Sunday, 29 December 2019

मुगलों के विरुद्ध भारतीय मुसलमानों के संघर्ष के प्रतीक हैं दुल्ला भट्टी

पाकिस्तान अपने हर प्रेक्षपात्र दुर्दांत हमलावर व लुटेरे मोहम्मद गौरी, गजनी पर क्यों रखता है ? दिल्ली में औरंगजेब रोड का नामकरण एपीजे कलाम पर करने से भारतीय मुस्लिम समाज का एक वर्ग क्यों हायतौबा मचाता है ? उत्तर स्वभाविक है कि दुनिया के इस हिस्से में रहने वाले मुस्लिम समाज के एक वर्ग को गलत पढ़ाया गया है कि हमलावर पठान व मुगल उनके आदर्श हैं जबकि वास्तविकता यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले मुस्लिम समाज का इनसे कोई वास्ता नहीं है और इन विदेशी हमलावरों से इस देश का मुसलमान भी उतना ही पीडि़त रहा है जितना कि हिंदू। पंजाब में माघ महीने की सन्क्रांति को लोहड़ी मनाई जाती है। पौराणिक  इतिहास के अनुसार तो इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने लोहिता राक्षसी का वध किया परन्तु पंजाब में इस पर्व के साथ ऐसा किन्वदन्ती भरा इतिहास जुड़ा है जो बताता है कि विदेशी हमलावर जो बाद में हमारे शासक बन बैठे किसी भी तरह से यहां के मुस्लिम समाज के हितैषी व शुभचिन्तक न थे।

मुगलों के शासनकाल के समय पंजाब में एक नायक हुए दुल्ला भट्टी जिन्होंने मुगल शासकों की नाक में दम किए रखा और हमवतनों की खूब सेवा की। भारत की वाघा सीमा से पाकिस्तान में लगभग 200 किलोमीटर पार, पश्चिमी पंजाब में गांव पिंडी भट्टियां (जिसका अर्थ है भट्टियों का गांव) है। वहीं राजपूत मुसलमान लद्दी और फरीद खान के यहां 1547 में हुए राय अब्दुल्ला खान, जिन्हें दुनिया अब दुल्ला भट्टी बुलाती है। उनके पैदा होने से चार महीने पहले ही उनके दादा सन्दल भट्टी और बाप को मुगल सम्राट हुमायूं ने मरवा दिया। खाल में भूसा भरवा के गांव के बाहर लटकवा दिया। कारण कि उन्होंने मुगलों को लगान देने से मना कर दिया था। आज भी पंजाब की लोकगाथाओं में हुमायूं की बर्बरता के किस्से सुनने को मिलते हैं। एक लोकगीत में गायक कहता है :- 

तेर सान्दल दादा मारया।
दित्ता बोरे विच पा।
मुगलां पुट्ठियां खालां लाह के।
भरया नाल हवा।

अर्थात - गायक दुल्ला भट्टी को संबोधित करते हुए कहता है कि मु$गलों ने तुम्हारे दादा सान्दल भट्टी को मरवा दिया और उलटी खाल उतरवा उसका शरीर बोरे में भर कर गांव के बाहर लटका दिया। सन्दल भट्टी वो जिनके नाम पर नाम पड़ा था, सन्दल बार का। दुल्ला भट्टी उस कामाने के योद्धा थे। अकबर उन्हें डकैत कहता था। वो अमीरों से, अकबर के जिमींदारों से, सिपाहियों से सामान लूटते और $गरीबों में बान्टते। इस तरह वो अकबर की आन्ख की किरकिरी थे, इतना सताया कि अकबर को आगरा से राजधानी लाहौर बदलनी पड़ी। लाहौर तब से पनपा है, जो आज तक बढ़ता गया। पर सच तो ये रहा कि हिन्दुस्तान का शहंशाह भयभीत था दुल्ला भट्टी से। 
पंजाब में कहानी कही जाती है कि एक बार सलीम थोड़े से सैनिकों के साथ भटक रहा था तो दुल्ला भट्टी ने पकड़ लिया पर कुछ किया नहीं। यूं ही छोड़ दिया, ये कहकर कि दुश्मनी बाप से है, बेटे से नहीं। पाकिस्तानी पंजाब में कहानियां चलती हैं कि पकड़ा तो दुल्ला ने अकबर को भी था। जब पकड़ा गया तो अकबर ने कहा, ‘भईया मैं तो शहन्शाह हूं ही नहीं, मैं तो भाण्ड हूं।’ दुल्ला भट्टी ने उसे भी छोड़ दिया ये कहकर कि भाण्ड को क्या मारूं और अगर अकबर होकर खुद को भाण्ड बता रहा है तो मारने का क्या फायदा?
लोहड़ी तो मनाई जाती है क्योंकि भगवान् कृष्ण ने लोहिता राक्षसी को मारा, जब वो गोकुल आई थी। फिर दुल्ला भट्टी लोहड़ी से कैसे जुड़ गए? इसका भी एक किस्सा है। लाहौर के आसपास एक गांव में सुन्दरदास नामक किसान था, उस दौर में सन्दल बार में मुगल सरदारों का आतन्क था। सुन्दरदास की दो बेटियां थीं सुन्दरी और मुन्दरी। गांव के नम्बरदार की नीयत लड़कियों पर ठीक नहीं थी। वो सुन्दरदास को धमकाता बेटियों की शादी खुद से कराने को दबाव डालता। सुन्दरदास ने किसी तरह दुल्ला भट्टी तक संदेश पहुंचाया। दुल्ला भट्टी नम्बरदार के गांव जा पहुन्चा। उसके खेत जला दिए। लड़कियों की शादी वहां की जहां सुन्दरदास करना चाहता था। केवल इतना ही नहीं दुल्ला भट्टी ने लड़कियों का खुद कन्यादान किया और शगुन में शक्कर दी। वो दिन है और आज का दिन, लोहड़ी की रात को आग जलाकर वही घटना दोहराई जाती है। उसी तरह शक्कर, गुड़, रेवड़ी, मुंगफली, मक्की के दाने, तिल के लड्डू पहले अग्नि को भोग लगाए जाते हैं और बाद में इनका प्रसाद वितरित किया जाता है। केवल इतना ही नहीं हर नवविवाहित जोड़ा पवित्र अग्नि में तिल-फूल भेंट कर दुल्ला भट्टी के प्रति कृतज्ञता जताता है। मौके पर मौजूद सभी लोग उसी घटना को लेकर सामूहिक रूप से गीत गाते हैं : -

