Saturday, 27 October 2018

पंजाब में पराली जलाने की घटनाएं 65 प्रतिशत कम हुई

गुरबाणी का सिद्धांत ‘पवनु गुरु पाणि पिता 
माता धरत महत’ हो रहा सार्थक
पंजाब में पराली को जलाने पर रोक लगाने के लिये चलायी जा रही मुहिम को मजबूती मिली है जिसके फलस्वरूप राज्य में किसान अवशेषों को जलाने के बजाय उसे मिट्टी में जोत रहे हैं ताकि मिट्टी की उर्वरा शक्ति तथा मित्र कीटों को नुकसान न पहुंचे। यह जानकारी आज यहां कृषि सचिव के.एस. पन्नू ने दी । उन्होंने बताया कि राज्य रिमोट सेंसिंग सैंटर (पी.आर.एस.सी) से प्राप्त आंकड़ों से अनुसार पराली जलाने की घटनाओं में बड़े स्तर पर कमी आई है जिसके कारण वायु के मानक में सुधार हुआ है। इस मुहिम के कारण 27 सितम्बर से 22 अक्तूबर तक पराली जलाने के 3228 मामले सामने आए हैं जबकि पिछले वर्ष 8420 और वर्ष 2016 में 13358 मामले सामने आए थे। श्री पन्नू ने बताया कि पर्यावरण को बचाने की दिशा में राज्य तथा केन्द्र सरकार की ओर से उठाये गये सार्थक प्रयासों का यह नतीजा है। किसान अब यह समझने लगे हैं कि धान के अवशेषों को जोतने से मिट्टी को खाद मिलती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट नहीं होती। उनके अनुसार पराली को आग न लगाने की घटनाओं में आई कमी के कारण पंजाब के वायु गुणवत्ता इंडैक्स (ए.क्यु.आई) में पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष सुधार हुआ है। पिछले वर्ष के 326 ए.क्यू.आई के मुकाबले इस वर्ष यह मात्रा 111 है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकार ने पराली को जलाये जाने के बिना इसके प्रबंधन के लिए एक कार्यक्रम बनाया था। पराली न जलाने के लिए सब्सिडी पर 24315 खेती मशीनों/साजो-सामान, किसानों, सहकारी सोसाईटियों और कस्टम हायर सैंटरों को सप्लाई किया जा रहा है ।खेतों में ही पराली को वैज्ञानिक ढंग से निपटाए जाने के लिए किसानों को 21000 मशीनें /साजो-समान मुहैया करवाया गया है। राज्य सरकार के निर्देशों पर पराली जलाने को प्रभावी ढंग के साथ रोकने के लिए धान की खेती करने वाले गाँवों में 8 हज़ार के करीब नोडल अफ़सर पहले ही तैनात किये गए हैं। इन गाँवों की शिनाख़्त कृषि विभाग द्वारा की गई थी। ज्ञातव्य है कि मुख्यमंत्री ने हाल ही में प्रधानमंत्री से मुलाकात कर पराली न जलाने वाले किसानों को मुआवज़े के रूप में 100 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से मुआवज़ा देने का आग्रह किया था। राज्य में 65 लाख एकड़ क्षेत्रफल पर धान की रोपायी की जाती है। धान की कटाई के बाद लाखों टन पराली खेतों में पड़ी रहती है और अगली फसल की बुवाई से पहले किसानों को इसका प्रबंध करना पड़ता है।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
जालंधर।

बौद्धिक स्वच्छता अभियान से कौन डरा ?

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाने वाली इन तीन पुस्तकों में प्रकाशित इन पंक्तियों की गहराई समझें, 'बुद्ध के विचारों को अगर भारत मानता तो चीन, यूरोप से ज्यादा आगे होता' (पुस्तक-बुद्धा चैलेंज टू ब्राह्मनिज्म)। 'श्रम करके जिंदगी गुजारने वाले लोगों के बीच जाति के आधार पर विवाद रहा। दलित, आदिवासी मजदूरी करते और ब्राह्मण-बनिया आराम की जिंदगी बिताते। ये बदलाव समाज में जरूरी है' (पुस्तक -वाय आई एम नॉट हिंदू)। 'आदिवासी से लेकर दलितों का उत्पादन करने का विज्ञान, जैसे नाई भारत में डॉक्टर की तरह रहे, मेडिकल प्रैक्टिस जैसी चीजें करते। कथित पिछड़ी जातियां उत्पादन में लगी रहीं। ब्राह्मण और बनिया ऐसे किसी काम में शामिल नहीं हुए। बस सिस्टम और धन अपने हाथ में लिए रहे' (पुस्तक -पोस्ट हिंदू इंडिया)। ऊपर से अकादमिक से लगने वाली यह बातें स्पष्ट रूप से हिंदू-बौद्ध और हिंदुओं के अंदर भी जातिगत आधार पर बिखराव पैदा करती दिखती हैं। इन तीनों पुस्तकों के लेखक हैं स्वयंभू दलित चिंतक कांचा इलैया, जो अपनी लेखनी के चलते अक्सर विवादों में रहते हैं और भारत विरोधी ताकतें उनकी पुस्तकों को आधार बना कर देश की छवि बिगाड़ती रही हैं। कांचा इलैया की इन तीन किताबों को दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम से हटाया जा सकता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टैंडिंग कमेटी ऑन अकैडमिक मैटर्स ने एक बैठक में ये सुझाव दिया है कि इन किताबों को रीडिंग लिस्ट से हटाया जाना चाहिए। इस कमेटी की सदस्य प्रोफेसर गीता भट्ट का कहना है कि आपत्ति की मुख्य वजह रिसर्च, आंकड़ों की कमी है। किताब की विषयवस्तु समाज को बांटने वाली अधिक है। ऐसी किताबों को अगर आप यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं तो वो सही नहीं है। इसमें कांचा इलैया का दृष्टिकोण अधिक है पर अकादमिक तौर पर किताबें कमजोर हैं। देश में पिछले कई सालों से अकादमिक स्तर पर ऐसा विषाक्त प्रचार-प्रसार होता रहा और विभाजनकारी राजनीति इसका समर्थन करती रही है जिससे भारतीय समाज में जातिगत आधार पर विभाजन की रेखा बरकरा रखी जा सके। अब देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है तो अभियानवादी शिक्षाविदों के पेट में मरोड़ शुरू हो चुका है। दिल्ली विश्वविद्यालय के इस प्रयास का विरोध होना शुरू हो चुका है। सवाल पैदा होता है कि देश में चल रहे बौद्धिक स्वच्छता अभियान से आखिर कौन डर रहा है ?

विरोध की पहली आवाज उठाई है खुद कांचा इलैया ने, उनका कहना है कि मेरी किताबें डीयू, जेएनयू और कई पश्चिमी देशों में लंबे समय से पढ़ाई जाती हैं। मैं अपनी किताबों में बीजेपी और आरएसएस की सोच को चुनौती देता हूं इसलिए ही ये सब किया जा रहा है। यानि संघ और भाजपा विरोध की वही कमजोर दलील दी जा रही है जो अकसर वामपंथी दिया करते हैं। कांचा इलैया की किताबों पर रोक लगाने के फैसले का कुछ अध्यापकों ने भी विरोध किया है। उन्होंने मांग की है कि स्टैंडिंग कमिटी में कांचा इलैया, शेपहर्ड और नंदिनी सुंदर की किताबों के कंटेंट पर लगे सवाल पर फिर चर्चा की जाए। एसी मेंबर और पॉलिटिकल साइंस टीचर डॉ नचिकेता सिंह ने कहा है कि स्टैंडिंग कमिटी की मीटिंग में मैंने इसका विरोध किया। अकैडमिक मामलों की इस स्टैंडिंग कमिटी को मेरिट के हिसाब से किताबों, रीडिंग पर फैसला लेना चाहिए। सिर्फ विवादस्पद टाइटल या टिप्पणियों की वजह से यह फैसला लेना गलत है। डॉ नचिकेता स्टैंडिंग कमिटी के मेंबर भी हैं और एसी में भी इस ऐतराज को नंवबर में रखा जाएगा। 

