Saturday, 22 December 2018

पत्थरबाज सा विपक्ष

वीरवार को तीव्रगामी गाड़ी 'ट्रेन-18' के नई दिल्ली और आगरा के बीच हुए ट्रायल के दौरान कुछ लोगों ने पत्थरबाजी कर शीशे तोड़ दिए। स्वभाविक है कि इसके पीछे सिवाय शरारत या अनावश्यक विरोध या फिर मानसिक विकृति के और कोई कारण नहीं हो सकता। लगता है कि इसी पत्थरबाज सी मानसिकता का शिकार विपक्ष भी हो चुका है। सरकार के हर निर्णय पर पत्थरबाजी करने को मानों विपक्ष ने अपना संवैधानिक दायित्व समझ लिया है और इतना भी ध्यान नहीं रखा जा रहा कि उनके इस आचरण से देश को कितना नफा-नुक्सान होने जा रहा है। भारत सरकार ने सूचना प्रोद्यौगिकी कानून से संबंधित अधिसूचना 09 जून, 2000 को प्रकाशित की जिसकी धारा 69 में इस बात का जिक्र है कि अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पेश कर रहा है और देश की अखंडता के खिलाफ काम कर रहा है तो सक्षम एजेंसियां उसके कंप्यूटर और डेटा की निगरानी कर सकती हैं। कानून की उपधारा एक में निगरानी के अधिकार किन एजेंसियों को दिए जाएंगे, यह सरकार तय करेगी। उपधारा दो में कोई अधिकार प्राप्त एजेंसी किसी को सुरक्षा से जुड़े मामलों में बुलाती है तो उसे एजेंसियों को सहयोग करना होगा और सारी जानकारियां देनी होंगी। उपधारा तीन में यह स्पष्ट किया गया है कि अगर बुलाया गया व्यक्ति एजेंसियों की मदद नहीं करता है तो वो सजा का अधिकारी होगा। इसमें सात साल तक के जेल का भी प्रावधान है।  सरकार ने इस कानून में संशोधन करते हुए दस जांच एजेंसियों को किसी के भी कंप्यूटर की जांच करने का अधिकार दे दिया है। कांग्रेस ने सरकार के आदेश को नागरिकों की निजी आजादी पर सीधा हमला करार दिया और आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी सरकार देश को 'निगरानी राज' एवं 'पुलिस राज' में तब्दील कर रही है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने कहा कि भारत में ''ऑर्वेलियन शासन कायम होने वाला है।'' देश की राजनीति में अपरिचित यह 'ऑर्वेलियन' शब्द किसी ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के बारे में बताने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसमें सरकार लोगों की जिंदगी के हर हिस्से को नियंत्रित करना चाहती है। प्रसिद्ध साहित्यकार जॉर्ज ऑर्वेल ने अपने उपन्यास 'नाइनटीन एटी फोर' में इससे मिलती-जुलती स्थिति को चित्रित किया। इन आरोपों के बीच विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि इस प्रकार की निगरानी के प्रावधान करने वाले सूचना प्रौद्योगिकी कानून को कांग्रेस की अगुवाई वाला संप्रग लाया था और नवीनतम आदेश में एजेंसियों को इस प्रकार की निगरानी के लिए नामित करके इसे केवल ज्यादा जवाबदेह बना दिया गया है। विधि मंत्री ने कहा, ''संप्रग ने कानून बनाया था। हमने उसे जवाबदेह बनाया है।'' उन्होंने निजता की चिंता से जुड़े प्रश्नों पर जवाब देते हुए कहा कि सरकार गोपनीयता की रक्षा करेगी लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई समझौता नहीं हो सकता।

देश में हाल ही में घटित घटनाएं बताती हैं कि सूचना क्रांति विकास की गति बढ़ाने के साथ-साथ देश विरोधियों के हाथों में नया हथियार भी साबित हो रही है। इन्हीं कंप्यूटरों की जांच से ही विगत माह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के षड्यंत्र का खुलासा हो पाया जिसके आरोपी पांच शहरी माओवादी अभी न्यायिक हिरासत में चले आरहे हैं। दुनिया के लिए नये खतरे के रूप में उभरा आईएस किस तरह सूचना तकनोलोजी को हथियार बना कर भारतीय युवाओं को भ्रमित कर उनकी भर्ती कर रहा है इसका खुलासा समय-समय पर होता रहा है। आईएस की चंगुल में फंसे युवक बताते रहे हैं कि वे सोशल मीडिया के माध्यम से उनके जाल में फंसे। अभी पंजाब में ही खुलासा हुआ कि पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई कैसे युवाओं को खालिस्तानी आतंकवाद की भट्ठी में झोंकने की कोशिश कर रही है और सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं के मनों में जहर भरा जा रहा है। विदेश में बैठे खालिस्तानी आका भी इसी के सहारे पंजाब के युवाओं को अपने ही देश व समाज के खिलाफ भड़का रहे हैं। लश्कर व जैश जैसे खतरनाक संगठनों ने जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त पंजाब में सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी पकड़ बना ली है। इस काम में केवल अपराधिक पृष्ठभूमि के लोग ही नहीं बल्कि साधारण युवा भी संलिप्त पाए गए हैं। अगर सरकार इस कानून के दायरे में अपराधियों के साथ-साथ नए संदिग्धों को भी लाना चाहती है तो कांग्रेस को भला इससे क्या आपत्ति होनी चाहिए। सरकार जब इसका भरोसा दिलवा चुकी है कि सर्वोच्च न्यायालय की भावना व आदेश के अनुरूप इस कानून से नागरिकों के निजता का उल्लंघन नहीं होगा और प्रदेश के मुख्य सचिव के आदेश के बाद ही किसी की जांच होगी तो इससे विपक्ष की चिंता का कोई आधार दिखाई नहीं पड़ता। ठीक ही कहा गया है कि निजता की आड़ में अपराधियों व देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। वैसे भी यह आदेश उस कानून का हिस्सा है जिसे साल 2009 में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा की सरकार ने बनाया था के नियम चार के साथ सूचना प्रोद्यौगिकी अधिनियम 2000 की धारा 69 (1) की शक्तियों का प्रयोग करते हुए सरकार ने दस एजेंसियों के अधिकार में वृद्धि की है। इसका विरोध करते समय पी. चिदंबरम को स्मरण रहना चाहिए कि इसी कानून से उनके कार्यकाल में नीरा राडिया प्रकरण का भांडाफोड़ हुआ और उस समय चिदंबरम ने इसे उचित बताया था। पाठकों को स्मरण होगा कि राडिया टेप विवाद व्यापारिक घरानों के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला एक टेलीफोन पर बातचीत का टेप है जिसमें नीरा राडिया नामक दलाल का कई राजनेताओं, पत्रकारों एवं व्यावसायिक घरानों के महत्वपूर्ण व्यक्तियों से टेलीफोन पर हुई बातचीत है जिसे भारत के आयकर विभाग ने 2008-09 में टेप किया था। नीरा राडिया तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा की परिचित एवं विश्वस्त थी तथा वैष्नवी कम्युनिकेशन्स नामक एक सार्वजनिक सम्बन्ध संस्था का संचालन करती थी। जब कांग्रेस यह कानून लाई तो यह उचित और आज यह एमरजेंसी लगाने वाला कैसे बन गया ?

