं, इस कमजोर प्राणी की रक्षा करना मेरा धर्म है। बाज- तो फिर मैं भी आपकी शरण में हूँ और बहुत भूखा हूँ। यदि मैंने कुछ नहीं खाया तो मर जाऊँगा और तब मेरी पत्नी और बच्चे अनाथ हो जाएंगे।  शिबि- भले ही मेरा राजपाट चला जाए, लेकिन मैं इसे तुम्हें नहीं सौंपूंगा। बाज बोला- तो ठीक है आप इसके वजन के बराबर मांस अपनी जांघ से काट कर दे दें। शिबि ने तुरंत एक तराजू मँगाया और उसके एक पलड़े में कबूतर को बैठाकर दूसरे में अपनी जाँघ का मांस काटकर रख दिया। लेकिन तराजू जरा भी नहीं हिला। इसके बाद शिबि अपने शरीर के अन्य अंगों से मांस काटकर तराजू पर रखते गए, लेकिन तब भी पलड़ा नहीं हिला तो वे खुद उस में बैठ गए। यही है हिंदुत्व की भावना जो शरणागत के जीवन की रक्षा और उसके लिए बलिदान करने का पाठ पढ़ाता है।
मुझको मानव मे भेद नही,
मेरा अन्त:स्थल वर विशाल।
जग से ठुकराए लोगों को,
लो मेरे घर का खुला द्वार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित,
परकीयोंका वह राज मुकुट।
आज से 2985 वर्ष पूर्व अर्थात 973 ईसा पूर्व में यहूदियों ने केरल के मालाबार तट पर प्रवेश किया। यहूदियों के पैगंबर थे मूसा, लेकिन उस दौर में उनका प्रमुख राजा था सोलोमन, जिसे सुलेमान भी कहते हैं। नरेश सोलोमन का व्यापारी बेड़ा मसालों और प्रसिद्ध खजाने के लिए आया। आतिथ्य प्रिय हिन्दू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्बन को उपाधि और जागीर प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के तत्काल पश्चात कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे। दुनिया में जब यहूदियों पर अत्याचारों का क्रम शुरू हुआ और किसी देश ने उन्हें शरण नहीं दी तो भारत ने उन्हें यहां ससम्मान बसने का अवसर दिया। केवल इतना ही नहीं उन्हें अपने विश्वास के अनुसार धर्म का पालन करने, समानता, स्वतंत्रता का अधिकार दिया। केवल यहूदी ही नहीं बंजारों सा जीवन व्यतीत करने वाले शक, हुण, कुषाण भी इसी धरती पर रच बस गए और भारतीय समाज ने इन्हें अपने साथ आत्मसात किया। इस तरह की उदाहरण दुनिया के अन्य हिस्सों अपवादस्वरूप ही देखने को मिल सकती हैं अन्यथा नहीं। यह हमारे वैभव का ही प्रतीक है कि कथित ग्रेट ब्रिटेन की महारानी के मुकुट पर लगा कोहेनूर हीरा हम भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेज अंतिम सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र से धोखे से छीन कर ले गए।
गोपाल राम के नामों पर,
कब मैने अत्याचार किया।
कब दुनिया को हिन्दू करने,
घर घर में नरसंहार किया।
भू-भाग नही शत शत मानव,
के हृदय जीतने का निश्चय।
धर्म मानव को सभी तरह के बंधन से मुक्त करता है परंतु दुनिया का इतिहास बताता है कि कुछ संप्रदायों ने अपने विश्वास को ढाल बना कर दुनिया को बंधनयुक्त करने का प्रयास किया। कोई मत तलवार की धार से फैला तो कोई लालच और प्रलोभन के बल पर। दोनों ने ही मानवता पर अगणित अत्याचार किए। इन मतों की मतांधता से इतिहास के पन्ने खून से लथपथ हो गए परंतु किसी हिंदू सम्राट ने दुनिया को हिंदू करने के लिए किसी तरह का अत्याचार नहीं किया। हिंदू शासक तो विदेशों से आने वाले धर्मगुरुओं का सदैव स्वागत व उन्हें प्रोत्साहन देते रहे। भारत ने कभी नहीं चाहा कि दुनिया उसकी गुलाम हो बल्कि हिंदुत्व सिखाता है कि अपने मन को कैसे गुलाम किया जाए, कैसे जीता जाए। गुरु नानक देवजी कहते हैं - मन जीते जग जीत अर्थात जिसने मन को जीत लिया उसने दुनिया पर विजाय पा ली। हर मत व हर विश्वास का सम्मान, अपनी आस्था पर अडिगता यही हिंदुत्व का सिद्धांत है जो वाजपेयी जी के जीवन में गहराई तक उतरा हुआ था। उन्होंने निज धर्म पर राष्ट्र धर्म को अधिमान दिया। उनके दरवाजे सभी धर्मों व मतों के लिए खुले रहे। स्थान की मर्यादा को ध्यान में रख कर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसी ने हिंदुत्व का जीवंत उदाहरण देखना हो तो वह वाजपेयी जी के जीवन को देख सकता है।
-राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Tuesday, 21 August 2018

बूढ़ी कांग्रेस राहुल का मुकुट बचाने की कवायद !

अपनी 133 जयंतियां मना चुके और स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व का दावा करने वाले देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस में नया बदलाव किया गया है। वैसे तो यह बदलाव केवल समाचार के कॉलम तक ही सीमित रहने के योग्य है परंतु इसके पीछे नेहरु-गांधी परिवार में राजनीतिक असुरक्षा की बढ़ती भावना और राहुल गांधी का मुुकुट बचाने के प्रयास के चलते इसने चर्चा का विषय भी बना दिया है। कांग्रेस ने 90 वर्षीय मोतीलाल वोरा को कोषाध्यक्ष पद से हटा कर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के प्रशासनिक मामलों का महासचिव बनाया गया है और खजांची का पद अहमद पटेल को दिया गया है। इस परिवर्तन पर नई दिल्ली की 24 अकबर रोड पर स्थित कांग्रेस मुख्यालय में ही टिप्पणी करते हुए किसी ने कहा 'न्यू सीपी बट सेम एपी अर्थात नए कांग्रेस प्रधान परंतु वही अहमद पटेल'। बता दें कि मोती लाल वोरा 90 सालों के तो अहमद पटेल अपने जीवन के 69 फाग खेल चुके हैं। रोचक है कि युवा नेता राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस वयोवृद्ध सेनापतियों के भरोसे राजनीतिक मोर्चे डटी है। कांग्रेस के प्रवक्ता इसे अपने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को सम्मान देने का उदाहरण भी बता सकते हैं परंतु वास्तविकता कुछ और दिख रही है। कांग्रेस के अघोषित गृहस्वामी नेहरु-गांधी वंशावली के लोगों की इस सदाश्यता के पीछे उनकी असुरक्षा की बढ़ती भावना अधिक दिख रही है। खानदान को लगने लगा है कि तरुण कांग्रेस राहुल गांधी के सम्मुख आज नहीं तो कल चुनौती पेश कर सकती है और थके-मांदे वयोवृद्ध सिपहसालार पार्टी में युवराज के सुरक्षित नेतृत्व की लगभग शतप्रतिशत गारंटी हैं।  

कांग्रेस मुख्यालय में जो बदलाव किए गए हैं, उसमें सोनिया गांधी के वफादारों को ही अहम पद दिए गए हैं। ये दोनों ही पद कांग्रेस संगठन में बेहद महत्वपूर्ण हैं। परंपरा रही है कि अखिल भारतीय कांग्रेस समिति सचिवालय में गांधी परिवार के बाद सबसे वरिष्ठ व्यक्ति ही कोषाध्यक्ष हुआ करता है। अहमद पटेल 1985 में राजीव गांधी के बाद के सभी कांग्रेस नेताओं के करीबी रहे हैं तब उन्हें संसदीय सचिव नियुक्त किया गया था। 1991 में राजीव गांधी के निधन के बाद अहमद पटेल पार्टी में बड़े राजनीति खिलाड़ी बने रहे। पीवी नरसिम्हा राव ने अहमद पटेल को अपने और 10 जनपथ (नेहरु-गांधी आवास) के बीच सेतु की तरह प्रयोग करने की कोशिश की। इस प्रक्रिया में पटेल सोनिया के नवरत्नों में शामिल हो गए। पटेल को पार्टी  का कोषाध्यक्ष बनाया गया। वर्तमान में 69 साल के पटेल और 90 साल के वोरा दरअसल पार्टी में पीढ़ीगत बदलाव लाए जाने के तमाम तर्कों को धता बता रहे हैं। कई कांग्रेस नेता व राजनीतिक विश्लेषक ये सोच रहे थे कि अब मोती लाल वोरा को विदाई पार्टी दे दी जाएगी और उनकी जगह कनिष्क सिंह, मिलिंद देवड़ा या फिर नई पीढ़ी के किसी और नेता को बिठाया जाएगा। लेकिन पार्टी ने फिर वयोवृद्ध नेताओं पर अधिक विश्वास जताया। देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल बूढ़ी पंचायत बनती जा रही है। पार्टी की नई-नई गठित 23 सदस्यीय कांग्रेस वर्किंग कमेटी की औसत उम्र 69 साल है जिनमें अधिकतर नेता 75-80 साल के बीच के हैं। लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े 75 पार के हो चले हैं। कार्यसमिति का समूह फोटो देखा जाए तो यह वृद्धाश्रम का दृश्य पेश करता है।