इसके विपरीत विश्वविद्यालय की समिति के सदस्य प्रोफेसर हंसराज सुमन इन आरोप को नकारते हैं। उनका कहना है कि ये बदलाव पाठ्यक्रम की समीक्षा की वजह से हो रहा है। इसमें किसी तरह का कोई राजनीतिक दबाव नहीं है। ये पुस्तकें अब तक दिल्ली विश्वविद्यालय के एमए की रीडिंग लिस्ट में बताई जाती रही हैं लेकिन साल 2019 से शुरू होने वाले कोर्स के लिए सिलेबस की समीक्षा की जा रही है। ऐसी हर समीक्षा कमेटी करती है। कमेटी के सदस्यों के सुझावों को विभाग के पास भेजा जाता है। विभाग अगर इनसे असहमत होता है तो मामला दिल्ली यूनिवर्सिटी के एकेडमिक काउंसिल के पास जाता है। इस काउंसिल में करीब 20 सदस्य होते हैं। दोनों ही कमेटियों के सदस्य प्रोफेसर होते हैं। कांचा इलैया की किताबों पर आपत्ति भी इसी प्रक्रिया के तहत हुई है। 

इलैया की लेखनी अत्यंत विवादित रही है। 'वाय आई एम नॉट हिंदू' किताब में कांचा लिखते हैं- भगवा और तिलक मेरे लिए उत्पीडऩ की तरह हैं, हिंदुवादी ताकतें मुस्लिम और इसाइयों से नफरत करती हैं। कांचा लिखते हैं कि 1990 के दौर से हमारे कानों ने रोज हिंदुत्व सुनना शुरू किया, जैसे भारत में कोई मुस्लिम, सिख, ईसाई नहीं...बस हिंदू हैं। मुझसे अचानक कहा गया कि मैं हिंदू हूं। सरकार भी इस मुहिम का हिस्सा हो गई। संघ परिवार हर रोज़ हमें हिंदू कहकर उत्पीडऩ करती है। यानि कांचा की समस्या का मूल हिंदुत्व व हिंदू समाज है। मूलत: हैदराबाद के लेखक और कथित दलित चिंतक 'सामाजिका स्मगलर्लु कोमाटोल्लु' के कारण भी विवादों में आए थे। इस किताब में दावा किया गया है कि आर्य वैश्य समुदाय मांस खाता था और ये किसान हुआ करते थे। बाद में वे शाकाहारी हो गए। आर्य वैश्य संगठनों की आपत्ती थी कि किताब के शीर्षक का मतलब है, 'कोमाटोल्लु सामाजिक तस्कर होता है', जो कि उनकी प्रतिष्ठा के खिलाफ है।

प्रगतिशीलता व धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश में जिस तरह की बौद्धिकता को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है उसकी लंबी फेरहिस्त है। बहुसंख्यक आस्था को नीचा दिखाना, मीन मेख निकालना, अल्पसंख्यकों की सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों का या तो महिमामंडन या फिर अनदेखी, हिंदू समाज में जातिगत बिखराव को प्रोत्साहन आदि आदि इसी प्रगतिशीलता के मुख्य गुण रहे हैं। इसी तरह के लेखन व चिंतन को सोची समझी साजिश के चलते  अकादमिक व शिक्षण पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया। रोमिला थापर, इरफान हबीब जैसे असंख्य अभियानवादी षड्यंत्रकारियों को इतिहासकार व विद्वान के रूप में स्थापित किया गया और दुनिया इन्हीं की नजरों से भारत को देखती रही। कांचा इलैया भी इसी कुटुंब की संतान मानी जाती है। आज जब प्रगतिशील बुद्धिमता की प्याज की भांति परतें उधड़ चुकी हैं तो कांचा इलैया जैसे संदिग्ध लेखकों के वैचारिक विषाणुओं वंशानुगत रोग के रूप में ढोना कोई जरूरी नहीं है। देश में स्वच्छता अभियान जोरों पर है और इसका विस्तार बौद्धिक धरातल पर भी होना समय की आवश्यकता है। अगर किसी को स्वच्छता से एलर्जी है या पेट दुखता है तो यह उसकी समस्या हो सकती है समाज की नहीं।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा, 
जालंधर

Friday, 26 October 2018

बिना शोर शराबे के अमृतसर रेल दुर्घटना पीडि़तों की सेवा में जुटा संघ

दुर्घटना का यह दुखद व शर्मनाक पक्ष है कि इसको लेकर राजनीतिक दलों में फोटोसत्र चल रहा है और खूब ब्यानबाजी हो रही है परंतु इन सभी प्रपंचों के बीच बिना प्रचार व प्रशंसा की इच्छा से विरक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक दुर्घटना से लेकर अभी तक राहत एवं बचाव कार्य में लगे हैं। अमृतसर महानगर के कार्यवाह श्री कंवल कपूर को ज्यों ही दुर्घटना की सूचना मिली उन्होंने तत्काल अपनी टीम को सक्रिय कर दिया। दुर्घटनास्थल अमृतसर के शिवाला नगर में स्थित है वहां के नगर कार्यवाह श्री रमेश कुमार, विभाग प्रचारक श्री अक्षय कुमार, महानगर सह कार्यवाह श्री अरुणजीत, प्रचार प्रमुख श्री सुरेंद्र कुमार के नेतृत्व में चालीस खूह वाली शाखा के 50 और पूरे महानगर से लगभग सवा सौ स्वयंसेवक मौके पर पहुंच गए। तत्काल राहत एवं बचाव कार्य चलाने के लिए स्वयंसेवकों को तीन टोलियों में बांटा गया। इन टीमों को रामबाग सिविलि अस्पताल, श्री गुरु नानक सिविलि अस्पताल मजीठा रोड, सिविल अस्पताल अवालेयांवाला को भेजा गया। स्वयंसेवकों ने जहां घायलों को अस्पताल पहुंचाया वहीं उनके व उनके परिजनों के लिए चाय-पानी की भी व्यवस्था की। खून के लिए रक्तदान हेतु स्वयंसेवकों की पंक्तियां लग गईं। इस बीच प्रांत प्रचार श्री प्रमोद कुमार भी मौके पर पहुंचे जिनके नेतृत्व में सारी रात राहत एवं बचाव कार्य चलता रहा। सेवा भारती की ओर से अस्पताल में मरीजों के लिए दवाई व नाश्ते पानी की व्यवस्था करवाई गई। महानगर कार्यवाह श्री कंवलजीत ने बताया कि पीडि़त परिवारों के लिए दीर्घगामी राहत योजना चलाई जा रही है जिसके लिए समिति का गठन किया गया है। यह समिति पीडि़त परिवारों के लिए जनसहयोग से आर्थिक सहायता, सरकारी सहायता के लिए दस्तावेज पूरे करवाने, सरकारी औपचारिकताएं पूरी करवाने का काम करेगी। पीडि़त परिवारों की गलीशह पालकों को जिम्मेवारी सौंपी जाएगी ताकि भविष्य में इन परिवारों की सहायता की जा सके। इस कार्य के लिए संघ ने अस्थाई तौर पर एक कार्यालय भी स्थापित किया है। राहत एवं बचाव कार्य में शाह सतनाम जी ग्रीन एस वैलफेयर सोसाइटी, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति, खालसा एड सहित अनेक सामाजिक, धार्मिक संगठन भी भरपूर सहयोग कर रहे हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।


