Sunday, 13 February 2022

कृषि कानूनों की वापसी, सीता वनवास सा निर्णय

सीता के निरपराध और अधिकांश अयोध्या वासियों के अपनी महारानी के समर्थन में होने के बावजूद केवल एक ‘जिद्दी और वाचाल’ नागरिक की हठधर्मिता के चलते श्रीराम ने जिस तरह वैदेही वनवास का निर्णय लिया लगभग वैसी ही बेबसी तीन कृषि सुधार कानूनों को वापस लेते समय प्रधानमन्त्री के चरित्र में झलकती नजर आई। प्रधानमन्त्री ने कहा कि ‘‘चाहे देश के अधिकांश किसानों, कृषि पण्डितों के समर्थन के बावजूद भी किसानों का एक छोटा सा वर्ग इन कानूनों का विरोध कर रहा है, हमारे लिए हर किसान महत्त्वपूर्ण है और इसीलिए हम इन कानूनों को वापिस ले रहे हैं।’’ सीतात्याग के समय भी बहुत से मन्त्रियों ने उस मुंहफट नागरिक की अनदेखी करने, उसे दण्ड देने की सलाह दी परन्तु इन्हें दरकिनार कर तत्कालीन सत्ता ने राजधर्म का पालन किया और अब कृषि कानूनों के सन्दर्भ में भी राजहठ या राजदण्ड की नीति का नहीं बल्कि सत्ताधर्म जनित जिम्मेवारी का पालन होते देश ने देखा।किसान आन्दोलन की पृष्ठभूमि क्या रही, कौन इसके आगे या पीछे रहा, क्या घटनाएं हुईं आदि विषयों पर चर्चा करना पानी बिलौने जैसा होगा परन्तु समूचे प्रकरण को देखते कुछ बातें सामने आई हैं जिन पर ध्यान दिया जाए तो भविष्य में ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है। पहला कि हमें अपने लोकतन्त्र को और विस्तृत बनाना होगा और इसमें जनभागेदारी बढ़ानी होगी। चाहे भारत जैसे विशाल जनसंख्या व बड़े भू-भाग वाले देश में अप्रत्यक्ष लोकतन्त्रीय प्रणाली को अपनाया गया है, जिसके अनुसार जनता अपने प्रतिनिधि चुन कर विधान मण्डलों में भेजती है। यही जनप्रतिनिधि कानून बनाने का काम करते हैं। याने जनता सांसदों व विधायकों के माध्यम से व्यवस्था का सञ्चालन करती है। लेकिन अब इस प्रक्रिया में प्रत्यक्ष जनता को भी किसी न किसी रूप में शामिल करना होगा। जिस तरह नई शिक्षा नीति लाने से पहले देश में विशाल स्तर पर इसको लेकर चर्चाएं, गोष्ठियां हुईं, शिक्षाविदों से विमर्श किया गया उसी तरह आम जन से जुड़ी दीर्घकालिक नीतियां बनाते समय इस पर जनदेवता के विचार जानने होंगे। शिक्षा नीति पर हुए व्यापक स्तर पर विचार-विमर्श का सकारात्मक परिणाम यह निकला कि सरकार शिक्षा के क्षेत्र में हुए बहुत बड़े बदलाव को आसानी से लागू कर पाई। सूचना तकनॉलोजी के युग में जनाकांक्षाएं जानने का यह काम अधिक मुश्किल भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में काम किया हो रहा, सरकारें बहुत से कानूनों के प्रारूप संसद की वेबसाइटों पर रखती भी रही हैं परन्तु इस काम को और अधिक विस्तृत करना होगा और इसे धरातल तक ले जाना होगा। अगर कृषि कानूनों को लेकर इस विधि को अपनाया गया होता तो हो सकता है कि सरकार जो तीन कृषि सुधार कानून लेकर आई उससे अधिक गुणवत्ता वाले कानून अस्तित्व में आते। ऐसा होता तो न तो किसानों का लम्बा आन्दोलन चलता और न ही सरकार को अप्रिय कदम उठाने को विवश होना पड़ता। देश में कृषि सुधार के प्रयासों को यूं झटका भी न लगता।