दूसरी तरफ कांग्रेस से उसका सुख-चैन छीनने वाली भारतीय जनता पार्टी की टीम युवा दिखती है। अमित शाह 53 साल के हैं जबकि पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण जैसे कई नेता अपेक्षाकृत युवा उम्र में ही केंद्रीय कैबिनेट में रेल, वित्त और रक्षा जैसा अहम मंत्रालय संभाल रहे हैं। अगर भूपेंद्र यादव, कैलाश जोशी, राज्यवर्धन सिंह राठौर, स्मृति इरानी, धर्मेंद्र प्रधान, योगी आदित्यनाथ, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों और दूसरे अन्य नेताओं को एक साथ देखें, तो बीजेपी के पास ऐसे युवा नेताओं की एक बड़ी शृंखला है जिनके पास सक्रिय राजनीतिक जीवन के दो और उससे भी ज़्यादा दशक हैं। राजीव-सोनिया काल के चर्चित चेहरों पर राहुल की ऐसी निर्भरता वाकई परेशान करने वाली है क्योंकि उन्हें पार्टी के भीतर से मामूली या कहें न के बराबर कोई चुनौती देनेवाला है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास युवा नेताओं का अकाल है। जयराम रमेश, शशि थरूर, पृथ्वीराज चौहान, सलमान ख़ुर्शीद, मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, रणबीर सुरजेवाला और दूसरे अन्य नेताओं के रूप में कांग्रेस के पास अनुभवी प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है जो जिम्मेदारी वाले पदों को संभाल सकते हैं। और फिर तमाम ऐसे युवा नेता राज्यों में भी मौजूद हैं, जिन्हें चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं सौंपी जा सकती हैं, लेकिन लगता है कि गांधी परिवार अपनी इस नए नेतृत्व को राहुल के लिए चुनौती मानता है। परिवार को भय है कि नए युवा नेता अपनी योग्यता के बल पर राहुल गांधी का खानदानी सिंहासन छीन सकते हैं या जनमत के दबाव के चलते इन युवा नेताओं को मजबरीवश आगे लाना पड़ सकता है, जबकि वयोवृद्ध नेताओं को लेकर इस तरह के खतरे नहीं है। लगता है कि जब तक राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य पूरी तरह सुरक्षित न हो जाए तब तक कांग्रेस मुख्यालय वृद्धाश्रम सरीखा नजारा ही पेश करता रहेगा।

खुद कांग्रेस के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए भी यह अशुभ संकेत है कि जब किसी परिवार के एक नेता को स्थापित करने के लिए बाकी युवा नेतृत्व का यूं गला घोंटा जा रहा हो। संसद में इन युवा नेताओं के समय-समय पर दिए जाने वाले भाषण, वक्तव्य, चर्चाओं में हिस्सेदारी, संसदीय समितियों में दिखने वाली नेतृत्व क्षमता बताती है कि इनमें प्रतिभा की कोई कमी नहीं। आज कांग्रेस के साथ-साथ देश को इन प्रतिभावान युवा नेताओं की बेहद जरूरत है जो युवा भाजपा का मुकाबला कर सके और युवा भारत की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। कांग्रेस नेतृत्व को समझना चाहिए कि उसके इस व्यवहार से देश की जनता के साथ-साथ पार्टी काडर में गलत संदेश जा सकता है और इन युवा कांग्रेसी नेताओं में असंतोष भी पैदा कर सकता है जो खतराक साबित होगा।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Sunday, 19 August 2018

सिद्धू, पढ़ा फारसी बेचे तेल

क्रिकेटर से बारास्ता टीवी चैनल होते हुए राजनेता बने पंजाब के स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने पाकिस्तान जाकर ऐसी गलती करदी है जिससे यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि गुरु गुड़ थे लगता है थोहर हो गए। कोई पढ़ा लिखा विद्वान बड़ी गलती करे तो हम जैसे सामान्य लोग कहते हैं कि पढ़ा फारसी बेचे तेल, देखो ये बुद्धि का खेल। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर घोषित राष्ट्रीय शोक और अंतिम संस्कार के दिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में इस्लामाबाद पहुंचे नवजोत सिंह सिद्धू विवाद में घिर गए। इमरान खान के बुलावे पर वहां पहुंचे पंजाब के कैबिनेट मंत्री सिद्धू समारोह से पहले पाकिस्तान के जनरल कमर जावेद बाजवा से गले मिले। साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर के राष्ट्रपति के बगल में बैठे नजर आए। बात बिगडऩे के बाद अपनी गलती पर समझदारी की चाश्नी चढ़ाते हुए सिद्धू ने कहा जनरल बाजवा ने तो मुझे गले लगाकर कहा था कि हम शांति चाहते हैं। अगर हम एक कदम आगे बढ़ाएंगे तो पाक के लोग दो कदम आगे बढ़ाएंगे। लेकिन सिद्धू ने देशवासियों को क्रोधित कर दिया है। राजनीतिक तीरंदाजी तो होनी ही थी परंतु शहीदों के परिवार भी सिद्धू से रुष्ठ हो गए हैं। तरनतारन जिले के गांव वेईपूई के शहीद सूबेदार परमजीत सिंह के बड़े भाई रणजीत सिंह ने इसे गलत करार दिया। गत वर्ष 1 मई, 2017 में पुंछ जिले में पाक सेना बार्डर एक्शन टीम (बैट) परमजीत का सिर काटकर ले गई थी। इससे एक दिन पहले ही बाजवा ने पाक सीमा का दौरा किया था और माना जा रहा है यह सारी कार्रवाई जनरल बाजवा के इशारे पर ही हुई। शहीद के भाई रणजीत सिंह ने कहा कि सिद्धू ने पाक जनरल के गले लग उनकी भावनाओं से खिलवाड़ किया है। भाई के शहीद होने पर सिद्धू उनके घर आए थे। तब उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान दुश्मन देश है। हम उसके टुकड़े कर देंगे। आज ऐसा क्या हुआ जो पाक दोस्त बन गया। अगर सिद्धू बाजवा के गले मिल ही लिए तो कम से कम यही पूछ लेते कि शहीदों के कटे सिर कहां रखे हैं ? अगर दुश्मनों ने सिर नहीं संभाले तो पगडिय़ां तो रखी ही होंगी। अगर सिद्धू पाकिस्तान से उनके भाई की पगड़ी ही ले आएं तो वह खुशी-खुशी अटारी पर अपना सिर कलम कर उनके कदमों में रख देखें और अगर वह ऐसा नहीं कर पाते तो पाकिस्तान की नागरिकता लेकर वहीं रहें।

दूसरी ओर सिद्धू की इस हरकत की गूंज पूरे देश में सुनी गई। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा है कि सिद्धू आम व्यक्ति नहीं हैं। वह पंजाब के मंत्री हैं। उनका जनरल से गले मिलना सही नहीं है। हर भारतीय ने इसे गंभीरता से लिया। पार्टी के पंजाब अध्यक्ष श्वेत मलिक ने कहा है कि सिद्धू ने निजी स्वार्थों को राष्ट्रहित से ऊपर रखा है। सस्ती लोकप्रियता के लिए उनका बाजवा से गले मिलना शर्मनाक है। सिद्धू को लेकर कांग्रेस पार्टी अपने आप को असहज स्थिती में पा रही है। पंजाब के जेल मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा ने स्पष्ट किया है कि सिद्धू वहां खिलाड़ी के तौर पर गए हैं। उन्हें सरकार या कांग्रेस ने नहीं भेजा। जहां तक माफी मांगने का सवाल है तो यह सिद्धू ही देखेंगे। जम्मू-कश्मी के कांग्रेस अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर का कहना है कि भारत पाक अधिकृत कश्मीर को मान्यता नहीं देता। सिद्धू जिम्मेदार व्यक्ति और मंत्री हैं। उन्हें ऐसा करने से बचना चाहिए था। 

खिलाड़ी रहते हुए संयम से बल्लेबाजी करने वाले नवजोत सिंह सिद्धू के बारे में कहा जाता है कि वे बोलते समय अपने इस गुण का सदुपयोग नहीं करते। बोलते समय वे हर बाल पर छक्का मारने की कोशिश करते हैं, बहुत बार सफल होते हैं तो कई बार फंस भी जाते हैं। भारत में राष्ट्रीय शोक की घड़ी पर पाकिस्तान में अपने मित्र के ताजपोशी समारोह में जा कर और वहां सेनाध्यक्ष को गले लगा कर केवल वे ही कैच आऊट नहीं हुए बल्कि पूरी कांग्रेस को ही डेंजर जोन में खड़ा कर दिया दिख रहा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि देश के तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव और आम चुनाव दहलीज पर खड़े हंै। सर्जिकल स्ट्राईक के सबूत मांगने वाले संजय निरुपम, भारतीय सेनाध्यक्ष को गली का गुंडा कहने वाले सुनील दीक्षित, पाकिस्तानी परेम के लिए कुख्यात मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं के चलते कांग्रेस पार्टी पहले ही पाक को लेकर रक्षात्मक मुद्रा में रहती है और अब सिद्धू ने कांग्रेस विरोधियों को एक और हथियार उपलब्ध करवा दिया है। जिस तरह से देश के मीडिया व राजनीतिक दलों ने सिद्धू के मुद्दे को पूरी शिद्दत के साथ लपका है उससे इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धू ने अपने व पार्टी के लिए हिट विकेट जैसी स्थिती पैदा कर दी है।

वैसे पंजाब कांग्रेस में यह महसूस किया जाने लगा है कि सिद्धू अब पार्टी पर बोझ बनते जा रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह उन्हें कितना पसंद करते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। कहा जाता है कि कैप्टन तो सिद्धू को पार्टी में लेना ही नहीं चाहते थे परंतु उन्हें हाईकमान के आदेश का कड़वा घूंट पी कर सम्मान करना पड़ा। कैप्टन अब भी सिद्धू को इतना अधिमान नहीं देते जितना कि गुरु उनसे अपेक्षा रखते हैं। उनके द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले ब्यान पर पार्टी में कई बार असहज स्थिती पैदा हो चुकी है। जालंधर में कथित अवैध निर्माणों को लेकर जिस तरह से उन्होंने आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल की शैली में छापामारी की उससे कांग्रेस के विधायकों को ही उनके खिलाफ मोर्चा खोलना पड़ा।  उनके बारे में यह प्रसिद्ध होता जा रहा है कि कैबिनेट मंत्री के रूप में सिद्धू जुबानी बल्लेबाजी तो खूब करते हैं परंतु काम की पिच पर उनका प्रदर्शन  नौसिखिए बल्लेबाज जैसा ही है।

देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि पाक सेना ही भारत के साथ अच्छे संबंधों के बीच सबसे बड़ी बाधा है। पाक सेना हर दिन सीमा पर फायरिंग कर घुसपैठियों को इस ओर धकेलने का प्रयास करती है। पाकिस्तान से आयतित आतंकी जम्मू-कश्मीर में आम नागरिकों व हमारे सुरक्षा बलों का खून बहाते हैं। पाकिस्तान के साथ की जाने वाली दोस्ती के हर प्रयास को पाक सेना व वहां की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई ही असफल करती रही है। इतना होने के बावजूद कोई भारतीय नेता पाक सेनाध्यक्ष को गले लगाता है तो यह हरकत उसकी राजनीतिक आत्महत्या ही कही जा सकती है। सिद्धू दावा करते हैं कि पाक सेनापति ने भारत से दोस्ताना संबंधों की बात की है तो कौन इस पर विश्वास करेगा। आम कहावत है कि डाकिन बेटे लेती है देती नहीं अर्थात पाकिस्तानी सेना कभी नहीं चाहेगी कि उनके देश के भारत के साथ अच्छे संबंध हो। भारत का भय दिखा कर ही तो पाक सेना के अधिकारी वहां की राजनीति को नियंत्रित करते और माल बटोरते हैं। सभी जानते हैं कि जिस दिन भारत-पाक के संबंध अच्छे हो गए उस दिन पाक के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। दूसरा सिद्धू ने अपने आप को भारत का शांतिदूत बताया जो तथ्यों से परे है। किसने उन्हें शांतिदूत बना कर वहां भेजा इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं है। पाक अधिकृत कश्मीर के राष्ट्रपति की बगल में बैठ कर उन्होंने संवैधानिक रूप से गलती कर दी है। कहा जाता है कि बिन विचारे जो करे सो पाछे पछताए। अब सिद्धू ने गलती कर दी है और देखना है कि देश की जनता उन्हें व कांग्रेस पार्टी को क्या सजा देती है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Monday, 13 August 2018

विदेशियों को शूरवीरता का सबक सिखा गए ये चूडिय़ों वाले हाथ

भारतीय संस्कृति में महिला को शक्ति और प्रेरणा के रूप में पूजा और स्वीकार किया गया है। देश की स्वतंत्रता के लिए 1200 साल तक चले संग्राम में हमारी मातृशक्ति ने विदेशियों को एहसास करवा दिया कि उन्हें यूं ही शक्ति का अवतार नहीं माना गया। इस स्वतंत्रता संग्राम में महिलाएं न केवल पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ती नजर आईं बल्कि बहुत से समय पर पुरुषों की प्रेरणा भी बनी व संग्राम का नेतृत्व भी किया। कितने गौरव की बात है कि भारत पर पहला हमला करने वाला इस्लामिक अक्रांता राजा दाहिर की दो बेटियों की सूझबूझ से मारा गया। इन शूरवीर बालाओं ने न केवल अपने देश के अपमान, पिता की मौत का बदला लिया बल्कि बड़ी चालाकी से अपनी अस्मत भी बचाई।

राजा दाहिर की बेटियों का नाम था सूरजदेवी और परमाल। वे कासिम की सेना के साथ अंत तक लड़ीं परंतु दो गद्दारों के चलते उनकी सेना परास्त हुई। कासिम की सेना ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कासिम ने अपने खलीफा को खुश करने के लिए इन बेटियों के साथ अन्य दास दसियों और खूब सारा धन खलीफा सुलयमान बिन अब्द अल मलिक को भेजा। दाहिर सेन की उन बेटियों को देखते ही वो खलीफा मोहित हो गया। सूरजदेवी और परमाल ने इस बात को जान लिया और उन्होंने खलीफा के पास जाकर कहा  की कासिम ने उनके कौमार्य को पहले ही उनसे छीन लिया तब आपके पास भेजा है। खलीफा उन बातो से इतना नाराज हुआ की उसने तुरंत मोहम्मद बिन कासिम को बैल की चमड़ी में लपेटकर अरब लाने का आदेश दे दिया। और इस बैल की चमड़ी में जब उसे लपेटकर लाया जा रहा था। तभी रास्ते में उसकी मृत्यु हो गयी। कासिम की मौत के बाद उन्होंने सच्चाई  खलीफा को बताई तो खलीफा आग बबूला हो गया और दोनो युवतियों का सिर कलम करवा दिया। इस तरह सूरज और परमाल ने एक विदेशी आक्रांता को खत्म करवा दिया और अपनी इज्जत भी बचाई। इस तरह की अग्निशिखा मानी गई हैं भारत की महिला जो मर्यादा और त्याग में सीता है तो जरूरत पड़े तो रानी लक्ष्मीबाई भी बनती रही हैं।

देश के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस की गुप्तचर विभाग की नेत्री सावित्री बाई फूले को कौन भूला है। इन्हें 'सीक्रेट कांग्रेस रेडियोÓके नाम से भी जाना जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान कुछ महीनों तक कांग्रेस रेडियो काफी सक्रिय रहा था। इस रडियो के कारण ही उन्हें पुणे की यावरदा जेल में रहना पड़ा। वे महात्मा गांधी की अनुयायी थीं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मीं पंडित भी आजादी की लड़ाई में शामिल थीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल में बंद किया गया था। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली महिला मंत्री थीं। वे संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष थीं और स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत। सुचेता कृपलानी एक स्वतंत्रता सेनानी थी और उन्होंने विभाजन के दंगों के दौरान महात्मा गांधी के साथ रह कर कार्य किया था। इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उन्हें भारतीय संविधान के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के एक सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया था। आजादी के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया। इसी तरह भारतीय कोकिला के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू सिर्फ स्वएतंत्रता संग्राम सेनानी ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छी कवियत्री भी थीं। सरोजिनी नायडू ने खिलाफत आंदोलन की बागडोर संभाली और अग्रेजों को भारत से निकालने में अहम योगदान दिया। आजाद हिंद सेना की महिला सेनापति लक्ष्मी सहगल को कौन नहीं जानता। पेशे से डॉक्टर रहते हुए लक्ष्मी सहगल ने सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनका पूरा नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की अटूट अनुयायी के तौर पर वे इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हुईं थीं। उन्हें वर्ष 1998 में पद्म विभूषण से नवाजा गया था।

भारतीय महिलाओं की शक्ति व देशभक्ति की प्रतीक रानी लक्ष्मी बाई तो मानो अमर है। भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी और वह अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रेरणा कस्तूरबा गांधी के बारे गांधी जी खुद स्वीकार किया था कि उनकी दृढ़ता और साहस खुद गांधीजी से भी उन्नत थे। महात्मा गांधी की आजीवन संगिनी कस्तूीरबा की पहचान सिर्फ यह नहीं थी, आजादी की लड़ाई में उन्होंने हर कदम पर अपने पति का साथ दिया था, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का निर्णय लिया। गांधी जी ही नहीं बल्कि नेहरू जी की धर्मपत्नी भी कोई कम दृढ़व्रती न थीं। कमला नेहरू कम उम्र में ही दुल्हन बन गई थीं लेकिन समय आने पर यही शांत स्वाभाव की महिला लौह स्त्री साबित हुई, जो धरने-जुलूस में अंग्रेजों का सामना करती, भूख हड़ताल करतीं और जेल की पथरीली धरती पर सोती थी। इन्होंने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की थी।

महान स्वतंत्रता सेनानी दुर्गा बाई देशमुख महात्मा गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित थीं। शायद यही कारण था कि उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया व भारत की आजादी में एक वकील, समाजिक कार्यकर्ता, और एक राजनेता की सक्रिय भूमिका निभाई। वो लोकसभा की सदस्य होने के साथ-साथ योजना आयोग की भी सदस्य थी। अरूणा आसफ अली को भारत की आजादी के लिए लडऩे वाली एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में पहचाना जाता है। उन्होंने एक कार्यकर्ता होने के नाते नमक सत्याग्रह में भाग लिया और लोगों को अपने साथ जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। साथ ही वो 'इंडियन नेशनल कांग्रेस'की एक सक्रिय सदस्य थीं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मासिक पत्रिका 'इंकलाब' का भी संपादन किया। 

जंगे-आज़ादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज़्यादा समय तक आजाद रहा। इस बीच बेगम हजरत महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की। तकरीबन पूरा अवध उनके साथ रहा और तमाम दूसरे ताल्लुकेदारों ने भी उनका साथ दिया। बेगम हजरत महल की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आजादी के दौरान नजरबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी।

थियोसोफिकल सोसाइटी और भारतीय होम रूल आंदोलन में अपनी खास भागीदारी निभाने वाली ऐनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर, 1847 को लंदन शहर में हुआ था। 1890 में ऐनी बेसेंट हेलेना ब्लावत्सकी द्वारा स्थापित थियोसोफिकल सोसाइटी, जो हिंदू धर्म और उसके आदर्शों का प्रचार-प्रसार करती हैं, की सदस्या बन गईं। भारत आने के बाद भी ऐनी बेसेंट महिला अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। महिलाओं को वोट जैसे अधिकारों की मांग करते हुए ऐनी बेसेंट लागातार ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखती रहीं। भारत में रहते हुए ऐनी बेसेंट ने स्वराज के लिए चल रहे होम रूल आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मैडम भीकाजी कामा ने आजादी की लड़ाई में एक सक्रिय भूमिका निभाई थी। इनका नाम इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। स्वतंत्रता की लड़ाई में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वो बाद में लंदन चली गईं और उन्हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली।