आज से लगभग पौने पांच साल पहले साल 2014 में हुए सत्तापरिवर्तन के बाद देखने में आया है कि विपक्ष मुद्दों की गहराई में जाने, सरकार की तथ्यों के आधार पर आलोचना करने, सुझाव देने, संशोधन करवाने की बजाय पत्थरबाजी ही करता आरहा है। रोचक बात तो यह है कि 1975 में देश में आपात्काल लगाने वाली कांग्रेस पार्टी को सरकार के हर कदम में अघोषित अपात्काल ही दिखाई दे रहा है। विपक्ष पत्थरबाजी की मानसिकता से कब उबरेगा ? उक्त मुद्दे पर सरकार का भी दायित्व बनता है कि वह देश को सुनिश्चित करे कि जांच के अधिक अधिकार मिलने के बाद आम नागरिकों की निजता पर कोई हमला नहीं होगा और नागरिकों को अपने अधिकार की सुरक्षा का मजबूत तंत्र भी उपलब्ध करवाना होगा।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
जालंधर।
मो. 070098-05778

Tuesday, 18 December 2018

खालिस्तानी आतंक पर कनाडा का आत्मज्ञान

अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद बताया गया कि वहां कुर्रान की खरीद बढ़ गई,लोग जानना चाहते थे कि इस्लाम क्या है और आतंकवाद से इसे क्यों जोड़ा जा रहा है। यह निकृष्टतम उदाहरण है इस बात की कि पश्चिमी समाज कितना आत्मकेंद्रित व दुनिया की परेशानी से अनजान है। इस हमले से पहले वहां के लोग व मानवाधिकारवादी संगठन आतंकियों को अपने-अपने देश की सरकारों के खिलाफ लडऩे वाले स्वतंत्रता सेनानी मान रहे थे और जब खुद के घर सेक पहुंचा तो सच्चाई का भान हुआ। कनाडा भी इसी मार्ग पर दिख रहा है, वहां सरकार ने पहली बार खालिस्तानी आतंकवाद को 'चरमपंथ' बताया है। भारत के लिए खुशी की बात है कि आतंकवाद को लेकर कनाडा के भी अंतर्चक्षु खुलने लगे हैं। वहां 2018 के लिए आई पब्लिक रिपोर्ट में देश को खालिस्तानी आतंकवाद से खतरा बताया गया है। यह रिपोर्ट जस्टिन ट्रूडो सरकार में जनसुरक्षा मंत्री राल्फ गुडाले ने पेश की। इसमें इस्लामी आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट और अल कायदा से भी खतरे की आशंका जताई है व खालिस्तानी आतंकवाद की आशंका जताते हुए लिखा गया है- कनाडा में कुछ लोग चरमपंथी सिख विचारधारा का समर्थन करते हैं, लेकिन यह समर्थन 1982 से 1993 की अवधि से कम है, जब खालिस्तान को लेकर चरमपंथ पूरे उफान पर था। रिपोर्ट में कहा गया है कि शिया और 'खालिस्तानी चरमपंथियों' के कनाडा में हमले का खतरा कम है लेकिन देश में उनके समर्थकों का होना चिंता का विषय है। ये समर्थक चरमपंथियों को आर्थिक मदद देते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार कनाडा सबका स्वागत करने वाला और शांत देश है, लेकिन हर तरह की चरमपंथी-हिंसा के खिलाफ है। वह इस तरह की गतिविधियों को उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयार है। कनाडा में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। अब चरमपंथी सोच और उसके समर्थन को खत्म करना कनाडा सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल हो गया है। पहली बार खालिस्तानी चरमपंथ के खतरे को प्रमुखता देते हुए रिपोर्ट में उसे अलग से स्थान दिया गया है। इसे सुन्नी, दक्षिणपंथी, शिया और कनाडाई घुमंतू चरमपंथियों की तरह खतरनाक बताया गया है। उनके अन्य देशों में जाकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने की भी आशंका जताई गई है। 