Thursday, 25 October 2018

एतिहासिक अन्याय का शिकार हुए महाराजा हरि सिंह

जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को लेकर अक्सर इतिहासकार बताते हैं कि वे भारत से अलग स्वतंत्र राज्य चाहते थे। इसी झूठ के आधार पर अभी तक महाराजा हरि सिंह का मूल्यांकन भी होता रहा है परंतु तथ्य बताते हैं कि महाराजा एक प्रखर राष्ट्रभक्त थे। 26 अक्तूबर 1947 को उन्होंने अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के पत्र पर हस्ताक्षर किए। देश मे आभी तक चली तुष्टीकरण की राजनीति के चलते महाराजा हरि सिंह के सही व्यक्तित्व को देश व समाज के सामने नहीं लाया जा सका है।
मैं श्रीमान् ‘महाराजाधिराज श्री हरि सिंह जी जम्मू व कश्मीर का शासक रियासत पर अपनी संप्रभुता का निर्वाह करते हुए एतद्द्वारा अपने इस विलय के प्रपत्र का निष्पादन करता हूँ।’ यह वही प्रपत्र है जिस पर देश की सभी रियासतों के शासकों ने हस्ताक्षर किये थे। जम्मू-कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह ने भी इस प्रपत्र पर ही हस्ताक्षर किये थे। इस विलय को स्वीकार करते हुए तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड मउंटबेटन ने लिखा, मैं एतद्द्वारा विलय के इस प्रपत्र को अक्तूबर के सत्ताईसवें दिन सन् उन्नीस सौ सैंतालीस को स्वीकार करता हूँ। यह भी वही भाषा है जिसे माउंटबेटन ने अन्य सभी रियासतों के विलय को स्वीकार करते हुए लिखा था। जब विलय का प्रपत्र और स्वीकृति, दोनों ही सभी रियासतों के समान थे तो विवाद का विषय ही कहाँ बचता है? अत: कथित विवाद का जो रूप आज हमें अनुभव होता है, वह तथ्य नहीं बल्कि प्रयासपूर्वक गढ़ा गया एक भ्रम है जिसे बनाये रखने में न केवल अलगाववादी तत्वों व तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों की भी भूमिका है। सच यह है कि पाकिस्तान की ओर से हुए आक्रमण की भारी कीमत राज्य के नागरिकों को उठानी पड़ी जिसके कारण आम नागरिक भी पाकिस्तान को आक्रमणकारी मानता था और उसके साथ विलय की सोच भी नहीं सकता था। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के सबसे निकट रहे शेख अब्दुल्ला, जिन्हें राज्य का प्रधानमंत्री बनाए जाने की जिद के चलते ही जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में इतना विलम्ब हुआ। इसके बावजूद जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर जो भ्रम उत्पन्न हुआ उसका मुख्य कारण पं. नेहरू द्वारा राज्य के साथ अन्य रियासतों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया जाना है। महाराजा को यह स्वीकार नहीं था। महाराजा की इस हिचक व भारत के प्रति प्रेम को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। हरि सिंह देश की सबसे बड़ी रियासतों में से एक के महाराजा थे। महाराजा हरि सिंह एक देशभक्त राजा थे। ‘नरेन्द्र मण्डल’ के अध्यक्ष की हैसियत से ही उन्होंने लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था जिसमें उन्होंने दृढ़ता से भारत की स्वतंत्रता का पक्ष रखा था। उन्होंने ब्रिटिश प्रतिनिधियों को यह भी परामर्श दिया कि वे रियासतों के राजाओं की स्थिति के बारे में अधिक चिंतित न हों और स्वतंत्रता के बाद रियासतों के साथ संबंध का मामला वे रियासतों के राजाओं पर छोड़ दें। स्वाभाविक ही अंग्रेजों को महाराजा का यह आग्रह पसंद नहीं आया और उन्होंने महाराजा को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। 1947 में उन्हें यह अवसर मिल गया। अंग्रेजों ने उनके साथ राजाओं जैसा व्यवहार नहीं किया जिसके चलते वे आक्रोश में थे। इसी आक्रोश को स्वतंत्रता के बाद इतिहासकारों ने नया रंग दिया कि महाराजा हरि सिंह भारत से अलग रहना चाहते थे। इसके बाद देश में चले तुष्टीकरण की राजनीति ने महाराजा की देशभक्ति की छवि को सामने ही नहीं आने दिया।


- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Tuesday, 23 October 2018

रेल हादसे पर सबने पल्ला झाड़ लिया यानि मरने वाले ही दोषी थे


विजयादशमी वाले दिन अमृतसर के जोड़ा फाटक के पास भीषण ट्रेन दुर्घटना में 60 से भी ज्यादा लोगों की मौत हो गई और 50 के करीब लोग घायल हो गए। रावण दहन के वक्त काफी लोग पास ही स्थित ट्रैक पर खड़े थे। इसी दौरान वहां से लगातार दो ट्रेनें गुजर गईं और सैंकड़ों लोग इनकी चपेट में आ गए। इतना भीषण हादसा शोक के साथ क्षोभ से भी ग्रस्त करने वाला है, क्योंकि यदि स्थानीय प्रशासन ने तनिक भी सतर्कता और समझदारी का परिचय दिया होता तो उल्लास-उमंग से भरे लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता था। भले ही इस हादसे के बाद भी वही होगा जो अभी तक होता आया है। सराकरों ने मुआवजे व मैजिस्ट्रेट जांच की तो घोषणा कर ही दी है, अब अखबारों के साथ-साथ विभिन्न मंचों पर बुद्धिजीवी घटना का आप्रेशन करेंगे, वातानुकूलित कमरों में चर्चा होगी और कुछ समय बाद पूरे मामले को भुला दिया जाएगा। यह देश में होने वाली हर बुरी घटना के बाद की स्थाई परंपरा बन चुकी है। हम न तो किसी दुर्घटना से सबक सीखते हैं और न ही उनसे बचने के पूर्व प्रबंध कर पाते हैं और प्रतीक्षा करते हैं अगली दुर्घटना की। माना कि भारत एक बड़ी आबादी वाला उत्सवप्रिय देश है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यहां लोग उत्सवों के दौरान हादसों का शिकार होते रहें। अमृतसर में हुई इस दुर्घटना के पीछे 10 पहलू गिनवाए जा सकते हैं, जिन पर चिंता व गौर किए बिना भविष्य में होने वाले हादसों को रोका जाना संभव नहीं होगा।
 
1. गैर-जिम्मेवार आयोजक
 
हादसे के कारणों की मिमांसा करते हुए देखने में आ रहा है कि दशहरा समारोह के आयोजक पूरी तरह से गैर-जिम्मेवारी से काम करते दिखे। शहर में जगह-जगह होर्डिंग लगा कर हजारों लोगों को एकत्रित तो कर लिया गया परंतु उनकी सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं किए गए। समारोह स्थल इतना संकीर्ण था कि रावण के जलते हुए पुतले के गिरने के लिए भी पर्याप्त स्थान नहीं था। रेलवे ट्रैक की ओर एलईडी लगा कर मंच पर चल रहे लोकगायक बूटा मोहम्मद के रंगारंग कार्यक्रम का सीधा प्रसारण किया गया जिससे सैंकड़ों लोग रेलवे ट्रैक पर ही जुट गए। आरोप लग रहे हैं कि आयोजन की प्रशासन से मंजूरी भी नहीं ली गई।
 
2. पर्वों का राजनीतिकरण 
जिस तरह से हमारे पर्वों का राजनीतिकरण हो रहा है वह भी कहीं न कहीं इस घटना के लिए जिम्मेवार है। अब शोभायात्रा हो या दशहरा या जागरण वीआईपी, विशेषकर नेताओं द्वारा फीता कटवाना प्रचलन बन गया है। जब इस तरह के समारोह में नेता जुटते हैं तो वे भीड़ की भी मांग करते हैं और इसके लिए तरह-तरह के प्रपंच किए जाते हैं और समारोह में भीड़ जुटने की प्रतीक्षा की जाती है। उक्त समराहो में यह बात देखने में आई और दुर्घटना के लिए बहुत बड़ा कारण बनी।
 
3. लापरवाह जिला प्रशासन 
इस दुर्घटना में सिविल प्रशासन यह तर्क देकर अपनी जिम्मेवारी से नहीं बच सकता कि उनसे इसकी अनुमति नहीं ली गई और बिना मंजूरी के यह क्रम कई सालों से चल रहा है। अगर ऐसा है तो प्रशासन अभी तक इस तरह के आयोजन क्यों होने देता रहा है। जब इस कार्यक्रम के पूरे शहर में बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगे थे तो प्रशासन यह नहीं कह सकता कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। अगर जानकारी थी तो प्रशासन ने स्वत: संज्ञान लेकर यहां बंदोबस्त क्यों नहीं किए। कहा जाता है कि जब आयोजन स्थल पर कई दिनों से प्रशासन साफ सफाई करवा रहा था तो बाकी के प्रबंध क्यों नहीं किए गए?

4. कानून की आंख पर पट्टी 
पुलिस नियमावली के अनुसार कुआं, जौहड़, नहर या नदी या संवेदनशील जगह आयोजन होने पर बैरिकेट्स लगाने जरूरी हैं। अगर ऐसा नहीं है तो पुलिस जवानों की ऐसी कठोर दीवार तैयार की जाती है कि लोग इन स्थानों तक जा न पाएं। रेलवे परिसर के आसपास इतना बड़ा आयोजन खुद में अति संवेदनशील मामला है तो पुलिस प्रशासन क्यों आंखें मूंदे बैठा रहा ?

