Monday, 26 November 2018

मेरे पापा

वो दिन याद मुझे है पापा।
जब तेरे कंधे पे खड़ा हो गया।
तुम्ही से कहने लगा।
देखो पापा मैं तुमसे बड़ा हो गया।
पापा बोले, सपनों में भले जकड़े रहना।
लेकिन जीवन में हाथ हमेशा पकड़े रहना।
दरसल दुनिया इतनी हसीं नही है।
तेरे पांव तले अभी जमीं नही है।
उस दिन तू असल में बड़ा हो जाएगा।
मगर मेरे कंधे पे नही।
जब जमीन पे खड़ा हो जाएगा।
ये बाप तुझे अपना सब कुछ दे जाएगा।
तेरे कंधे पर चढ़ सबसे बिदा ले जाएगा।
वक्त बीत गया लेकिन रह गई परछाईं।
निकल पड़ते हैं आंख से आंसू।
और दिल बैठ सा जाता है।
याद आती हैं वे बातें जो कभी पापा ने बताईं।
विलियम शेक्सपीयर ने शायद नासमझी में कह दिया कि-नाम में क्या रखा है। अगर नाम में कुछ न होता तो मेरे पिता श्री सुमेरचंद गुप्ता का जीवन पुराणों में वर्णित उस विशाल सुमेरु पर्वत की छाया न होता। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सुमेरु पर्वत के चारों ओर चार विशाल पर्वत माने गए हैं। पूर्व में मंदराचल, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में सुपाश्र्व तथा उत्तर में कुमुद नामक पर्वत है। मंदराचल पर्वत समुद्रमंथन का मुख्य साधन है जिसने सागरमंथन कर दुनिया को रत्न और विष दिया। परिवार के लिए पिता जी न जाने कब-कब और कितना विष पचाया परंतु सभी सदस्यों के बीच अमृत का ही वितरण किया। उनके सम्मुख हम खुद को बच्चा ही समझते रहे परंतु उनके जीवन में बदलती भूमिकाओं को मैने करीब से महसूस किया है।
बचपन की मधुर स्मृतियां औरों की भांति मुझे भी गुदगुदाती हैं। पापा का वह लाड-प्यार और डांट डपट और फटकार। कभी हम ज्यादा परेशान करते तो पीट भी देते। अजीब बात थी, कभी माँ मारती तो पापा बचाने को आगे आ जाते और पापा मारने दौड़ते तो माँ का आंचल आसरा बनता। कोई भाई-बहन रूस जाता तो उसे मनाते, प्यार से गोद में उठा कर गली में ले जाते और न जाने क्या गुरुमंत्र देते कि दोनों हंसते हुए घर में लौटते। बच्चों की लड़ाई में वे ही निर्णायक बनते और ऐसा न्याय करते कि सभी संतुष्ट हो जाते। जब भी बाहर से आते हम बच्चों का ध्यान उनके थैले पर रहता क्योंकि कभी खाली हाथ घर नहीं लौटते। थैले में निकली चीजों के लिए भाई-बहनों से मारा-मारी, ज्यादा मिलते तो एक दूसरे को चिढ़ाना और कम हाथ लगे तो धरती पर लोटपोट हो जाना, स्कूल न जाने की जिद्द करना, बहाने बनाना, बाहर से किसी की शिकायत आने पर पापा से डर के मारे घर में छिप जाना आदि कितनी ही ढेर सारी बाते हैं जो मां-बाप से जुड़ी हैं। बचपन में पापा ने सारी जिम्मेवारी बाखूबी निभाई डांटा भी प्यार भी किया, गुरु की तरह राह भी दिखाई और अध्यापक बन ज्ञान भी दिया। हम जानते हैं कि उनकी बहुत सी इच्छाएं थीं, निजी जीवन में ख्वाइशें भी थीं परंतु परिवार जुटने पर उनकी प्राथमिकता हम ही बन गए।