सुन्दर मुन्दरिए ...हो
तेरा कौन विचारा...हो
दुल्ला भट्टीवाला...हो
दुल्ले दी धी ब्याही ...हो
सेर शक्कर पाई ...हो
कुड़ी दा लाल पताका ...हो
कुड़ी दा सालू पाटा ...हो
सालू कौन समेटे ...हो
मामे चूरी कुट्टी ...हो
जिमींदारां लुट्टी ...हो
जमींदार सुधाए ...हो
गिन गिन पोले लाए ...हो
इक पोला घट गया
जिमींदार वोहटी ले के नस गया
इक पोला होर आया
जिमींदार वोहटी ले के दौड़ आया
सिपाही फेर के ले गया
सिपाही नूं मारी इट्ट
भावें रो ते भावें पिट्ट
साहनूं दे लोहड़ी 
तेरी जीवे जोड़ी
साहनूं दे दाणे तेरे जीण न्याणे

कहते हैं अकबर की 12 हकाार की सेना दुल्ला भट्टी को न पकड़ पाई थी, तो सन् 1599 में धोखे से पकड़वाया। आनन-फानन फांसी दे दी गई। लाहौर के पास मियानी साहिब कब्रगाह में अब भी दुल्ला की कब्र है।
कौन हैं भट्टी राजपूत
विकीपीडिया के अनुसार, भाटी अथवा भट्टी भारत और पाकिस्तान के राजपूत कबीले हैं। भाटी राजपूत (जिसे बरगला भी कहा जाता है) चंद्रवंशी मूल के होने का दावा करते हैं। भाटी कबीले द्वारा कभी-कभी अपने पुराने नाम यादवपती, जो कृष्ण और यदु या यादव से उनके वंश को दर्शाते थे, का भी प्रयोग किया जाता है। भाटी राजपूत, जादम के वंशज हैं। 12 वीं सदी में भाटी राजवंश ने जैसलमेर पर शासन किया। ये लोग ऊंट सवार, योद्धाओं और मवेशी चोरी और शिकार के शौकीन थे। रेगिस्तान में गहरे स्थित होने के कारण, जैसलमेर भारत में मुस्लिम विस्तार के दौरान सीधे मुस्लिम आक्रमण से बच गया था लेकिन कुछ भाटी खानाबदोश मवेशी रखने वाले थे। 1857 के विद्रोह से पहले के कुछ वर्षों में, इन समूहों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए फैसलों के कारण अपनी जमीन खो दी थी, जो कि जाट किसानों को चराई वाले भूमि को पूर्व में दिल्ली और हरियाणा क्षेत्रों में भाटियों द्वारा आवृत करती थी। बहुत से खानाबदोश भट्टियों ने किसी ने किसी तरह इस्लाम कबूल कर लिया। दुल्ला भट्टी का परिवार भी इन्हीं में से एक था। पंजाब का भाटी राजपूतों से जुड़ा गौरवशाली इतिहास रहा है। भाटी राजाओं ने ही मालवा में शासन किया और किलों का निर्माण करवाया। पंजाब का भटिण्डा किसी समय भटनेर के नाम से विख्यात रहा है।
- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां, 
जालंधर।
संपर्क : 77106-55605

Grave of Dulla Bhatti in Miani village near Lahore,Pakistan.

Tuesday, 24 December 2019

नागरिकता सन्शोधन अधिनियम बनाम गढ़े गए विवाद

दुनिया में हर विवाद का हल व समस्या का समाधान है परन्तु गढ़े गए विवादों का जब तक निपटान होता है तब तक बहुत अनर्थ हो चुका होता है और सिवाए पछतावे के कुछ हाथ नहीं लगता। नागरिकता सन्शोधन अधिनियम पर पैदा हुए विवाद को भी इसी श्रेणी में शामिल किया जा सकता है। लगभग दो दर्जन कीमती जानें गंवाने, करोड़ों-अरबों रूपयों की सार्वजनिक सम्पत्ति फूंकने और एक सप्ताह से भी अधिक समय तक देश को बन्धक बनाए रखने के बाद प्रदर्शनकारियों को भी समझ आगया कि इससे किसी देशवासी का कुछ नहीं बिगडऩे जा रहा। परिणामस्वरूप प्रदर्शन मद्धम पड़ रहा है परन्तु एक कृत्रिम विवाद से पैदा  आन्दोलन ने देश के कुछ राजनीतिक दलों, मीडिया के एक वर्ग और समाज की सोच को तो चर्चा के केन्द्र में ला ही दिया है।

