दुनिया में हर विवाद का हल व समस्या का समाधान है परन्तु गढ़े गए विवादों का जब तक निपटान होता है तब तक बहुत अनर्थ हो चुका होता है और सिवाए पछतावे के कुछ हाथ नहीं लगता। नागरिकता सन्शोधन अधिनियम पर पैदा हुए विवाद को भी इसी श्रेणी में शामिल किया जा सकता है। लगभग दो दर्जन कीमती जानें गंवाने, करोड़ों-अरबों रूपयों की सार्वजनिक सम्पत्ति फूंकने और एक सप्ताह से भी अधिक समय तक देश को बन्धक बनाए रखने के बाद प्रदर्शनकारियों को भी समझ आगया कि इससे किसी देशवासी का कुछ नहीं बिगडऩे जा रहा। परिणामस्वरूप प्रदर्शन मद्धम पड़ रहा है परन्तु एक कृत्रिम विवाद से पैदा आन्दोलन ने देश के कुछ राजनीतिक दलों, मीडिया के एक वर्ग और समाज की सोच को तो चर्चा के केन्द्र में ला ही दिया है।
इस अधिनियम से केन्द्र सरकार ने विभाजन के समय की गलती को सुधारते हुए पड़ौस के तीन इस्लामिक गणराज्यों पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने का प्रयास किया जो मूल स्थानों पर धार्मिक उत्पीडऩ का शिकार हो कर विस्थापित होने को मजबूर हुए हैं। आखिर इनको उत्पीडऩ से मुक्ति और जीवन में आगे बढऩे के अवसर क्यों नहीं मिलने चाहिए? आखिर इनका मूल निवास स्थान तो भारत ही है, यह बात दूसरी है कि विभाजन के बाद इनके मूल स्थान भारत की जड़ों से कट कर अलग हो गए। इनके न्याय में बाधा डालने वालों को सोचना चाहिए कि देश के विभाजन में इन लोगों का न तो कोई हाथ था और न ही कोई कसूर। इनकी चूक केवल इतनी है कि बन्टवारे के समय ये भारत नहीं आ पाए और वहां के बहुसंख्यक समाज पर विश्वास कर वहीं बने रहे।
यहां यह भी बताना जरूरी है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत में तो जागीरदारी का वैधानिक व काफी सीमा तक सामाजिक उन्मूलन भी हो चुका है परन्तु पाकिस्तान में यह कुप्रथा अभी भी जारी है। पाकिस्तान में फंसे हुए अधिकतर हिन्दू दलित समाज से सम्बन्धि हैं और वहां जागीरदारों ने उन्हें विभाजन के समय इसलिए भारत नहीं आने दिया कि अगर ये लोग चले जाएंगे तो उनकी गोबर-बुहारी कौन करेगा। मुस्लिम लीगी खुलेआम कहते थे कि आखिर हमें अपने पखाने साफ करवाने के लिए भी तो हिन्दू चाहिएं। अब अगर इन प्रताडि़त दलितों, पिछड़ों व वञ्चितों को न्याय मिल रहा है तो किसी का पेट क्यों दुखना चाहिए।
पाकिस्तान में हिन्दुओं का उत्पीडऩ विभाजन से पहले ही शुरू हो चुका था जो आज भी जारी है। विभाजन के बाद पाकिस्तान में रह गए पण्डित ठाकुर गुरुदत्त नामक वैद्य ने महात्मा गान्धी जी को बताया कि कैसे उन्हें जबरदस्ती लाहौर छोडऩे को मजबूर किया गया। वह गान्धी जी की इस बात से काफी प्रभावित थे कि हर व्यक्ति को अंत तक अपने जन्मस्थान पर रहना चाहिए, लेकिन वो चाह कर भी ये नहीं कर पा रहे थे। इस पर 26 सितम्बर, 1947 को गान्धी जी ने अपनी प्रार्थना सभा में कहा, ''आज गुरु दत्त मेरे पास आए। वो एक बड़े वैद्य हैं। आज वो अपनी बात कहते हुए रो पड़े। वो मेरा सम्मान करते हैं और मेरी कही गई बातों को अपने जीवन में उतारने का सम्भव प्रयास भी करते हैं लेकिन कभी-कभी मेरी बातों का हकीकत में पालन करना बेहद मुश्किल होता है।'' इसी भाषण में गान्धी जी आगे कहते हैं कि ''पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू-सिख अगर उस देश में नहीं रहना चाहते हैं तो वापस आ सकते हैं। इस स्थिति में ये भारत सरकार का पहला दायित्व होगा कि उन्हें रोजगार मिले और उनका जीवन आरामदायक हो।''
अगर इस तरह की एतिहासिक विसन्गतियों को दूर करने के प्रयासों का भी विरोध हो और वह भी केवल भ्रम के आधार पर तो इसे गढ़ा हुआ विवाद न कहा जाए तो क्या कहें? पञ्चतन्त्र में कहानी है कि कन्धों पर मेमना ले जा रहे एक भले व्यक्ति को चार ठगों ने योजना बना उसे बारी-बारी कहना शुरू कर दिया कि गधा उठा कर कहां जा रहे हो। ठगों के भ्रम में फंस कर वह बेचारा मेमने को ही गधा समझ बैठा और उसे जमीन पर पटक कर चला गया। उसके बाद चारों ठगों ने रात को उस मेमने की दावत उड़ाई। उक्त विधेयक के बाद हुई हिन्सा भी इसी कहानी की नया संस्करण दिखा। एक के बाद एक राजनीतिक दल ने इसे खास समुदाय विरोधी बताना शुरू कर दिया और मीडिया का एक वर्ग भी इस दुष्प्रचार का भौम्पू बन गया। परिणाम हुआ कि पड़ौसी देशों के पीडि़तों को न्याय देने का केन्द्र सरकार का प्रयास अपने ही देश के अल्पसंख्यकों के लिए दमनकारी बताया जाने लगा और समाज एक बार भ्रमित भी होता नजर आया।
केवल यही नहीं इससे पहले भी कभी रफेल सौदा, धारा 370, राम मन्दिर मुद्दे को लेकर विवाद गढ़े जाते रहे हैं और इन कृत्रिम मुद्दों की परिणति क्या हुई वह किसी से छिपी नहीं। लोकतन्त्र में सरकार का विरोध विपक्ष का सन्विधानिक अधिकार है परन्तु ये काम सत्य व तथ्यों पर आधारित होना चाहिए न कि गढ़े गए विवादों पर। आखिर विपक्ष कब तक मेमने को गधा बताता रहेगा।
- राकेश सैन
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