Saturday, 29 September 2018

व्यभिचार अधिनियम उन्मूलन परिवार प्रणाली पर आघात

सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध मानने वाली दंडावली की धारा-497 को लैंगिक भेदभाव बताते हुए असंवैधानिक ठहरा दिया। न्यायालय ने कहा कि पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है। औरत को यौन स्वायत्तता भी हासिल है। यह निर्णय प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनाया। धारा-497 के तहत व्यवस्था है कि कोई व्यक्ति दूसरे की पत्नी से उसके पति की सहमति के बिना संबंध बनाता है और वह व्यभिचार का अपराधी है। उसे पांच वर्ष तक की कैद या जुर्माना हो सकता है। सीआरपीसी की धारा-198 (2) के तहत इस अपराध में सिर्फ पति ही शिकायत कर सकता है। दूसरी तरफ वैदिक परंपरा में देव विवाह के दौरान सात फेरों के दौरान कन्या अपने होने वाले पति से वचन लेती है वह पराई स्त्रियों को माता के समान समझें और आपसी प्रेम में किसी को भागीदार नहीं बनाएंगे। वर भी वचन लेता है कि वह मदिरा सेवन करने वालों के सम्मुख न जाए। हिंदू विवाह अधिनियम इस विवाह प्रणाली को मान्यता देता है और इसका वैधानिक पंजीकरण भी होता है। दूसरी तरफ देश के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि विवाहेतर संबंध अपराध नहीं। न्यायालय का यह निर्णय केवल वैधानिक विरोधाभास का ही आभास देने वाला नहीं बल्कि इससे हमारी परिवार प्रणाली पर आंच आने व कई विसंगतियां खड़ी होने की आशंका है।

न्यायालय के इस निर्णय की पृष्ठभूमि में इसी साल दिए दो अन्य फैसलों का जिक्र करना भी प्रासंगिक होगा। 6 मई को न्यायालय ने बिना विवाह सहचर्य (लिव इन रिलेशन) और 7 सितंबर को समलैंगिकता को वैधानिक मान्यता दी। अब विवाहेतर संबंधों को लेकर धारा-497 को यह कहते हुए लैंगिक असमानता बताया गया है कि इसमें केवल पुरुष को अधिकार है कि वह अपनी पत्नी से संबंध बनाने वाले व्यभिचारी पर केस दर्ज कर सकता है। व्यभिचारी की पत्नी न तो अपने पति व न ही व्यभिचारिनी के खिलाफ न्याय की शरण ले सकती। आदर्श स्थिति तो यह थी कि व्यभिचारी की पत्नी को भी केस दर्ज करवाने का अधिकार दिया जाता। इससे जहां सही अर्थों में लैंगिक समानता आती वहीं समाज में फैल रही विवाहेतर संबंधों और इससे टूटते परिवारों, बढ़े अपराधों, तलाक की घटनाओं पर अंकुश लगता। न्यायालय का लैंगिक समानता लाने का ढंग निराला दिखा कि व्यभिचारिनी के पति की तरह व्यभिचारी पुरुष की पत्नी को न्यायिक संरक्षण उपलब्ध करवाने की बजाय माननीयों ने पहले वाले के हाथ से ही कानून का शस्त्र छीन लिया। याने शेखचिल्ली की तरह ठिगने को इंसाफ देने के लिए लंबे की टांगें काट दीं।

न्यायालय के उक्त निर्णय में विरोधाभासों का यहीं अंत नहीं है। न्यायालय ने विवाहेतर संबंध को अपराध तो नहीं माना परंतु तलाक का कारण होने का आधार यथास्थिति बरकरार रखा। कल को यह दलील भी आ सकती है कि जब कोई चीज अपराध नहीं तो उसके आधार पर तलाक कैसे लिया या दिया जा सकता है ? कल्पना करें कि ऐसे में उस परिवार की हालत क्या होगी जिसमें महिला के विवाहेतर संबंध हों। पीडि़त पति न तो व्यभिचारिनी पत्नी को रोक पाएगा और न ही उससे तलाक ले पाएगा। जिस कथित उदारवादी पटरी पर हमारे अदालतें दौड़ती दिख रही हैं उससे यह स्थिति बहुत जल्द ही पैदा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अदालत की विचित्र व्यवस्था के तहत पहली पत्नी या पति के रहते विवाहेतर संबंध बनाए जा सकते हैं और लिवइन में रहा जा सकता है परंतु कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता। कोई विधि विधान से दूसरी शादी करता है तो वह भारतीय दंडावली की धारा 494 के तहत अपराधी है। उसे कारावास व जुर्माना या दोनों हो सकते हैं परंतु वही व्यक्ति बिना शादी के दो महिलाएं रख सकता है और महिला दो पुरुषों से संबंध रख सकती है। इसे न्यायिक प्रणाली का हास्यस्पद अध्याय कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं है।

न्यायालय अपने फैसले में यह स्पष्ट नहीं कर सका है कि विवाहेतर संबंध से अगर संतानोत्पती होती है तो उसका लालन-पालन किसकी जिम्मेवारी होगी। इस संतान को महिला के वैधानिक पति का नाम व संपत्ति का अधिकार मिलेगा या व्यभिचारी का। अगर दोनों पक्ष यह जिम्मेवारी नहीं उठाते या दोनों ही उठाने को तैयार हो जाते हैं तो पैदा हुए इस विवाद के लिए कौन जिम्मेवार होगा ? किसी की पत्नी को कोई धूर्त व्यक्ति बहला फुसला लेता है तो पीडि़त पक्ष न्याय के लिए किसकी शरण में जाए, कानून की या समाजकंटकों की ? कितनी दुखद बात है कि न्यायालय ने कहा है कि अगर विवाहेतर संबंध से पीडि़त पति आत्महत्या करता या करने का प्रयास करता है तो उसकी पत्नी व व्यभिचारी पर केस हो सकता है। भाव कि पीडि़त पति को न्याय पाना हो तो वह आत्महत्या करे या इसका प्रयास करे। कोई संवेदनशील व्यक्ति इस तरह की सोच भी नहीं सकता जिस तरह की हमारे न्यायालय ने यह व्यवस्था ही दे दी।

फैसले में यह भी स्पष्ट नहीं है कि महिला के एक से अधिक विवाहेतर संबंध हो तो कानून की भूमिका क्या होगी ? महिला को लेकर दो या इससे अधिक व्यभिचारियों में विवाद हो तो व्यभिचारिनी किसकी संगिनी मानी जाए ? अधिक विवाहेतर संबंध क्या वेश्यावृति नहीं कहलाएंगे ? क्या इससे देश में चल रहे वेश्यावृति के अड्डे इस आधार पर वैध नहीं हो जाएंगे कि इनकी संचालिकाओं को विवाहेतर संबंध बनाने का वैधानिक अधिकार है? विवाह व परिवार प्रणाली को पटरी से उतार कर अदालत किस दलदल में धकेलने जा रही है भारतीय समाज को ? इस पर भारतीय चिंतक श्री वेदप्रकाश वैदिक ने सही प्रश्न उठाया है कि न्यायालय का जोर सहमति शब्द पर है, पर क्या विवाह अपने आप में सतत् और शाश्वत सहमति नहीं है ? यदि पति-पत्नी इस सहमति को जब चाहें किसी के साथ भी सहचर्य करें तो परिवार नाम की संस्था तो जड़ से उखड़ जाएगी। क्या पति द्वारा पत्नी का और पत्नी द्वारा पति का विश्वास तोडऩा उचित है ? इस संबंध में पहले से ही न्यायिक व्यवस्था है कि अगर कोई पति अपने पत्नी या पत्नी अपने पति से असंतुष्ट है तो वह संबंध विच्छेद कर दूसरा परिवार बसा सकते हैं। इसके लिए विवाहेतर संबंध की स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का अधिकार देने की ही क्या आवश्यकता है ?