यहां यह उल्लेखनीय है कि अतीत में कनाडा में रहने वाले तमाम खालिस्तानी आतंकियों ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के सहयोग से पंजाब को अशांत रखा है। वर्तमान में हाल ही में हुई कई घटनाएं बताती हैं कि वे एक बार फिर से अपनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए प्रयासरत हैं। वैसे खालिस्तान का भूत ब्रिटिश सरकार की 'बांटो और राज करो' की नीति की संतान है परंतु तत्कालीन राष्ट्रवादी सिख नेतृत्व के चलते अंग्रेज इसे मुस्लिम लीग की भांति भयावह बनाने में सफल नहीं हुए। 1971 में बंगलादेश के रूप में विभाजन की खीझ मिटाने के लिए पाकिस्तान ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और उसे मौका मिला 13 अप्रैल,1978 में हुए सिख कट्टरपंथियों व निरंकारियों के बीच टकराव के बाद जिसमें कई लोग मारे गए। इस टकराव के बाद पंजाब में जनरनैल सिंह भिंडरांवाले का प्रभाव बढऩे लगा जिसे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने अपने हिसाब से सियासी नफा नुक्सान को ध्यान में रख कर इतनी छूट दे दी कि वह बहुत बड़ी समस्या बन गया। उसने अपने साथियों के साथ अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब में किलेबंदी कर ली जिसे मुक्त करवाने के लिए 1984 में आप्रेशन ब्ल्यू स्टार जैसा कदम उठाना पड़ा। 1978 से लेकर 1993-94 तक चले आतंकवाद के दौरान लगभग 30000 हजार निर्दोष लोग इसकी भेंट चढ़े जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह जैसी हस्तियां भी शामिल हैं। आतंक के चलते पंजाब विकास की दौड़ में मीलों पिछड़ गया और लाखों लोगों ने पलायन किया। इतना होने के बावजूद कनाडा साहित पश्चिमी देश इसे आतंकवाद मानने से बचता आये। बताया जाता है कि कनाडा में करीब पांच लाख सिख हैं और रक्षा मंत्री हरजीत सज्जन भी सिख ही हैं जिन्हें खालिस्तानी अलगाववाद का समर्थक माना जाता है। सज्जन के पिता वल्र्ड सिख ऑर्गेनाइजेशन के सदस्य थे। कनाडा में भारतीयों विशेषकर पंजाबियों के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि वहां के हाऊस ऑफ कॉमन्स के लिए भारतीय मूल के 19 लोगों को चुना गया है इनमें 17 ट्रूडो की लिबरल पार्टी से हैं। ट्रूडो पिछले साल भारत आए परंतु यहां उनका इतनी गर्मजोशी से स्वागत नहीं हुआ जितना कि अमेरिका, जापान, चीन के राष्ट्राध्यक्षों का होता रहा है। इसके पीछे मीडिया में उनका खालिस्तान के प्रति झुकाव वाला नजरिया बताया गया। सवाल पैदा होता है कि कनाडा की किसी भी सरकार के लिए सिख इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं ? जनगणना के मुताबिक 2016 में कनाडा की कुल आबादी में अल्पसंख्यक 22.3 प्रतिशत थी और अनुमानों के अनुसार 2036 तक कनाडा की कुल आबादी में अल्पसंख्यक 33 प्रतिशत हो जाएंगे। 1897 में महारानी विक्टोरिया ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी को हीरक जयंती समारोह में शामिल होने के लिए लंदन आमंत्रित किया था। तब घुड़सवार सैनिकों का एक दल भारत की महारानी के साथ ब्रिटिश कोलंबिया के रास्ते में था। इन्हीं सैनिकों में से एक थे रिसालेदार मेजर केसर सिंह। रिसालेदार कनाडा में विस्थापित होने वाले पहले सिख थे। सिंह के साथ कुछ और सैनिकों ने कनाडा में रहने का निर्णय किया। बाकी के सैनिक भारत लौटे तो उन्होंने बताया कि ब्रिटिश सरकार उन्हें बसाना चाहती है। भारत से सिखों के कनाडा जाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ। कुछ ही सालों में ब्रिटिश कोलंबिया में 5000 भारतीय पहुंच गए, जिनमें 90 प्रतिशत सिख थे। हालांकि सिखों का कनाडा में बसना और बढऩा इतना आसान नहीं रहा है। इनका आना और नौकरियों में जाना कनाडा के गोरों को रास नहीं आया। भारतीयों को लेकर विरोध शुरू हो गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री रहे विलियम मैकेंजी ने मजाक उड़ाते हुए कहा था-हिन्दुओं को इस देश की जलवायु रास नहीं आ रही है। लेकिन तब तक भारतीय वहां बस गए और तमाम मुश्किलों के बावजूद अपनी मेहनत और लगन से कनाडा में ख़ुद को साबित किया। इन्होंने मजबूत सामुदायिक संस्कृति को बनाया व गुरुद्वारे भी बनाए। 1960 के दशक में कनाडा में लिबरल पार्टी की सरकार बनी तो यह सिखों के लिए भी ऐतिहासिक साबित हुआ। सरकार ने प्रवासी नियमों में बदलाव किया और विविधता को स्वीकार करने के लिए दरवाजे खोल दिए। इसका असर यह हुआ कि भारतीय मूल के लोगों की आबादी में तेजी से वृद्धि हुई। वर्तमान में भारतीय-कनाडाई के हाथों में संघीय पार्टी एनडीपी की कमान है और पंजाबी तीसरी सबसे लोकप्रिय भाषा है। वहां 1.3 प्रतिशत लोग पंजाबी समझते और बोलते हैं।

पंजाब से गई पहली एक-दो पीढिय़ां तो किसी न किसी रूप में अपनी मात्रभूमि से लगाव रखती रही परंतु तीसरी व चौथी पीढ़ी जो मूलत: कनाडा निवासी है उसका लगता है कि अपने गांव व देश से इतना जुड़ाव नहीं है और यही पीढ़ी खालिस्तानी अलगाववाद का सर्वाधिक शिकार  है। स्वभाविक है कि वहां के राजनीतिक दलों के लिए इतने बड़े समुदाय को नाराज करना आसान नहीं और यही कारण है कि भारत की तमाम कोशिशों के बावजूद कनाडा ने खालिस्तानी खतरे को आतंकवाद नहीं माना। लेकिन 23 जून, 1985 को हुए विमान बम कांड ने वहां के राजनीतिक नेतृत्व को अपनी नीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया। आतंकी संगठन बब्बर खालसा द्वारा किए गए इस विस्फोट में 329 लोग मारे गए जिनमें कनाडा के ही अधिकतर नागरिक थे। बताया जा रहा है कि खालिस्तानी वहां स्थानीय सुरक्षा के लिए भी खतरा बनते जारहे हैं। ट्रूडो पिछले साल भारत आए तो पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके समक्ष अलगाववाद का मुद्दा उठाया। उसी का ही परिणाम है कि कनाडा अलगाववाद व आतंकवाद के अपने रुख में परिवर्तन करता दिख रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए कि चलो देर आए दुरुस्त आए।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां,
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मो. 070098-05778