5. रेल प्रशासन की लापरवाही 
रेल प्रशासन को जब जानकारी थी कि उक्त स्थान पर हर साल दशहरा आयोजित किया जाता है तो ट्रेन ड्राईवर को काशन आर्डर क्यों नहीं दिया गया? रेलवे नियमावली के तहत बिना गेट वाले फाटक, फाटक जंपिंग करने वाले स्पॉट, रेल लाइनों पर संभावित आवागमन वाली जगहों पर ड्राईवर को काशन दिया जाता है। फाटक पर तैनात फ्लैगमैन ने हरी झंडी दिख्राते समय ट्रेन चालक को काशन क्यों नहीं दिया? हादसे के कुछ वीडियो में दिख रहा है कि रेल पूरी तेजी से भीड़ को चीरती हुई जा रही है। ऐसे में सवाल है कि रेल चालक को क्या एक बड़ी भीड़ दिखाई नहीं दी ? चालक को अगर भीड़ दिख गई थी तो उसने लगातार हॉर्न बजाया या नहीं ? लगातार हॉर्न बजाने के अलावा चालक ने गाड़ी की गति कम क्यों नहीं की ?
 
6. वीआईपी कल्चर 
यह बीमारी बहुत पुरानी और कई बार जानलेवा साबित हो चुकी है। देखने में आता है कि वीआईपीज की सुरक्षा के लिए सैंकड़ों पुलिस जवान तैनात कर दिए जाते हैं परंतु जनसाधारण की सुरक्षा पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता। उक्त स्थान पर उमड़े 7-10 हजार व्यक्तियों के लिए मात्र 6-7 पुलिस के जवान तैनात थे जबकि इससे अधिक जवान तो समारोह में मुख्य मेहमान के तौर पर पहुंची नवजोत कौर सिद्धू व अन्यों की सुरक्षा में दिखाई दिए। वीआईपी कल्चर के चलते ही किसी कार्यक्रम में अगर किसी बड़े आदमी का नाम जुड़ जाए तो देखने में आता है कि नागरिक प्रशासन इनको लेकर आंखें बंद कर लेता है और इन समारोहों में नियमों को ताक पर रखा जाता है। इनके परिणामस्वरूप ही होते हैं अमृतसर जैसे हादसे।
 
7. लापरवाह व असावधान लोग 
किसी दुर्घटना के लिए पीड़ित को चाहे जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता परंतु नियमों को लेकर जनसाधारण में लापरवाही व असावधानी के चलते दुर्घटनाएं हो जाती हैं जिनका खमियाजा अंतत: आम आदमी को ही भुगतना पड़ता है। उक्त घटना को लेकर भी कहा जा सकता है कि जबकि सभी जानते हैं कि अमृतसर-दिल्ली रेल मार्ग देश का अति व्यस्ततम रेल मार्ग है तो लोग रेल लाइनों पर एकत्रित ही क्यों हुए। ऊपर से सामने चल रही एलईडी व जलते हुए रावण से फूटती आतिशबाजी के शोर ने उन्हें काल के गाल में समा दिया। बताया जाता है कि मौके पर मरने वाले बहुत से लोग अपने मोबाइल पर दशहरे की वीडियो बना रहे थे। अगर वे सावधान होते तो शायद इतना बड़ा हादसा न होता। देखने में आ रहा है कि जीवन में मोबाइल की बढ़ती भूमिका व यातायात नियमों का उल्लंघन लोगों के जी का जंजाल बन रहे हैं।

8. हिंदू पर्वों की उपेक्षा 
बड़े दुखी हृदय से लिखना पड़ रहा है कि पंजाब में चाहे किसी भी दल की सरकार हो परंतु हिंदू पर्वों की उपेक्षा ही की जाती रही है और उपेक्षा का क्रम इतना लंबा है कि पंजाब में रहने वाले हिंदुओं को अब यह बात सामान्य-सी लगने लगी है। अन्य धर्मों के पर्वों पर सरकारें विज्ञापन जारी करती, सरकारी अवकाश की घोषणा करती, एक दिन पहले निकलने वाली शोभायात्राओं के लिए आधे दिन का अवकाश घोषित करती व पूरे बंदोबस्त करती है परंतु हिंदू पर्वों पर कंजूसी बरती जाती है। दशहरे पर्व पर हुआ हादसा और प्रशासन की भूमिका इसका जीवंत उदाहरण है। अभी हाल ही में दो दिन पहले लोगों ने कंजक पूजन किया। उस दिन अवकाश नहीं था और कंजक पूजन करते-करते बच्चे सुबह स्कूलों के लिए लेट हो गए। इसके चलते बहुत से बच्चों की स्कूल वैन मिस हो गई या लेट हो गई। समय पर स्कूल पहुंचने के लिए स्कूल वाहन चालकों को ज्यादा स्पीड से अपने वाहन चलाने पड़े। ऐसा में अगर हादसा होता तो कौन जिम्मेवार होता। केवल इतना ही नहीं दीपावली हो या कृष्ण जन्माष्टमी या होलिका दहन, छठ पूजन जैसे सार्वजनिक पर्व इनके बंदोबस्त को कोई भी विभाग या सरकार इतना महत्त्व नहीं देती।
 
9. संवेदनहीनता 
जनता के प्रति यह संवेदनहीनता ही है कि घटना के तुरंत बाद इस पर राजनीति होनी शुरू हो गई और राज्य के मुख्यमंत्री को मौके पर पहुंचने में 17 घंटे से अधिक समय लग गया। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का दावा है कि वे इसराईल जाने वाले थे इसी कारण देरी से पहुंचे। जबकि वास्तविकता है कि उनका इसराईल दौरा 21 अक्तूबर से आरंभ होना है और घटना 19 की रात को हुई। वे उस समय दिल्ली में थे जहां हवाई मार्ग से कुछ घंटों के बाद ही अमृतसर पहुंच सकते थे। जब रेल राज्यमंत्री आधी रात को दिल्ली से अमृतसर पहुंच सकते हैं तो कैप्टन अमरिंदर सिंह क्यों नहीं ?
 
10. धर्म कम दिखावा ज्यादा 
देखने में आ रहा है कि समाज में धर्म के नाम पर दिखावा बढ़ रहा है और इससे न केवल दुर्घटनाएं हो रही हैं बल्कि जनसाधारण को भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। पंजाब में लंगर की श्रेष्ठ परंपरा है परंतु देखने में आता है कि हाईवेज पर लगने वाले लंगरों व छबीलों के चलते दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं। इसी तरह विभिन्न शहरों में निकलने वाली शोभायात्राओं के चलते बाजारों में भीड़ बढ़ जाती है जिससे लोग परेशानी झेलते हैं। जागरण के नाम पर सड़कों को बंद कर दिया जाता है। श्रद्धा के प्रतीक धार्मिक आयोजनों में भौंडापन हावी होता जा रहा है और अब इससे लोगों की जान भी सांसत में फंसती दिख रही है। किसी ने सही कहा है कि पहले धर्मस्थान कच्चे थे पर आस्था पक्की और आज हालात उलट दिखते हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Wednesday, 10 October 2018

अल्पेश ठाकोर, क्षेत्रवादी बांस का फूल

बांस के पौधे पर बरसों के बाद बसंती चढ़ती है परंतु इसका फूल विपदा का संकेत माना जाता है। अपनी संपन्नता के चलते लघु भारत के रूप में विख्यात गुजरात वर्तमान में क्षेत्रवाद की आग में झुलस रहा है। कांग्रेस के विधायक अल्पेश ठाकोर के नेतृत्व वाली ठाकोर सेना वहां दूसरे राज्यों से आए लोगों पर अत्याचार ढहा रही है। विशेषकर बिहार व उत्तर प्रदेश के श्रमिकों को निशाना बनाया जा रहा है। ठाकोर सेना की इस गुंडागर्दी से हजारों लोग पलायन करने को विवश हैं। वहां विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने जिस तरीके से अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवानी व हार्दिक पटेल नामक जातिवादी त्रिदेवों की अशुभ प्रतिमाओं में प्राण प्रतिष्ठा की उसका परिणाम अब सामने आरहा है। अल्पेश पिछड़ा वर्ग, जिग्नेश दलितों के और हार्दिक पटेल पाटीदार समाज के हितपोषण का दावा करते हैं। कांग्रेस के उस समय के नए-नए बने अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अशुभ जातीय त्रिवेणी को युवा ब्रिगेड बता कर अपनी जीत का जातिगत समीकरण बैठाने का प्रयास किया जो आज गंभीर संकट का कारण बन कर सामने आया है। बता दें कि महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुए जातीय दंगों में गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवानी का नाम पहले आ चुका है और अब अल्पेश ठाकोर अपनी कारसतानियों से देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं।