दूसरी तरफ इस निर्णय में न्यायालय द्वारा प्रयुक्त शब्दावली भी भारतीय नहीं कही जा सकती। न्यायाधीश आरएफ नरीमन ने अपने निर्णय में कहा है कि यह कानून पत्नी को पति की संपत्ति की तरह मानता है। उन्होंने 'यौन स्वायतत्ता' शब्द का भी प्रयोग किया है। इस तरह की टिप्पणीयां देश में पनप रही 'कान्वेंट संस्कृति' का परिणाम लगती है जो भारत को अमेरिका और इंग्लैंड बनाने को उतारु है। पाश्चात्य देशों की सामाजिक परिस्थितियों से भारत से मेल नहीं खातीं। पश्चिम का समाज विवाह को समझौता या दो पक्षों में कंट्रेक्ट मानता होगा परंतु अपने यहां विवाह सात जन्मों का पवित्र संबंध हैं और माना जाता है कि इसका निर्धारण ईश्वर के यहां होता है। यहां पति-पत्नी को परिवार की गाड़ी के दो पहिए कहा गया है न कि परस्पर शारीरिक व भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने वाले समझौते को आतुर दो पक्ष। न्यायालय ने शायद यौन स्वच्छंदता व उच्छृंखलता की व्याख्या 'यौन स्वायतत्ता' के रूप में कर दी है। कोई भी देश अपनी परंपराओं की अनदेखी नहीं कर सकता। कानून के पीछे जहां संविधान व सरकार की शक्ति रहती है वहीं परंपराओं के पीछे समाज की। हर व्यवस्था चाहे जनतांत्रिक या राजतांत्रिक या कोई और, अपने समाज की उपेक्षा नहीं कर सकती। रिश्तों की पवित्रता, नैतिकता इस देश की पूंजी है और जिस दिन ये दौलत छिन गई तो कुबेर का खजाना पाने के बाद भी हम दरिद्र ही कहलवाएंगे। मशहूर शायर इकबाल ने कहा है कि- रोमो मिस्र मिट गए जहां से, फिर भी बाकी निशां है हमारा। उनके कहने का भाव यह नहीं कि रोम और मिस्र भौतिक रूप से आज नहीं रहे, उनकी संस्कृति मिट गई तो आज ग्लोब पर होते हुए भी इन देशों को मिटा हुआ माना जाता है। भारतीय संस्कृति का आधार हमारी परिवार प्रणाली है जो मर्यादा, शुचिता, परस्पर विश्वास, स्नेह, सम्मान, त्याग के स्तंभों पर आधारित है। इस पर आघात हमारे अस्तित्व पर प्रहार है। जब परिवार सुरक्षित नहीं रहेंगे तो हम भी रोम और मिस्र जैसे देशों की पंक्ति में शामिल हो जाएंगे।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Saturday, 22 September 2018

'संघ संघ-नेति नेति'

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हाल ही में आयोजित भविष्य का भारत और संघ दृष्टि कार्यक्रम पर मीडिया में छिड़ी बहस की गाड़ी वही 'संघ संघ-नेति नेति' की पटरी पर दौड़ती दिखी। साम्यवादी हो या समाजवादी या परिवारवादी सभी दलों के प्रवक्ता हिटलरशाही, फासीवादी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी, जातिवादी, मनुवादी, भाजपा, 2019 के चुनाव आदि चरिपरिचत शब्दज्ञान का ही प्रदर्शन करते दिखे। इन कार्यक्रमों के प्रस्तोता तो बड़े मीयां तो बड़े मीयां छोटे मीयां सुभानल्लाह, की कहावत के श्रेष्ठ उदाहरण बन कर सामने आए। लगभग सभी कार्यक्रमों का निष्कर्ष एक ही था 'संघ संघ-नेति नेति'। इन चर्चाओं को देख कर गोस्वामी जी की चौपाई स्मरण हो आई कि -

मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।।
फूलहिं फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलधि।।

यानि कि मूर्ख की आँखे कभी नहीं खुलती चाहे स्वयं विधाता उसके गुरु बन जाएँ, जैसे बांस में कभी फल नहीं निकलते भले ही अमृत की वर्षा से उनको क्यों न सींचा जाये। वैसे संघ का विरोध कोई नया नहीं है, उस पर आरंभ से ही तरह-तरह के आरोप लगते आए हैं। इसी विरोध के चलते इस पर तीन बार प्रतिबंध लगे परंतु वह टिक नहीं पाए। कुछ लोग संघ के इस कार्यक्रम को देश में आने वाले लोकसभा चुनावों से जोड़ कर देखते हैं तो अपने सभी पूर्ववर्ती सरसंघचालकों की तरह डा. मोहन भागवत ने स्पष्ट किया कि संघ का उद्देश्य राजनीतिक नहीं है और उसके अनुषंगिक संगठन उतने ही स्वतंत्र हैं जितना कि कोई अन्य संगठन। 

संघ को अक्सर अल्पसंख्यक विरोधी संगठन के रूप में प्रचारित किया जाता है परंतु डा. भागवत ने स्पष्ट कहा कि भारत में मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अपूर्ण है। संघ प्रमुख ने अपने संबोधन में हिंदू और हिंदुत्व की व्यापकता को विस्तार से विश्लेषित किया। हिंदू शब्द भारतीय भू-भाग में जन्मे लोगों के लिए नौवीं शताब्दी में प्रचलन में आया और वह बोलचाल की भाषा में काफी बाद में शामिल हुआ। हिंदुत्व हर पूजा पद्धति को स्वीकार करता है। उसकी संकल्पना में विशिष्ट पूजा पद्धति, संप्रदाय, भाषा या प्रांत नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दुत्व, हिन्दूनेस, हिन्दुईज्म ये गलत शब्द हैं क्योंकि 'ईजम' याने 'वाद' एक बंद चीज मानी जाती है। ये कोई ईजम नहीं है, यह एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है। गांधी जी ने कहा कि सत्य की अनवरत खोज का नाम हिन्दुत्व है। सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। अन्य मत पंथों के साथ तालमेल कर सकने वाली एकमात्र विचारधारा, ये भारत की विचारधारा है, हिन्दुत्व की विचारधारा। क्योंकि तालमेल का आधार मूल एकत्व, प्रकार विविध है और विविध होना आवश्यम्भावी है क्योंकि प्रकृति विविधता को लेकर चलती है, विविधता ये भेद नहीं है, विविधता ये साज-सज्जा है, प्रकृति का शृंगार है, ऐसा संदेश देने वाला और संदेश यानी थ्योराइजेशन के आधार पर नहीं अनुभूति के आधार पर देने वाला एकमात्र देश हमारा देश है। और इसलिए हिन्दुत्व ही है जो सबके तालमेल का आधार बन सकता है। उनके अनुसार, भिन्न समय और परिस्थितियों में जो कुछ कहा गया वह शाश्वत नहीं हो सकता और इसीलिए 'बंच आफ थोट्स' के लेखक दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर के विचारों का जो नया संकलन जारी हुआ है उसमें तात्कालिक संदर्भ में कही गई उनकी कुछ बातें हटा दी गई हैं। आखिर इससे अधिक लचीलापन व साफगोई और क्या हो सकती है?