Friday, 14 December 2018

राफेल घोटाले की परिणति ताबूत घोटाले जैसी

कारगिल युद्ध के दौरान हथियारों और ताबूतों की खरीद में घोटाले के आरोपों से तत्कालीन एनडीए सरकार पाक साफ होकर निकली वैसा ही इतिहास राफेल मामले में दोहराया गया है। ताबूत खरीद पर 13 अक्तूबर, 2015 को करीब सोलह साल बाद इस मामले में सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने किसी को भी दोषी न मानते हुए इस मामले को बंद करने के निर्देश दिए। गौरतलब है कि कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष और कई अभियानवादियों ने कारगिल युद्ध के दौरान मिसाइल, हथियारों और शहीद जवानों के लिए ताबूतों की खरीद-फरोख्त में व्यापक घोटाले के गंभीर आरोप लगाए थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर खूब थूक उछाला। यहां तक कि रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज को तो विपक्ष ने मंत्री मानने तक से इंकार कर दिया और सदन में उनका बहिष्कार करते रहे। अब काल्पनिक ताबूत घोटाले की लीक पर कांग्रेस के राफेल घोटाले का अवसान होता दिख रहा है। राफेल लड़ाकू विमान सौदे मामले में मोदी सरकार को बड़ी राहत मिली है। सौदे पर उठाए जा रहे सवालों पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सौदे पर कोई संदेह नहीं है। इसके साथ ही न्यायालय ने सौदे को लेकर दायर की गई सभी जनहित याचिकाओं को खारिज कर दिया है। 14 दिसंबर 2018, शुक्रवार को सुनवाई के दौरान शीर्ष न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा कि सौदे की खरीद प्रक्रिया में कोई कमी नहीं है। कोर्ट ने कीमत के मुद्दे पर सरकार की ओर से दिए गए आधिकारिक जवाब को रिकार्ड कर कहा कि कीमतों की तुलना करना कोर्ट का काम नहीं है। कोर्ट ने कहा कि डील पर किसी भी प्रकार का कोई संदेह नहीं हैै, वायुसेना को ऐसे विमानों की जरूरत है। मोटे तौर पर प्रक्रिया का पालन किया गया है। कोर्ट सरकार के 36 विमान खरीदने के फैसले मे दखल नहीं दे सकता। प्रेस इंटरव्यू न्यायिक प्रक्रिया का आधार नही हो सकते। राफेल मसले पर प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने 14 नवंबर को सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा था। याचिका दायर करने वालों में वकील एमएल शर्मा, विनीत ढांडा, प्रशांत भूषण, आप नेता संजय सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी शामिल हैं।

ताबूत और राफेल को लेकर लगे घोटाले के आरोपों में कई तरह की समानताएं हैं। दोनो ही सच्चाई से कोसों दूर और वितंडावादी राजनीति के परिणाम थे। दोनों को लेकर आरोप लगाने वालों ने थोड़ा सा भी नहीं सोचा कि इससे देश के सैनिकों के मनोबल व अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भारत की छवि पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ेगा। संयोग से दोनों कपोल कल्पित घोटाले के आरोप झेलने वाली सरकारें भाजपा के नेतृत्व वाली रहीं और मिथ्याचरण करने का अवसर कांग्रेस को मिला। देश की राजनीति में सत्ता के लिए किस तरह झूठ, फरेब और मिथ्या प्रवंचना का सहारा लिया जाता है उनकी निकृष्टम उदाहरण हैं ताबूत और राफेल घोटाले के आरोप। राजनीति में केवल सत्ता ही सबकुछ नहीं होती और यह सफल राजनीति का एकमात्र पैमाना भी नहीं है। सत्ता के लिए सिद्धांतों की बलि नहीं दी जा सकती। भेड़ीया आया- भेड़ीया आया की कहानी बताती है कि जीवन में झूठ बोलना बूमरैंग के प्रयोग की भांति है जो चलाने वाले के हाथ भी घायल कर देता है। पिछले लगभग छह महीनों से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल को लेकर तरह-तरह के आरोप भाजपा सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लगाते आरहे हैं। आरोप लगाना विपक्ष का काम है परंतु राहुल गांधी ने सारी मर्यादाएं तोड़ते हुए न केवल असभ्य आचरण किया बल्कि प्रधानमंत्री के प्रति अमर्यादित भाषा का भी प्रयोग किया। हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने राफेल के नाम पर खूब आरोप उछाले परंतु सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद यही आरोप राहुल गांधी की विश्वसनीयता को तार-तार करते दिख रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार कहते रहे हैं कि कांग्रेस उनकी सरकार को लेकर झूठ फैला रही है और राफेल पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने उनके इस आरोप  पर स्वीकृति की मुहर भी लगा दी है। कांग्रेस विशेषकर राहुल गांधी के समक्ष अब विश्वसनीयता का प्रश्न पैदा हो गया है, देश को अब उनकी बातों पर विश्वास करना मुश्किल हो जाएगा। सरकार कहती रही है कि राफेल सौदा दो सरकारों के बीच हुआ है और पूरी तरह से पारदर्शी तरीके से सारी प्रक्रिया पूरी की गई है। अदालत के फैसले के बाद कांग्रेस के दुष्प्रचार की कलई खुलती दिखने लगी है। तीन राज्यों में जीत की खुशी मना रही और 2019 में केंद्रीय सत्ता की प्रबल दावेदार के रूप में पेश कर रही कांग्रेस आज झूठ के चलते फिर धाराशाई होती दिखाई दे रही है। 