इस अधिनियम से केन्द्र सरकार ने विभाजन के समय की गलती को सुधारते हुए पड़ौस के तीन इस्लामिक गणराज्यों पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने का प्रयास किया जो मूल स्थानों पर धार्मिक उत्पीडऩ का शिकार हो कर विस्थापित होने को मजबूर हुए हैं। आखिर इनको उत्पीडऩ से मुक्ति और जीवन में आगे बढऩे के अवसर क्यों नहीं मिलने चाहिए? आखिर इनका मूल निवास स्थान तो भारत ही है, यह बात दूसरी है कि विभाजन के बाद इनके मूल स्थान भारत की जड़ों से कट कर अलग हो गए। इनके न्याय में बाधा डालने वालों को सोचना चाहिए कि देश के विभाजन में इन लोगों का न तो कोई हाथ था और न ही कोई कसूर। इनकी चूक केवल इतनी है कि बन्टवारे के समय ये भारत नहीं आ पाए और वहां के बहुसंख्यक समाज पर विश्वास कर वहीं बने रहे।

यहां यह भी बताना जरूरी है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत में तो जागीरदारी का वैधानिक व काफी सीमा तक सामाजिक उन्मूलन भी हो चुका है परन्तु पाकिस्तान में यह कुप्रथा अभी भी जारी है। पाकिस्तान में फंसे हुए अधिकतर हिन्दू दलित समाज से सम्बन्धि हैं और वहां जागीरदारों ने उन्हें विभाजन के समय इसलिए भारत नहीं आने दिया कि अगर ये लोग चले जाएंगे तो उनकी गोबर-बुहारी कौन करेगा। मुस्लिम लीगी खुलेआम कहते थे कि आखिर हमें अपने पखाने साफ करवाने के लिए भी तो हिन्दू चाहिएं। अब अगर इन प्रताडि़त दलितों, पिछड़ों व वञ्चितों को न्याय मिल रहा है तो किसी का पेट क्यों दुखना चाहिए।

पाकिस्तान में हिन्दुओं का उत्पीडऩ विभाजन से पहले ही शुरू हो चुका था जो आज भी जारी है। विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह गए पण्डित ठाकुर गुरुदत्त नामक वैद्य ने महात्मा गान्धी जी को बताया कि कैसे उन्हें जबरदस्ती लाहौर छोडऩे को मजबूर किया गया। वह गान्धी जी की इस बात से काफी प्रभावित थे कि हर व्यक्ति को अंत तक अपने जन्मस्थान पर रहना चाहिए, लेकिन वो चाह कर भी ये नहीं कर पा रहे थे। इस पर 26 सितम्बर, 1947 को गान्धी जी ने अपनी प्रार्थना सभा में कहा, ''आज गुरु दत्त मेरे पास आए। वो एक बड़े वैद्य हैं। आज वो अपनी बात कहते हुए रो पड़े। वो मेरा सम्मान करते हैं और मेरी कही गई बातों को अपने जीवन में उतारने का सम्भव प्रयास भी करते हैं लेकिन कभी-कभी मेरी बातों का हकीकत में पालन करना बेहद मुश्किल होता है।'' इसी भाषण में गान्धी जी आगे कहते हैं कि ''पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू-सिख अगर उस देश में नहीं रहना चाहते हैं तो वापस आ सकते हैं। इस स्थिति में ये भारत सरकार का पहला दायित्व होगा कि उन्हें रोजगार मिले और उनका जीवन आरामदायक हो।''

अगर इस तरह की एतिहासिक विसन्गतियों को दूर करने के प्रयासों का भी विरोध हो और वह भी केवल भ्रम के आधार पर तो इसे गढ़ा हुआ विवाद न कहा जाए तो क्या कहें? पञ्चतन्त्र में कहानी है कि कन्धों पर मेमना ले जा रहे एक भले व्यक्ति को चार ठगों ने योजना बना उसे बारी-बारी कहना शुरू कर दिया कि गधा उठा कर कहां जा रहे हो। ठगों के भ्रम में फंस कर वह बेचारा मेमने को ही गधा समझ बैठा और उसे जमीन पर पटक कर चला गया। उसके बाद चारों ठगों ने रात को उस मेमने की दावत उड़ाई। उक्त विधेयक के बाद हुई हिन्सा भी इसी कहानी की नया संस्करण दिखा। एक के बाद एक राजनीतिक दल ने इसे खास समुदाय विरोधी बताना शुरू कर दिया और मीडिया का एक वर्ग भी इस दुष्प्रचार का भौम्पू बन गया। परिणाम हुआ कि पड़ौसी देशों के पीडि़तों को न्याय देने का केन्द्र सरकार का प्रयास अपने ही देश के अल्पसंख्यकों के लिए दमनकारी बताया जाने लगा और समाज एक बार भ्रमित भी होता नजर आया।

केवल यही नहीं इससे पहले भी कभी रफेल सौदा, धारा 370, राम मन्दिर मुद्दे को लेकर विवाद गढ़े जाते रहे हैं और इन कृत्रिम मुद्दों की परिणति क्या हुई वह किसी से छिपी नहीं। लोकतन्त्र में सरकार का विरोध विपक्ष का सन्विधानिक अधिकार है परन्तु ये काम सत्य व तथ्यों पर आधारित होना चाहिए न कि गढ़े गए विवादों पर। आखिर विपक्ष कब तक मेमने को गधा बताता रहेगा।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां, 
जालंधर।
संपर्क - 77106-55605

Thursday, 19 December 2019

ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੋਧ ਕਾਨੂੰਨ, 'ਜੀ ਆਇਆਂ ਨੂੰ'