इसे गुजराती मिट्टी का विरोधाभासी प्रकृति ही कहा जा सकता है कि जिसने जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश विभाजन के खलनायक जिन्नाह को एक साथ जन्म दिया। इसी धूल में लोटपोट हो बचपन गुजारने वाले सरदार पटेल ने पूरे देश को एक किया तो अल्पेश जैसे बांस के फूल भी हैं जो देश के सम्मुख विपत्ती पैदा करने की फिराक में हैं। अल्पेश ने ओबीसी, एससी और एसटी एकता मंच गठित कर अपनी राजनीतिक शुरूआत की थी। आज वो पाटन जिले की राधनपुर विधानसभा सीट से कांग्रेस के विधायक हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान गांधी नगर में अल्पेश ठाकोर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ नजर आए और उन्होंने अपने कई समर्थकों को भी कांग्रेस से टिकट दिलवाया। अल्पेश बिहार में कांग्रेस के सह-प्रभारी भी हैं। पार्टी ने वहां के पिछड़ा समाज को आकर्षित करने की जिम्मेदारी अल्पेश को दी हुई है। देश के स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व का दंभ भरने व छह दशक तक पूरे देश में एकछत्र राज कर चुकी राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने गांधी की जन्मभूमि को जिस तरीके से बदनाम किया है उसके लिए इतिहास उससे अवश्य हिसाब मांगेगा।

जातिवाद व क्षेत्रवाद का दुर्योधन व कर्ण जैसे अटूट संबंध हैं, जो बिना विवेक के साथ-साथ चलते हैं। यह जातीय भनवाएं ही हैं जो आगे बढ़ कर भाषाई व क्षेत्रवादी समस्या का रूप लेती हैं। अपने यहां राष्ट्र के लिए अखिल भारतीय चेतना के समक्ष इसकी क्षेत्रीय संस्कृतियों की देश के रूप में व्याख्या करने की एक परम्परा है। यहाँ के विविध भाषा-भाषी क्षेत्रों में संस्कृति के कई रंग इस बात की पुष्टि भी करते हैं। राष्ट्रीय विविधता एवं क्षेत्रीयता के संतुलनकारी अंत:सम्बन्ध का नियामक रहे हैं। ब्रटिश काल में बड़े ही सुनियोजित ढंग से क्षेत्रीयता को पृथकतावादी भावना से मजबूत बनाए रखने का प्रयास हुआ। भारत में ही नहीं संसार के अनेक भागों में ऐसा ही हुआ। यूरोपीय जातियां पंद्रहवीं सोलहवीं और सत्रहवीं शती में जब संसार के विभिन्न भागों में पहुँची तो उन्होंने स्थानीय निवासियों को अधीन कर लिया। शासन प्रणाली कुछ इस ढंग की रखी कि औपनिवेशिक शासितों में कभी एकजुट होने की कोई संभावना नहीं छोड़ी। औपनिवेशिक भारत में 18वीं व 19वीं शती के विद्रोह स्थानीय एवं क्षेत्रीय ही बने रहे। देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति को दबाने वाले भी भारतीय-ब्रिटिश सैनिक ही थे। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय संघर्ष के दौरान क्षेत्रीयता, विशेषकर भाषा एवं संस्कृति को राष्ट्रवाद के पक्ष में पूरी तरह भुला देने की त्यागवृत्ति जाग गई हो। स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान ही प्रश्न उठने लगे थे कि स्वतंत्र के बाद देश में विभिन्न भाषा-भाषियों की स्थिति क्या होगी ? क्या उन्हें अपनी क्षेत्रीय अस्मिता की रक्षा करने दी जायेगी और उनकी अपनी पहचान सुरक्षित रह सकेगी ? उस समय कांग्रेस ने यह वायदा किया कि स्वाधीनता के बाद देश के सभी राज्यों का भाषा के आधार पर गठन किया जायेगा। यही वह आधार था, जिसके तहत छठे दशक में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया और उसकी सिफारिशों में कहीं-कहीं फेरबदल करके अधिसंख्य राज्यों का पुनर्गठन किया गया। विभाजन के पूर्व एक विभाजनकारी चेतना का संकट तो था ही, देश को उपराष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता के तमाम प्रश्नों से भी गुजरना पड़ा। क्षेत्रीयता के मूल में पहचान का कृत्रिम संकट है। अनेक क्षेत्रीय, भाषाई, धार्मिक और नस्लीय वर्गों को यह भय सताता रहता है कि कुछ समुदाय जनसंख्या बल, आर्थिक शक्ति, राजनैतिक प्रभुता या पंथिक आक्रामकता से उनकी पहचान को लुप्त कर देंगे। क्षेत्रीयता की उभरती नवीन प्रवृत्ति, विशेष रूप से आठवें दशक के उत्तराद्र्ध एवं नव दशक की राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों की उपज है। राजनैतिक परिदृश्य में स्थानीय आवश्यकताओं की अनदेखी और असंतुलित विकास ने क्षेत्रीयता को और विसंगतिपूर्ण तथा और प्रासंगिक सा बना दिया। आर्थिक विसंगति ने ही देशव्यापी प्रवास को बढ़ावा दिया। बिहार, यूपी, बंगाल, राजस्थान से मजदूरों का बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों को पलायन हुआ। इससे आर्थिक रूप से सम्पन्न कुछ क्षेत्रों तथा संभावना वाले क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता गया। पहचान के लिए सबसे बड़ा संकट असम व त्रिपुरा के सम्मुख रहा है, शायद इतना किसी अन्य प्रदेश को नहीं रहा। अवैध घुसपैठ व प्रवासियों के चलते स्थानीय निवासियों में अल्पसंख्यक होने का भय सताने लगा।

चार दशक पहले महाराष्ट्र विशेष रूप से मुम्बई में जब बाल ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना का उदय हुआ तो उनका निशाना मुम्बई में बसने वाले दक्षिण भारतीय थे। पंजाब में भी एक सुगबुगाहट प्राय: सुनाई देती है कि यहां उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वालों की संख्या बढ़ी है। भाषा पर आधारित पुनर्गठित इस राज्य के लोगों में यह आशंका पैदा करवाई जाती रही है कि यदि यही जारी रहा तो पंजाब में जनसंख्या का संतुलन ही बिगड़ेगा और वह हिन्दी भाषी प्रदेश बन जायेगा। किसी प्रदेश या क्षेत्र में जब इस तरह की मानसिकता विकसित होने लगे तो स्वभाविक है कि उससे अवसरवादी दल व संगठन भी पनपनते हैं। संकीर्ण स्वार्थों के फलीभूत यह शक्तियां राष्ट्र के अभिन्न घटक हर क्षेत्र की मन मुताबिक व्याख्या करते और अपना एजेंडा लागू करते हैं जिस तरह से अल्पेश की ठाकोर सेना ने किया है। ऐसे में राष्ट्रीय दलों व राष्ट्रवादी शक्तियों का दायित्व बनता है कि वह अपने सामयिक हित व मतभेद भुला कर क्षेत्रवादी ज्वर का उपचार करें। वास्तव में क्षेत्रीयता, राष्ट्रीय छत्रछाया में ही प्रासंगिक रूप से व्याख्यायित की जा सकती है। खण्ड-खण्ड में बंटी क्षेत्रीय अस्मिताओं को राष्ट्रवाद एक सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाता है। दूसरी ओर क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान की वर्तमान दुविधा पर भी राष्ट्रीय स्तर पर विचार होना चाहिए और आवश्यक हो तो इस संबंध में कुछ नीति भी बनाई जानी चाहिए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Saturday, 6 October 2018