राफेल सौदे की पृष्ठभूमि अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि भारत फ्रांसीसी विमान निर्माता और इंटीग्रेटर कंपनी से 36 राफेल लड़ाकू विमानों को खरीदेगा। राफेल को 2012 में संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और रूस से प्रतिद्वंद्वी प्रस्तावों पर चुना गया था। मूल योजना यह थी कि भारत फ्रांस से 18 ऑफ द शेल्फ जेट खरीदेगा, जिसमें 108 अन्य लोगों को राज्य संचालित हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड या बंगलूरू में एचएएल द्वारा भारत में इक_ा किया जा रहा है। हालांकि, मोदी की अगुआई वाली भाजपा सरकार ने पिछली यूपीए सरकार की 126 राफेल खरीदने की प्रतिबद्धता से पीछे हटकर कहा कि डबल इंजन वाले विमान बहुत महंगे होंगे और यह समझौता भारत और फ्रांस के बीच लगभग एक दशक लंबी वार्ता के बाद हुआ था। विमान की लागत पर पहले से ही बहुत हिचकिचाहट थी। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हस्तक्षेप किया और फ्रांस से प्रौद्योगिकी हासिल करने की कोशिश करने और इसे बनाने के बजाय 36 रेडी टू फ्लाई विमान खरीदने की बात कही। एनडीए सरकार ने दावा किया कि यह सौदा उसने यूपीए से ज्यादा बेहतर कीमत में किया है और करीब 12,600 करोड़ रुपये बचाए हैं। लेकिन 36 विमानों के लिए हुए सौदे की लागत का पूरा विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया। सौदा घोषित होने के तुरंत बाद, कांग्रेस ने भाजपा पर अरबों डॉलर के सौदे में गैर-पारदर्शिता का आरोप लगाया और इसे मेक-इन-इंडिया कार्यक्रम का सबसे बड़ी विफलताओं में से एक कहा। जनवरी 2016 में, भारत ने फ्रांंस के साथ रक्षा सौदे में 36 राफेल जेटों के आदेश की पुष्टि की और इस सौदे के तहत, डेसॉल्ट और इसके मुख्य सहयोगियों के साथ कुछ तकनीक साझा करने की बात कही। डबल इंजन राफेल लड़ाकू जेट को शुरुआत से ही एयर-टू-एयर और एयर-टू-ग्राउंड अटैक के लिए बहु-भूमिका सेनानी के रूप में डिजाइन किया गया है, परमाणु रूप से सक्षम है और इसका पुनर्निर्माण भी किया जा सकता है। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पेरिस की यात्रा के दौरान प्रस्ताव की घोषणा के करीब डेढ़ साल बाद अंतत: सितंबर 2016 में फ्रांस के साथ एक अंतर सरकारी समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसे राफेल सौदा कहा जाता है। इसमें भारत ने 36 राफेल डबल-इंजन के लिए 58000 करोड़ रुपये खर्च दिए। इस लागत का लगभग 15 प्रतिशत अग्रिम भुगतान किया गया। इस समझौते के मुताबिक, भारत को मिसाइल समेत स्पेयर और हथियार भी मिलने की डील हुई। 

नवंबर 2016 में, राफेल सौदे पर एक राजनीतिक युद्ध शुरू हुआ और कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सरकार ने करदाताओं के पैसे को नुकसान पहुंचाया है, इस सौदे में बड़ी धांधली हुई है। कांग्रेस ने दावा किया कि अनिल अंबानी की अगुवाई वाली रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को फ्रांसीसी फर्म के साथी के रूप में गलत तरीके से चुना गया था। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि 2012 में फ्रांस के साथ पिछली यूपीए सरकार से हुई बातचीत के मुकाबले भाजपा के सौदे में प्रत्येक विमान की लागत तीन गुना अधिक है। यूपीए सरकार के दौरान इस पर समझौता नहीं हो पाया, क्योंकि खासकर तकनीक ट्रांसफर के मामले में दोनों पक्षों में गतिरोध बन गया था। डेसॉल्ट एविएशन भारत में बनने वाले 108 विमानों की गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी। डेसॉल्ट का कहना था कि भारत में विमानों के उत्पादन के लिए 3 करोड़ मानव घंटों की जरूरत होगी, लेकिन एचएएल ने इसके तीन गुना ज्यादा मानव घंटों की जरूरत बताई, जिसके कारण लागत कई गुना बढ़ जानी थी। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण और अनिल अंबानी की अगुवाई वाली रिलायंस डिफेंस लिमिटेड ने भी इस मामले पर सफाई दी थी। सरकार ने दावा किया कि पिछले यूपीए सरकार से इस बार समझौता और पारदर्शी और बेहतर है क्योंकि इसमें एक बेहतर हथियार पैकेज और सैन्य सहायता शामिल है। हालांकि, कांग्रेस ने कथित अनियमितताओं पर राफेल सौदे के बारे में जानकारी देने से इनकार करने के लिए सरकार पर अपने हमलों को बरकरार रखा। राहुल गांधी ने केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश यहीं से शुरू कर दी। उन्होंने ट्वीट करके डील के बारे में कई सवाल किए। उन्होंने लिखा कि-कृपया बताइए कि राफेल जेट को किस कीमत पर खरीदा गया? क्या आपने कैबिनेट कमिटी ऑफ सिक्यॉरिटी (सीसीएस) की अनुमति लेना जरूरी नहीं समझा? भारत सरकार के उपक्रम हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) से ये डील छीनकर रक्षा क्षेत्र में बिना अनुभव वाले डबल रेटेड बिजनेसमैन को क्यों सौंपी गई? लगातार इसी तरह कई सवाल पूछने के साथ ही राहुल ने राफेल सौदे पर सही कीमत के कई कयास लगाए। देखते-देखते राहुल के साथ पूरी पार्टी राफेल सौदा मामले में भाजपा पर आक्रामक हो गई। आज सर्वोच्च न्यायालय ने आज उन सभी प्रश्नों का जवाब दे दिया है जिनका दिया जाना चाहिए था। देश के सामने सच्चाई सफेद धूप की तरह खिल चुकी है। सबसे बड़े विरोधी दल के  राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के चलते राहुल गांधी द्वारा किसी सौदे पर सरकार से सवाल पूछना उनका संवैधानिक अधिकार है परंतु आरोप लगाते समय जिस तरह से तथ्यों की अनदेखी, झूठ और वितंडावाद का सहारा लिया उससे आज खुद उनकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान दिखने लगा है। विपक्ष के साथ-साथ एक खास सोच वाले मीडिया के विशेष वर्ग, देश विरोधी लॉबी, छद्म बुद्धिजीवियों ने किस तरह ताबूत और राफेल को लेकर राष्ट्रीय हितों को नुक्सान पहुंचाया इसका आकलन शायद ही कभी हो पाए।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Wednesday, 12 December 2018