दूसरा देश-समाज के सभी घटकों में जिम्मेदारी का भाव भरना होगा। इस किसान आन्दोलन के दौरान लगभग हर पक्ष में इसका अभाव दिखाई दिया। यहां तक कि देश के सर्वोच्च न्यायालय भी इस आन्दोलन में अधिक प्रशंसनीय भूमिका निभाने में सफल नहीं हो पाया। कृषि कानून विरोधी आन्दोलन का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यालाय ने चाहे प्रारम्भ में तेजी दिखाई और कृषि विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री अनिल घनवन्त, अशोक गुलाटी, प्रमोद जोशी व भुपिन्द्र सिंह मान की समिति गठित की। इस साल 11 जनवरी को गठित इस समिति के तीन सदस्यों ने तेजी से अपना काम निपटाया और 19 मार्च को अपनी लिफाफा बन्द रिपोर्ट न्यायालय को सौम्प दी परन्तु देश की सबसे बड़ी पञ्चायत इस रिपोर्ट को पढऩे तक का समय नहीं निकाल पाई। रोचक बात है कि हमारे पञ्चपरमेश्वरों को दिवाली के पटाखों जैसे समाज के विवेक पर आधारित मुद्दों पर सुनवाई करने के लिए हर साल समय मिल जाता है परन्तु उनके पास किसान आन्दोलन जैसे ज्वलन्त मुद्दे के लिए समय नहीं है। अगर अदालत ने पहले जैसी सक्रियता बाद में भी दिखाई होती तो शायद किसानों के हित में लाए गए कानूनों का अन्त यूं न होता।किसान आन्दोलन को लेकर देश में जिस तरह हुड़दंगबाजी और हिंसा हुई उसने बाबा साहिब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के उस परामर्श को पुन: चर्चा में ला दिया है जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वतन्त्रता के बाद हमें अपने विरोध के साधनों व तरीकों को बदलना होगा। संविधान सभा में धन्यवाद सन्देश देते समय डॉ. साहिब ने कहा था कि ‘‘अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सभी असंवैधानिक तरीकों का दामन छोडऩा होगा। इसका अर्थ है कि हमें क्रान्ति के खूनी रास्ते को त्यागना होगा। हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के तरीकों को भी त्याग देना चाहिए। जब अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक तरीके उपलब्ध ही नहीं थे तब तो अंसवैधानिक तरीके अपनाने का औचित्य था। परन्तु जहां संवैधानिक तरीके खुले हों तब इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता। ये तरीके अराजकता के व्याकरण के सिवाय कुछ नहीं हैं।’’ अच्छा होता कि कृषि कानूनों पर संसद में ही चर्चा होती और आन्दोलन जरूरी भी हो तो इसके सञ्चालकों को इसकी जिम्मेवारी उठानी होगी। मगर किसान आन्दोलन में देखने को मिला कि आन्दोलनकारियों ने न केवल 26 जनवरी, 2021 को लाल किले को अपवित्र किया बल्कि तरह-तरह की आपराधिक घटनाओं को भी अन्जाम दिया और इसके सञ्चालक न केवल अपनी जिम्मेवारी से बचते रहे बल्कि सरकार को दोषी ठहराते रहे। कृषि कानूनों की वापसी कृषि सुधारों पर पूर्ण विराम नहीं होना चाहिए। यह न तो किसी पक्ष की जय है और न ही पराजय बल्कि इससे ऊपर उठ कर कर्तव्यपालन है। दिवंगत प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविता की पंक्तियों के साथ विराम चाहूंगा -

क्या हार में क्या जीत में, किञ्चित नहीं भयभीत मैं।
संघर्ष पथ पर जो मिले।यह भी सही वह भी सही।
लघुता न अब मेरी छुओ। तुम हो महान बने रहो।
अपने हृदय की वेदना। मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं।
चाहे हृदय को ताप दो।चाहे मुझे अभिशाप दो।
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से, किन्तु भागूँगा नहीं।

- राकेश सैन
32 खण्डाला फार्मिंग कालोनी,
ग्राम एवं डाकखाना लिदड़ां
जालंधर।
संपर्क - 77106-55605

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