आज पर तोलने उतरेंगे शिअद व कांग्रेस

जिस तरह महाभारत से पहले विराट युद्ध में अर्जुन व शेष कौरव सेना ने अपनी-अपनी ताकत का सिंहावलोकन किया लगभग उसी तर्ज पर कल रविवार को पंजाब में अकाली दल बादल और सत्ताधारी कांग्रेस लोकसभा चुनाव 2019 से पूर्व अपने-अपने पर तोलने उतरेंगे। अकाली दल के अभेद्य गढ़ लंबी विधानसभा क्षेत्र के किल्लेयांवाली में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी रैली करने जा रही है तो मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के गृहनगर पटियाला में अकाली दल  अपनी ताकत का एहसास करवाएगा। आम आदमी पार्टी के तेजी से स्थान छोडऩे के कारण प्रदेश में पुन: स्थापित हो रही दो ध्रुवीय राजनीति के संदर्भ में भी यह रैलियां अहम भूमिका निभाने वाली हैं क्योंकि आप का खिसकता हुआ परंतु महत्वाकांक्षी जनाधार इनकी सफलता या असफलता के आधार पर अपने भविष्य की रणनीति तय करने वाला है।

बात करते हैं अकाली दल बादल की जो विधानसभा चुनाव के बाद से निरंतर पराजय का मुंह देखती आरही है। विधानसभा चुनाव के बाद अकाली दल के भीष्म पितामह स. प्रकाश सिंह बादल तो एक तरह से संन्यास आश्रम में चले गए थे और विपक्ष का रुतबा भी गंवा चुके इस दल का नेतृत्व उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल ने किया। चाहे सत्ताधारी कांग्रेस पर आरोप है कि उसकी सरकार ने अपने चुनावी वायदों पर इतना ध्यान नहीं दिया जितना कि वे वायदा करके आए थे। लोगों में इसको लेकर चाहे रोष है परंतु अकाली दल इन परिस्थितियों का लाभ उठाने में असफल रहा। अकाली-भाजपा सरकार के सत्ता में रहते हुए राज्य में हुई बेअदबियों, बहबलकलां प्रकरण, कोटकपूरा हिंसक टकराव, डेरा सच्चा सौदा प्रकरण को गलत ढंग से हैंडल करना जैसी गलतियों का खमियाजा आज तक अकाली दल को भुगतना पड़ रहा है। इसी का ही परिणाम लगता है कि विधानसभा चुनाव के बाद हुए लोकसभा व विधानसभा उपचुनावों में अकाली दल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ के हाथ असफलता ही लगी। पिछले दस सालों में हर चुनाव जीतने का करिश्मा करने वाले सुखबीर सिंह बादल बदली हुई परिस्थितियों में बेबस नजर आने लगे और यही कारण है कि दल की कमान एक बार फिर बूढ़े योद्धा प्रकाश सिंह बादल संभालते दिख रहे हैं। विगत पंचायत व ब्लाक समिति चुनावों में कांग्रेस पार्टी पर जिस तरीके से धक्केशाही के आरोप लगे और चुनावों के दौरान हिंसा हुई उसने बादल के रूप में वृद्ध राजनीतिक शेर को एक बार फिर जगा दिया है। विगत दिनों सरकार की रोक के बावजूद फरीदकोट में उत्साहजनक रैली करके प्रकाश सिंह बादल ने दिखा दिया है कि पंथक राजनीति पर उनकी पकड़ आज भी बरकरार है और वे ही कांग्रेस को टक्कर दे सकते हैं। इसी रैली की सफलता को देखते हुए मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को लंबी में रैली करने की घोषणा करनी पड़ी जिसके जवाब में अकाली दल भी पटियाला में रैली करेगा।

अकाली दल की रैली की सफलता केवल विरोधियों के लिए ही नहीं बल्कि राज्य में अपनी कनिष्ठ और केंद्र में वरिष्ठ सहोगी भारतीय जनता पार्टी के लिए भी संदेश देने वाली होगी। अकाली दल का प्रयास होगा कि उसकी सहयोगी भाजपा कहीं उसे प्रदेश की राजनीति में इतना भी कमजोर न समझ बैठे कि लोकसभा चुनाव में अपने कोटे से अधिक हिस्से की मांग करने लगे। गठजोड़ के निर्धारित कोटे के अनुसार, अकाली दल-भाजपा का हिस्सा लोकसभा सीटों का 10-3 और विधानसभा सीटों 94-23 का है। अकाली दल अपनी सहयोगी भाजपा की राजनीतिक भूख से भलिभांति परिचित है और जानता है कि किस तरह भाजपा उसे हरियाणा, राजस्थान में दुत्कारती और दिल्ली में हांकती है। केवल पंजाब में ही अकाली दल को वरिष्ठ होने का सौभाग्य मिलता है जिसे वह किसी सूरत में गंवाना नहीं चाहेगा। अकाली दल अपनी सफल रैली से एहसास करवाने का पूरा प्रयास करेगा कि तलवार की धार अभी बरकरार है।

राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी का हौंसला सातवें आसमान पर है। इसका कारण भी है कि पार्टी के पास कैप्टन अमरिंदर सिंह सरीखा लोकप्रिय नेता और चौधरी सुनील कुमार जाखड़ जैसा धारदार प्रधान है। विधानसभा चुनावों के बाद निरंतर मिल रही सफलता पार्टी के पैर जमीन पर नहीं टिकने दे रही परंतु मार्च 2017 और अक्तूबर 2018 के दौरान सतलुज-ब्यास के पुलों के नीचे से बहुत पानी बह चुका है। लोग अब कांग्रेस सरकार से भी हिसाब मांगने लगे हैं। किसान ऋण माफी और नशे के मोर्चे पर आंशिक सफलता को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस पार्टी अपने चुनावी वायदों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर पाई है।  घर-घर रोजगार, युवाओं को स्मार्ट फोन, महंगी होती रेत-बजरी, अवैध खनन आदि बहुत से मोर्चे हैं जिन पर कांग्रेस को आने वाले चुनावों में कड़ी चुनौती मिलने वाली है। कांग्रेस के अंदर भी सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है। नवजोत सिंह सिद्धू सहित अनेक मंत्री समय-समय पर पार्टी को असहज स्थिती में  लाते रहते हैं। अभी हाल ही में एक साक्षात्कार के दौरान नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी पूर्व सीपीएस नवजोत कौर सिद्धू ने अपनी ही कांग्रेस पार्टी की सरकार को दस में से चार अंक दिए हैं। अवैध खनन को लेकर सरकार के एक मंत्री को अपना पद छोडऩा पड़ चुका है। नशे के खिलाफ चाहे सरकार गंभीर दिखती है परंतु सच्चाई यह है कि समस्या कुछ कम जरूर हुई है परंतु इसका उन्मूलन नहीं हो पाया। लोकसभा चुनावों में राजनीतिक परिदृश्य व मुद्दे राज्य विधानसभा चुनाव से अलग होंगे और चुनाव परिणामों को अवश्य प्रभावित करेंगे। विगत विधानसभा चुनाव के दौरान तो आम आदमी पार्टी द्वारा सत्ताधारी दल के वोट काटने के चलते राज्य में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिल गई परंतु अब राज्य में हालात बदलने लगे हैं। लोकसभा चुनावों में मुकाबला दो पक्षीय होता है तो कांग्रेस को झटका भी लग सकता है। कांग्रेस की कल की रैली की सफलता या असफलता पार्टी के भविष्य पर गहरा असर डालने वाली है यह लगभग सुनिश्चित है।

राज्य के विधानसभा चुनाव व इसके बाद होने वाले तमाम चुनावों के परिणाम बताते हैं कि पंजाब में तूफान की तरह आई आम आदमी पार्टी आंधी की तरह वापिस हो ली है। विधानसभा चुनाव में 100 सीटों का दावा करने वाली आप को मात्र 18 सीटों पर संतोष करना पड़ा और उसके बाद उपचुनाव हो या गली मोहल्ले के लिए मतदान पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानतें तक बचाने में असफल हो रहे हैं। प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बादल सरकार से नाराज अकाली दल के ही वोटबैंक का बहुत बड़ा हिस्सा आम आदमी पार्टी को शिफ्ट कर गया था और कल की रैलियों के बाद यह खिसका हुआ वोटबैंक किसकी ओर आकर्षित होता है इसका प्रदेश की राजनीति पर बड़ा असर पडऩे वाला है। यही कारण है कि अकाली दल और कांग्रेस पार्टी दोनों ही अपनी-अपनी रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Thursday, 4 October 2018