भाजपा की हार, लक्ष्मण मूर्छित हुए हैं परास्त नहीं

चाहे किसी चुनाव की तुलना राम-रावण युद्ध से नहीं की जा सकती परंतु पांच राज्यों के संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन को आंकने के लिए इस संग्राम को रूपक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इन परिणामों को देश की राजनीति के लिए निर्णायक कहना उसी तरह जल्दबाजी है जैसे लक्ष्मण जी की मूर्छा को कुछेक ने अपनी जीत मान ली और कईयों ने हार। चुनाव परिणामों का गहनता से अध्ययन करें तो सामने आएगा कि अंकगणित के हिसाब से भाजपा हारी जरूर हुई है परंतु आसान लड़ाई होने के बावजूद सम्मानजक जीत कांग्रेस को भी नसीब नहीं हुई। टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू का महागठबंधन का प्रयोग अपने गृहक्षेत्र तेलंगाना में और मायावती-अजित जोगी का मौकापरस्त गठजोड़ छत्तीसगढ़ में ध्वस्त होता दिखा। भारत चाहे कांग्रेस मुक्त नहीं हुआ परंतु मिजोरम की पराजय के बाद पूर्वोत्तर भारत तो पूरी तरह से उस कांग्रेस से मुक्त हो गया जो कभी गांधी परिवार की अचल राजनीतिक संपत्ति माना जाता था। चुनाव परिणामों ने जहां भाजपा के सामने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं तो वहीं कांग्रेस के प्रदर्शन पर भी प्रश्न उठते दिख रहे हैं। लेकिन हां, इन परिणामों ने देश की राजनीति में हिंदुत्व की भूमिका को अवश्य कंद्रबिंदू में और मजबूती दी है जिसकी नींव 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में रखी गई थी। इन चुनावों में जहां अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति पर विराम लगता दिखा तो दूसरी ओर दलित तुष्टिकरण के खिलाफ भी संदेश मिला है।

विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद अति उत्साह में आकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि जिस तरह 2018 के विधानसभा चुनाव जीते हैं उसी तरह 2019 का लोकसभा चुनाव भी जीतेंगे। किसी भी राजनेता को यह कहने का अधिकार है लेकिन यहाँ राहुल को गलतफहमी का शिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि जिन पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए उनमें से तीन में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से था। भाजपा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों से सत्ता में थी वहाँ वह सरकार विरोधी लहर का सामना कर रही थी। तीसरे राज्य राजस्थान की अदला-बदली की परम्परा ही रही है। कांग्रेस मध्य प्रदेश में काँटे के मुकाबले में बस थोड़े से ही अंतर से आगे निकल पाई है। राजस्थान में भी वह भाजपा को उस तरह से परास्त नहीं कर पाई है जिसकी भविष्यवाणी की जा रही थी। विगत विधानसभा में कांग्रेस जहां 21 सीटों पर सिमट गई वहीं इस बार भाजपा 73 सीटों पर मौजूदगी दर्ज कराने में सफल रही। हालांकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में भाजपा की दुर्गति का अनुमान लगाया जा रहाथा। कांग्रेस के सामने चुनौती है कि अगर सत्ताविरोधी लहर के बावजूद भी वह सम्मानजनक सफलता हासिल नहीं कर पाई तो लोकसभा चुनाव की वैतरणी कैसे पार करेगी जबकि हाल फिलहाल तो केंद्र में सत्तारूढ़ा नरेंद्र मोदी के खिलाफ तो कोई ज्यादा जनभावना नजर नहीं आरही। राजस्थान व मध्य प्रदेश में दोनों दलों को मिले मतों में भी कोई लंबा चौड़ा अंतर नहीं दिख रहा। छत्तीसगढ़ में जरूर कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी की है। इसी प्रकार यदि तेलंगाना में देखें तो तेलुगू देशम पार्टी के साथ गठबंधन करने की कीमत कांग्रेस को चुकानी पड़ी और वह दूसरे नंबर पर सिमट गयी। यह एकमात्र ऐसा राज्य रहा जहां संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुनावी रैली की थी। इसके अलावा मिजोरम की बात करें तो वहां से कांग्रेस साफ हो गई। इन परिणामों पर कांग्रेस को खुशी तो जतानी चाहिए लेकिन पार्टी को भाजपा को हल्के में लेने की कोशिश न करे क्योंकि कांग्रेस के लिए आसान लड़ाई में भी मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उसे कांटे की टक्कर दी है।

इन परिणामों से यह साबित हो गया कि देश में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के दिन लद गए और दलित तुष्टिकरण भी नहीं चलने वाला। समाज के एक वर्ग को प्रसन्न करने के लिए हिंदू आतंकवाद का जुमला उछालने वाले दिग्विजय सिंह अपनी यात्रा के दौरान माँ नर्मदा की परिक्रमा करते दिखे तो विकलीक्स के खुलासे के अनुसार भगवा आतंकवाद को लश्कर से अधिक खतरनाक बताने वाले राहुल गांधी की चलो मंदिर मुहिम ने और जोर पकड़ा। हिंदुओं को चिढ़ाने वाले दिग्गी राजा को कांग्रेस को अबकी बार चुनाव प्रचार से ही दूर रखना पड़ा। केवल इतना ही नहीं मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में गौ कल्याण की बात की और राम वन गमन सर्किट बनाने का वायदा तक किया है। चुनाव प्रचार के दौरान कुछ कांग्रेसी नेता तो यहां तक कहते पाए गए कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने पर ही अयोध्या में राममंदिर बन पाएगा। चाहे कांग्रेस का यह हिंदुत्व बाकी सामी संप्रदायों की भांति केवल पूजा-पाठ तक सीमित है परंतु देशवासी संतोष कर सकते हैं कि चलो इतना ही सही कांग्रेस ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति से पिंड तो छुड़ाया। अल्पसंख्यकों की भांति देश में हिंदू समाज का दलित वर्ग भी तुष्टिकरण की प्रयोगशाला रहा है जिसमें भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एससी/एसटी एक्ट में जिस तरह सुधार का प्रयास किया और बिना जांच के गिरफ्तारी पर रोक लगाई उस फैसले को भाजपा ने संसद में विधेयक ला कर बदल दिया। यह दलित तुष्टिकरण की नीति का ही परिणाम है कि किसी भी दल ने इसका विरोध नहीं किया परंतु खमियाजा भुगता भाजपा ने। इससे समाज के अन्य वर्गों में यह संदेश गया कि भाजपा उनकी उचित शिकायत भी सुनने को तैयार नहीं है। इस मुद्दे पर विधेयक लाते समय भाजपा सबका साथ सबका विकास के अपने नारे से ही इधर-उधर होती दिखाई दी। इन चुनावों ने देश में समय-समय पर होने वाले मौकापरस्त गठबंधनों को भी सबक सिखाया है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और टीडीपी के गठजोड़ को तो पराजय मिली है साथ में छत्तीसगढ़ में भी मायावती व अजित जोगी का गठजोड़ कुछ खास नहीं कर पाया। संभावना जताई जा रही थी कि गठजोड़ इतनी सीटें अवश्य जुटा सकता है कि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहे परंतु प्रदेश की जनता ने उसे मुंह नहीं लगाया। 