दुर्गावती देवी या दुर्गा भाभी क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह के साथ इन्हीं दुर्गावती देवी ने 18 दिसम्बर, 1928 को वेश बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर दि फिलॉसफी आफ बम दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती बोहरा क्रांतिकारियों के बीच दुर्गा भाभी के नाम से मशहूर थीं। सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। तत्कालीन बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया था, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलाई थी।

लेख की शुरूआत एतिहासिक प्रसंग से की गई तो अंत भी इसी तरह के प्रेरक घटनाक्रम से करना चाहूंगा। चालीस सिख गुरु गोबिंद सिंह जी को अकेला छोड़ कर अपने घर चले गए। जब वे अपने घरों को पहुंचे तो घर की महिलाओं ने उन्हें खूब फटकार लगाई कि वे कितने कृतघ्न हैं कि संकट की घड़ी में गुरुजी का साथ छोड़ आए। इन पूजनीय महिलाओं ने पुरुषों के आत्मसम्मान को झकझोरा और कहा कि आप घर में बैठ कर बच्चों को खेलाओ हम दुश्मनों से जाकर लड़ेंगी। इन शूरवीर महिलाओं में एक थीं माता भागभरी जो इतिहास में माई भागो के नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने केवल कहा ही नहीं बल्कि खुद तलवार उठा कर गुरुजी की सेना में शामिल हों दुश्मनों के साथ लड़ी भीं। भारत का इतिहास भरा पड़ा है मातृशक्ति के इस तरह के वीररस पूर्ण प्रसंगों से। देश आज महिला सशक्तिकरण की ओर अग्रसर है तो उक्त घटनाएं प्रमाण हैं कि भारत की महिलाएं अपने आप में शक्ति का जीवंत प्रमाण हैं। आज देश स्वतंत्रता की 72 वीं वर्षगांठ मना रहा है तो हम सब नमन करते हैं अपनी इन महान माताओं-बहनों को जिन्होंने समय-समय पर हमारे देश व समाज का नेतृत्व किया और इनके बलिदानों के फलस्वरूप ही आज हम स्वतंत्रता रसास्वाद करने के योग्य हुए हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Sunday, 12 August 2018

पाक की नापाक संतान खालिस्तानी आतंकवाद

कहते हैं कि दो पैसे की हांडी फूटी और कुत्ते की जात पहचानी गई, लंदन में रविवार 12 अगस्त को हुई खालिस्तानी अलगाववादियों की रैली में जिस तरह पाकिस्तान की इंटर सर्विस इंटेलीजेंस (आईएसआई) ने आयोजक, प्रायोजक, प्रबंधक की भूमिका निभाई उससे अब यह दिन के उजाले की तरह साफ हो गया है कि पंजाब में लगभग अढ़ाई दशक तक चले आतंकवाद के पीछे हमारा खुराफाती देश पाकिस्तान ही है। वैसे यह कोई बड़ा रहस्योद्घाटन नहीं है और न ही पहला मौका जब पाकिस्तान की जाति सामने आई हो परंतु जिस तरीके से आईएसआई ने सिख्स फार जस्टिस के नेतृत्व वाली आतंकवादियों व अलगाववादियों की रैली में अपनी सारी ताकत झोंकी उससे अब खालिस्तान के नाम पर चल रहे कथित आंदोलन के पीछे की वैचारिक दरिद्रता का पटाक्षेप हो गया है। सिख समाज सहित पूरी दुनिया के लोग जान चुके हैं कि लश्कर-ए-तैयबा जैसे जिहादी संगठनों के बाद खालिस्तानी आतंकवाद पाकिस्तान की दूसरी अवैध संतान है और इसका सिख धर्म से कोई सरोकार नहीं है। हर्ष की बात है कि पाकिस्तान के कुछ वेतनभोगी सिख संगठनों व उनके नेताओं को छोड़ कर संपूर्ण सिख समाज ने इस रैली को कोई महत्त्व नहीं दिया और पंजाब में इसके खिलाफ सभी राजनीतिक दल एकजुट नजर आए।

रविवार 12 अगस्त को लंदन के ट्रैफलगर स्क्वायर में खालिस्तानी समर्थकों ने भारत विरोधी नारे लगाए और अलग देश की मांग दोहराई। पंजाब को खालिस्तान बनाने की मांग कर रहे अलगाववादी संगठन सिख्स फॉर जस्टिस (एसएफजे) ग्रुप ने रेफरेंडम 2020 के तहत रैली निकालकर लंदन घोषणापत्र का एलान किया। कहा- जब तक खालिस्तान नहीं बनेगा, लड़ते रहेंगे। रैली में यूके और अमेरिका के अलावा यूरोपीय देशों से भी कुछ खालिस्तान समर्थक पहुंचे। एसएफजे ने जो दावा किया था उतनी संख्या में लोग नहीं पहुंचे। रेफरेंडम के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ साफ हो चुका है। बताया जाता है कि ओसामा बिन लादेन जैसे दुर्दांत आतंकियों को शरण देने वाली पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई ने इस मामले की भनक मिलते ही अपनी टीम को इस मुद्दे को हवा देने के लिए लगा दिया था। इसके लिए पाकिस्तान से सक्रिय खालिस्तान समर्थक दयाल सिंह रिसर्च एंड कल्चरल फोरम को आगे किया। इसने रेफरेंडम 2020 को लेकर पाकिस्तान में सिख धार्मिक स्थलों पर आने वाले भारतीय सिखों के बीच में खालिस्तान और रेफरेंडम के समर्थन में पर्चे और साहित्य बांटना शुरू किया। आईएसआई की कोशिश रही कि भारत में भी अगर कोई सिख खालिस्तान के समर्थन में रेफरेंडम 2020 में शामिल होना चाहता है तो उसको ऑनलाइन पोर्टल पर मतदान का मौका मिल सके। कनाडा में रह रहा पाकिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर और खालिस्तानी आतंकी परमजीत सिंह पम्मा खुलकर रेफरेंडम के समर्थन में आए। इस काम के लिए पाकिस्तान सिख गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का भी सहयोग लिया गया। यह कमेटी आईएसआई के जबरदस्त प्रभाव में है और इसके अध्यक्ष गोपाल सिंह कई बार दुर्दांत अंतरराष्ट्रीय आतंकी हाफिज सईद के साथ भी सार्वजनिक तौर पर मंचों पर देखे गए हैं। अबकी बार बैसाखी पर्व पर पाकिस्तान के ननकाना साहिब आने वाली सिख संगत को रेफरेंडम 2020 को लेकर खूब भड़काया गया और जगह-जगह बैनर लगा कर भारत विरोधी विषवमन किया गया। खालिस्तानी दहशतगर्दी के लिए पाकिस्तान किस तरह कोशिश कर रहा है इसके उदाहरण उसके अधिकारियों द्वारा की जा रही करतूतें भी हैं। पाक सेना का लेफ्टिनेंट कर्नल शाहिद मोहम्मद मल्ही ही आंदोलन को बढ़ावा दे रहा है। अमेरिका, कनाडा और यूके में खालिस्तान समर्थकों को एकजुट करने में लगा है। दूसरी ओर खालिस्तानी रैली को अनुमति देने वाले लंदन के मेयर सादिक खान भी पाक मूल के हैं। वे भारत विरोधी मानसिकता से ग्रसित हैं और उन पर वहां रह रहे भारतीयों से पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। इसी तरह ब्रिटेन के ऊपरी सदन हाउस ऑफ लॉर्ड के सदस्य नजीर अहमद भारत विरोधी लॉबी के सेनापति माने जाते हैं। उनका जन्म पाक कब्जे वाले कश्मीर में हुआ है। अहमद पर यूके में यहूदी लोगों के खिलाफ भावनाएं भड़काने के आरोप भी लगते रहे हैं। अलगाववादियों की इस रैली में जो तीन प्रस्ताव पारित किए गए वह भारतीय एकता-अखण्डता को सीधी-सीधी चुनौती है। प्रस्ताव के अनुसार, पंजाब के लिए पूरी दुनिया में गैर सरकारी तौर पर जनमत संग्रह करवाने,भारत से पंजाब को अलग करवाने तक संघर्ष जारी रखने और रेफरेंडम के परिणामों के आधार पर मामला संयुक्त राष्ट्र में लेकर जाने का संकल्प लिया गया। पाकिस्तान की इस हरकत से भारत को लेकर उसका दोहरा चरित्र एक बार फिर सामने आगया है। एक तरफ पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री पद के नेता इमरान खान पड़ौसियों से संबंध सुधारने की बात कर रहे हैं तो उनके इस साक्षात्कार के कुछ दिनों बाद ही भारत विरोधी रैली को सफल करने के लिए आईएसआई ने पूरी ताकत झोंक दी।

प्रश्न पैदा होता है कि क्या है सिख्स फार जस्टिस। असल में यह पंजाब में आतंकवाद के दौरान विदेश में शरण ले चुके खालिस्तानी तत्वों, पूर्व आतंकियों, अलगाववादी नेताओं का संगठन है जो सिखों के लिए न्याय के लिए संघर्ष की आड़ में आईएसआई का खालिस्तानी एजेंडा आगे बढ़ा रहा है। यह संगठन भारत में सिखों पर अत्याचार होने, सिख पंथ खतरे में होने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अल्पसंख्यकों के लिए खतरनाक होने का दुष्प्रचार फैला कर दुनिया के सिख समुदाय में भारत विरोधी भावनाएं भरने का काम करता है। यह संगठन खालिस्तान के पक्ष में धार्मिक तर्क-कुतर्क भी देता रहा है परंतु अब यह साफ हो गया है कि इसकी कोई वैचारिक पृष्ठभूमि नहीं बल्कि यह आंदोलन विशुद्ध रूप से दुश्मन देश की चाल है। आरोप है कि पंजाब के विगत विधानसभा चुनाव के दौरान इस संगठन ने आम आदमी पार्टी को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देकर पंजाब की राजनीतिक शक्ति अपने हाथ में लेने का प्रयास किया था परंतु  आप के ओंधे मुंह गिरते ही एसजेएफ की यह योजना भी धाराशाही हो गई। अब एसजेएफ रेफरेंडम 2020 के नाम पर नया दांव अजमा रही है जिसकी कड़ी में रविवार को लंदन में रैली की गई।