संघ प्रमुख ने यह धारणा तो खारिज की ही कि भारतीय संविधान के प्रति उसकी अनास्था रही है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि स्वतंत्र भारत के सारे प्रतीकों में उसकी आस्था है, चाहे वह राष्ट्रगान हो या राष्ट्रीय ध्वज। यह विचित्र है कि आज जब संघ का विरोध करने वाले दलों को इसकी सराहना करनी चाहिए कि संघ ने प्रबुद्ध वर्ग से सीधे संवाद के जरिये अपने संबंध में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने के लिए एक ठोस पहल की तब वे उससे दूरी बढ़ाने में अपनी भलाई समझ रहे हैं। संघ इससे पूर्व भी अपने वैचारिक विरोधियों को अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहा है। अभी हाल ही में नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में देश के पूर्व राष्ट्रपति डा. प्रणब मुखर्जी को संघ ने न केवल आमंत्रित किया बल्कि उन्हें अपने विचार रखने का अवसर भी दिया। लेकिन हमारे स्वयंभू उदारवादियों ने उस समय इस बात के लिए अपनी एडी-चोटी का जोर लगा दिया कि किस प्रकार प्रबण दा को नागपुर कार्यक्रम में जाने से रोका जाए। दिल्ली में हुए हाल ही के कार्यक्रम में भी संघ ने अपने वैचारिक विरोधियों के साथ-साथ उन नागरिकों को आमंत्रित किया था जो संघ के बारे या तो जानना चाहते हैं या फिर किसी तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधी मत को किस तरह सम्मान दिया जाना चाहिए यह संघ से सीखने की बजाय हमारे देश के सामंतवादी, परिवारवादी दल संघ की निंदा करते हैं तो वह अपने आप में भोथरी हो जाती है।

और उनकी सारी स्थितियों का, समस्याओं का विचार करना चाहिए। ये सब अपने हैं। भारत में कोई पराया नहीं, परायापन हमने निर्माण किया है। हमारी परंपरा ने नहीं, वो तो एकता ही सिखाती है। देश में फैले जातिवाद पर संघचालक ने स्पष्ट किया कि जाति व्यवस्था कहते हैं, उसमें गलती होती है। आज व्यवस्था कहां है वो अव्यवस्था है। कभी ये जाति व्यवस्था रही होगी, वो उपयुक्त रही होगी, नहीं रही होगी। आज उसका विचार करने का कोई कारण नहीं है वो जाने वाली है। जाने के लिए प्रयास करेंगे तो पक्की होगी। उसको भगाने के लिए प्रयास करने के बजाय जो आना चाहिए उसके लिए हम प्रयास करें तो ज्यादा अच्छा होगा। अंधेरे को लाठी मार-मार कर भगाएंगे अंधेरा नहीं जाएगा। एक दीपक जलाओ वो भाग जाएगा। एक बड़ी लाईन खींचो तो सारे भेद विलुप्त हो जाएंगे। दुर्भाग्य की बात है कि संघ प्रमुख ने भारतीय समाज में फैले जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, वैमनस्य जैसी समस्या का समाधान अपने तीन दिनों के कार्यक्रम में प्रस्तुत किया वह कुछ बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों के चलते नाहक की बहस में उलझ कर रह गया। हमारे बुद्धिजीवियों को संघ के प्रति गढ़ी गई अपनी कसौटी पर एक बार पुन: विचार करना होगा। किसी संगठन या व्यक्ति का विरोध करना सभी का लोकतांत्रिक अधिकार है परंतु 'संघ संघ-नेति नेति' की नीति को भी तो सही नहीं ठहराया जा सकता।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Thursday, 13 September 2018

अगले जन्म मोहे 'नन' न कीजो

पंजाब में केरल मूल के ईसाई धर्मगुरु बिशप फ्रेंको मुलक्कल पर एक नन द्वारा लगाए गए दुराचार के आरोप ने चर्च व प्रशासन के अमानवीय चेहरे को एक बार फिर उजागर कर दिया है। प्रभावशाली धर्मगुरु फ्रेंको पर आरोप लगते ही प्रशासन व चर्च एकदम सक्रिय हो गए परंतु पीडि़त नन को न्याय दिलवाने के लिए नहीं बल्कि आरोपी को बचाने के लिए। किसी पादरी या बिशप द्वारा किया गया यौन शोषण का कोई यह पहला मामला नहीं है परंतु अबकी बार पीडि़त नन इस बात को लेकर तो सौभाग्यशाली रही कि उसे अब समाज, चर्च के भीतर के कुछ लोगों का तो साथ मिला है अन्यथा पहले के मामले तो यंू ही आए गए कर दिए जाते रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में चर्च के भीतर ननों की दुर्दशा को लेकर आरहे समाचारों को देख कर आज हर ईसाई साध्वी प्रभु ईसा मसीह से यही प्रार्थना करती दिखती है कि -हे प्रभु ! अगले जन्म मोहे 'नन' न कीजो।

पंजाब के जालंधर स्थित देश के 145 महत्त्वपूर्ण बिशपों में से एक फ्रेंको मुलक्कल पर सैक्रेड हार्ट में काम कर चुकी नन ने आरोप लगाए कि उसने 2014 से लेकर 2016 तक दुराचार किया और केवल बलात्कार ही नहीं बल्कि अप्राकृतिक संबंध स्थापित किए। नन ने पहले इसकी शिकायत चर्च को की परंतु वहां उसकी कोई सुनवाई न हुई बल्कि उसे चुप रहने की नसीहत दी गई। काफी संघर्ष के बाद केरल के कोट्टयम जिले के चंगानासरी में न्यायालय में पीडि़ता के ब्यान दर्ज किए गए। उक्त मामला सामने आने के बाद अब कई तरह की बातें खुल रही हैं। भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई अन्य देशों से मिले आंकड़ों पर गौर करे तो चर्च दुष्कर्म का अड्डा बन गया है। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में आस्था की आड़ में पादरियों ने महिलाओं या ननों के साथ ही, नहीं बल्कि मासूम बच्चियों को भी अपने हवस का शिकार बनाया। चौंकाने वाली बात यह है कि इसमें कई पादरी अपनी पहुंच और प्रभाव के चलते कानून के लंबे हाथों को बौना साबित कर चुके हैं। पादरियों पर लोगों की आस्था होती है और प्रशासनिक व राजनीतिक प्रभाव भी। इनके खिलाफ चर्च या कानून के पास शिकायत दर्ज करवाना और न्याय पाना कोई खालाजी का बाड़ा नहीं है। 

