सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध मानने वाली दंडावली की धारा-497 को लैंगिक भेदभाव बताते हुए असंवैधानिक ठहरा दिया। न्यायालय ने कहा कि पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है। औरत को यौन स्वायत्तता भी हासिल है। यह निर्णय प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनाया। धारा-497 के तहत व्यवस्था है कि कोई व्यक्ति दूसरे की पत्नी से उसके पति की सहमति के बिना संबंध बनाता है और वह व्यभिचार का अपराधी है। उसे पांच वर्ष तक की कैद या जुर्माना हो सकता है। सीआरपीसी की धारा-198 (2) के तहत इस अपराध में सिर्फ पति ही शिकायत कर सकता है। दूसरी तरफ वैदिक परंपरा में देव विवाह के दौरान सात फेरों के दौरान कन्या अपने होने वाले पति से वचन लेती है वह पराई स्त्रियों को माता के समान समझें और आपसी प्रेम में किसी को भागीदार नहीं बनाएंगे। वर भी वचन लेता है कि वह मदिरा सेवन करने वालों के सम्मुख न जाए। हिंदू विवाह अधिनियम इस विवाह प्रणाली को मान्यता देता है और इसका वैधानिक पंजीकरण भी होता है। दूसरी तरफ देश के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि विवाहेतर संबंध अपराध नहीं। न्यायालय का यह निर्णय केवल वैधानिक विरोधाभास का ही आभास देने वाला नहीं बल्कि इससे हमारी परिवार प्रणाली पर आंच आने व कई विसंगतियां खड़ी होने की आशंका है।
न्यायालय के इस निर्णय की पृष्ठभूमि में इसी साल दिए दो अन्य फैसलों का जिक्र करना भी प्रासंगिक होगा। 6 मई को न्यायालय ने बिना विवाह सहचर्य (लिव इन रिलेशन) और 7 सितंबर को समलैंगिकता को वैधानिक मान्यता दी। अब विवाहेतर संबंधों को लेकर धारा-497 को यह कहते हुए लैंगिक असमानता बताया गया है कि इसमें केवल पुरुष को अधिकार है कि वह अपनी पत्नी से संबंध बनाने वाले व्यभिचारी पर केस दर्ज कर सकता है। व्यभिचारी की पत्नी न तो अपने पति व न ही व्यभिचारिनी के खिलाफ न्याय की शरण ले सकती। आदर्श स्थिति तो यह थी कि व्यभिचारी की पत्नी को भी केस दर्ज करवाने का अधिकार दिया जाता। इससे जहां सही अर्थों में लैंगिक समानता आती वहीं समाज में फैल रही विवाहेतर संबंधों और इससे टूटते परिवारों, बढ़े अपराधों, तलाक की घटनाओं पर अंकुश लगता। न्यायालय का लैंगिक समानता लाने का ढंग निराला दिखा कि व्यभिचारिनी के पति की तरह व्यभिचारी पुरुष की पत्नी को न्यायिक संरक्षण उपलब्ध करवाने की बजाय माननीयों ने पहले वाले के हाथ से ही कानून का शस्त्र छीन लिया। याने शेखचिल्ली की तरह ठिगने को इंसाफ देने के लिए लंबे की टांगें काट दीं।
न्यायालय के उक्त निर्णय में विरोधाभासों का यहीं अंत नहीं है। न्यायालय ने विवाहेतर संबंध को अपराध तो नहीं माना परंतु तलाक का कारण होने का आधार यथास्थिति बरकरार रखा। कल को यह दलील भी आ सकती है कि जब कोई चीज अपराध नहीं तो उसके आधार पर तलाक कैसे लिया या दिया जा सकता है ? कल्पना करें कि ऐसे में उस परिवार की हालत क्या होगी जिसमें महिला के विवाहेतर संबंध हों। पीडि़त पति न तो व्यभिचारिनी पत्नी को रोक पाएगा और न ही उससे तलाक ले पाएगा। जिस कथित उदारवादी पटरी पर हमारे अदालतें दौड़ती दिख रही हैं उससे यह स्थिति बहुत जल्द ही पैदा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अदालत की विचित्र व्यवस्था के तहत पहली पत्नी या पति के रहते विवाहेतर संबंध बनाए जा सकते हैं और लिवइन में रहा जा सकता है परंतु कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता। कोई विधि विधान से दूसरी शादी करता है तो वह भारतीय दंडावली की धारा 494 के तहत अपराधी है। उसे कारावास व जुर्माना या दोनों हो सकते हैं परंतु वही व्यक्ति बिना शादी के दो महिलाएं रख सकता है और महिला दो पुरुषों से संबंध रख सकती है। इसे न्यायिक प्रणाली का हास्यस्पद अध्याय कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं है।
