Monday, 31 July 2017

कुरान व बाइबल की संगत में सेक्यूलर हो गई गीता

रामेश्वरम् स्थित पूर्व राष्ट्रपति अबदुल कलाम के स्मारक में उनकी काष्ठ प्रतिमा के साथ श्रीमद्भगवद गीता रखने से देश में विवाद पैदा हो गया। एमडीएमके नेता वाइको ने इसका विरोध करते हुए कहा कि- डा. कलाम सभी ग्रंथों का सम्मान करते थे, उनकी प्रतिमा के साथ केवल गीता रखने से गलत संदेश जाएगा। वाइको की इस टिप्पणी का देश के सेक्यूलरों ने समर्थन किया। विवाद बढऩे पर स्मारक के संचालकों ने गीता के साथ-साथ कुरान व बाइबल भी रखवा दिए। धर्मनिरपेक्ष और बुद्धिजीवी अब प्रसन्न हैं कि देश का सेक्यूलरिजम बच गया। कुरान व बाइबल का साथ पा कर गीता धर्मनिरपेक्ष हो गई।
पवित्र कुरान व बाइबल से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती परंतु गीता को संकीर्ण मानसिकता से देखने वाले की बुद्धि पर केवल तरस ही खाया जा सकता है। अन्य धर्मग्रंथों की भांति गीता को किसी विशेष उपासना पद्धति से नहीं जोड़ा जा सकता जैसा कि वाइको व उनके हिमायतियों ने किया है। गीता हमारा अघोषित राष्ट्रीय ग्रंथ है जो पंथ, जाति, संप्रदाय से परे है। यह केवल भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की थाती है। ज्ञात रहे श्रीकृष्ण के श्रीमुख से जब गीता ज्ञान प्रस्फुटित हुआ उस समय समस्त दुनिया की सेना कौरव और पांडवों के खेमों में बंटी हुई धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ी थी। पूरा विश्व समुदाय गीता ज्ञान का साक्षी और विरासत का हकदार है।
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री सतीश मित्तल बताते हैं कि यूरोप को गीता का प्रथम परिचय ईस्ट इण्डिया कंपनी के निदेशक के आदेश से कंपनी के एक कर्मचारी चाल्र्स विलिकन्स (1749-1836) ने 1776 में इसका अंग्रेजी में अनुवाद करके दिया। यह ग्रंथ यूरोप के तर्क युग का प्रेरक बना। इसकी दिव्य ज्योति से समस्त यूरोप तथा अमरीका चकाचौंध हो गया। कंपनी की प्रशासन व्यवस्था को मजबूत करने तथा भारत को समझने के लिए तत्कालीन अंग्रेज गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा, 'गीता का उपदेश किसी भी जाति को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने में अद्वितीय है।                                                                        (संदर्भ, बी.एन.पुरी एन्सेट इंडियन हिस्ट्रोग्रेफी-ए.बाई सेन्चुरी स्टडी, दिल्ली 1994 पृ. 41)                            फ्रेंच विद्वान डुपरो ने 1778 में इसका फ्रांसीसी में अनुवाद किया तथा इसे भोगवाद से पीडि़त पश्चिम की आत्मा को अत्यधिक शांति देने वाला बताया। जर्मन के दार्शनिक श्लेगल ने आत्मविभोर होकर माना, यूरोप का सर्वोच्च दर्शन, उसका बौद्धिक अध्यात्मवाद जो यूनानी दार्शनिकों से प्रारंभ हुआ, प्राच्य अध्यात्मवाद के अनन्त प्रकाश एवं प्रखर तेज के सम्मुख ऐसा प्रतीत होता है जैसे अध्यात्म के प्रखर सूर्य के दिव्य प्रकाश के भरपूर वेग के सम्मुख एक मंद-सी चिंगारी हो, जो धीरे-धीरे टिमटिमा रही है और किसी भी समय बुझ सकती है। 