हर्ष की बात है कि इस मुद्दे पर भारत में राजनीतिक एकजुटता देखने को मिल रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इन्हें महत्त्व न देने की बात कह चुके हैं तो अकाली दल बादल के अध्यक्ष स. सुखबीर सिंह बादल ने राज्य के युवाओं को सावधान रहने को कहा है। अकाली दल के राज्यसभा सांसद नरेश गुजराल ने कहा-विदेश में रहने वाले बहुत थोड़े से सिख खालिस्तान की मांग कर रहे हैं। भारत में कोई भी इसके समर्थन में नहीं है। वहीं ऑल इंडिया एंटी टेरेरिस्ट फ्रंट के चेयरमैन एमएस बिट्टा ने कहा कि खालिस्तान न कभी बना था और न कभी बनने देंगे। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव श्री तरुण चुघ एसजेएफ को आतंकियों का गुट बता चुके हैं। पंजाब के किसी भी सिख धार्मिक, सामाजिक संगठन, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने रेफरेंडम 20202 में किसी तरह की रुचि नहीं दिखाई है। जम्मू-कश्मीर में मुंह की खाने के बाद पाकिस्तान पंजाब में जो खेल खेलने जा रहा है वह भारतीयों को अच्छी तरह समझ आने लगा है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Saturday, 11 August 2018

ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਦੇ ਜਖ਼ਮ ਸਰੀਖੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ


ਮਹਾਭਾਰਤ ਦੇ ਯੁੱਧ ਦੇ ਆਖਰੀ ਦੌਰ 'ਚ ਬ੍ਰਹਮਸਤਰ ਰਾਹੀਂ ਅਭਿਮਨਿਊ ਦੀ ਪਤਨੀ ਉÎੱਤਰਾ ਦੇ ਗਰਭ ਵਿਚ ਸ਼ਿਸ਼ੂ ਦੀ ਹੱਤਿਆ ਦੀ ਸਜਾ ਵੱਜੋਂ ਭਗਵਾਨ ਸ਼੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਨੇ ਕੌਰਵ ਸੈਨਾ ਦੇ ਯੋਧਾ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਦੇ ਮੱਥੇ ਤੇ ਲੱਗੀ ਮਣੀ ਖੋਹ ਲਈ ਅਤੇ ਉਸਨੂੰ ਤੜਫਤੇ ਹੋਏ ਛੱਡ ਦਿੱਤਾ ਉਸਦੇ ਰਿਸਦੇ ਜਖ਼ਮਾਂ ਦੇ ਨਾਲ। ਅਮਰਤਾ ਦਾ ਵਰਦਾਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਦੇ ਜਖ਼ਮ ਵੀ ਅਮਰ ਹੋ ਗਏ। ਅੱਜ ਵੀ ਕੁਝ ਲੋਕ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਨੂੰ ਦੇਖਨ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਕਰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਦਸਦੇ ਹਨ ਕਿ ਉਸਦੇ ਜਖ਼ਮ ਅਜੇ ਵੀ ਰਿਸ ਰਹੇ ਹਨ। 15 ਅਗਸਤ, 1947 ਨੂੰ ਜਦੋਂ ਭਾਰਤ ਅਜ਼ਾਦ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦੀ ਭਿਅੰਕਰ ਪੀੜਾ ਲੈ ਕੇ ਆਈ। ਯੁਗਾਂ ਪੁਰਾਣਾ ਅਤੇ ਨਿਤਨਵੀਨ ਕਿਹਾ ਜਾਣ ਵਾਲਾ ਭਾਰਤ ਦੋ ਹਿੱਸਿਆਂ ਵਿਚ ਵੰਡਿਆ ਗਿਆ। ਦੇਸ਼ ਦਾ ਵਿਭਾਜਨ ਆਮ ਭਾਰਤੀਆਂ ਲਈ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਦੇ ਉਸ ਘਾਵ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੈ ਜੋ ਪੀੜਤ ਨੂੰ ਕਦੇ ਚੈਨ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਬਹਿਣ ਦਿੰਦਾ। ਸਵਾਲ ਹੈ ਕਿ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਨੂੰ ਤਾਂ ਆਪਣੇ ਕੀਤੇ ਦੀ ਸਜ਼ਾ ਮਿਲੀ ਪਰੰਤੂ ਸਾਨੂੰ ਕਿਸ ਅਪਰਾਧ ਦੇ ਚਲਦਿਆਂ ਦ੍ਰੋਣਪੁੱਤਰ ਦੀ ਪੀੜਾ ਵਿਚੋਂ ਗੁਜਰਨਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ ? ਅਖਿਰ ਇਸ ਦਰਦ ਦੀ ਦਵਾ ਕੀ ਹੈ ?

ਹਿਮਾਲਿਆ ਜਿਹੀ ਗਲਤੀ ਸੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦਾ ਫੈਸਲਾ। ਮੌਜੂਦਾ ਸਮੇਂ ਅੰਦਰ ਪਾਕ ਵੱਲੋਂ ਕੀਤੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਹਰ ਅੱਤਵਾਦੀ ਘਟਨਾ ਤੋਂ ਬਾਦ ਇਹ ਸਵਾਲ ਪੁੱਛਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਬਿਗੜੈਲ ਪੜੋਸੀ ਦਾ ਸਥਾਈ ਇਲਾਜ ਕੀ ਹੈ? ਇਹ ਚਾਹੇ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਸੁਨਣ 'ਚ ਭੈੜਾ ਲੱਗੇ ਜਾਂ ਕੋਈ ਇਸ ਨਾਲ ਅਸਹਿਮਤ ਹੋਵੇ ਪਰੰਤੂ ਸੱਚਾਈ ਅਤੇ ਅੱਜ ਤਕ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਇਹ ਹੀ ਹੈ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਨਾਂ ਦੀ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਕੋਈ ਇਲਾਜ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਕਾਰਨ ਹੈ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਦੀ ਅੰਮਾ ਕਹੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਉਹ ਹਿੰਦੂ ਵਿਰੋਧੀ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਜਿਸਦੇ ਚਲਦਿਆਂ ਪਾਕ ਜਿਹੋ-ਜਿਹੀ ਨਾਪਾਕ ਸੰਤਾਨ ਪੈਦਾ ਹੋਈ। ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦੌਰਾਨ ਰਾਸ਼ਟਰੀ ਸ੍ਵਯੰਸੇਵਕ ਸੰਘ, ਹਿੰਦੂ ਮਹਾਸਭਾ, ਆਰਿਆ ਸਮਾਜ, ਸਨਾਤਨ ਧਰਮ ਸਭਾ, ਅਕਾਲੀ ਦਲ ਸਮੇਤ ਹਰ ਰਾਸ਼ਟਰਵਾਦੀ ਜੱਥੇਬੰਦੀਆਂ ਅਤੇ ਨੇਤਾਵਾਂ ਨੇ ਚੇਤਾਇਆ ਸੀ ਕਿ ਕਾਂਗਰੇਸ ਜਿਸ ਵੰਡ ਨੂੰ ਸੈਟਲਡ ਫੈਕਟ ਦਸ ਰਹੀ ਹੈ ਉਹ ਸਥਾਈ ਸਮੱਸਿਆ ਬਨਣ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੇਤਾਵਾਂ ਨੂੰ ਕੁਰਸੀ ਦੀ ਭੁੱਖ ਨਹੀਂ ਸੀ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਸੱਤਾ ਦੀ ਜਲਦਬਾਜੀ ਬਲਕਿ ਇਹ ਲੋਕ ਤਾਂ ਇਤਿਹਾਸ ਤੋਂ ਸਬਕ ਲੈ ਕੇ ਵੰਡ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ ਕਿ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੀ ਮੰਗ ਪਿੱਛੇ ਕੋਈ ਤਰਕ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਅੰਧ ਹਿੰਦੂਵਿਰੋਧ ਅਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੂੰ ਦਿਖਾਇਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਕਾਲਪਨਿਕ ਡਰ ਹੈ। ਇਹ ਰਾਸ਼ਟਰਵਾਦੀ ਲੋਕ ਜਾਣਦੇ ਸਨ ਕਿ ਚਾਹੇ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਉਸ ਵੇਲੇ ਭੀ ਭਿਅੰਕਰ ਪੱਧਰ ਤੇ ਹਿੰਦੂ ਵਿਰੋਧੀ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਅਤੇ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਦੀ ਮੌਜੂਦਗੀ ਹੈ,ਪਰੰਤੂ ਉਹ ਬਿਖਰੀ ਅਤੇ ਅਸੰਗਠਿਤ ਹੈ। ਜੇਕਰ ਇਸ ਕੁੰਠਿਤ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਨੂੰ ਵੱਖਰਾ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਇਸਨੂੰ ਇਕਜੁੱਟ ਹੋਣ ਦਾ ਮੰਚ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗਾ ਅਤੇ ਕਾਨੂੰਨੀ ਮਾਨਤਾ ਵੀ। ਪਿਛਲੇ 71 ਸਾਲਾਂ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ ਗਵਾਹ ਹੈ ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਰਾਸ਼ਟਵਾਦੀ ਨੇਤਾਵਾਂ ਦੀ ਚਿਤਾਵਨੀ ਸੱਚ ਸਾਬਿਤ ਹੋਈ ਹੈ। ਅੱਜ ਹਿੰਦੂ ਵਿਰੋਧੀ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਦੇ ਹੱਥ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਨਾਂ ਦਾ ਦੇਸ਼, ਵਿਧਾਨਿਕ ਪ੍ਰਭੂਸੱਤਾ, ਸੰਗਠਿਤ ਸਰਕਾਰ, ਸਸ਼ਕਤ ਸੈਨਾ-ਪੁਲਿਸ, ਸੰਵਿਧਾਨ, ਸੰਗਠਿਤ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ, ਪਰਮਾਣੂ ਹਥਿਆਰ, ਸੰਯੁਕਤ ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੀ ਮੈਂਬਰਸ਼ਿਪ ਅਤੇ ਵੈਸ਼ਵਿਕ ਮਾਨਤਾ ਨਾਂ ਦੇ ਕਾਨੂੰਨੀ ਹਥਿਆਰ ਆ ਚੁਕੇ ਹਨ। ਇੰਨੀ ਸ਼ਕਤੀ ਹੋਣ ਦੇ ਬਾਦ ਹਿੰਦੂ ਵਿਰੋਧੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਸ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਚੈਨ ਨਾਲ ਬੈਠਣ ਦੇ ਸਕਦੀ ਹੈ ਜਿਸਦੀ 80 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਜਨਸੰਖਿਆ ਹਿੰਦੂ ਸਮਾਜ ਹੀ ਹੈ। ਇਹ ਹੀ ਕਾਰਣ ਹੈ ਕਿ ਚਾਰ-ਚਾਰ ਲੜਾਈਆਂ ਵਿਚ ਮੂੰਹ ਦੀ ਖਾਉਣ, 95 ਹਜ਼ਾਰ ਫੌਜੀਆਂ ਦੇ ਸ਼ਰਮਨਾਕ ਆਤਮ ਸਮਪਰਣ, ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਿਭਾਜਨ, ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਅੰਦਰ ਅਲਗ ਥਲਗ ਪੈਣ ਅਤੇ ਬਰਬਾਦੀ ਦੇ ਕੰਡੇ ਪਹੁੰਚਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਅੱਜ ਵੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਡਾਂਵਾਡੋਲ ਕਰਨ ਅਤੇ ਪਰੇਸ਼ਾਨ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਈ ਵੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਤੋਂ ਗੁਰੇਜ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਜੰਮੂ-ਕਸ਼ਮੀਰ ਅਤੇ ਪੰਜਾਬ ਦਾ ਅੱਤਵਾਦ ਅਤੇ ਸਮੇਂ-ਸਮੇਂ ਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਹਿੱਸਿਆਂ 'ਚ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਦਹਿਸ਼ਤਗਰਦੀ ਦੇ ਕਾਰਨਾਮੇ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਪ੍ਰਮਾਣ ਹਨ ਕਿ ਹਿੰਦੂ ਵਿਰੋਧੀ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਨਿਰੰਤਰ ਕ੍ਰਿਆਸ਼ੀਲ ਹੈ, ਇਸ ਅੰਦਰ ਤੇਜੀ ਜਾਂ ਮੰਦੀ ਜ਼ਰੂਰ ਆਉਂਦੀ ਹੈ ਪਰੰਤੂ ਇਹ ਚਲਦੀ ਜ਼ਰੂਰ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ। 

ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਵੇਲੇ ਰਾਸ਼ਟਰੀ ਸ੍ਵਯੰਸੇਵਕ ਸੰਘ ਦੇ ਉਸ ਵੇਲੇ ਦੇ ਸਰਸੰਘਚਾਲਕ ਮਾਧਵ ਸਦਾਸ਼ਿਵ ਗੋਲਵਲਕਰ ਸ਼੍ਰੀ ਗੁਰੂਜੀ ਨੇ ਕਾਂਗਰੇਸੀ ਨੇਤਾਵਾਂ ਨੂੰ ਆਗਾਹ ਕੀਤਾ ਸੀ ਕਿ ਉਹ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਦੀ ਪ੍ਰਤਿਅਕਸ਼ ਕਾਰਵਾਈ (ਡਾਇਰੈਕਟ ਐਕਸ਼ਨ) ਤੋਂ ਭੈਭੀਤ ਨਾ ਹੋਵੇ, ਸਮਾਜ ਇਸ ਝਟਕੇ ਨੂੰ ਸਹਿਣ ਕਰ ਲਵੇਗਾ ਅਤੇ ਹਲਾਤ ਸੰਭਾਲ ਲਵੇਗਾ ਪਰੰਤੂ ਜੇਕਰ ਧਰਮ ਦੇ ਅਧਾਰ ਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਇਹ ਭਿਅੰਕਰ ਭੁੱਲ ਹੋਵੇਗੀ। ਇਤਿਹਾਸ ਗਵਾਹ ਹੈ ਕਿ ਕਾਂਗਰੇਸ ਪਾਰਟੀ ਦੀ ਕਮਜੋਰ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਨਹੀਂ ਮੰਨੀ ਅਤੇ ਹਿੰਦੂ ਵਿਰੋਧੀ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਨੂੰ ਥਾਲੀ ਵਿਚ ਪਰੋਸ ਦੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਨਾਂ ਦਾ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੂੰ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਜਿਹੋ-ਜਿਹੀ ਮਹਾਪੀੜਾ, ਜਿਸਨੂੰ ਅੱਜ ਤਕ ਅਸੀਂ ਸਹਿ ਰਹੇ ਹਾਂ। ਅਸਲ ਵਿਚ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਕੋਈ ਦੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਸਦੀਆਂ ਤੋਂ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਆਰਹੇ ਲੁਟੇਰੇ ਧਾੜਵੀਆਂ ਅਤੇ ਹਮਲਾਵਰਾਂ ਦਾ ਵਿਜੇਸਤੰਭ ਹੈ। ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੇ ਸੰਸਥਾਪਕ ਮੁਹੰਮਦ ਅਲੀ ਜਿੰਨ੍ਹਾ ਆਖਦੇ ਸਨ ਕਿ- ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੀ ਨੀਂਹ ਉਸ ਵੇਲੇ ਹੀ ਪੈ ਗਈ ਸੀ ਜਦੋਂ ਮੁਹੰਮਦ ਬਿਨ ਕਾਸਿਮ (ਪਹਿਲੇ ਮੁਸਲਿਮ ਹਮਲਾਵਰ) ਨੇ ਭਾਰਤ 'ਚ ਆ ਕੇ ਪਹਿਲੇ ਕਿਸੇ ਹਿੰਦੂ ਨੂੰ ਮੁਸਲਮਾਨ ਬਣਾਇਆ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਧਾੜਵੀਆਂ ਨੇ ਇਸ ਵਿਜੇਸਤੰਭ ਦੀ ਨੀਂਹ ਰਖੀ ਅਤੇ ਕਾਂਗਰੇਸ ਦੀ ਕਮਜੋਰ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਇਸਦੀ ਘੁੰਡਚੁਕਾਈ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਕਾਂਗਰੇਸ ਨੂੰ ਕੋਈ ਅਧਿਕਾਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਉਹ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦਾ ਫੈਸਲਾ ਲਵੇ। ਉਸਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਸਿੰਧ ਦੇ ਰਾਜਾ ਦਾਹਿਰ, ਦਿੱਲੀ ਸਮ੍ਰਾਟ ਪ੍ਰਿਥਵੀਰਾਜ ਚੌਹਾਨ, ਮਹਾਰਾਣਾ ਪ੍ਰਤਾਪ, ਖਾਲਸਾ ਪੰਥ ਦੇ ਸੰਸਥਾਪਕ ਸ਼੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ, ਛੱਤਰਪਤੀ ਸ਼ਿਵਾਜੀ, ਬਾਜੀਰਾਓ ਪੇਸ਼ਵਾ ਜਿਹੋ-ਜਿਹੇ ਮਹਾਨ ਯੋਧਾਵਾਂ ਅਤੇ ਕਰੋੜਾਂ ਸ਼ਹੀਦਾਂ ਵੱਲੋਂ 1200 ਸਾਲ ਤੋਂ ਲੜੇ ਜਾ ਰਹੇ ਅਜਾਦੀ ਸੰਗ੍ਰਾਮ ਦੀ ਬਾਗਡੋਰ ਦਾ ਆਖਿਰੀ ਛੋਰ ਸੀ। ਸਾਲ 1945 ਵਿਚ ਦੂਸਰਾ ਵਿਸ਼ਵ ਯੁੱਧ ਖਤਮ ਹੋਣ ਤੋਂ ਬਾਦ ਅੰਗਰੇਜਾਂ ਨੇ ਇਹ ਘੋਸ਼ਣਾ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਕਿ ਜੂਨ 1948 ਤਕ ਉਹ ਭਾਰਤ ਛੱਡ ਕੇ ਚਲੇ ਜਾਣਗੇ, ਤਾਂ ਕੁਝ ਮਹੀਨਿਆਂ ਲਈ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਜਲਦਬਾਜੀ ਦੀ ਕੀ ਲੋੜ ਸੀ ਅਤੇ ਉਹ ਵੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦੀ ਕੀਮਤ ਤੇ। ਅਜਾਦੀ ਨੂੰ ਕੁਝ ਮਹੀਨੇ ਹੋਰ ਟਾਲ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਤਾਂ ਸੰਭਵ ਹੈ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਹੋਣੀ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਕੀ ਕਾਂਗਰੇਸ ਦੇ ਨੇਤਾ ਸੱਤਾ ਦੀ ਮਲਾਈ ਲਈ ਇੰਨੇ ਉਤਾਵਲੇ ਸਨ ਕਿ ਉਹ ਕੁਝ ਉੜੀਕ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕੇ ਅਤੇ ਜਲਦਬਾਜੀ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਅਖੰਡਤਾ ਦੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਲੰਗੜੀ-ਲੂਲੀ ਅਜਾਦੀ ਲਈ ਰਾਜੀ ਹੋ ਗਏ। ਕੁਝ ਕਾਂਗਰੇਸੀ ਭਰਾ ਆਖਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜੇਕਰ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਨਾ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਤਾਂ ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਦੇ ਡਾਇਰੇਕਟ ਐਕਸ਼ਨ ਦੌਰਾਨ ਗ੍ਰਹਿਯੁੱਧ ਛਿੜ ਜਾਣਾ ਸੀ, ਜਿਸ ਵਿਚ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕ ਮਾਰੇ ਜਾਂਦੇ। ਸਵਾਲ ਹੈ ਕਿ ਕੀ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਦੌਰਾਨ ਲੱਖਾਂ ਬੇਕਸੂਰ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਜਾਨਾਂ ਨਹੀਂ ਗਈਆਂ, ਕਰੋੜਾਂ ਲੋਕ ਆਪਣੀ ਮਾਤਭੂਮੀ ਤੇਂ ਵੱਖ ਹੋਣ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਨਹੀਂ ਹੋਏ? ਮੁਸਲਿਮ ਲੀਗ ਦੇ ਡਾਇਰੇਕਟ ਐਕਸ਼ਨ ਤੋਂ ਸਮਾਜ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਅਸਾਨੀ ਨਾਲ ਨਜਿੱਠ ਸਕਦੇ ਸਨ, ਇਸ ਤੋਂ ਡਰ ਕੇ ਵੰਡ ਨੂੰ ਸਵੀਕਾਰ ਕਰਨਾ ਮਹਾਗਲਤੀ ਸੀ। ਪਰੰਤੂ ਅਫਸੋਸ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਸਭਕੁਝ ਨਾ ਹੋ ਸਕਿਆ, ਦੇਸ਼ ਵੰਡਿਆ ਗਿਆ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਦੇ ਗਿਆ ਅਸ਼ਵਥਾਮਾ ਦੇ ਜਖ਼ਮਾ ਜਿਹੋ-ਜਿਹੀ ਪੀੜ।