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ਰਾਸ਼ਟਰਪਤੀ ਦੀ ਮਨਜ਼ੂਰੀ ਮਿਲਣ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਤਰਮੀਮ ਬਿੱਲ ਨੇ ਕਾਨੂੰਨ ਦਾ ਰੂਪ ਲੈ ਲਿਆ ਹੈ। ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਰਾਹੀਂ ਪਾਕਿਸਤਾਨ, ਅਫਗਾਨਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਦੇ ਸਤਾਏ ਹੋਏ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ 'ਜੀ ਆਇਆਂ ਨੂੰ' ਕਿਹਾ ਹੈ ਜਿਸਦਾ ਸਵਾਗਤ ਕੀਤਾ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਮੰਦਭਾਗੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਅਫ਼ਗਾਨਿਸਤਾਨ, ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਅਤੇ ਬੰਗਲਾਦੇਸ਼ ਦੇ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਅਤੇ ਬਹੁਗਿਣਤੀ ਭਾਈਚਾਰਿਆਂ ਵਿਚਾਲੇ ਫ਼ਰਕ ਕਰਨ ਦੇ ਕਾਰਨਾਂ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਨਹੀਂ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਗ੍ਰਹਿ ਮੰਤਰੀ ਅਮਿਤ ਸ਼ਾਹ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਕਾਰਨਾਂ ਨੂੰ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਸਪਸ਼ਟ ਕੀਤਾ ਪਰ ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਇਸੇ 'ਤੇ ਅੜੀ ਹੋਈ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਕਾਨੂੰਨ ਸੰਵਿਧਾਨ ਦੀਆਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਧਾਰਾਵਾਂ ਖ਼ਾਸ ਤੌਰ 'ਤੇ ਧਾਰਾ 14 ਦੀ ਉਲੰਘਣਾ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਕਾਨੂੰਨ ਤਿੰਨ ਗੁਆਂਢੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਤੰਗ-ਪਰੇਸ਼ਾਨ ਕੀਤੇ ਘੱਟਗਿਣਤੀ ਭਾਈਚਾਰਿਆਂ ਅਤੇ ਉੱਥੋਂ ਦੇ ਬਹੁਗਿਣਤੀ ਭਾਈਚਾਰਿਆਂ ਵਿਚਾਲੇ ਫ਼ਰਕ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਨਾ ਕਿ ਹਿੰਦੂ-ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਵਿਚਾਲੇ। ਧਾਰਾ 14 ਤਰਕਸੰਗਤ ਫ਼ਰਕਾਂ 'ਤੇ ਅਧਾਰਤ ਕਾਨੂੰਨ ਬਣਾਉਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਦਿੰਦੀ ਹੈ।  ਵਿਰੋਧੀ ਇਸ ਗੱਲ ਨੂੰ ਵੀ ਅੱਖੋਂ-ਪਰੋਖੇ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਜੇ ਉਕਤ ਤਿੰਨ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ  ਮੁਸਲਮਾਨ ਵੀ ਭਾਰਤ ਦੀ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਚਾਹੁਣਗੇ ਤਾਂ ਉਸ 'ਤੇ ਗ਼ੌਰ ਹੋਵੇਗਾ। ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਕਾਨੂੰਨ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਹੀ ਨਹੀਂ ਕਰ ਰਹੀ ਬਲਕਿ ਉਹ ਉਸ ਨੂੰ ਲੈ ਕੇ ਭਰਮਾਉਣ ਤੇ ਉਕਸਾਉਣ ਦਾ ਕੰਮ ਵੀ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ। ਪ੍ਰਚਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਕਾਨੂੰਨ ਭਾਰਤੀ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ। ਇਹ ਪ੍ਰਚਾਰ ਉਦੋਂ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ ਜਦ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਦਾ ਕਿਸੇ ਵੀ ਮਜ਼ਹਬ ਦੇ ਭਾਰਤੀ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਨਾਲ ਕੋਈ ਸਬੰਧ ਨਹੀਂ। ਇਕ ਸੰਵੇਦਨਸ਼ੀਲ ਮਸਲੇ 'ਤੇ ਹੋ ਰਹੀ ਰਾਜਨੀਤੀ ਕਾਰਨ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਗ਼ਲਤ ਸੁਨੇਹਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹ ਭਰਮ-ਭੁਲੇਖਿਆਂ ਵਿਚ ਪੈ ਰਹੇ ਹਨ। ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਕਾਨੂੰਨ 'ਤੇ ਗ਼ਲਤ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਾਰਨ ਹੀ ਕੁਝ ਲੋਕ ਸੜਕਾਂ 'ਤੇ ਉਤਰੇ ਹੋਏ ਹਨ।
ਕਾਨੂੰਨ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿਚ ਜੋ ਗੁੱਸਾ ਦੇਖਣ ਨੂੰ ਮਿਲ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਉਹ ਖੇਤਰਵਾਦ ਦੀ ਰਾਜਨੀਤੀ ਦਾ ਸਬੂਤ ਹੈ। ਖੇਤਰਵਾਦ ਦਾ ਭਾਰੂ ਹੋਣਾ ਇਕ ਤ੍ਰਾਸਦੀ ਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਸੌੜੀ ਸੋਚ ਨੂੰ ਹਵਾ ਦੇਣ ਵਾਲੀ ਰਾਜਨੀਤੀ ਤਾਮਿਲਨਾਡੂ, ਬੰਗਾਲ ਅਤੇ ਮਹਾਰਾਸ਼ਟਰ ਵਿਚ ਵੀ ਸਮੇਂ-ਸਮੇਂ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਕ ਸਮੇਂ ਪੰਜਾਬ ਵਿਚ ਵੀ ਇਸੇ ਰਾਜਨੀਤੀ ਨੂੰ ਹਵਾ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਸੀ ਪਰੰਤੂ ਇੱਥੇ ਦੇ ਸੂਝਵਾਨ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਇਸਨੂੰ ਨਕਾਰ ਦਿੱਤਾ। ਕੇਰਲ, ਬੰਗਾਲ, ਪੰਜਾਬ, ਮੱਧ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਆਦਿ ਸੂਬਿਆਂ ਵੱਲੋਂ ਕਿਹਾ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਕਾਨੂੰਨ ਲਾਗੂ ਨਹੀਂ ਕਰਨਗੇ, ਇਹ ਸੰਘੀ ਢਾਂਚੇ ਦੀ ਬੇਅਦਬੀ ਵੀ ਹੈ। ਰਾਸ਼ਟਰੀ ਮੁੱਦਿਆਂ ਨੂੰ ਹਿੰਸਾ ਦੇ ਸਹਾਰੇ ਨਹੀਂ ਸੁਲਝਾਇਆ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਬਾਹਰ ਤੋਂ ਆਏ ਜੋ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਹਾਲ 'ਤੇ ਨਹੀਂ ਛੱਡਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨਾਗਰਿਕ ਜਾਂ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀ ਐਲਾਨਣ ਦਾ ਕੰਮ ਕਰਨਾ ਹੀ ਹੋਵੇਗਾ। ਵਿਰੋਧੀ ਧਿਰ ਅਸਾਮ ਦੀ ਤਰਜ਼ 'ਤੇ ਬਾਕੀ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਐੱਨ.ਆਰ.ਸੀ. ਲਾਗੂ ਕਰਨ ਦੇ ਐਲਾਨ ਦਾ ਵੀ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ ਪਰ ਉਸ ਨੂੰ ਇਹ ਸਮਝਣਾ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿ ਹਰ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਇਹ ਜਾਣਨ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਦੇ ਇੱਥੇ ਰਹਿ ਰਹੇ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਕਿਹੜੇ ਉਸ ਦੇ ਨਾਗਰਿਕ ਹਨ ਅਤੇ ਕਿਹੜੇ ਨਹੀਂ। ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਮੁਲਕਾਂ ਦੇ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਦੀ ਪਛਾਣ ਕਰਨੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਦੂਜੇ ਮੁਲਕਾਂ ਦੇ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਦੀ ਪਛਾਣ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਇਹ ਵੀ ਦੇਖਣਾ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿ ਕੌਣ ਘੁਸਪੈਠੀਆ ਹੈ ਅਤੇ ਕੌਣ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀ। ਇਸ ਦੀ ਅਣਦੇਖੀ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਜਾਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਕਿ ਤਮਾਮ ਘੁਸਪੈਠੀਆਂ ਨੇ ਵੋਟਰ ਪਛਾਣ ਪੱਤਰ, ਰਾਸ਼ਨ ਕਾਰਡ ਅਤੇ ਅਧਾਰ ਕਾਰਡ ਤਕ ਬਣਵਾ ਲਏ ਹਨ। ਉਹ ਭਾਰਤੀ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਭਾਰਤ ਦੇ ਸੋਮਿਆਂ ਦਾ ਲਾਭ ਲੈ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਹ ਠੀਕ ਨਹੀਂ। ਇਸ ਸਿਲਸਿਲੇ ਨੂੰ ਰੋਕਣਾ ਹੀ ਹੋਵੇਗਾ।
ਇਹ ਇਤਿਹਾਸਕ ਸੱਚਾਈ ਹੈ ਕਿ ਚਾਹੇ ਵਿਭਾਜਨ ਤੋਂ ਪੂਰਾ ਦੇਸ਼ ਆਹਤ ਹੋਇਆ ਪਰ ਇਸਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਜਿਆਦਾ ਮਾਰ ਪੰਜਾਬ ਅਤੇ ਬੰਗਾਲ ਨੂੰ ਹੀ ਪਈ। ਇਸ ਦੌਰਾਨ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕ ਮਾਰੇ ਗਏ ਅਤੇ ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਪਰਿਵਾਰ ਆਪਣੇ ਮੂਲ ਸਥਾਨਾਂ ਤੋਂ ਵਿਸਥਾਪਿਤ ਹੋਣ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਰ ਹੋਏ। ਵਿਸਥਾਪਿਤ ਹੋਏ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਜਿੱਥੇ ਆਪਣੇ ਘਰ ਅਤੇ ਜਮੀਨਾਂ ਨੂੰ ਛੱਡਣਾ ਪਿਆ ਉਥੇ ਹੀ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀਆਂ ਦਾ ਜੀਵਨ ਜਿਊਣਾ ਪਿਆ। ਵੰਡ ਦੇ ਦੌਰਾਨ ਹੋਈ ਹਿੰਸਾ ਤੋਂ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖ ਅਬਾਦੀ ਦਾ ਪੂਰਨ ਤੌਰ ਉੱਤੇ ਵਿਸਥਾਪਨ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਿਆ ਅਤੇ ਹਿੰਸਾ ਦੇ ਚਲਦੇ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕ ਉਥੇ ਹੀ ਫਸ ਕੇ ਰਹਿ ਗਏ। ਉੱਥੇ ਫਸੇ ਹੋਏ ਲੋਕਾਂ ਤੇ ਅੱਤਿਆਚਾਰਾਂ ਦੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਕਿਸੇ ਤੋਂ ਛਿਪੀਆਂ ਨਹੀਂ ਹਨ। ਸੰਸਦ ਵਿੱਚ ਵੀ ਚਰਚਾ ਦੌਰਾਨ ਸਾਹਮਣੇ ਆਇਆ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਹਿੱਸੇ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਰਹੇ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਰਹੇ ਰਿਸ਼ਤੇਦਾਰਾਂ ਦਾ ਧਰਮ ਇਸਲਾਮ ਹੈ। ਕਿਉਂ? ਇਸਦਾ ਸਿੱਧਾ ਜਵਾਬ ਹੈ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਜਾਨ ਬਚਾਉਣ ਲਈ ਮੁਸਲਮਾਨ ਬਨਣਾ ਪਿਆ ਜਾਂ ਦੇਸ਼ ਛੱਡਣਾ ਪਿਆ। ਇਹਨਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੂ-ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਜਿਆਦਾਤਰ ਧਰਮਸਥਾਨ ਜਾਂ ਤਾਂ ਬੰਦ ਹਨ ਅਤੇ ਜੋ ਕੁੱਝ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਹਨ ਤਾਂ ਉਹ ਤਰਸਯੋਗ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਹਨ।ਇਹੀ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਪਰਿਵਾਰ ਅੱਜ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਤੋਂ ਵਿਸਥਾਪਿਤ ਹੋ ਕੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਹਿੱਸਿਆਂ ਪੰਜਾਬ, ਦਿੱਲੀ,  ਹਰਿ
ਆਣਾ,  ਰਾਜਸਥਾਨ ਆਦਿ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਮਿਲਣ ਦੀ ਉਡੀਕ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ। ਨਾਗਰਿਕਤਾ ਸੋਧ ਕਾਨੂੰਨ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਪੀੜਤ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੇ 72 ਸਾਲਾਂ ਬਾਅਦ ਇਨਸਾਫ ਦੀ ਕਿਰਨ ਦਿਖਾਈ ਹੈ ਜਿਸਦਾ 'ਜੀ ਆਇਆਂ ਨੂੰ' ਕਹਿਣਾ ਬਣਦਾ ਹੈ।
- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ

Friday, 6 December 2019

हैदराबाद मुठभेड़ : हरष बिषाद हृदय अकुलानी

अशोक वाटिका में अचानक श्रीराम की मुद्रिका अपने सामने देख जैसी मनोस्थिति सीता की हुई लगभग वैसे ही हर्ष और विषाद के हालत हैदराबाद बलात्कार आरोपियों से हुई मुठभेड़ के बाद देश के बनते दिख रहे हैं। इस पर अधिकतर लोगों में प्रसन्नता है और कुछ में विषाद भी, दोनों के अपने-अपने तर्क और दलीलें हैं परन्तु घटना की गहराई में जाया जाए तो इसमें हमारी व्यवस्था की असफलता साफ तौर से देखी जा सकती है। कटघरे में वह तंत्र है जो महिलाओं को सुरक्षित वातावरण उपलब्ध नहीं करवा पा रहा और सवालों के घेरे में वह न्याय व्यवस्था भी है जो जिसके पास हर दीपावली पर आतिशबाजी हो या न हो जैसे मुद्दों को लेकर याचिकाएं सुनने का तो समय है परन्तु जनता से जुड़े मामले दशकों तक लटकाती है। पूरी तरह निरपराध तो वह समाज भी नहीं जो मुठभेड़ करने वालों पर तो पुष्पवर्षा कर रहा है परन्तु उसका एक वर्ग वेबसाइट पर इसी दुराचार काण्ड को लाइव देखने को ललायित है। सभ्य समाज में बलात्कारी तो घृणित व मृत्युदण्ड के अधिकारी हैं ही परन्तु राज्य प्रायोजित आतंकवाद को भी किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। केवल बलात्कार ही क्यों, हर तरह के अपराधी को कड़े से कड़ा दण्ड मिले परन्तु न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत, फैसला ऑन दा स्पॉट किसी मसाला मूवी का तो शीर्षक हो सकता है लेकिन बाबा साहिब भीमराव रामजी अम्बेडकर के सन्विधान में इसके लिए कहीं जगह नहीं हो सकती। हैदराबाद मुठभेड़ प्रकरण में केवल जनसाधारण ही नहीं बल्कि सन्सद में जनप्रतिनिधि भी ताली पीट रहे हैं तो हमारी व्यवस्था को आत्मविश्लेषण कर स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि वह अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन कर पा रही है या नहीं।

हिन्दी फिल्म 'आखिरी रास्ता' में बूढ़े डेविड (अमिताभ बच्चन) द्वारा अपनी पत्नी के बलात्कारियों को सजा देते हुए देख लोग सीटियां बजाते हैं, परन्तु वास्तव में यह तालियां उस व्यवस्था के लिए गालियां होती हैं जो सरलमना डेविड को न्याय देने में नाकाम रही। वैसे यह आश्चर्यजनक है कि बिना जांच के कुछ कथित मानवाधिकारवादियों ने इस मुठभेड़ को फर्जी बता दिया और अपनी इसी धारणा को सही मान कर पुलिस पर सवाल उठा रहे हैं। लोग यह भी पूछने लगे हैं कि जहां-जहां दानव होते हैं उसी ही गांव में मानवाधिकारवादी क्यों मिलते हैं। बलात्कारियों की मौत पर रुदाली गाने वाले मानवाधिकारवादियों व उनके संगठनों के नाम उनमें शामिल क्यों न हुए जो कल तक बलात्कारियों पर सख्त कार्रवाई की मांग को लेकर संघर्षरत थे। पंजाब और कश्मीर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में हुई आतंकी घटनाओं व नक्सलियों के साथ मानवाधिकारवादी यूं जुड़े हैं जैसे जंगल में शेर के अंग-संग बिलाव अपना जीवन यापन करता है। येन केन प्रकारेण राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मञ्चों पर ये लोग देश की बदनामी करते रहे हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि इस घटना को लेकर भी हमारे मानवाधिकारवादी पहुंच जाएं लंदन या शिकागो अन्तर्राष्ट्रीय रुदन महोत्सवों में और देश की लानत मलानत में जुट जाएं।