चर्च में पादरियों का निरंतर गिर रहा चरित्र ईसाई समाज के लिए खतरा बनता जा रहा है। एक रिकार्ड के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया में सात प्रतिशत कैथोलिक पादरी बच्चों के यौन शोषण में लिप्त पाए गए। वर्ष 1950 से 2010 के बीच हुए इस अध्ययन में यह बात सामने आई है कि ऑस्ट्रेलिया कैथोलिक पादरी बच्चों के यौन शोषण में लिप्त रहे हैं। एक अन्य जांच में वहां के करीब 40 फीसद चर्च पर बच्चों के यौन शोषण के आरोप लगे हैं। ऑस्ट्रेलिया के रॉयल कमीशन के पास वर्ष 1980 से 2015 के बीच 1000 कैथोलिक इंस्टीट्यूशनों के खिलाफ 4500 लोगों ने यौन शोषण की शिकायत दर्ज कराई थी। रॉयल कमीशन बाल यौन शोषण से जुड़े मामलों की जांच करती है। खास बात यह है कि इसमें से अधिकतर पादरी और धार्मिक गुरु कानून के शिकंजे से आसानी से बच निकलने में सफल भी रहे। इतना ही नहीं इन मामलों में रिपोर्ट दर्ज कराने में ही औसत 33 साल का समय लगा जो पूरी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करने के लिए पर्याप्त उदाहरण है। करीब एक माह पूर्व अमरीका में पेन्सिलवेनिया राज्य के सर्वोच्च न्यायालय ने कैथोलिक चर्चों में यौन शोषण से जुड़ी एक ज्यूरी की रिपोर्ट को जारी किया था जिसमें 300 से ज्यादा पादरियों के नाम यौन शोषण में शामिल हैं। ज्यूरी ने पाया की सात दशकों में पदारियों ने एक हजार से ज्यादा बच्चों का यौन शोषण किया है। यह अमेरिका के केवल एक राज्य का हाल है बाकी देश और दुनिया के आंकड़े एकत्रित किए जाएं तो ईसाई समाज की भयावह तस्वीर सामने आएगी। 

कन्फेशन कैथोलिक चर्च के सात संस्कारों में से एक है। माना जाता है कि जब हम कोई गलत काम करते हैं, तो हमारा ईश्वर के साथ नाता टूट जाता है। ऐसे में ईश्वर के साथ दोबारा रिश्ता बनाने के लिए हमें कन्फेशन की जरूरत पड़ती है। ये पादरी कन्फेशन के तहत रूठे ईश्वर को मनाने व अपराध बख्शाने के सेतु माने जाते हैं। यह प्रक्रिया लगभग वैसी है जैसे कि हिंदू धर्म में गंगा स्नान किया जाता है कि जिसके बाद व्यक्ति पापमुक्त माना जाता है। कन्फेशन करने आए व्यक्ति या महिला को पादरी अपने साथ कन्फेशन रूम में ले जाता है। याची अपना किया गया अपराध कबूल करता है और पादरी इस पर ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसे माफ करे। लेकिन देखने में आरहा है कि कई पादरी याची के अपराधबोध को उसकी कमजोरी के रूप में लेते हैं और उसी के आधार पर उसे ब्लैकमेल करते हैं। अपराधबोध से ग्रस्त व भयभीत याची इसकी शिकायत कानून से भी नहीं कर पाता क्योंकि ऐसा करने पर उसे सजा मिलने का खतरा बढ़ जाता है। इस परंपरा की आग ने न जाने कितने घर फूंके जा चुके हैं। शादी से बाहर रिश्ते, चोरी, जलन और गुस्से, गर्भपात से लेकर विवाहोत्तर संबंध तक के मामले कन्फेशन के लिए आते हैं। इन मामलों में पीडि़तों को ब्लैकमेल करना आसान होता है। 

हाल ही में फरवरी महीने में केरल की एक चर्च के पादरियों पर एक विवाहित महिला ने सालों से यौन उत्पीडऩ और ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया है। पीडि़त महिला ने पादरी के सामने कन्फेशन के दौरान कहा कि 16 साल की उम्र से शादी होने तक एक दूसरा पादरी उसका यौन उत्पीडऩ करता रहा है। उसे न्याय नहीं मिला। यह महिला जब पादरी-काउंसलर के पास गई, जो दिल्ली से कोच्चि गया था तो वहां भी उससे दुव्र्यवहार हुआ। महिला के पति ने मलंकारा ऑर्थोडक्स सीरियाई चर्च में भी शिकायत की थी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। 1999 में केरल में एक पादरी से गर्भवती होने वाली नाबालिगा का मामला उठाने वाले प्रोफेसर सेबेस्टियन वत्तमत्तम कहते हैं, पादरी का यौन उत्पीडऩ करना एक तथ्य है लेकिन चर्च उसे ढकने के लिए जिस रास्ते पर चल निकला है वो अधिक गंभीर मुद्दा है। देश के कई चर्चों में अपना ही संविधान चलता है। यहां इस तरह की शिकायत पहले चर्च के अधिकारियों द्वारा की जाती है जिस पर अनावश्यक रूप से लटकाने व भटकाने के आरोप लगते रहे हैं। जांच में आरोप सही मिलने के बाद कानून या पुलिस प्रशासन को शिकायत दर्ज करवाई जाती है। दूसरी दृष्टि में चर्च देश के अंदर एक अलग देश की तरह काम करता है और अपनी व्यवस्था पर लोहावरण चढ़ा कर रखता है। इससे चर्च के अंदर होने वाले अपराध अंदर ही कोफिन में दफना दिए जाते हैं। चर्च व धर्मगुरुओं की आध्यात्मिक छवि, प्रशासनिक व राजनीतिक प्रभाव, समाज पर पकड़ होने के कारण पीडि़तों को अंतत: अपमान का घूंट कर ही संतोष करना पड़ता है। 

लेकिन बदल रही परिस्थितियों में ईसाई समाज व ननों में भी नई चेतना का विकास हो रहा है और बिशप फ्रेंको मुलक्कल पर आरोप लगाने वाली नन ने जिस दृढ़ता से अपनी बात समाज व कानून के सामने रखी उसने चर्च व इसकी पूरी प्रणाली की चूलें हिला कर रख दी हैं। खुशी की बात यह भी है कि फ्रेंको की वासना की शिकार नन को खुद ईसाई समाज से खुल कर समर्थन मिला है। केरल व पंजाब में आए दिन बिशप की गिरफ्तारी को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। बिशप मुलक्कल अपने आप को निर्दोष बताते हुए नन पर ही तोमहत मढऩे के प्रयास में है परंतु पीडि़ता ने ईसाई धर्म केंद्र वेटिकन सिटी में भी इंसाफ की गुहार लगाई है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बिशप फ्रेंको मुलक्कल ने रावण द्वारा की गई सीताहरण जैसी आत्मघाती गलती दोहरा ली है जो उसकी सोने की लंका का नाश का कारण बनने जा रही है।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Wednesday, 12 September 2018

