Sunday, 10 January 2021

हिंदू दुनिया के बेहतरीन योद्धा


किसान संघर्ष के दौरान क्रिकेट खिलाड़ी श्री युवराज सिंह के पिता श्री योगराज सिंह ने हिंदुओं के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की, जिसका लब्बोलुआब यही था कि हिंदू समाज डरपोक व कायर है और लडऩा नहीं जानता। श्री सिंह का इसमें कसूर नहीं क्योंकि पंजाब में कुछ शरारती व अलगाववादी तत्वों का छोटा सा समूह है जो हिंदू-सिखों में दरार डालने के लिए इतिहास को अपनी कपोलकल्पित व्याख्या के अनुसार तोड़ मरोड़ कर पेश करता है। एतिहासिक सच्चाई तो यह है कि पूरे विश्व में केवल हिंदू जाति ही ऐसी है जिसने अपने जीवन में सबसे अधिक संघर्ष किया और अपने ऊपर हुए असंख्य हमलों के बावजूद अपनी आस्था व संस्कृति को बचाए रखा। भारत पर विदेशी हमलावरों के जो हमले हुए हम पंजाबियों ने मिलजुल कर उनका मुकाबला किया। पंजाबियों के शौर्य, बहादुरी, संघर्ष की गाथा और उन पर हुए अत्याचारों की व्यथा सबकी सांझी है। 'पथिक संदेश' के सुधी पाठकों के लिए हम 'हिंदू दुनिया के सर्वश्रेष्ठ योद्धा' शीर्षक से लेखमाला शुरू कर रहे हैं ताकि योगराज जैसी विकृत मनोवृति को तथ्यों के आधार पर जवाब दिया जा सके।

हिंदू राजाओं ने सिकंदर व यवनों को परास्त किया
विश्वविजय की आकांक्षा लेकर जब सिकन्दर पूर्व की ओर बढ़ा, तब उसकी दुर्दम्य सेना के सामने मिस्र, मैसोपोटामिया और ईरान पहले ही धक्के में परास्त हो गए। परन्तु जब वह भारत की उत्तरी सीमा पर आकर टकराया तब छोटे-छोटे हिन्दू राज्यों ने ऐसी वीरता से सामना किया कि सिकन्दर के सैनिकों के हौसले पस्त हो गये। पश्चिमी गांधार का राजा अष्टक एक मास तक सिकन्दर की सेनाओं से वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए अजेय रहा। वह तभी पराजित हुआ, जब पूर्वी गांधार का राजा आम्भीक देशद्रोह कर सिकन्दर की सहायता के लिए आ गया। 326 ई.पू. कैकेय प्रदेश के राजा पुरु पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, जिसका अन्त दोनों की मैत्री सन्धि में हुआ। रावी के पूर्व में 'कठ' नाम का गणराज्य था। जब सिकन्दर ने इस गणराज्य पर आक्रमण किया, तब पुरु ने 6,000 सैनिकों से सिकन्दर की सहायता की थी, जिसके कारण कठों की पराजय हुई। 17,000 कठ वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु कठों की वीरता के कारण सिकन्दर के सैनिक अत्यन्त हतोत्साहित हो गए। उन्हें अपने घरों की याद आ गई और उन्होंने अपने देश यूनान लौटने की जिद पकड़ ली। सिकन्दर को विवश होकर अपना विश्वविजय का अभियान रोककर लौटना पड़ा। लौटते समय सिकन्दर की टक्कर मालव व क्षुद्रक गणराज्यों से हुई। इस संघर्ष में सिकन्दर के सीने में ऐसी घातक चोट लगी कि बाद में उसी के कारण उसकी मृत्यु हो गई। इसके बीस वर्ष उपरान्त उत्तर-पश्चिमी भारत में सेल्यूकस एक विशाल सेना लेकर आया। किन्तु इस समय तक चाणक्य व चन्द्रगुप्त नेतृत्व में के यहां एक प्रबल शक्ति का उदय हो चुका था चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को परास्त किया। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया तथा कलात, कन्धार, हेरात व काबुल के क्षेत्र दहेज में प्रदान किए।

तीसरा प्रबल यवन आक्रमण 185 ई. पू. में दिमित्र (डेमेट्रियस) का हुआ। वह मथुरा व पांचाल के क्षेत्रों को विजय कर पाटलिपुत्र की ओर बढ़ा। मौर्य वंश का अन्तिम राजा बृहद्रथ निकम्मा था, वह दिमित्र का सामना न कर सका। इस समय कलिंग के जैन राजा खारवेल ने पाटलिपुत्र को फिर से विजय कर दिमित्र को अयोध्या के समीप परास्त किया और मथुरा से परे तक खदेड़ दिया। इस समय पाटलिपुत्र में भी एक क्रान्ति हुई, जिसमें अयोग्य एवं कुलकलंकी बृहद्रथ का वध कर प्रधान सेनापति पुष्यमित्र राजा बना। इसमें पतंजलि ने पुष्यमित्र का उसी प्रकार मार्ग दर्शन किया था जिस प्रकार चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का। इस काल में यवन सिन्धु के तट पर परास्त हुए और इसके बाद उनका कोई प्रबल आक्रमण नहीं हुआ।

