महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने और नक्सलियों से मिलीभगत के आरोप में पुणे पुलिस द्वारा की गई पांच लोगों की गिरफ्तारी ने देश में फैले लाल आतंकवाद अर्थात माओवाद को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया है। इन आरोपियों की शैक्षिक योग्यता व सामाजिक प्रतिष्ठा से आंखें चुंधियाने से पहले इनकी वास्तविकता व माओवाद-नक्सलवाद समर्थक पृष्ठभूमि भी देखी जानी चाहिए। गिरफ्तार किए गए वरवर राव तेलंगाना मूल के 1957 वामपंथी विचारक और कवि हैं। उन्हें सबसे पहले 1973 में मीसा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। इसके बाद उन्हें 1975 से लेकर 1986 तक कई मामलों में गिरफ्तार किया गया। 1986 के रामनगर षड्यंत्र मामले में गिरफ्तार होने के 17 साल बाद उन्हें 2003 में रिहाई मिली। 19 अगस्त 2005 को आंध्र प्रदेश सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत उन्हें फिर से गिरफ्तार करके हैदराबाद स्थित चंचलगुडा जेल भेजा गया। बाद में 31 मार्च 2006 को सार्वजनिक सुरक्षा कानून के खत्म होने सहित राव को अन्य सभी मामलों में जमानत मिल गई। इसी तरह सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा भी शहरी नक्सलवादी चेहरे के रूप में कुख्यात हस्तियों में शामिल हैं। आंध्रप्रदेश सरकार के साथ बातचीत के लिए नक्सलियों ने वरवर राव को अपना प्रतिनिधि भी बनाया था। इसी तरह से अरुण फरेरा और वरनान गोंजाल्विस को इसके पहले 2007 में भी नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है और कई साल जेल की सजा भी काट चुके हैं। एक अन्य आरोपी मुंबई स्थित सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओ) की संचार और प्रचार इकाई के प्रमुख है। देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों व राजनीतिक दलों ने इन गिरफ्तारियों को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी की सरकार पर असमति को दबाने के आरोप लगाए हैं। केवल विरोध के लिए विरोध करने वाले राजनीतिक दलों व बुद्धिजीवियों को समझना चाहिए कि लाल आतंकवाद के निशाने पर केवल संघ या मोदी नहीं बल्कि पूरा भारत है।
सनद रहे कि माओवाद को भारत में पश्चिमी बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव के नाम पर नक्सलवाद के नाम से भी जाना जाता है, जहां से माओवादियों ने पूरे भारत के खिलाफ हिंसक आंदोलन शुरू किया था। वर्तमान में भारत में हिंसक हमलों में होने वाली मौतों में सबसे अधिक मौतों का कारण नक्सली आतंकवाद है। अमेरिका के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सीरिया और इराक में कहर बरपाने वाले इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान के लिए नासूर बने तालिबान के बाद भारत का नक्सली संगठन विश्व का तीसरा सबसे बड़ा आतंकी संगठन है। नक्सलवादी आखिर चाहते क्या हैं ? इसका उत्तर वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में दे चुके हैं जिसमें कहा गया था 'भारत तेरे टुकड़े होंगे।' नक्सली भारतीय गणतंत्र और इसके 'बुजरुआ संविधान' को नष्ट कर माओवादी चीन के मॉडल पर कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। उनकी नजर में भारत में कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना में सबसे बड़ा बाधक एकीकृत भारतीय राज्य है इसलिए वे सबसे पहले उसे ही छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं। दशकों के सशस्त्र संघर्ष और आतंक के बाद नक्सली इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि एकीकृत भारत को परास्त करना असंभव है। अब वे भारत के विघटन की फिराक में हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि नेपाल की तरह छोटे-छोटे राज्यों पर कब्जा करना आसान होगा। वामपंथी भारत को एक कृत्रिम व दमनकारी राष्ट्र मानते हैं जिसने उपमहाद्वीप की विभिन्न राष्ट्रीयताओं पर कब्जा कर रखा है। इसी कारण वामपंथियों ने आजादी के पहले न केवल पाकिस्तान बनाए जाने का पुरजोर समर्थन किया था, बल्कि भारत को करीब 30 और हिस्सों में बाटने की वकालत भी की। आज भी कृत्रिम द्रविड़-आर्य अलगाव, खालिस्तानी व जिहादी आतंकवाद, जातिवादी संगठनों, किसान-मजदूर यूनियनों के वेष में नक्सली मोर्चों को वामपंथियों का कहीं खुला तो कहीं गुप्त समर्थन मिलता है। यह काम सार्वजनिक जीवन में सक्रिय उनका वह कैडर करता है जो अकादमिक और साहित्यिक जगत के साथ-साथ पत्रकारिता, गैर सरकारी संगठनों में बैठे बुद्धिजीवी करते हैं। यही सूटेड-बूटेड कैडर शहरी नक्सली हैं। 