चाहे राजनीति में क्रिकेटिया भाषा का प्रचलन बढ़ गया और हर चुनाव को क्वार्टर फाईनल, सेमिफाइनल और भी न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा है परंतु सच्चाई यह है कि हर चुनाव चाहे वह पंचायत का हो या लोकसभा का अपने आप में फाइनल ही होता है। 2005 में राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ जीतने के बाद भी भाजपा लोकसभा चुनाव में पराजित हुई। 2008 में राजस्थान में कांग्रेस जीती और बाकी दो राज्यों में हारी परंतु इसके बावजूद लोकसभा चुनाव जीत गई। 2014 में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद देश में प्रचंड मोदी लहर होने के बावजूद दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने एकतरफा जीत हासिल की। इसके बाद इसी दिल्ली में निगम चुनावों में भाजपा जीती। कहने का भाव कि कोई चुनाव पूर्ववर्ती चुनावों का दोहराव नहीं होता। इसी कारण इन विधानसभा चुनाव परिणामों से 2019 की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। जो लोग इसके आधार पर भाजपा को बीता हुआ कल बताने लगे हैं वह गलती कर रहे हैं क्योंकि भाजपा मूर्छित हुई है परंतु पूरी तरह परास्त नहीं।

- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर।

Wednesday, 5 December 2018

डा. अंबेडकर, शिव शंकर की भांति विष पिया अमृत बांटा

बाबा साहिब भीमराव रामजी अंबेडकर को लेकर बहुत कुछ लिखा, कहा और सुना जा चुका है। दुखद है कि उनका चरित्र चित्रण एक ऐसे विभाजक नेता के रूप में किया जाता रहा है जो केवल एक समुदाय विशेष के पक्षधर व दूसरे वर्ग के दुश्मन थे। विभाजक शक्तियां अपनी दलील रखने के लिए उन पर हुए अत्याचारों का जिक्र करती हैं, लेकिन स्वयं बाबा साहिब ने इन अत्याचारों को लेकर कभी मन मैला नहीं किया। भगवान नीलकंठ की भांति खुद विष पीया और समाज को अमृत बांटा। भारतीय राजनीति अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जैसे अपने क्रांतिकारियों को जाति के आधार पर विभाजित कर लेती है वैसे ही महान व्यक्तित्वों को भी हमने जाति भेद के आधार पर विभाजित कर लेती है। डॉ अम्बेडकर। यह नाम सुनते ही पाठकों के मन में एक दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले नेता उजागर होगी। मगर डॉ अम्बेडकर के जीवन के एक ऐसा पक्ष भी है जिसमें राष्ट्रवादी चिंतन के महान नेता के रूप में उनके दर्शन होते है। डॉ अम्बेडकर के नाम पर दलित राजनीति करने वाले लोग जिन्हें हम छदम अम्बेडकरवादी कह सकते हैं, विदेशी ताकतों के हाथों की कठपुतली बनकर डॉ अम्बेडकर के सिद्धांतों की हत्या करने में लगे हुए हैं। अम्बेडकरवाद के नाम पर याकूब मेनन की फांसी की हत्या का विरोध, यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाना, कश्मीर में भारतीय सेना को बलात्कारी बताने, वन्देमातरम और भारत माता की जय का नारा लगाने का विरोध, दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कवायद, अलगाववादी कश्मीरी नेताओं की प्रशंसा जैसे कार्यों में लिप्त होना डॉ अम्बेडकर की मान्यताओं का स्पष्ट विरोध हैं। अम्बेडकरवादियों के क्रियाकलापों से सामान्य जन कि डॉ अम्बेडकर के विषय में धारणा भी विकृत हो जाती हैं। इस लेख का उद्देश्य यही सिद्ध करना है की अम्बेडकरवादी डॉ अम्बेडकर के सिद्धांतों के हत्यारे है।
राष्ट्र पुरुष बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर, कृष्ण गोपाल एवं श्री प्रकाश, फरवरी 1940, पृष्ठ 50 में उन्होंने लिखा कि -मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिन्दुओं के साथ मेरा विवाद है, परन्तु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। बाबा साहिब आर्यों के विदेशी होने के सिद्धांत को नकारते रहे। डॉ अम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज,खण्ड 7, पृष्ठ 70 पर उन्होंने कहा कि -आर्यों के मूलस्थान (भारत के बाहर) का सिद्धांत वैदिक सहित्य से मेल नहीं खाता। वेदों में गंगा, यमुना, सरस्वती के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदियों के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नहीं कर सकता। वे हिंदुओं के हो रहे धर्मांतरण को गलत मानते थे। वे कहते थे -हिन्दू समाज ने अपने धर्म से बाहर जाने के मार्ग तो खुला रखा है, किन्तु बाहर से अंदर आने का मार्ग बंद किया हुआ है। यह स्थिति पानी की उस टंकी के समान है जिसमें पानी के अंदर आने का मार्ग बंद किया हुआ है। किन्तु निकास की टोटीं सैदेव खुली है। अंत: हिन्दू समाज को आने वाले अनर्थ से बचाने के लिए इस व्यवस्था में परिवर्तन होना आवश्यक है। (बाबा साहेब बांची भाषणे- खण्ड 5)। हिन्दू अपनी मानवतावादी भावनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं और प्राणी जीवन के प्रति तो उनकी आस्था अद्भुत है। कुछ लोग तो विषैले सांपों को भी नहीं मारते। हिन्दू दर्शन सर्वव्यापी आत्मा का सिद्धांत सिखाता है और गीता उपदेश देती है कि ब्राह्मण और चांडाल में भेद न करो। प्रश्न उठता है कि जिन हिन्दुओं में उदारता और मानवतावाद की इतनी अच्छी परम्परा है और जिनका अच्छा दर्शन है वे मनुष्यों के प्रति इतना अनुचित तथा निर्दयता पूर्ण व्यवहार क्यों करते हैं? डॉ अम्बेडकर का मत था कि प्रत्येक हिन्दू वैदिक रीति से यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार रखता है और इसके लिए अम्बेडकर जी ने बम्बई में समाज समता संघ की स्थापना कि जिसका मुख्य कार्य अछूतों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना तथा उनको अपने अधिकारों के प्रति सचेत करना था। यह संघ बड़ा सक्रिय था। इसी समाज के तत्वाधान में 500 महारों को जनौउ धारण करवाया गया ताकि सामाजिक समता स्थापित की जा सके। यह सभा बम्बई में मार्च 1928 में संपन्न हुई जिसमें डॉ अम्बेडकर भी मौजूद थे। (डॉ बी आर अम्बेडकर- व्यक्तित्व एवं कृतित्व पृष्ठ 116-117)। तरुणों की धर्म विरोधी प्रवृति देखकर मुझे दु:ख होता है। कुछ लोग कहते हैं कि धर्म अफीम की गोली है। परन्तु यह सही नहीं है। मेरे अंदर जो भी अच्छे गुण हैं अथवा मेरी शिक्षा के कारण समाज हित के काम जो मैंने किये हैं वे मुझ में विद्यमान धार्मिक भावना के कारण ही हैं। मुझे धर्म चाहिए लेकिन धर्म के नाम पर चलने वाला पाखण्ड नहीं चाहिए। (हमारे डॉ अम्बेडकर जी, पृष्ठ 9 श्री आश्चर्य लाल नरूला)
वे कहते थे -मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए है। इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इ?ाजत नहीं देता। सम्भवत: यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया। (बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय, खंड 15-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, 2000)


- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर

Sunday, 2 December 2018

सिद्धू की पोलिटिक्स, बंदर के हाथ में उस्तरा

चाणक्य ने कहा है कि बहुत ज्यादा बोलने वालों से दूर रहें क्योंकि वे बोलते हुए कभी भी आपका अहित कर सकते हैं। नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर कांग्रेस शायद इस चेतावनी से अवगत नहीं थी और आज उसका खमियाजा भुगत रही दिख रही है। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान सिद्धू द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल व उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल सहित पूरे अकाली नेतृत्व पर आग उगलने पर ताली बजाने वाले पंजाब के कांग्रेसी आज बगलें झांक रहे हैं और सिद्धू की जुबान उनकी त्यौरियां चढ़ा रही हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपना कैप्टन मानने से इंकार करके निकाय मंत्री नवजोत सिद्धू को अपनों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है तथा उनके सहयोगियों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। राज्य के ग्रामीण विकास एवं पंचायत मंत्री तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा ने आज श्री सिद्धू के बयान पर नाराजगी जताते हुये कहा कि पाकिस्तान जाने को लेकर पहले तो श्री सिद्धू ने कहा था कि वो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के कहने पर पाकिस्तान गये थे। उसके बाद वे अपने बयान से मुकर गये और ट्वीट किया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा तथा तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया। वह तो पाक प्रधानमंत्री इमरान खान के निजी बुलावे पर गये थे। श्री बाजवा ने कहा कि इसके बाद उन्होंने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बारे में यहां तक कह दिया कि अमरिंदर मेरे कप्तान नहीं,मेरे कप्तान तो राहुल गांधी हैं। उनका बोलने का लहजा अपमानजनक है क्योंकि मुख्यमंत्री तो हमारे कप्तान हैं,बेशक उन्हें भी कप्तान तो श्री गांधी ने बनाया है, श्री गांधी तो हम सबके कप्तान हैं। पर हमें तो कैप्टन सिंह को ही अपना नेता तथा कप्तान मानना होगा। यदि वो मुख्यमंत्री को अपना नेता नहीं मानते तो वो मंत्री पद से इस्तीफा देकर श्री गांधी जहां उन्हें जो ड्यूटी देना चाहें वो करें। श्री बाजवा ने कहा कि ‘श्री सिद्धू मेरे छोटे भाई की तरह है तथा मैं उन्हें सलाह देना चाहता हूं कि वो बोलें कम काम ज्यादा करें। उनके बड़े सपने हैं,बहुत आगे जाना है और बहुत गुणी हैं लेकिन वो बोलने के गुण को लगाम कसें तथा काम पर ध्यान दें। हम सभी को अपने परिवार की भावनाओं तथा मान का भी ख्याल रखना चाहिये। कांग्रेस भी एक परिवार है।’ कांग्रेस के विधायक राजकुमार वेरका ने तो उनके अंदाज-ए-बयां पर कड़ी आपत्ति जताते हुये कहा कि ‘ये कमेडी शो नहीं है। भाषा पर संयम जरूरी है। यदि उन्हें कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ काम नहीं करना तो इस्तीफा दें।’
अपनी बेलगाम जुबान के कारण नवजोत सिंह सिद्धू केवल पंजाब कांग्रेस ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी सिरदर्दी बनते दिख रहे हैं। अभी हाल ही में वे छत्तीसगढ़ के राजगढ़ इलाके में चुनाव प्रचार के दौरान वहां की लड़कियों को लेकर अभद्र टिप्पणी कर चुके हैं जिसको लेकर स्थानीय पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करवाई गई है। पाकिस्तान जाने को पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का आदेश और बाद में इमरान खान के बुलावे को कारण बताना कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भी भारी पड़ सकता है क्योंकि पाकिस्तान को लेकर देश की राजनीति काफी संजीदा रही है और वर्तमान में पांच राज्यों के चल रहे विधानसभा चुनावों के चलते हर शब्द का हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से अर्थ करते हैं। पंजाब मंत्रिमंडल की 3 दिसंबर को बैठक बुलाई गई है जिसमें यह मुद्दा गर्म रहने की संभावना है। कैप्टन के अपमान पर मंत्रिमंडल में काफी आक्रोश पाया जा रहा है और सूत्र बताते हैं कि लगभग आठ से दस मंत्री सिद्धू की नई-नई राजनीतिक कलाबाजियों से गुस्से में हैं।


- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ रंधावा मसंदा,
जालंधर

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...