न्यायालय अपने फैसले में यह स्पष्ट नहीं कर सका है कि विवाहेतर संबंध से अगर संतानोत्पती होती है तो उसका लालन-पालन किसकी जिम्मेवारी होगी। इस संतान को महिला के वैधानिक पति का नाम व संपत्ति का अधिकार मिलेगा या व्यभिचारी का। अगर दोनों पक्ष यह जिम्मेवारी नहीं उठाते या दोनों ही उठाने को तैयार हो जाते हैं तो पैदा हुए इस विवाद के लिए कौन जिम्मेवार होगा ? किसी की पत्नी को कोई धूर्त व्यक्ति बहला फुसला लेता है तो पीडि़त पक्ष न्याय के लिए किसकी शरण में जाए, कानून की या समाजकंटकों की ? कितनी दुखद बात है कि न्यायालय ने कहा है कि अगर विवाहेतर संबंध से पीडि़त पति आत्महत्या करता या करने का प्रयास करता है तो उसकी पत्नी व व्यभिचारी पर केस हो सकता है। भाव कि पीडि़त पति को न्याय पाना हो तो वह आत्महत्या करे या इसका प्रयास करे। कोई संवेदनशील व्यक्ति इस तरह की सोच भी नहीं सकता जिस तरह की हमारे न्यायालय ने यह व्यवस्था ही दे दी।
फैसले में यह भी स्पष्ट नहीं है कि महिला के एक से अधिक विवाहेतर संबंध हो तो कानून की भूमिका क्या होगी ? महिला को लेकर दो या इससे अधिक व्यभिचारियों में विवाद हो तो व्यभिचारिनी किसकी संगिनी मानी जाए ? अधिक विवाहेतर संबंध क्या वेश्यावृति नहीं कहलाएंगे ? क्या इससे देश में चल रहे वेश्यावृति के अड्डे इस आधार पर वैध नहीं हो जाएंगे कि इनकी संचालिकाओं को विवाहेतर संबंध बनाने का वैधानिक अधिकार है? विवाह व परिवार प्रणाली को पटरी से उतार कर अदालत किस दलदल में धकेलने जा रही है भारतीय समाज को ? इस पर भारतीय चिंतक श्री वेदप्रकाश वैदिक ने सही प्रश्न उठाया है कि न्यायालय का जोर सहमति शब्द पर है, पर क्या विवाह अपने आप में सतत् और शाश्वत सहमति नहीं है ? यदि पति-पत्नी इस सहमति को जब चाहें किसी के साथ भी सहचर्य करें तो परिवार नाम की संस्था तो जड़ से उखड़ जाएगी। क्या पति द्वारा पत्नी का और पत्नी द्वारा पति का विश्वास तोडऩा उचित है ? इस संबंध में पहले से ही न्यायिक व्यवस्था है कि अगर कोई पति अपने पत्नी या पत्नी अपने पति से असंतुष्ट है तो वह संबंध विच्छेद कर दूसरा परिवार बसा सकते हैं। इसके लिए विवाहेतर संबंध की स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का अधिकार देने की ही क्या आवश्यकता है ?
दूसरी तरफ इस निर्णय में न्यायालय द्वारा प्रयुक्त शब्दावली भी भारतीय नहीं कही जा सकती। न्यायाधीश आरएफ नरीमन ने अपने निर्णय में कहा है कि यह कानून पत्नी को पति की संपत्ति की तरह मानता है। उन्होंने 'यौन स्वायतत्ता' शब्द का भी प्रयोग किया है। इस तरह की टिप्पणीयां देश में पनप रही 'कान्वेंट संस्कृति' का परिणाम लगती है जो भारत को अमेरिका और इंग्लैंड बनाने को उतारु है। पाश्चात्य देशों की सामाजिक परिस्थितियों से भारत से मेल नहीं खातीं। पश्चिम का समाज विवाह को समझौता या दो पक्षों में कंट्रेक्ट मानता होगा परंतु अपने यहां विवाह सात जन्मों का पवित्र संबंध हैं और माना जाता है कि इसका निर्धारण ईश्वर के यहां होता है। यहां पति-पत्नी को परिवार की गाड़ी के दो पहिए कहा गया है न कि परस्पर शारीरिक व भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने वाले समझौते को आतुर दो पक्ष। न्यायालय ने शायद यौन स्वच्छंदता व उच्छृंखलता की व्याख्या 'यौन स्वायतत्ता' के रूप में कर दी है। कोई भी देश अपनी परंपराओं की अनदेखी नहीं कर सकता। कानून के पीछे जहां संविधान व सरकार की शक्ति रहती है वहीं परंपराओं के पीछे समाज की। हर व्यवस्था चाहे जनतांत्रिक या राजतांत्रिक या कोई और, अपने समाज की उपेक्षा नहीं कर सकती। रिश्तों की पवित्रता, नैतिकता इस देश की पूंजी है और जिस दिन ये दौलत छिन गई तो कुबेर का खजाना पाने के बाद भी हम दरिद्र ही कहलवाएंगे। मशहूर शायर इकबाल ने कहा है कि- रोमो मिस्र मिट गए जहां से, फिर भी बाकी निशां है हमारा। उनके कहने का भाव यह नहीं कि रोम और मिस्र भौतिक रूप से आज नहीं रहे, उनकी संस्कृति मिट गई तो आज ग्लोब पर होते हुए भी इन देशों को मिटा हुआ माना जाता है। भारतीय संस्कृति का आधार हमारी परिवार प्रणाली है जो मर्यादा, शुचिता, परस्पर विश्वास, स्नेह, सम्मान, त्याग के स्तंभों पर आधारित है। इस पर आघात हमारे अस्तित्व पर प्रहार है। जब परिवार सुरक्षित नहीं रहेंगे तो हम भी रोम और मिस्र जैसे देशों की पंक्ति में शामिल हो जाएंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।