भारतीय दंड विधान 295-एए, आग में घी

पंजाब में कांग्रेस के नेतृत्व वाली कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार ने हाल ही में भारतीय दंड विधान की धारा 295-ए में संशोधन कर 295-एए का प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा है। यह संशोधन लागू हो जाता है तो राज्य में धर्मग्रंथों जिनमें श्रीमद्भगवद गीता, श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पवित्र कुरान और पवित्र बाईबल का अपमान करने वाले को उम्रकैद की सजा दी जा सकेगी। इस तरह का संशोधन 22 मार्च, 2016 को अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी की निवर्तमान सरकार भी लेकर आई थी परंतु उसमें केवल श्री गुरु ग्रंथ साहिब को शामिल किया गया। केंद्र ने यह कहते हुए इस संशोधन को निरस्त कर दिया कि धर्मनिरपेक्ष देश में किसी एक धर्म विशेष रियायत नहीं दी जा सकती। राज्य में दो साल पहले हुई श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान की घटनाओं को लेकर हाल ही में सेवानिवृत न्यायाधीश रणजीत सिंह आयोग की रिपोर्ट पर विधानसभा में बहस हुई है, जिसमें अकाली-भाजपा विधायकों की अनुपस्थिती में सत्ताधारी दल व आम आदमी पार्टी के विधायकों ने इन घटनाओं के लिए अकाली दल को खूब कोसा। लगता है कि जनता में पनपी भावनाओं का राजनीतिक दोहन करने के लिए कांग्रेस सरकार ने नए सिरे से 295-एए संशोधन पेश किया और इसमें श्री गुरु ग्रंथ साहिब के साथ उक्त ग्रंथ भी जोड़ दिए। राजनीतिक दलों की वोट बटोरने की इस कला को आग से खेलना कहा जाना कोई अतिशयोक्ति न होगा क्योंकि अगर यह क्रम आगे बढ़ा और अन्य राज्य भी इसी मार्ग पर चले तो इसकी बहुत बड़ी कीमत देश की लोकतांत्रिक प्रणाली को चुकानी पड़ सकती है। कुछ विद्वानों ने पंजाब सरकार के इस संशोधन को पाकिस्तान के कुख्यात ईशनिंदा कानून के समकक्ष भी प्रस्तुत किया है और इस आशंका को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता।

पंजाब में धर्म का विषय कितना संवेदनशील है इसका अनुमान इन दो घटनाओं से ही लगा सकते हैं। चिंता की बात है कि इनके अनुभव को कैप्टन सरकार ने ध्यान में नहीं रखा है, जिसके चलते दो महिलाएं मार दी गईं। 9 सितंबर, 2016 को बलविंदर कौर नामक महिला अमृतसर के वेरोके गांव में अपने घर में ही कत्ल कर दी गई तो दूसरी बलविंदर कौर को एक साजिश रचकर कट्टरपंथियों ने मार गिराया। वेरोके गांव की 55 वर्षीय बलविंदर कौर जमानत पर रिहा होकर आई थी। गुरु ग्रंथ साहिब को अपवित्र करने पर उसे 10 नंवबर, 2015 को जेल भेजा गया था। बलविंदर कौर का अपराध था कि वह चप्पल पहन कर वहां गुरुद्वारे के अंदर पहुंच गई। हंगामा इस कदर बढ़ा जो उसकी गिरफ्तारी से ही शांत हो सका। एक माह बाद उसे जमानत मिली, मगर कट्टरपंथी लोगों में उत्तेजना इस कदर रही है कि उसका परिवार सामाजिक बहिष्कार का भी शिकार बनाया गया। बाद में उसके पति को ही उसकी हत्या में गिरफ्तार किया गया। दूसरी घटना में 27 जुलाई, 2016 को लुधियाना जिले में एक और बलविंद्र कौर मारी गई। वह घवाड़ी गांव की रहने वाली थी और वह भी गुरु ग्रंथ साहिब की 'बेअदबी' के मामले में जमानत पर रिहा होकर आई थी। वह दो दशकों से वह गुरुद्वारे में काम कर रही थी और उस पर यह आरोप लगा कि उसने ग्रंथ साहिब के पन्ने (स्थानीय भाषा में अंग) फाड़ दिए, जबकि उसके परिवार वालों का कहना था कि गांव के वर्चस्वशाली लोगों ने उसे फंसाया है। उसे किसी ने फोन करके आलमगिर के गुरुद्वारा मांजी साहिब के सामने बुलाया तथा आश्वासन दिया था कि वह उसे स्वर्ण मंदिर ले जाएंगे ताकि उस पर लगा यह दाग मिट जाए। जब वह अपने बेटे के साथ ऑटो में बैठ कर वहां पहुंची तो वहां पहले से खड़े दो मोटरसाइकिल सवारों ने उसे गोलियों से भून डाला। इस मामले में पकड़े गए दो अभियुक्त एक कट्टरपंथी संगठन से संबंधित बताए गए हैं। अनुमान लगाएं कि अगर इस मानसिकता के हाथों में उस सख्त कानून की शक्ति भी आजाए जिसमें आरोपी को उम्रकैद का प्रावधान हो तो कितना अनर्थ होगा। वही गलती कांग्रेस सरकार विधानसभा में संशोधन पेश करके कर चुकी है। प्रश्न है कि इन अपराधों से निपटने के लिए पहले से ही भारतीय दंड संहिता की धारा 295-ए का पूरे देश में प्रावधान है तो नए कानून की क्या जरूरत है और नया कानून आग में घी नहीं डालेगा इसकी क्या गारंटी है?

आईपीसी की धारा 295-ए पहले से ही अपने आप में कठोर विधान है। इसके अनुसार जो कोई किसी उपासना के स्थान को या व्यक्तियों के किसी वर्ग द्वारा पवित्र मानी गई किसी वस्तु को नष्ट, क्षतिग्रस्त या अपवित्र इस आशय से करेगा कि किसी वर्ग के धर्म का द्वारा अपमान किया जाए या यह सम्भाव्य जानते हुए करेगा कि व्यक्तियों का कोई वर्ग ऐसे नाश, नुकसान या अपवित्र किए जाने को अपने धर्म के प्रति अपमान समझेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास जिसे दो वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से दण्डित किया जाता है। यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और किसी भी मेजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है। और तो और यह अपराध समझौता करने योग्य नहीं है। आवश्यकता है धर्म ग्रंथों का अपमान करने वालों को पहचानने, इन घटनाओं को रोकने के पूर्ववर्ती प्रयास करने और आरोपियों को दंडित करने की है न कि ऐसे नए कानून की जो भारतीय समाज को ईशनिंदा के धरातल पर पाकिस्तान जैसे मजहबी देश की पंक्ति में खड़ा कर दे।