राहुल गांधी कांग्रेस के बहादुरशाह जफर

भाजपा के प्रवक्ता अकसर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तुलना अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर से करते हैं, यह उनकी प्रवंचना या टीवी डिबेट जीतने की शैली हो सकती है परंतु जफर केवल मुगलिया सल्तनत के पतन के ही नहीं बल्कि कमजोर नेतृत्व के भी एतिहासिक प्रतीक कहे जा सकते हैं। तख्त पर वे अवश्य बैठे थे परंतु दरबार में भी उनकी नहीं बल्कि ब्रिटिश इंडिया कंपनी की चलती थी। दरबान उनके प्रवेश पर उन्हें शाह आलम बताते तो औपचारिकता में सिर झुकाए कुछ दरबारी कानाफूसी करते हुए एक दूसरे से पूछते कि 'अरे मीयां, कहां के शाह आलम' और साथ वाला उत्तर देता 'बस, लाल किला से पालम।' अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी से ऐसे संकेत मिले हैं कि नेहरू, इंदिरा और सोनिया के दरबार में घिघियाये-सकुचाए से खड़े रहने वाले नेताओं व क्षत्रपों ने केवल कानाफूसी ही शुरू नहीं की बल्कि दबे स्वरों में तख्त के खिलाफ आवाज भी उठानी शुरू कर दी है। राहुल 2019 की वैतरनी पार करने को छोटे-छोटे दलों से भी गलबहियां डालने को बेताब हैं तो उनके दरबारी गठबंधन के गर्भाधान में ही रोड़े अटकाते नजर आरहे हैं याने माँ तो दरवज्जे-दरवज्जे गोबर के चौथ बटोरती फिरे और बेटे फिरें बिटोड़े ढहाते।

लोकसभा चुनाव में विपक्ष की संभावित सवारी हाथी बिदक गया है। बहुजन समाज पार्टी ने छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनाव अकेले लडऩे की घोषणा कर दी है। पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती ने इसका ठीकरा कांग्रेस के बहुचर्चित नेता दिग्विजय सिंह पर यह कहते हुए फोड़ा है कि इस पार्टी में कुछ जातिवादी व सांप्रदायिक मानस काम कर रहा है। जवाब में दिग्विजय ने कहा है कि मायावती केंद्रीय जांच ब्यूरो व प्रवर्तन निदेशालय से भयभीत हैं। बता दें कि मायावती के खिलाफ इन विभागों में भ्रष्टाचार के केस विचाराधीन हैं और दिग्गी राजा के कहने का भाव है कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के भय से मायावती ने गठजोड़ से इंकार किया है। मध्य प्रदेश में दिग्विजय इस उम्मीद में हैं कि वहां लंबे समय से सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ अब व्यवस्था विरोधी रुझान है और कांग्रेस राज्य में सत्ता में आती है तो उनकी राजनीतिक यायावरी खत्म हो सकती है। बसपा राज्य में हैसीयत से अधिक सीटें मांग रही थी और दिग्गी राजा नहीं चाहेंगे कि उनके सपनों की सरकार बैसाखियों पर टिकी हो। इसीलिए उन्होंने मायावती की नाराजगी के कई बहाने पैदा करवाए जिनका परिणाम योजनाअनुसार ही निकला कि बुआजी लाडले बबुओं से अलग हो गर्इं।

मायावती के राजनीतिक गुरु बाबू काशीराम कहा करते थे, जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी। वे मजबूत नहीं बल्कि मजबूर सरकारें चाहते थे जिन पर बसपा के पैबंद लगे हों। यह सर्वविदित है कि मायावती देश की प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं और स्पष्ट कर चुकी हैं कि उन्हें बुआ कहो या भाभी परंतु जब तक सत्ता की चाबी उनके हाथ आती नहीं दिखेगी तब तक वे किसी तरह के गठजोड़ का हिस्सा नहीं बन सकती। तीन राज्य में कांग्रेस के साथ गठंबधन पर टूटी बात के बारे में यही माना जा रहा है कि मायावती जितनी सीटें मांग रही थीं कांग्रेस के लिए उतनी देना संभव नहीं था। कुछ कांग्रेसी नेताओं को यह भी भरोसा हो चला है कि वे अपने दम पर भी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। राजस्थान में कुछ हद तक ऐसी तस्वीर दिखती है, लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति अलग है, जहां बसपा का साथ कांग्रेस का काम आसान करता लेकिन दिग्गी राजा जैसे कई क्षत्रपों ने तुनकमिजाज मायावती को कोपभवन भेज दिया जिससे राहुल गांधी का महागठबंधन का सपना टूटता दिख रहा है। यहां यह भी कहना बनता है कि इन तीन राज्यों में ज्यादा सीटों की मायावती की मांग अतिरेक नहीं। यहां बसपा का जनाधार है। मध्य प्रदेश में बसपा को 1993 के विधानसभा चुनाव में 11 सीटें मिलीं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी 6.42 प्रतिशत मतों के साथ बसपा के चार विधायक बने। राजस्थान में बसपा को 3.4 प्रतिशत मतों के साथ दो सीटें मिलीं तो छत्तीसगढ़ में भी पिछले चुनाव में उसे चार प्रतिशत मत मिले। वहां उसका एक विधायक भी है।

मध्य प्रदेश के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष चौधरी सुनील कुमार जाखड़ ने स्पष्ट कर दिया है कि  प्रदेश कांग्रेस किसी से समझौता नहीं करेगी। बुधवार को दिल्ली में कैप्टन सिंह व सुनील जाखड़ ने पार्टी के केंद्रीय नेताओं के सम्मुख यह सफ किया कि उन्हें अपने यहां किसी के सहयोग की जरूरत नहीं है। पंजाब देश का ऐसा राज्य है जहां दलितों का जनसंख्या प्रतिशत देश में सर्वाधिक 32 प्रतिशत है। बहुजन समाज पार्टी यहां कांग्रेस पार्टी के साथ गठजोड़ कर तीन-चार सीटें तक जीतती रही है। इसके अतिरिक्त सीपीआई व सीपीएम भी कांग्रेस के पुराने साथी हैं। पंजाब के क्षत्रपों ने कांग्रेस के दिल्ली दरबार के सामने बसपा के साथ-साथ वामपंथियों का पल्लु भी झटक दिया है। दूसरी तरफ बंगाल में भी कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व वामपंथियों के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस से गठजोड़ पर नाक भों सिकोड़ रहा है। याने कांग्रेस पार्टी के अंदरूनी हालातों का लब्बोलुआब यह है कि राहुल गांधी कुछ और करना चाहते हैं पर शक्तिशाली क्षत्रप कुछ और। बसपा का गठजोड़ से छिटकना बताता है कि योजनाएं सफल हो रही कांग्रेसी क्षत्रपों की दिख रही हैं। किसी समय कांग्रेस में मजबूत नेतृत्व के चलते दिख रहा अनुशासन अब कमजोर होता महसूस हो रहा है तभी तो पार्टी के केंद्रीय स्तर के फैसलों या योजनाओं को लेकर सार्वजनिक रूप से प्रादेशिक नेताओं द्वारा विचार व्यक्त किए जा रहे हैं। किसी समय 10 जनपथ पर सिर झुकाए खड़े रहने वाले और प्रादेशिक नेता आज केंद्रीय नेतृत्व के अधिकार क्षेत्र में आने वाले फैसलों पर अपनी राय दे रहे हैं और वह भी सार्वजनिक रूप से मीडिया में। दिग्विजय सिंह, कैप्टन अमरिंदर सिंह, सुनील जाखड़ के प्रसंग और बसपा का बिदकना बताता है कि राहुल के दरबार में बहादुरशाह जफर जैसी अनुशासनहीनता व दरबारियों में स्वेच्छाचारिता का समावेश होने लगा है। राहुल के सम्मुख पहले ही अनेक परेशानियां हैं जिन पर उन्हें काबू पाना है, अगर घर से ही उन्हें चुनौती मिलनी शुरू हो गई तो उनका राजनीतिक हश्र भी उसी जफर जैसा होगा जिसने कभी अपना दुख अपनी नज्म में लिखा था : -