विक्रमादित्य : शकों का सफाया
आक्रमणकारियों की दूसरी लहर शकों की आई। 64 ई. पू. शकों को उज्जैन पर विजय प्राप्त हुई। राजा दर्पण (गभिल्ल) वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी रानी सरस्वती अपने दस वर्षीय पुत्र को लेकर आरण्यक क्षेत्र में वनवासियों के बीच रही। वनवासियों की सहायता से राजकुमार ने 17 वर्ष की आयु में 57 ई. पू. मालवगण को स्वतन्त्र किया, जिसके उपलक्ष में उसको 'विक्रमादित्य' की उपाधि से विभूषित किया गया और विक्रम सम्वत् प्रारम्भ किया गया। गौतमीपुत्र सातकर्णी (शकारि विक्रमादित्य प्रथम 68 ई. पू. से 44 ई. पू.) ने शक महाक्षत्रप नहपाण से संघर्ष किया और भारत के एक बड़े भाग से शकों के राज्य का अन्त किया। 78 ईसवी में कुन्तल सातकर्णी ने कुषाण के पुत्र विम को मुल्तान के समीप परास्त किया और शकारि विक्रमादित्य द्वितीय कहलाया। इसी वर्ष से शक सम्वत् प्रारम्भ हुआ।

पाटलिपुत्र के राजा रामगुप्त पर शकराज का आक्रमण हुआ। रामगुप्त दुर्बल एवं भीरु था। उसने युद्ध को टालने के लिए अपनी रानी ध्रुवस्वामिनी को शकराज के खेमे में भेजने का वचन देकर निर्लज्जता पूर्ण सन्धि की। रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त को यह सहन नहीं हुआ। ध्रुवस्वामिनी के स्थान पर वह स्वयं वेश बदलकर, पालकी में बैठकर, सैनिकों के साथ शकराज के खेमे में आ गया और शिवराज का वध कर दिया। इसके उपरान्त अयोग्य रामगुप्त का वध कर चन्द्रगुप्त (378-414 ईसवी) में सिंहासन पर बैठा।
हूण भी मिट्टी में समा गए
आक्रमणकारियों की तीसरी लहर हूणों की आई। इनकी प्रबल लहरों ने यूरोप में रोम के विशाल साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था। जब भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर इन्होंने आक्रमण किया, तब स्कन्दगुप्त ने उन्हें पराजित किया और गांधार से आगे नहीं बढऩे दिया। जीवन भर अविवाहित रहकर उसने 12 वर्ष का पूर्ण समय युद्धक्षेत्र में ही व्यतीत किया। हूणराज तोरमाण ने मालवा तक आक्रमण किया। उसे 150 ई. में भानुगुप्त बालादित्य ने परास्त किया। 530 ई0 में मिहिरकुल ने मध्यभारत पर आक्रमण किया, जहां उसे यशोधर्मा ने परास्त किया। मिहिरकुल ने दूसरी बार भी आक्रमण किया जिसे फिर भानुगुप्त ने पराजित किया और हूणों को अन्तिम रूप से भारत से खदेड़ दिया। मिहिरकुल को यशोधर्मा व बालादित्य ने परास्त तो किया, किन्तु उसे समाप्त नहीं किया और सम्मान सहित वापिस जाने दिया। वह लौटते समय कश्मीर के राजा की शरण में गया। राजा ने दया करके एक छोटा सा प्रदेश उसे दे दिया। कुछ समय पश्चात् मिहिरकुल ने अपने पर उपकार करने वाले इस राजा के विरुद्ध ही विद्रोह कर दिया और कश्मीर के सिंहासन पर कब्जा कर लिया। बाद में गांधार के राजा के ऊपर आक्रमण कर वहां के राजा को भी विश्वासघात से मार दिया और राज्य जीत लिया। मिहिरकुल को नष्ट न करके उसे वापिस लौटने देने की बालादित्य की उदारता दो अन्य भारतीय राज्यों के लिये घातक सिद्ध हुई।

यवन, शक और हूण आक्रमणकारियों को परास्त ही नहीं किया गया वरन् उन्हें भारतीय संस्कृति में आत्मसात् भी किया गया। उस समय हिन्दू समाज की पाचनशक्ति इतनी प्रबल थी कि सभी आक्रान्ता धीरे-धीरे हिन्दू समाज के अंग बन गए। सभी जातियां युद्धप्रिय व वीर थीं, अत: उन्हें क्षत्रियों की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया। एक कथा यह भी प्रचलित है कि आबू पर्वत पर एक महान यज्ञ हुआ, जिसमें इन सभी को क्षत्रिय की संज्ञा दी गई और ये अग्निकुल के राजपूत कहलाए।
- डा. नित्यानन्द
'भारतीय संघर्ष का इतिहास' पुस्तक के साभार

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