बचपन से लड़कपन में दाखिल हुआ तो उनकी भी भूमिका बदली-बदली नजर आई। हर बात पर खूब समझाते और कई बार तो इतनी हद हो जाती कि खिझ चढऩे लगती। बहुत सी बातों पर ऐसा लगता कि पापा का कहना ठीक नहीं। जब आयुजनित खुदी पनपने लगी तो ऐसा लगा कि पापा पिछले समय की बातें करते हैं, आज समय बदल चुका है। पापा की बातें इस समय में फिट नहीं बैठतीं। कई बार तो आपस में कहा सुनी भी हो जाती, माँ बीच में कूदती और दोनों को समझाती। दुनिया के लोगों को अमीर होते देख लगने लगा कि पापा असफल इंसान हैं, जीवन में इतना नहीं कमा पाए कि हम भी औरों की तरह ऐश कर सकें। न जाने क्यों उनकी अव्हेलना करने में संतोष सा मिलने लगा। पापा भी मेरी इस मनोदशा को समझते क्योंकि अपने युवावस्था में वे भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरे होंगे। उन्होंने समझाना-बुझाना जारी रखा, कोई अमल करे या न करे, माने या न माने वे सही बात कहने से नहीं कतराते। जानते थे कि बेटा अभी बड़ा हुआ है परंतु जमीन पर खड़ा नहीं हुआ।
किशोरावस्था के अस्तांचल तक पहुंचते-पहुंचते मैने महसूस किया कि वे मेरे कामकाज को लेकर मुझ से अधिक चिंतित रहते। भईया पढऩे-लिखने में ओजस्वी थे और मैं औसत इसी कारण वे मुझ को लेकर अधिक चिंतित रहते। अपनी सोच व साधन के अनुसार, कई तरह के काम सुझाते। कुछ छोटा-बड़ा काम शुरू करता तो खूब हल्लाशेरी देते। हर काम में सहयोगी और सहायक की भूमिका निभाते रहते। जंग-ए-समाचार का अबतक की सफलता में जिस व्यक्ति का सबसे बड़ा हाथ है वे मेरे पापा ही हैं। प्रूफ रीडर से लेकर संपादक मंडल का काम वे मुझ से अधिक बेहतर जानते थे। गीता प्रेस गोरखपुर की मासिक पत्रिका कल्याण के वे नियमित पाठक रहे। हर माह उसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करते और समझाते कि अखबार ऐसा होना चाहिए कि पाठक मेरी तरह प्रतीक्षा करे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक होने के नाते हिंदुत्व व राष्ट्रीयता के बीज उनके बाल मन में ही पड़ गए जिनको पल्लवित-पोषित किया गीता प्रेस गोरखपुर के साहित्य ने। पापा जंग-ए-समाचार के सबसे अच्छे पाठक भी थे, समाचार पत्र में कौन सी रचना किस स्तर की है यह मुझे उनकी प्रतिक्रिया से जान पड़ता। नियमित योग, ध्यान, अनुशासित जीवन उनके जीवन की पूंजी था जिसके बल पर उन्होंने 80 साल का स्वस्थ जीवन व्यतीत किया। परिवार की अगली पीढ़ी याने मेरे व भईया के बच्चों के लिए तो वे जान छिड़कते। बहुत लंबी है पापा के जीवन की गाथा, आज वे हमारे बीच नहीं हैं और उनकी हर बात स्मृति पटल पर घूमती दिख रही है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि जीवन के चारों पुरुषार्थों को उन्होंने अपने जीवन में अर्जित किया। ईश्वर से यही कामना है कि जब भी मानव जीवन मिले मुझे पिता के रूप में यही महान आत्मा का सान्निध्य प्राप्त हो।
- सुभाष गुप्ता
(श्री सुभाष गुप्ता मेरे मित्र हैं। उनके पिताजी के देहांत पर उनकी पितृभावना को शब्दों में ढालने का मुझे अवसर मिला)

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