न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न तो मैं किसी का रकीब हूँ।

जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Wednesday, 3 October 2018

सीता और शूर्पनखा, दो विचारधाराएं

लंका दहन के बाद हनुमान जी माता सीता को अपनी पीठ पर बैठा कर भगवान श्रीराम के पास ले जाने की क्षमता का बखान करते हैं। उस रामदूत को पुत्र कह कर संबोधन करने वाली माँ सीता कहती हैं कि रावण द्वारा हरण किए जाने के समय वह असहाय थी। इसी बेबसी में पर पुरुष ने उनका स्पर्श किया परंतु वह स्वेच्छा से ऐसा करने की सोच भी नहीं सकती। अपने प्राण प्रिय पति श्रीराम से मिलने की अत्यंत व्याकुलता के बावजूद भी सीता को हनुमान जी के रूप में दूसरे पुरुष का स्पर्श स्वीकार नहीं किया। रामायण की दूसरी पात्र है शूर्पनखा, पंचवटी से गुजरते समय पहले वह श्रीराम पर मोहित हुई और इंकार किए जाने के बाद लक्ष्मण के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव करती है। उसकी वासना उसे कभी राम तो कभी लक्ष्मण की ओर भटकाती है। सीता और शूर्पनखा दो महिलाएं होने के साथ-साथ दो विचारधारएं भी कही सकती हैं। सीता प्रतीक हैं सतीत्व, चरित्र, त्याग की और शूर्पनखा प्रतिनिधि है व्यभिचार, लंपटगिरी और मर्यादा विच्छेद की। एक रामराज्य की नींव है तो दूसरी की न केवल नाक ही कटती बल्कि कुलघातिनी भी साबित होती है। देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विवाहेतर संबंधों को मान्यता देने और व्यभिचार को नारी समानता व सम्मान का दर्जा देने के बाद अब संपूर्ण भारतीय समाज के सामने जरूरत महसूस होने लगी है कि वह अपने जीवन पथ के सही मार्ग का चयन करे। समाज के सम्मुख दोनों मार्ग पर चलने की स्वतंत्रता है परंतु चयन उसे करना है कि वह सीता के मार्ग का अनुसरन कर रामराज्य की ओर जाना चाहता है या शूर्पनखा के रास्ते लंकादहन और कुल के नाश की ओर। नवीनतम तकनोलोजी ने जहां आम भारतीयों के घरों में घुसपैठ करनी आसान कर दी है वहीं स्वच्छंदता की स्वतंत्रता और समानता के रूप में न्यायिक व्याख्या ने सामाजिक व परिवारिक मर्यादा रूपी झीनी डोरी पर कुठाराघात का प्रयास किया है। ऐसे में हमें न केवल  परिवारों को संभालना होगा बल्कि घात सहती व विस्मृत मर्यादाओं की पुनस्र्थापना करनी होगी। अपनी मनीषा में काम वर्जित नहीं बल्कि इसे धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ जीवन के  चार पुरुषार्थों में स्थान मिला है। हमारा दर्शन मानता है कि अव्यक्त ब्रह्म ने काम का सृजन कर ही अपने आप को व्यक्त किया। काम के बिना न तो सृजन हो सकता और न ही जीवन का निर्वाह। परंतु जब तक काम अनुशासन में है वह समृद्धिकारक और सृजनात्मक है और अनुशासनहीन होते ही उन्मादित हो दुखों का कारण बनता है। सीता अनुशासन है तो शूर्पनखा स्वच्छंदता या कह लें कि अनुशासनहीनता।

व्यभिचार, जिसे देश की सर्वोच्च अदालत ने लैंगिक समानता का नया नाम दिया है के चलते अकसर बहुत से परिवार बिखरते, बड़े-बड़े अपराध होते और बच्चों को ठोकरें खाते हुए देखे जाते हैं। विवाहेतर संबंधों के चलते पति, सास-ससुर की हत्या की वारदातें अब सामान्य हो चली हैं लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र में एक ऐसा केस आया जिसमें व्यभिचारिनी महिला ने अपनी बच्चियों को विष देकर मार डाला। समाज में फैल रही उछृंखलता और बढ़ रहे विवाहेतर संबंधों से कानून व्यवस्था के समक्ष कितनी चुनौतियां पेश आरही हैं यह सामाजिक विज्ञानियों के लिए अनुसंधान का विषय है और अनुमान है कि जिस दिन इस तरह कोई जांच रिपोर्ट आई तो पता चलेगा कि देश में होने वाले अपराधों का बहुत बड़ा कारण यही संबंध हैं। पत्नी को अपने पति या पति को पत्नी के विवाहेतर संबंधों का पता चलने के बाद पीडि़त पर क्या बीतती है उसका अनुमान दूसरा नहीं लगा सकता। बहुत से केसों में देखा जाता है कि पीडि़त ऐसा गलत कदम उठा लेते हैं जिसका खमियाजा उसे या परिवार को सारी उम्र भुगतना पड़ता है। पति-पत्नी के संबंध परस्पर विश्वास पर टिके हैं। पति-पत्नी की अलग-अलग दैनिक व्यस्तताओं के चलते एक दूसरे पर सारा दिन नजर रखना संभव नहीं है और न ही ऐसा होना चाहिए कि दोनों एक दूसरे पर शक करें। परस्पर विश्वास ही तो दांपत्य जीवन का आधार है और ऐसे में आत्म अनुशासन व सामाजिक वजर्नााएं ही हैं जिनका पालन कर पति-पत्नी और वो जैसी अप्रिय कथाओं से बचा जा सकता है।

रामायण में सीताहरण प्रसंग हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। पति-पत्नी के अतिरिक्त तीसरा या तीसरी जीवन में पहले स्वर्ण मृग की तरह प्रलोभन देते हैं। यह आकर्षण मृगतृष्णा ही साबित होते हैं क्योंकि जितना इसके पीछे भागो पीछा करने वाला उतना ही परिवार से दूर होता चला जाता है। यह मृग जब तक हाथ न आए स्वर्णिम ही दिखता है और पकड़े जाने के बाद पता चलता है कि यह तो मात्र छलावा था। जो पकड़ा गया है वह तो मृग के वेश में दुष्ट मारीच निकलता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जैसे सोने का हिरण संभव नहीं उसी तरह परिवार के बाहर तीसरे या तीसरी से सच्चा सुख मिलना सूरज से पानी बरसने जैसी अनहोनी है। इन संबंधों से मिला आनंद पहले तो दाद में खाज जैसा सुखदायी लगता है परंतु बाद में जलन व जख्मों का कारण बनता है। सीताहरण प्रसंग यह भी संदेश देता है कि दुनिया के हर रावण में इतना साहस नहीं है कि वह किसी परिवार की लक्ष्मणरेखा लांघ सके बशर्ते जब तक परिवार के लोग उस रेखा का सम्मान करें। किसी परिवार में तीसरा या तीसरी रावण की तरह छद्मवेश में आते हैं, अंदर से दुष्ट और बाहर से संत। वे रावण की ही तरह धर्म, नीति, उस परिवार के कल्याण की बात करते हैं परंतु लक्ष्मण रेखा के छिन्न-भिन्न होते ही उनका वास्तविक रूप प्रकट होता है। इसलिए जरूरी है कि समाज विवाहेतर संबंध रूपी स्वर्ण मृग के छलावे से बचे और सामाजिक मर्यादा, परिवारिक विश्वास की लक्ष्मण रेखा की पवित्रता बनाए रखे।

भारतीय संस्कृति पर घात-प्रतिघात की यह कोई अनोखी या पहली घटना नहीं और न ही इसे अंतिम माना जा सकता। लेकिन रामायण ने हर मोड़ पर हमारा मार्गदर्शन किया है। रामायण की प्रेरणा से समाज ने कभी परशुराम की तरह शस्त्र उठाए तो कभी स्वयं महर्षि वाल्मीकि जी से प्रेरणा पा कर समाज शास्त्रों का शरणागत हुआ। नर-नारी को केवल और केवल नर मादा समझने वाली विकृत संस्कृति का उपचार भी राम का आयन अर्थात रामायण ही है जो शूर्पनखा और सीता के रूप में हमारे सामने दो मार्गों का विकल्प प्रस्तुत कर रही है। एक मार्ग है क्षणिक आनंद, स्वच्छंदता, मनमानी का जिसकी प्रतिनिधि रावण की बहन है तो दूसरी पगडंडी है मर्यादा, आत्म अनुशासन, परस्पर विश्वास का जो माता सीता ने दिखाई है। समाज दोनों ओर जाने को स्वतंत्र है परंतु अच्छे-बुरे के विवेक के साथ जीवन यात्रा हो तो इसमें खुद व्यक्ति का कल्याण भी है और समाज का भी। जय जय।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

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