ਲੇਖ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਵਿਚ ਪੁੱਛਿਆ ਗਿਆ ਸੀ ਕਿ ਇਸ ਦਰਦ ਦੀ ਦਵਾ ਕੀ ਹੈ? ਜਵਾਬ ਹੈ ਕਿ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵਿਨਾਸ਼ ਦਾ ਜਵਾਬ ਹੈ ਨਿਰਮਾਣ ਉਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵੰਡ ਦਾ ਜਵਾਬ ਹੈ ਏਕੀਕਰਨ। ਜਿਸ ਦਿਨ ਭਾਰਤ-ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦੀ ਗੈਰ-ਕੁਦਰਤੀ ਵੰਡ ਖਤਮ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ ਉਸ ਦਿਨ ਭਾਰਤ ਰੂਪੀ ਘਾਇਲ ਅਸਵਥਾਮਾ ਨੂੰ ਦਵਾਈ ਵੀ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗੀ। ਦੇਸ਼ ਦੀ ਕਿਹੜੀ ਨਸਲ ਇਸ ਬੀਮਾਰੀ ਲਈ ਵੈਦ ਬਣੇਗੀ ਇਸ ਲਈ ਅਜੇ ਕੁਝ ਉੜੀਕ ਕਰਨੀ ਪਵੇਗੀ।

- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ
32, ਖੰਡਾਲਾ ਫਾਰਮਿੰਗ ਕਾਲੋਨੀ,
ਵੀਪੀਓ ਰੰਧਾਵਾ ਮਸੰਦਾ,
ਜਲੰਧਰ।

Friday, 10 August 2018

अश्वत्थामा के घाव सरीखा देश विभाजन

महाभारत युद्ध के अंतिम दौर में ब्रह्मास्त्र से अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की हत्या के दंड में भगवान श्रीकृष्ण ने कौरव सेना के योद्धा अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि छीन ली और छोड़ दिया उसे उसके घावों के साथ। अमरता का वरदान पाने वाले अश्वत्थामा के लिए उसका घाव भी अमर हो गया। आज भी कुछ लोग अश्वत्थामा को देखने का दावा करते हैं और बताते हैं कि वह जख्म उसी दिन की भांति रिस रहा है। 15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ तो यह स्वतंत्रता अपने साथ विभाजन की पीड़ा लेकर भी लेकर आई। युगोंयुग प्राचीन और नित्य नवीन कहे जाने वाला राष्ट्र भारत दो भागों में बंट गया। देश का विभाजन असहनीय और अश्वत्थामा के उस घाव की तरह है जो घायल को कभी चैन से बैठने नहीं देता। प्रश्न है कि अश्वथामा को तो उसके दुष्कर्म की सजा मिली परंतु हमें किस अपराध के चलते द्रोणपुत्र की पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है? आखिर क्या है इस दर्द की दवा ?

हिमालय सी गलती था देश को विभाजित करने का निर्णय। वर्तमान में पाकिस्तान द्वारा भारत में की जाने वाली हर आतंकी गतिविधि के उपरांत पूछा जाता है कि क्या है समस्या का स्थाई हल? यह सुनना चाहे किसी को अप्रिय लगे कोई इससे असहमत हो परंतु यह सच्चाई और अब तक का अनुभव भी है कि पाकिस्तानी समस्या का कोई स्थाई हल नहीं है। कारण है मुस्लिम लीग की अम्मा कहे जाने वाली वह हिंदू विरोधी मानसिकता जिसके चलते पाक जैसी नापाक संतान का जन्म हुआ। विभाजन के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा, आर्य समाज, सनातन धर्म सभा, अनेक राष्ट्रनिष्ठ संगठनों, इनके नेताओं सहित संत-महात्माओं ने चेताया था कि कांग्रेस जिस बंटवारे को सैटल्ड फैक्ट बता रही है वह स्थाई समस्या बनने जा रहा है। इन संगठनों के नेताओं को कुर्सी की भूख न थी और न ही सत्ता की जल्दबाजी बल्कि ये इतिहास से सीख ले कर चेता रहे थे कि पाकिस्तान की मांग केवल अंधहिंदू विरोध के चलते की जा रही है। इस मांग के पीछे कोई तर्कसंगत तथ्य नहीं थे बल्कि अल्पसंख्यक मुसलमानों को हिंदुओं को दिखाया जा रहा केवल काल्पनिक भय था। राष्ट्रवादी नेता जानते थे कि देश में हिंदू विरोधी मानसिकता तो है परंतु अभी वह बिखरी व असंगठित है। अगर इसी मानसिकता को एक राष्ट्र दे दिया जाता है तो उसे न केवल संगठित होने का अवसर प्राप्त होगा बल्कि वैधानिक दर्जा भी मिल जाएगा। पिछले 71 सालों का इतिहास साक्षी है कि यह चेतावनी सत्य साबित हुई। आज उस हिंदू विरोधी मानसिकता के पास पाकिस्तान नामक देश, राष्ट्रीय संप्रभूता, शक्तिशाली सरकार, अपना संविधान, संगठित प्रशासन, सशस्त्र सेना-पुलिस, परमाणु हथियार, संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता व वैश्विक मान्यता है। इतनी शक्तियां होने के बाद हिंदू विरोधी विचारधारा किस प्रकार से उस राष्ट्र को चैन से बैठने दे सकती है जिसमें 80 प्रतिशत जनसंख्या हिंदुओं की हो। यही कारण है कि चार-चार युद्धों में मुंह की खाने, बंगलादेश के रूप में विभाजन करवाने, 95 हजार सैनिकों के आत्मसमर्पण करने, पूरी दुनिया में अलग थलग पडऩे, बर्बादी के कगार पर पहुंचने के बावजूद आज भी पाकिस्तान का पूरा प्रयास रहता है कि किस तरह से हिंदुस्तान को परेशान किया जाए। जम्मू-कश्मीर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर होने वाली आतंकी गतिविधियां इसका प्रमाण है कि हिंदू विरोधी मानसिकता निरंतर क्रियाशील है, इसमें कमी या तेजी आती रहती है परंतु स्वतंत्रता के बाद इसका क्रम निरंतर जारी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी ने कांग्रेस को आगाह किया था कि वह मुस्लिम लीग की प्रत्यक्ष कार्यवाही से भयाक्रांत न हो, समाज इस झटके को सहन कर लेगा परंतु देश का विभाजन हो गया तो वह भयंकर भूल होगी। इतिहास साक्षी है कि कांग्रेस का कमजोर नेतृृत्व नहीं माना, हिंदू विरोधी मानसिकता को थाली में परोस कर दे दिया पाकिस्तान और भारतीयों को अश्वथामा जैसी मर्मांतक पीड़ा जिसे आज हम सहन कर रहे हैं।