दुर्योग ही है कि पाकिस्तान के कुख्यात ईशनिंदा कानून की नींव भी पंजाब में ही पड़ी थी। साल 1926 में आर्य समाजी चिंतक महाश्य राजपाल की पब्लिकेशन ने 'रंगीला रसूल' नामक पुस्तक का प्रकाशन किया जिसमें इस्लाम के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहिब के चरित्र के बारे टिप्पणी की गई।  मुस्लिम लीग के लोगों की शिकायत पर पुलिस ने महाश्य पर दो समुदायों में वैमनस्य फैलाने के आरोप में धारा 153-ए के तहत मामला दर्ज किया। महाश्य ने लाहौर उच्च न्यायालय में इस आधार पर याचिका दायर की कि किसी धार्मिक व्यक्ति के खिलाफ टिप्पणी करने पर धारा 153-ए लागू नहीं होती। इसी आधार पर न्यायालय ने महाश्य राजपाल को आरोप मुक्त कर दिया। मुसलमानों ने इसका विरोध किया और अंग्रेज सरकार ने 1927 में धारा 295-ए की व्यवस्था की। इस धारा को पेश करते समय इसका समर्थन करते हुए वायसराय काऊंसिल के सदस्य मोहम्मद आली जिन्नाह (जो बाद में पाकिस्तान के संस्थापक बने) ने कहा- मैं इस सिद्धांत का पूरी तरह से समर्थन करता हूं कि इस उपाय को उन अवांछित व्यक्तियों का लक्ष्य रखना चाहिए जो किसी भी विशेष वर्ग के धर्म या किसी धर्म के संस्थापक और भविष्यवक्ताओं पर आक्षेप करना चाहते हैं, वे जो धर्म की सच्ची और ईमानदार आलोचना में व्यस्त हैं, उन्हें संरक्षित किया जाएगा। रोचक बात तो यह है कि पंजाब विधानसभा में आईपीसी की धारा 295-एए (पंजाब संशोधन) को पेश करते समय कांग्रेस सरकार ने भी लगभग ऐसी ही दलील दी।

अंग्रेजों द्वारा बनाया गया कानून 295-ए सीमा के उस पार ईशनिंदा कानून का राक्षसी रूप धारण कर चुका जो हर साल कई बेकसूरों को निगल जाता है। वहां अब ऐसी परिस्थितियां तैयार हो चुकी हैं कि कि ईशनिंदा कानून पर सवाल उठाना भी ईशनिंदा में शामिल किया जाने लगा है, जिसके चलते पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज भट्टी को जान से हाथ धोना पड़ा। सीमा के इस पार उस तरह की पृष्ठभूमि तैयार करने का प्रयास हो रहा लग रहा है। भारत के दंड विधान की धारा 295 एक- जिसमें एक पूरा अध्याय 'धर्म से संबंधित उल्लंघनों' को लेकर है वह 'धर्म' या 'धार्मिकता' को परिभाषित नहीं करता। कहने का तात्पर्य कि पंजाब सरकार का यह कानून जो धार्मिक '(जिसकी स्पष्ट व स्टीक व्याख्या नहीं की जा सकती) भावनाओं (बहुत धुंधला व पेचीदा विषय) को आहत करने के नाम पर लोगों को जिंदगी भर जेलों में डाल सकता है। आहत भावनाओं की यह दुहाई किस तरह व्यक्ति को बुरी तरह प्रताडि़त करने का रास्ता खोलती है, इसका उदाहरण हम किकू शारदा के मसले में देख चुके हैं। डेरा सच्चा सौदा के संचालक बाबा राम रहीम सिंह की नकल उतारने के बाद उसके अनुयायियों ने किकू के खिलाफ केस दर्ज किया और प्रताडऩा का सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक गिरफ्तारी में चल रहे किकू को खुद बाबा ने 'माफ' नहीं किया। इस तरह के धर्मांध लोगों के हाथ में सख्त कानून का दंड भी पकड़ाना कहां की समझदारी है। देश में जिस तरह विभिन्न कारणों से धर्म एक संवेदनशील विषय बनता जा रहा है हमारी सरकारों व राजनीतिक दलों को इस तरह के मामलों पर सोच समझ कर कोई कदम उठाना चाहिए। पंजाब सरकार ने अपना दांव चल दिया है और अब गेंद केंद्र के पाले में है, आशा है कि केंद्र सरकार सभी पक्षों को ध्यान में रख कर कोई निर्णय करेगी।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Thursday, 6 September 2018

माओवाद, निशाना पर पूरा भारत

महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने और नक्सलियों से मिलीभगत के आरोप में पुणे पुलिस द्वारा की गई पांच लोगों की गिरफ्तारी ने देश में फैले लाल आतंकवाद अर्थात माओवाद को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया है। इन आरोपियों की शैक्षिक योग्यता व सामाजिक प्रतिष्ठा से आंखें चुंधियाने से पहले इनकी वास्तविकता व माओवाद-नक्सलवाद समर्थक पृष्ठभूमि भी देखी जानी चाहिए। गिरफ्तार किए गए वरवर राव तेलंगाना मूल के 1957 वामपंथी विचारक और कवि हैं। उन्हें सबसे पहले 1973 में मीसा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। इसके बाद उन्हें 1975 से लेकर 1986 तक कई मामलों में गिरफ्तार किया गया। 1986 के रामनगर षड्यंत्र मामले में गिरफ्तार होने के 17 साल बाद उन्हें 2003 में रिहाई मिली। 19 अगस्त 2005 को आंध्र प्रदेश सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत उन्हें फिर से गिरफ्तार करके हैदराबाद स्थित चंचलगुडा जेल भेजा गया। बाद में 31 मार्च 2006 को सार्वजनिक सुरक्षा कानून के खत्म होने सहित राव को अन्य सभी मामलों में जमानत मिल गई। इसी तरह सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा भी शहरी नक्सलवादी चेहरे के रूप में कुख्यात हस्तियों में शामिल हैं। आंध्रप्रदेश सरकार के साथ बातचीत के लिए नक्सलियों ने वरवर राव को अपना प्रतिनिधि भी बनाया था। इसी तरह से अरुण फरेरा और वरनान गोंजाल्विस को इसके पहले 2007 में भी नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है और कई साल जेल की सजा भी काट चुके हैं। एक अन्य आरोपी मुंबई स्थित सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओ) की संचार और प्रचार इकाई के प्रमुख है। देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों व राजनीतिक दलों ने इन गिरफ्तारियों को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी की सरकार पर असमति को दबाने के आरोप लगाए हैं। केवल विरोध के लिए विरोध करने वाले राजनीतिक दलों व बुद्धिजीवियों को समझना चाहिए कि लाल आतंकवाद के निशाने पर केवल संघ या मोदी नहीं बल्कि पूरा भारत है। 