बाबा साहिब अम्डेदकर के प्रीनिर्वाण दिवस पर हुए इस सन्विधान विमुख कार्य पर जनता खुशी मनाती है तो इसमें दोष उत्सव मनाने वालों का नहीं बल्कि उस नकारा प्रणाली का है जिसने देशवासियों का विश्वास कानून व्यवस्था से उठाने में पूरा जोर लगा दिया। दिल्ली में निर्भया और हैदराबाद दुराचार काण्ड पर शोर मचने पर सरकार जागी परन्तु क्या साधारण केसों में इतनी ही सक्रियता दिखाई देती है? निर्भया काण्ड के बाद कानूनी सख्ती के बावजूद हजारों बलात्कार के केस हुए परन्तु बहुत कम सुनने में आया कि किसी बलात्कारी को निश्चित समय पर दण्ड दिया गया हो। यहां तक कि खुद निर्भया काण्ड के आरोपी अभी तक अपनी सांसों से दुनिया की हवा को प्रदूषित कर रहे हैं। दुराचार के मामले में किसी को सजा हो भी जाए तो उसके बाद न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी है कि कोई भी प्रशिक्षित वकील अपने मुवक्किल को इतना अभयदान दिलवा सकता है कि वह आसानी से वर्षों तक सजा से बच सके। जिला सत्र न्यायालय किसी को मृत्यु दण्ड देता है तो उसको उच्च न्यायालय की स्वीकृति के लिए 60 दिन, उच्च न्यायालय में अपील के लिए 90 दिन, सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए 90 दिन का समय लगता है। उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई की समयावधि निश्चित नहीं है केस को कितना भी लम्बा खींचा जा सकता है। अगर यहां से सजा मिल जाए तो अपराधी पुनर्विचार याचिका दायर कर सकता है और उसके बाद राष्ट्रपति के पास दया की मांग कर सकता है। इन प्रक्रियाओं के लिए भी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं। अपराधियों को इतना लम्बा जीवन उन केसों में मिलता है जिसमें किसी को सजा हुई है, अधिकतर केस तो इस स्तर पर जा ही नहीं पाते। पीडि़त पहले ही थक हार कर परिस्थितियों से समझौता कर चुका होता है। राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द ने यह कह कर न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने का प्रयास किया कि दुराचारियों को दया याचिका का अधिकार नहीं होना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि सरकार राष्ट्रपति के इस सुझाव को तुरन्त अमली जामा पहनाएगी। तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी देश की पुलिस बलात्कार जैसे घृणित अपराधों को पूरी गम्भीरता से नहीं लेती और पीडि़त व उसके परिवार को अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। रही बात न्यायालय की तो उसे भी निरपराध नहीं कहा जा सकता। उसकी भूमिका कौरव सभा में विराजमान मिट्टी के धर्मज्ञों व धुरन्धरों जैसी है जो शस्त्र व शास्त्र में तो पारंगत थे परन्तु एक निर्बला के चीरहरण पर जड़ हो गए। एक तरफ तो कहा जाता है कि न्यायालय के पास लम्बित चार करोड़ केस बलात्कार जैसे अपराधों के आरोपियों को बचाते हैं तो दूसरी ओर वही अदालतें हर साल दीपावली पर आतिशबाजी जैसे सामाजिक व कम महत्त्व के मुद्दों पर मत्थापचाई करती है। मुठभेड़ जैसे असंवैधानिक कामों पर जनता की खुशी एक तरह से पुलिस, न्यायालय सहित पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पर तमाचा है, जनता कसूरवार नहीं। देश कभी इसका समर्थक नहीं रहा कि विधि व धर्म विमुख कोई काम हो क्योंकि यहां तो निहत्थे शत्रु पर वार करना भी अपराध माना जाता रहा है। जनता इसलिए बसन्त मना रही है क्योंकि हमारी व्यवस्था ने ठीक तरह से काम नहीं किया और इसीलिए पुलिस का गलत काम भी उसे इन्साफ लग रहा है। वास्तव में यह स्थिति हर्ष और विषाद के साथ चिंता की भी है।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
वीपीओ लिदड़ां, 
जालन्धर।
सम्पर्क - 77106-55605

Monday, 2 December 2019

हैदराबाद बलात्कार प्रकरण : माता सदैव भार्या नास्ति

माता सदैव-भार्या नास्ति अर्थात हे देवी! तुम माँ हो सकती हो किन्तु पत्नी कभी नहीं। स्वर्गलोक में अपने धर्मपिता इन्द्र के पास ब्रह्मास्त्र की विद्या लेने गए अर्जुन पर मोहित उर्वशी को माता सम्बोधित करने पर क्रोधित अप्सरा ने उसे क्लीवता का श्राप दिया परन्तु धन्य था कौन्तय जिसने जीवन भर नपुन्सकता का बोझ ढोना तो स्वीकार किया परन्तु चरित्र पर सेक न आने दिया। यही है अपनी संस्कृति जो 'मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्' अर्थात हर परस्त्री को माँ और दूसरे के धन को मिट्टी के समान मानती है। अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द जी पर मोहित एक महिला ने कहा कि वह उनसे उनके जैसा पुत्र चाहती है तो स्वामी जी ने उसे माँ बता कर उसकी इच्छा पूरी कर दी। एक-दो नहीं अनेकों प्रसंग हैं जो साक्षी हैं कि अपने समाज जीवन में महिला का कितना ऊंचा व सम्मानित स्थान रहा परन्तु हैदराबाद में एक महिला चिकित्सक के साथ हुई दरिन्दगी बताती है कि नदी का एक दूसरा छोर भी है, समाज का स्याह पक्ष भी है जो महिला को केवल मात्र भोग-विलास की वस्तु मानता है। घटना के बाद से पूरा देश उबाल पर है। पीडि़ता चार पैरों वाले निरीह पशुओं का इलाज तो करती रही परन्तु दोपायेधारी दरिन्दों का शिकार हो गई। घटना को लेकर जिस तरह संसद से सड़क तक संग्राम मचा है उसको देखते हुए अब तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने त्वरित न्यायालय गठित करने की घोषणा की है ताकि दोषियों को जल्द दण्ड मिल सके। आरोपियों की पहचान ट्रक के कर्मचारियों के रूप में हुई है, जिन्होंने युवती की स्कूटी को पंक्चर कर दिया और सहायता के बहाने उसे ट्रक के पीछे खींच लिया व उत्पीडऩ के बाद उसकी निर्ममता से हत्या कर दी। बाद में उसकी लाश को जला दिया। अगली सुबह एक दूधिये की सूचना पर पुलिस ने लाश बरामद की। इस घटना ने जहां पूरे देश में महिला की सुरक्षा को बहस के केंद्र में ला दिया वहीं मानो पूरी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