वास्तव में पाकिस्तान कोई राष्ट्र न हो कर भारत में सदियों से आरहे लुटेरे हमलावरों का विजय स्तंभ है। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्नाह कहा करते थे कि - पाकिस्तान की नींव उसी दिन पड़ गई थी जब मोहम्मद बिन कासिम (पहले मुस्लिम हमलावर) ने भारत में आकर किसी पहले हिंदू को मुसलमान बनाया। आक्रांताओं ने इस विजयस्तंभ की नींव रखी और दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस  के कमजोर नेतृत्व ने इसका शिलान्यास किया। कांग्रेस को किसी तरह का अधिकार नहीं था कि वह देश का विभाजन करे। उसके हाथ में सिंध के राजा दाहिर, दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, खालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोबिंद सिंह जी सहित समस्त गुरुओं, छत्रपति शिवाजी, बाजीराव पेशवा जैसे असंख्य योद्धाओं, करोड़ों बलिदानियों के नेतृत्व में पिछले 1200 सालों से लड़े जा रहे स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर थी। साल 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद स्वयं अंग्रेजों ने समय सीमा तय कर दी थी कि वे जून 1948 तक भारत को छोड़ कर चले जाएंगे तो ऐसे में देश की अखण्डता की कीमत पर लंगड़ी आजादी प्राप्त करने की क्या जरूरत थी? स्वतंत्रता को कुछ महीने टाल दिया जाता तो स्वभाविक है कि देश का विभाजन होना ही नहीं था। क्या कांग्रेसी नेता सत्ता की मिलाई के लिए कुछ महीनों की प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे? कई कांग्रेसी बंधू यह कहते नहीं अघाते कि मुस्लिम लीग द्वारा प्रत्यक्ष कार्रवाई के रूप में छेड़ा जाने वाला गृहयुद्ध टालने के लिए बंटवारे की शर्त को माना गया तो क्या वह जवाब देंगे कि आशंकित गृहयुद्ध से अधिक लोग तो विभाजन के बाद इधर-उधर आते जाते लोग मारे गए। क्या प्रत्यक्ष कार्रवाई में इतने लोग मारे जाते? संभवत: नहीं क्योंकि हर समाज में स्वत: संतुलन की क्षमता होती है और अंग्रेज सरकार न भी चाहे तो भी समाज खुद इन दंगाईयों से निपट लेता। पर हाय! ऐसा कुछ नहीं हो पाया और देश बंट गया और दे गया अश्वथामा सरीखा दर्द। प्रारंभ में पूछा गया था कि आखिर इस दर्द की दवा क्या है? तो इसका उत्तर है जैसे विध्वंस का जवाब है निर्माण उसी तरह विभाजन का उत्तर है एकीकरण। जिस दिन भारत का अप्राकृतिक विभाजन समाप्त हो जाएगा तो हमें विभाजन रूपी अश्वत्थामा के जख्मों की मलहम भी मिल जाएगी। देश की कौन सी पीढ़ी इस महारोग की चिकित्सक बनेगी फिलहाल इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Friday, 3 August 2018

अवैध घुसपैठियों पर 'अली और कुलीवादी' दौर में कांग्रेस

स्वतंत्रता प्राप्ति के कई दशकों तक देश के पूर्वोत्तर हिस्सों में कांगे्रस का ही शासन रहा और इस दौरान पार्टी में एक कहावत मशहूर थी कि जब तक 'अली और कुली' का आशीर्वाद है उनकी सरकारें यूं ही चलती रहेंगी। अली और कुली का अर्थ पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंगलादेश) से आरहे वे अवैध घुसपैठिए थे जिनका राजनीतिक हितों के लिए खूब भरण पोषण किया गया। वर्तमान में असम में जारी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर विपक्ष द्वारा मचाया जा रहा होहल्ला उसी मानसिकता का परिचायक और घुसपैठियों को संरक्षण देने वाला दिखाई दे रहा है। देश में अली और कुली के सिद्धांत को किस कदर प्रोत्साहन दिया गया इसका उदाहरण कांग्रेस के स्वर्णकाल नेहरू युग में ही मिल गया। चाहे उस समय पूर्वी पाकिस्तान से आए घुसपैठियों को खूब पाला पोसा जा रहा था परंतु राष्ट्रीय हितों की चिंता करने वाले भी कम नहीं थे। साठ के दशक में असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीपी. चलिहा ने इसको लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू को चेताया और उन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ इनफिल्टरेशन फ्रॉम पाकिस्तान एक्ट-1964, कानून लाने की घोषणा की। इस पर असम सरकार में ही कांग्रेस पार्टी के 20 मुस्लिम विधायकों ने सरकार से बाहर जाने की धमकी दे डाली और कानून को वापस लेने का दबाव बनाया। नेहरू जी ने भी चलिहा को संयम बरतने और कोई विवाद पैदा न करने की नसीहत दे डाली। इस दबाव में आकर चलिहा ने प्रस्तावित विधेयक को ठंडे वस्ते में डाल दिया। इस विधेयक में इतने कड़े प्रावधान थे कि अगर लागू हो जाता तो उस समय ही भारत-पाक सीमा पर तारबंदी हो जाती और घुसपैठियों पर सख्ती से रोक लगती। स्वभाविक है कि करोड़ों की संख्या में जो बंगलादेशी आज भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं यह समस्या आज हमारे सामने नहीं होनी थी। न ही भारत को पाकिस्तान के साथ 1971 का युद्ध लडऩा पड़ता लेकिन नेहरू जी की कश्मीर की भूल वाली नीति यहां पूर्वोत्तर में भी दोहराई गई। रोचक बात है कि इस एतिहासिक महागलती की आज चर्चा तक नहीं है।

दुखद बात है कि कांग्रेस पार्टी ने नेहरू की गलती की परंपरा में सुधार करने की बजाय इसको जारी रखा। जब 10 अप्रैल, 1992 को तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने राज्य में 30 लाख अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम के मौजूद होने की बात कही तो अब्दुल मुहिब मजुमदार नाम के कांग्रेसी नेता के नेतृत्व में 'मुस्लिम फोरम' ने मुख्यमंत्री सैकिया को पांच मिनट के भीतर सरकार गिरा देने की धमकी दी। इस धमकी से कांग्रेस पार्टी फिर भयभीत हो गई और मामले को रफादफा कर दिया गया। 'असम समझौता' राजीव गांधी सरकार के लिए ऐतिहासिक मौका था। इसके बावजूद बांग्लादेश से गैर कानूनी घुसपैठ रोकने के मसले पर कोई समाधान नहीं निकाल जा सका। इंदिरा गांधी संसद के माध्यम से आईएमडीटी एक्ट के तहत विदेशी पहचान के संदिग्ध व्यक्ति को ट्रिब्यूनल के सामने पेश करने का प्रावधान लेकर आई थीं, लेकिन वह भी व्यावहारिक नहीं बन पाया। आश्चर्यजनक रूप से 1971 को निर्धारक वर्ष मानकर 1951 से 1971 के बीच बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) से अवैध घुसपैठ कर आए लोगों को भारत का नागरिक मान लिया गया।

वोट बैंक की राजनीति के कारण ही बांग्लादेशी घुसपैठ का आज तक समाधान नहीं हो पाया है। विभिन्न माध्यमों से दिखाए जा रहे आंकड़ों से स्पष्ट है कि कैसे भारतीय धर्मावलंबी निचले असम से पलायन करने को मजबूर हैं। यह स्थिति राज्य के अन्य हिस्सों में भी जारी है। यहां तक कि बांग्लादेश सीमा से सटा भारत का पूर्वी हिस्सा 46 प्रतिशत मुस्लिम बाहुल्य वाला हो चुका है। मीडिया व सरकार द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले जानसांख्यिक आंकड़े इस भयावहता के परिचायक हैं। बांग्लादेशियों की घुसपैठ से स्थानीय निवासियों में भारी बेचैनी देखने को मिलती रही है जिसके चलते नेल्ली जैसे भीषण दंगे हुए जिसमें हजारों लोगों की जानें गईं। असम के सांस्कृतिककर्मी व गायक भूपेन हजारिका ने भी एक गीत के माध्यम से इस मसले पर अपनी पीड़ा को व्यक्त किया था। उनके गाए हुए एक गीत का भाव है कि -असमी अपने और अपनी भूमि को बचायं, अन्यथा असम में ही वे बेगाने हो जाएंगे।

कहने को तो कांग्रेस की सरकारों ने घुसपैठियों के खिलाफ आईएमडीटी एक्ट बनाया परंतु इसमें ऐसे प्रावधान किए जिससे घुसपैठियों को रोकने की बजाय उन्हें बाहर निकालना ही मुश्किल हो जाए। जैसे कि किसी घुसपैठिए की सूचना देने पर आरोपी को भारतीय होने का प्रमाण देने की बजाय शिकायतकर्ता को उसे विदेशी होने के सबूत लाने को कहा गया। 27 जुलाई, 2005 को सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने आईएमडीटी एक्ट को निरस्त कर दिया। इसके बदले केंद्र और राज्य सरकार को फॉरेन ट्रिब्यूनल आर्डर- 1964 के तहत ट्रिब्यूनल स्थापित करने और अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को चिन्हित करने का आदेश दिया था। इस पर भी तत्कालीन सरकारें टालमटोल की नीति अपनाती रही। इसका उदाहरण है कि एक बार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायाधीश आरएफ नरीमन की पीठ ने असम सरकार की ओर से घुसपैठ पर आधे-अधूरे शपथपत्र देने पर सख्त एतराज जताया। यह शपथपत्र 1 अप्रैल, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया था, जिसमें न्यायालय के 17 दिसम्बर, 2014 के आदेश को लागू करने की बात कही गई थी। दरअसल, यह घिसा पीटा ढर्रा कांग्रेस सरकार की पुरानी रणनीति रही है। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है की बांग्लादेशी सीमा से सटे राज्यों की तकदीर अवैध तरीके से बांग्लादेश से भारत आए मुसलमान ही तय कर रहे हैं। स्थिति की गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि असम के 40 विधानसभा सीट और पश्चिम बंगाल में कुल 294 में से 53 विधानसभा की सीटें बांग्लादेशी मुस्लिम बाहुल्य वाली हैं। जाहिर है कि वोट बैंक की राजनीति के चलते ही इन घुसपैठियों की अप्रत्यक्ष रूप से वकालत की जा रही है।

असम में नागरिक राष्ट्रीय रजिस्टर पर बहस के दौरान राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने जब पूरे मामले को मानवता से जोडऩे व सरकार पर इस रजिस्टर में छूट गए लोगों को विदेशी साबित करने की बात कही तो आम भारतीयों के मनों में कांग्रेस की वही अली और कुलीवादी सोच स्मरण हो आई जिसका उद्देश्य येन केन प्राक्रेन रूप से घुसपैठियों को ही लाभ पहुंचाना है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

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