सनद रहे कि माओवाद को भारत में पश्चिमी बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव के नाम पर नक्सलवाद के नाम से भी जाना जाता है, जहां से माओवादियों ने पूरे भारत के खिलाफ हिंसक आंदोलन शुरू किया था। वर्तमान में भारत में हिंसक हमलों में होने वाली मौतों में सबसे अधिक मौतों का कारण नक्सली आतंकवाद है। अमेरिका के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सीरिया और इराक में कहर बरपाने वाले इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान के लिए नासूर बने तालिबान के बाद भारत का नक्सली संगठन विश्व का तीसरा सबसे बड़ा आतंकी संगठन है। नक्सलवादी आखिर चाहते क्या हैं ? इसका उत्तर वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में दे चुके हैं जिसमें कहा गया था 'भारत तेरे टुकड़े होंगे।' नक्सली भारतीय गणतंत्र और इसके 'बुजरुआ संविधान' को नष्ट कर माओवादी चीन के मॉडल पर कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। उनकी नजर में भारत में कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना में सबसे बड़ा बाधक एकीकृत भारतीय राज्य है इसलिए वे सबसे पहले उसे ही छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं। दशकों के सशस्त्र संघर्ष और आतंक के बाद नक्सली इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि एकीकृत भारत को परास्त करना असंभव है। अब वे भारत के विघटन की फिराक में हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि नेपाल की तरह छोटे-छोटे राज्यों पर कब्जा करना आसान होगा। वामपंथी भारत को एक कृत्रिम व दमनकारी राष्ट्र मानते हैं जिसने उपमहाद्वीप की विभिन्न राष्ट्रीयताओं पर कब्जा कर रखा है। इसी कारण वामपंथियों ने आजादी के पहले न केवल पाकिस्तान बनाए जाने का पुरजोर समर्थन किया था, बल्कि भारत को करीब 30 और हिस्सों में बाटने की वकालत भी की। आज भी कृत्रिम द्रविड़-आर्य अलगाव, खालिस्तानी व जिहादी आतंकवाद, जातिवादी संगठनों, किसान-मजदूर यूनियनों के वेष में नक्सली मोर्चों को वामपंथियों का कहीं खुला तो कहीं गुप्त समर्थन मिलता है। यह काम सार्वजनिक जीवन में सक्रिय उनका वह कैडर करता है जो अकादमिक और साहित्यिक जगत के साथ-साथ पत्रकारिता, गैर सरकारी संगठनों में बैठे बुद्धिजीवी करते हैं। यही सूटेड-बूटेड कैडर शहरी नक्सली हैं। 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार द्वारा माओवादियों के खिलाफ शुरू किए गए 'ऑपरेशन ग्रीन हंटÓ ने जब उन्हें भारी क्षति पहुंचाई तो उन्होंने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए शहरी इलाकों में अपने विस्तार पर बल देना शुरू किया। उन्होंने शहरी इलाकों में अपनी गुपचुप सक्रियता बढ़ाने के साथ ही देश में चल रहे अलगाववादी और जिहादी संगठनों से तालमेल बनाना शुरू किया। माओवादियों की समझ से भारत को कमजोर करने का सबसे आसान तरीका है अलगाववादी ताकतों को मजबूत करना। माओवादी यह मानते हैं कि शहर देश की शक्ति के केंद्र हैं। शहरों में ही प्रशासन, न्यायपालिका, विधायिका, सेना आदि की प्रभावी उपस्थिति है इसलिए वहां अराजकता पैदा करके राज्य के संसाधनों और शासकों का ध्यान शहरों की सुरक्षा में ही फंसा देना चाहिए। 
माओवादियों का समर्थन करने वाले दलों को यह भी समझना अवश्यक है कि नक्सलियों का दुश्मन केवल मोदी, भाजपा या संघ नहीं, बल्कि भारत है। दिल्ली में बैठने वाली हर सरकार उनके लिए फासीवादी और जनविरोधी है। इसी कारण प्रधानमंत्री रहते समय मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया था। मनमोहन सिंह सरकार ने ऐसे नक्सलियों की पहचान कर उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की थी। इसी सिलसिले में दिल्ली में छिपे कोबाड गांधी को गिरफ्तार किया गया था जो अभी तक जेल में है। यही नहीं, नक्सली हिंसा की साजिश में शामिल होने के आरोप में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रध्यापक जी साईबाबा को गिरफ्तार किया गया था और आरोपपत्र भी दाखिल किया गया था। इसी तरह से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेम मिश्रा को नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। मनमोहन सरकार के दौरान गृहमंत्रालय ने पूरे देश में फैले 128 संगठनों की पहचान की थी, जो मानवाधिकार व दूसरे छद्म गतिविधियों की आड़ में नक्सली हिंसा को बढ़ावा देने में जुटे थे। उस समय सभी राज्यों सरकारों को इन नक्सलियों से जुड़े संगठनों और उससे जुड़े लोगों के खिलाफ कारवाई के लिए भी कहा गया था। लेकिन आज कांग्रेस उन संदिग्ध नक्सलियों के समर्थन में खड़ी होना पंसद कर रही है जिनमें से कुछ को ख़ुद उसकी सरकार गिरफ्तार कर चुकी है। भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में जून से लेकर अब तक जिन 10 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनसे से सात इन्हीं संगठनों से संबंधित हैं। इनमें वरवर राव, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन, अरुण फरेरा, वरनोन गोंजाल्विस और महेश राऊत शामिल हैं। शहरी नक्सलियों के खिलाफ ताजा कार्रवाई सिर्फ भीमा कोरेगांव हिंसा तक सीमित नहीं बल्कि इस हिंसा की जांच के सिलसिले में यह भी पता चला है कि नक्सली प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश भी कर रहे थे। हिटलर तो सिर्फ 50-60 लाख लोगों को मार कर बदनाम है, लेकिन वामपंथियों ने जिन देशों में सत्ता पाई वहां करोड़ लोग मार दिए। यह हैरान करता है कि कुछ लोग ऐसे खतरनाक तत्वों का समर्थन केवल इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें हर मसले पर वर्तमान सरकार का विरोध करना है। इन लोगों ने मोदी विरोध और देश विरोध का अंतर खत्म कर दिया है। देश के राजनेताओं व बुद्धिजीवियों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करना होगा।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Saturday, 1 September 2018

रणजीत आयोग की रिपोर्ट बनाम श्री सत्यनारायण कथा

पंजाब की राजनीति वर्तमान में सेवानिवृत न्यायाधीश रणजीत सिंह आयोग की रिपोर्ट पर गर्माई हुई है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभालते ही इस आयोग का गठन किया था जिसको राज्य में हुई विभिन्न धर्मग्रंथों के अपमान, बहबलकलां गोलीकांड और कोटकपूरा में हुए लाठीचार्ज की घटनाओं की जांच का काम सौंपा गया था। रिपोर्ट पर 28 अगस्त मंगलवार को विधानसभा में चर्चा हुई जिसका सीधा प्रसारण किया गया। बहस में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी, विपक्षी आम आदमी पार्टी उसकी सहयोगी लोकइंसाफ पार्टी ने हिस्सा लिया जबकि अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी ने यह कहते हुए चर्चा का बहिष्कार किया कि विधानसभा में उनको बोलने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया गया। चर्चा के दौरान पूरी रिपोर्ट जांच दस्तावेज कम और श्री सत्यनाराण जी की कथा ज्यादा लगी। वही सत्यनारायण कथा जिसका वाचन करने वाले पुरोहित जानते हैं कि श्रोता क्या सुनना चाहते हैं और भक्तों को भी मालूम होता है कि पंडित जी क्या सुनाने वाले हैं। अंतर केवल इतना था कि श्री सत्यनारायण कथा सभ्य शब्दों में कही जाती है और रिपोर्ट पर बहस चौक-चोराहे पर बोली जाने वाली भाषा में हुई। देखने में आया कि बहुत से तथ्यों की अनदेखी कर इन घटनाओं का पूरी तरह से ठीकरा अकाली दल बादल पर फोड़ा गया और वह भी असंसदीय शब्दों में। रही सही कसर सरकार ने पूरे मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से छीन कर पंजाब पुलिस के विशेष जांच दल को सौंप दी। इससे देश की जनता में यह संदेश गया कि शायद कैप्टन सरकार को या तो सीबीआई पर विश्वास नहीं या वह अपने तरीके से जांच का निष्कर्ष निकलवाना चाहते हैं। सही अर्थों में रणजीत आयोग की ने पूरे मामले को सुलझाने की बजाय और उलझा दिया लगता दिख रहा है। ज्ञात रहे कि उक्त घटनाओं में जहां कई श्री गुरु ग्रंथ साहिब सहित कई धर्म ग्रंथों की बेअदबी हुई वहीं कोटकपूरा व बहबलकलां में प्रदर्शनकारियों व पुलिस के बीच झड़पें हुई जिसमें दो प्रदर्शनकारी मारे गए और कई घायल हुए। तत्कालीन मुख्यमंत्री स. प्रकाश सिंह बादल ने विपक्षी दल कांग्रेस की ही मांग पर पूरा मामला सीबीआई को सौंप दिया और जोरा सिंह बराड़ के नेतृत्व में आयोग का गठन किया। 2017 में कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभालते ही इस आयोग को निरस्त कर रणजीत सिंह आयोग का गठन किया जिन्होंने हाल ही में अपनी जांच रिपोर्ट सरकार को पेश की है।