आज से लगभग सात साल पहले दिल्ली में इसी तरह के हुए निर्भया काण्ड के बाद भी यूं ही देश में आक्रोश का ज्वार फैला था पर केन्द्र सरकार द्वारा भारतीय दण्डावली के अतिरिक्त लैन्गिक अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम-2012 की व्यवस्था करने के बावजूद इन अपराधों में कमी नहीं आई है। आज भी पहले की भान्ति न केवल इस तरह के अपराध हो रहे बल्कि अबोध शिशुओं तक को इसका शिकार बनाया जा रहा है। देखने में आया है कि इन नियमों के पालन में एकरूपता व समान विधि के अभाव के चलते यह कानून प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं। हैदराबाद की घटना का शोर मचने के बाद वहां की सरकार ने त्वरित न्यायालय गठित करने की घोषणा कर दी परन्तु यह असम्भव है कि इस तरह के हर अपराध के बाद समाज इसी तरह सड़कों पर उतरे। यह तो कानूनी प्रक्रिया में समानता होनी चाहिए कि इस तरह के अपराधों के बाद सभी पीडि़तों को त्वरित न्याय की सुविधा मिले। न्याय में विलम्ब भी इन अपराधों को प्रोत्साहन देने का बड़ा कारण है। दुखद आश्चर्यजनक तथ्य है कि इतना शोर शराबा होने के बाद निर्भया काण्ड के अपराधियों को अभी तक फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। अपराधियों के बालिग-नाबालिग होने का मुद्दा उनको निर्भय दान देता प्रतीत होता दिखाई दे रहा है।
इस मुद्दे का सामाजिक पक्ष भी है कि हमें समाज को संस्कारवान बनाने की दिशा में गम्भीर प्रयास करना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने दिल्ली में गीता जयन्ती समारोह में बोलते हुए ठीक ही कहा कि हमें मातृशक्ति के प्रति अपनी दृष्टि में बदलाव लाना होगा। घर, परिवार और समाज में मातृ शक्ति के प्रति सम्मान का भाव पैदा करना होगा। डा. घर से बाहर महिलाओं की सुरक्षा जरूरी है, इसके लिए समाज में व्यापक सुधार और बदलाव की जरूरत है। महिलाओं को देखने की दृष्टि साफ होनी चाहिए। हमें घर, परिवार और समाज में ही लोगों को इस आशय का प्रशिक्षण देना होगा। सरकार कानून बना चुकी है, कानून पालन में शासन-प्रशासन की ढिलाई ठीक नहीं है, लेकिन उन पर ही सब कुछ छोड़ दें तो ये भी नहीं चलेगा क्योंकि ये जो अपराध करने वाले हैं, उनकी भी माता-बहनें हैं। उनको किसी ने सिखाया नहीं है। दूसरों की महिलाओं की ओर देखने की दृष्टि शुद्ध होनी चाहिए। सन्सद में भी सभी दलों ने एक स्वर में इसकी न केवल निन्दा की बल्कि कानून को और सख्त बनाने की जरूरत पर भी जोर दिया है।
महिला सुरक्षा का विषय स्वैच्छिक नहीं बल्कि सामाजिक जीवन में उतना ही अनिवार्य है जितना कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए हवा और पानी। मनु स्मृति में कहा गया है कि जहां स्त्रियों को मान-सम्मान ंिमलता है वहीं देवताओं का वास होता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि वह कुल तभी नष्ट हो जाता है जब कुलीन स्त्रियां दु:खी रहती हैं। भविष्य पुराण में लिखा है कि स्त्रियां जिन घरों को शाप देती हैं, वे घर दुर्दशाग्रस्त हो जाते हैं। उपरोक्त सबके बावजूद आज की स्थिति यह है कि भारत में नारी अपने को असुरक्षित समझती है। पिछले दिनों हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार सुबह सैर करने निकली औरतें आत्मरक्षा के साधन लेकर निकलती हैं। दौड़ लगाने जाने वाली करीब 6000 औरतों के सर्वेक्षण में बताया गया है कि 42 प्रतिशत औरतें अपनी सुरक्षा को लेकर इतनी भयग्रस्त रहती हैं कि नियमित दौडऩे नहीं जा पातीं। कुछ अकेली दौडऩे की बजाय समूह का सहारा लेती हैं। महिला सुरक्षा का मामला समाज के घिनौने चेहरे का पर्दाफाश करता है। वर्तमान समय में जब महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर न केवल खुद आगे बढ़ रही बल्कि अपने परिवार व देश का नाम भी रोशन कर रही हैं तो ऐसी स्थिति में महिलाओं को समुचित सुरक्षा देना सभी का दायित्व है। इसका सबसे बड़ा दायित्व तो खुद महिलाओं पर ही है क्योंकि उसे सुरक्षा के लिए दूसरों पर आश्रित रहना बन्द करना सीखना होगा। किसी विचारक ने ठीक ही लिखा है कि - पांचाली तुम ही शस्त्र उठाओ, शायद कृष्ण अब न आएंगे।
- राकेश सैन
32, खण्डाला फार्मिंग कालोनी
वीपीओ लिदड़ां,
जालन्धर।
मो. 77106-55605

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...