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार द्वारा माओवादियों के खिलाफ शुरू किए गए 'ऑपरेशन ग्रीन हंटÓ ने जब उन्हें भारी क्षति पहुंचाई तो उन्होंने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए शहरी इलाकों में अपने विस्तार पर बल देना शुरू किया। उन्होंने शहरी इलाकों में अपनी गुपचुप सक्रियता बढ़ाने के साथ ही देश में चल रहे अलगाववादी और जिहादी संगठनों से तालमेल बनाना शुरू किया। माओवादियों की समझ से भारत को कमजोर करने का सबसे आसान तरीका है अलगाववादी ताकतों को मजबूत करना। माओवादी यह मानते हैं कि शहर देश की शक्ति के केंद्र हैं। शहरों में ही प्रशासन, न्यायपालिका, विधायिका, सेना आदि की प्रभावी उपस्थिति है इसलिए वहां अराजकता पैदा करके राज्य के संसाधनों और शासकों का ध्यान शहरों की सुरक्षा में ही फंसा देना चाहिए।
माओवादियों का समर्थन करने वाले दलों को यह भी समझना अवश्यक है कि नक्सलियों का दुश्मन केवल मोदी, भाजपा या संघ नहीं, बल्कि भारत है। दिल्ली में बैठने वाली हर सरकार उनके लिए फासीवादी और जनविरोधी है। इसी कारण प्रधानमंत्री रहते समय मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया था। मनमोहन सिंह सरकार ने ऐसे नक्सलियों की पहचान कर उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की थी। इसी सिलसिले में दिल्ली में छिपे कोबाड गांधी को गिरफ्तार किया गया था जो अभी तक जेल में है। यही नहीं, नक्सली हिंसा की साजिश में शामिल होने के आरोप में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रध्यापक जी साईबाबा को गिरफ्तार किया गया था और आरोपपत्र भी दाखिल किया गया था। इसी तरह से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेम मिश्रा को नक्सलियों के साथ संबंध के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। मनमोहन सरकार के दौरान गृहमंत्रालय ने पूरे देश में फैले 128 संगठनों की पहचान की थी, जो मानवाधिकार व दूसरे छद्म गतिविधियों की आड़ में नक्सली हिंसा को बढ़ावा देने में जुटे थे। उस समय सभी राज्यों सरकारों को इन नक्सलियों से जुड़े संगठनों और उससे जुड़े लोगों के खिलाफ कारवाई के लिए भी कहा गया था। लेकिन आज कांग्रेस उन संदिग्ध नक्सलियों के समर्थन में खड़ी होना पंसद कर रही है जिनमें से कुछ को ख़ुद उसकी सरकार गिरफ्तार कर चुकी है। भीमा-कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में जून से लेकर अब तक जिन 10 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनसे से सात इन्हीं संगठनों से संबंधित हैं। इनमें वरवर राव, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन, अरुण फरेरा, वरनोन गोंजाल्विस और महेश राऊत शामिल हैं। शहरी नक्सलियों के खिलाफ ताजा कार्रवाई सिर्फ भीमा कोरेगांव हिंसा तक सीमित नहीं बल्कि इस हिंसा की जांच के सिलसिले में यह भी पता चला है कि नक्सली प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश भी कर रहे थे। हिटलर तो सिर्फ 50-60 लाख लोगों को मार कर बदनाम है, लेकिन वामपंथियों ने जिन देशों में सत्ता पाई वहां करोड़ लोग मार दिए। यह हैरान करता है कि कुछ लोग ऐसे खतरनाक तत्वों का समर्थन केवल इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें हर मसले पर वर्तमान सरकार का विरोध करना है। इन लोगों ने मोदी विरोध और देश विरोध का अंतर खत्म कर दिया है। देश के राजनेताओं व बुद्धिजीवियों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करना होगा।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।
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