पंजाब की विधानसभा में पेश की गई श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी, बहबलकलां गोली कांड और कोटकपूरा लाठीचार्ज पर जस्टिस रणजीत सिंह की रिपोर्ट ने जहां प्रदेश की राजनीति में भूचाल लाया हुआ है वहीं अधिकारियों में भी बेचैनी पाई जा रही है। कुछ पुलिस अधिकारियों का कहना है कि रिपोर्ट में एक डीएसपी, एक एसपी और एक डीआईजी स्तर के अधिकारी का नाम छोड़ दिया गया। इन घटनाओं में घायल लोगों ने भी अपने बयानों में इन पुलिस अधिकारियों के नाम लिखवाए थे और वे गोलीबारी के समय बहबलकलां में मौके पर मौजूद थे परन्तु उनके नाम रिपोर्ट में शामिल नहीं किए गए। यहां तक कि इन घटनाओं में घायल हुए 40 पुलिस कर्मचारियों के बयान भी रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बने, जिनको प्रदर्शनकारियों ने तलवारों और लाठियों से गंभीर रूप से घायल कर दिया गया था। कमीशन के पास गए इन कर्मचारियों को बिना बयान लिए वापस भेज दिया गया। रिपोर्ट में शामिल न किए गए अधिकारियों बारे बताया जाता है कि एक डीएसपी और एक एसपी इस ऑप्रेशन समय मौके पर मौजूद थे। इनके बारे बहबलकलां के घायल सिख युवा बेअंत सिंह ने अपने बयान दर्ज करवाए थे, परंतु उनके नाम इसलिए शामिल नहीं किए गए क्योंकि ये दोनों अधिकारी खालिस्तानी आंदोलन सिख रेफरेंडम 2020 के एक प्रमुख नेता के रिश्तेदार हैं। एक अन्य डीआईजी को इसमें मौके पर मौजूद होने और वीडियो में भी दिखाई देने के बावजूद इसलिए शामिल नहीं किया गया क्योंकि वह वर्तमान में पंजाब के एक मंत्री के रिश्तेदार हैं। विधानसभा में ही शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने एक विवादित खालिस्तानी नेता बलजीत सिंह दादूवाल व मुख्यमंत्री की बैठक की तस्वीर जारी करते हुए दावा किया कि उक्त रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने से पहले मुख्यमंत्री ने अलगाववादी तत्वों से सांझी की है। इस पटाक्षेप पर विवाद बढ़ता देख सरकार ने एक विधायक के नेतृत्व में जांच टीम का गठन कर दिया है। आयोग की रिपोर्ट में तत्कालीन मुख्यमंत्री स. प्रकाश सिंह बादल पर किसी प्रकार का प्रत्यक्ष आरोप नहीं लगाया गया तथा न ही उन्हें इसके लिए किसी प्रकार से भागीदार ही बनाया गया है, परन्तु बाद में सेवामुक्त हो रहे उस समय के पुलिस प्रमुख सुमेध सैनी से एक बयान दिलाया गया है, जिसमें कहा गया है कि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम का उस समय के मुख्यमंत्री को पता था। सच्चाई कुछ चाहे कुछ हो परंतु रणजीत आयोग की रिपोर्ट ने मामले को और पेचीदा कर दिया लगता है।

दूसरी तरफ कांग्रेस सरकार ने इस रिपोर्ट को आधार बना कर इससे पूरा राजनीतिक लाभ लेने का यत्न किया है। जिस प्रकार यह रिपोर्ट सदन में पेश की गई, जिस प्रकार इसके सीधे प्रसारण के प्रबंध किए गए, जिस प्रकार इस हेतु मुख्य पक्ष माने जाते अकाली दल को बहस के लिए सिर्फ 14 मिनट का समय निर्धारित किया गया, उससे यह स्पष्ट जाहिर होता है कि कांग्रेस सरकार अकालियों को बदनाम करने के लिए इस रिपोर्ट का पूरा लाभ लेना चाहती थी। अकाली दल एवं भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने कम समय मिलने के कारण सदन से वाकआऊट कर दिया। कांग्रेस एवं अन्य दलों को अकालियों के विरुद्ध भड़ास निकालने का पूरा मौका मिल गया तथा जिस प्रकार की बहस सदन में की गई तथा इसमें जिस प्रकार की शब्दावली प्रयुक्त की गई, वह अत्यधिक निम्न स्तर की कही जा सकती है। रोचक है कि जिस तरीके से पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष सुनील कुमार जाखड़ सहित अनेक मंत्रियों ने रिपोर्ट सदन में रखे जाने से पहले ही अकाली दल व इसके नेताओं के खिलाफ अभद्र ब्यानबाजी शुरू कर दी उससे साफ संकेत गया कि आयोग की रिपोर्ट कोई जांच रिपोर्ट कम और लिखी लिखाई कथा अधिक हो सकती है।

पंजाब की राजनीति में पंथक एजेंडा अत्यधिक प्रभावित रहा है। राज्य की वर्तमान कांग्रेस सरकार प्रदेश वासियों को चांद की सैर करवाने जैसे असंभव वायदों के साथ सत्ता में आई जिनको पूरा करना अब गौरीशंकर की चोटी पर चढऩे जैसा मुश्किल हो रहा है। ऊपर से देश में आरहे लोकसभा चुनावों ने पार्टी में चिंता बढ़ा दी है कि लोग अब उससे हिसाब मांग सकते हैं। अपनी विगत सरकार के कार्यकाल के अंतिम चरण में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंथक एजेंडे पर चलने का प्रयास किया था परंतु वह सफल नहीं हुए, रणजीत आयोग की रिपोर्ट को कैप्टन के इसी प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...