अमरीका के प्रसिद्ध दार्शनिक विल डयून्ट, हेनरी डेविड थोरो (1813-1862), इमर्सन से लेकर वैज्ञानिक राबर्ट ओपन हीमर तक सभी गीता ज्ञान से आलोकित हुए। थोरो स्वयं बोस्टन से 20 किलोमीटर दूर बीहड़ वन में, वाल्डेन में एक आश्रम में बैठकर गीता अध्ययन करते थे। इमर्सन एक पादरी थे, जो चर्च में बाइबिल का पाठ करते थे। परन्तु रविवार को उन्होंने चर्च में गीता का पाठ प्रारंभ कर दिया था। अत्यधिक विरोध होने पर उन्होंने गीता को 'यूनिवर्सल बाइबल' कहा था। उसने गीता का अनुवाद भी किया था। वैज्ञानिक राबर्ट ओपनहाबर ने 16 जुलाई, 1945 को अमरीका के न्यूमैक्सिको रेगिस्तान में जब अणु बम का प्रथम परीक्षण किया गया तो उसने विस्फोट से अनन्त सूर्य में अनेक ज्वालाओं को देखकर उसे गीता के विराट स्वरूप का दर्शन हुआ तथा वह त्यागपत्र देकर गीता भक्त बन गया था। इंग्लैण्ड में संत कार्लायल, टी.एम. इलियट तथा विश्वविख्यात इतिहासकार सर आरनोल्ड टायनवी जैसे विद्वान गीता से प्रभावित हुए। संत कार्लायल से अमरीकी विद्वान इमर्शन से अद्भुत भेंट थी। संत ने इमर्शन से पूछा कि वे अमरीका से भेंट स्वरूप क्या लाए। उत्तर में भावपूर्ण हो उसने गीता की एक प्रति भेंट की, जिसके उत्तर में कार्लायल ने भी गीता की एक प्रति भेंट दी। टी.एस. इलियट ने गीता को 'मानव वांग्मम की अमूल्य निधि' है बताया संसार की 28 सभ्यताओं के विशेषज्ञ टायनवी ने स्वीकार किया कि अणुबम से विध्वंस की ओर जाते पाश्चात्य जगत को पौर्वात्य, भारतीय तत्वज्ञान की ओर जाना पड़ेगा, जो सभी के अन्दर ईश्वर की मानता है। (विस्तार के लिए देखें, ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री)।
मृत्यु शैय्या पर पड़े जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान शोपनहावर को गीता पढऩे से जीवनदान मिला। उसने माना कि 'भारत मानव जाति की पितृभूमि है।' विश्व प्रसिद्ध जर्मन विद्वान कांट, जो भूगोल तथा नक्षत्र विधा का अध्यापक था, की गीता पढ़कर जीवन की दिशा बदल गई तथा वह दर्शन का पंडित बन गया। मैक्समूलर ने मुक्त कंठ से गीता की आराधना की। नोबल पुरस्कार विजेता फ्रेंच विद्वान रोमां रोलां ने माना कि गीता ने यूरोप की अनेक आस्थाओं को धूल-धुसरित कर दिया तथा मानव को नवदृष्टि दी। स्वामी सुबोध गिरी ने गीता के विश्वव्यापी प्रभाव की महत्वपूर्ण विवेचना की                                                                                        (देखें, डा. हरवंश लाल ओबराय, समग्र गीता दर्शन की सार्वभौमिकता-खण्ड पांच, बीकानेर, 2012)
राष्ट्रीय आन्दोलन में गीता की भूमिका
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांतिकारियों की प्रेरणा, चेतना तथा आत्मबलिदान का स्रोत रहा। खुदीराम बोस तथा मदन लाल धींगरा गीता हाथ में लेकर देश के लिए बलिदान हो गए। महर्षि अरविन्द ने स्वयं गीता को भारत माता के चित्र सहित छपवाया। भारत में ब्रिटिश सरकार को इसके वर्णन में कहीं बम बनाने का फार्मूला होने का शक लगा। जांच अधिकारी नियुक्त किए गए। बम की तरीका तो नहीं निकला पर 'आत्मबल का बम अवश्य' प्रकट हुआ। संक्षेप में गीता ने जीवन के विभिन्न पक्षों की समस्याओं का निराकरण प्रस्तुत किया तथा देश की भक्ति, आत्मगौरव तथा आत्मसम्मान की भावना पैदा की।
गीता भारतीय संविधान में
1950 में जब भारत का संविधान बना तब इसमें भारतीय संस्कृति तथा दर्शन के 22 उद्बोधक चित्र भी थे। इसमें एक चित्र संविधान के नीति-निर्देशक तत्व में भगवान श्रीकृष्ण का

गाण्डीवधारी अर्जुन को गीता उपदेश देते हुए भी थी। उल्लेखनीय है कि 10 सितंबर, 2007 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में भारत की केन्द्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 51 (क) के अंतर्गत राष्ट्र के ग्रन्थ को घोषित करने को कहा गया तथा इसके लिए भारतीय जीवन पद्धति तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रेरणास्रोत गीता को बतलाया। यह भी कहा कि भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बनता है कि वह इस राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा करे और इसके आदर्शों के अनुकूल चले (देखें स्वामी सुबोध गिरि, पूर्व उद्धरित पृ. 157,158)
महात्मा गांधी का स्पष्ट मत था कि गीता सभी शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाई जानी चाहिए। क्या यह देश की प्रबुद्ध पीढ़ी को नहीं लगता कि भारतीय संविधान में शब्द ग्रन्थ के रूप में गीता को घषित किया जाना चाहिए तथा भारत के प्रत्येक शिक्षा संस्थान में यह पाठयक्रम का अनिवार्य भाग होनी चाहिए।

- राकेश सैन
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Saturday, 29 July 2017

राजमहल में जनसाधारण की आवाज थीं 'राजमाता मोहिंद्र कौर'


पटियाला राजघराने की राजमाता मोहिंद्र कौर केवल इस अलंकार को धारण करने वाली ही नहीं थी बल्कि उन्होंने अपनी पदवी के अनुरूप हर अवसर पर 'राजमाता के धर्म' का पालन किया। बात चाहे राजपाट का कामकाज संभालने की हो या देश विभाजन के समय पीडि़तों की सहायता करने, लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाने की या फिर परिवार की मुखिया होने के नाते सदस्यों का मार्गदर्शन करने की उनका वात्सलय व जिम्मेवारी का भाव सदैव मुखरित हो कर सबके सामने आया। इतिहास जब उनके जीवन का मूल्यांकन करेगा तो उन्हें आदर्श पत्नी, वात्सलय पूर्ण माता, सबकी राजमाता व सफल जननेता की श्रेणी में रखेगा। वे पटियाला राजघराने में आम लोगों की आवाज थी।
सितंबर 14, 1922 में लुधियाना के एक भलमानस स. हरचंद सिंह जेजी के घर जन्मी मोहिंद्र कौर बचपन से प्रतिभाशाली थीं। उनके पिता कांग्रेस पार्टी के संलग्न पटियाला के जनसंगठन पटियाला रियायत प्रजा मंडल के सदस्य थे। अगस्त 1938 में 16 वर्ष की आयु में उनकी शादी पटियाला के महाराजाधिराज यादविंद्र सिंह के साथ हो गई। यह महाराजा की दूसरी शादी थी। संयोग से उनकी पहली पत्नी का नाम भी मोहिंद्र कौर था जिसके चलते परिवार के लोग इन्हें अलग पहचान देने के लिए मेहताब कौर के नाम से बुलाने लगे परंतु अंत तक उनकी सार्वजनिक पहचान मोहिंद्र कौर के रूप में ही रही। इनकी पहली संतान हेमइंद्र कौर (वर्तमान में धर्मपत्नी पूर्व विदेश मंत्री श्री नटवर सिंह), दूसरी संतान रूपइंदर कौर, मार्च 1942 में अमरिंदर सिंह (पंजाब के मुख्यमंत्री) और 1944 में मालविंद्र सिंह के रूप में चौथी संतान हुई।
मोहिंद्र कौर न केवल पत्नी बल्कि राजपाट के कामों में महाराजा यादविंद्र सिंह की निकटतम सहयोगी रहीं। वे राजपाट के काम का संचालन करती तो जनता से भी इनका संपर्क बना रहा। इन्होंने राजघराने और जनसाधारण के बीच सेतु का काम किया, जिसके चलते इनकी लोकप्रियता बढ़ी। इस बीच 15 अगस्त, 1947 को देश का विभाजन हुआ। विभाजन का सबसे बुरा असर पंजाब राज्य पर पड़ा और महापंजाब आधे हिस्से में सिमट कर रह गया। विभाजन की त्रासदी झेलने के साथ-साथ सबसे बड़ी चुनौती बनी नए देश पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आने वाली लाखों हिंदू-सिखों की आबादी। अपनी मातृभूमि से लुट-पिट कर आरहे इन लोगों के पास न तो खाने को अन्न था, न रहने को छत और न ही जीवन की अन्य कोई सुविधा। संकट की इस घड़ी में महाराजा यादविंद्र के साथ-साथ राजमाता ने अपने राजधर्म का बाखूबी पालन किया। पटियाला के आसपास शरणार्थी शिविर लगा कर लाखों लोगों को खाने को भोजन, दवाएं, कपड़े दिए और उनके पुनर्वास में उनकी सहायता की। राघराने ने अपने राजकोष के साथ-साथ राजमहल के दरवाजे भी खोल दिए। उन दिनों को याद कर आज भी इस इलाके के लोगों की आंखें राजमाता के प्रति श्रद्धा से झुक जाती हैं।
देश विभाजन के बाद स. पटेल ने देश के एकीकरण का काम शुरु किया तो 15 जुलाई, 1948 को पटियाला राजघराने ने अपने राज्य का विलय भारतीय संघ में कर दिया। उस समय राजमाता मोहिंद्र कौर ने अपने राजकीय दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। पंजाब और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (पेप्सू) का गठन किया गया तो महाराजा यादविंद्र सिंह को राजप्रमुख नियुक्त किया गया। महाराजा यादविंद्र सिंह को भारत सरकार की तरफ से 1956 में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा, 1957-58 में युनेस्को, 1959 में यूएनएफएओ में प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। वे 1965 से 66 तक इटली और 1971 से 74 तक नीदरलैंड में भारतीय राजदूत भी रहे।
राजमाता मोहिंद्र कौर ने सन् 1964 में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1964 से 67 तक राज्यसभा और 1967 से 71 तक लोकसभा सदस्य रहीं। 1974 में महाराजा यादविंद्र सिंह का हेग में देहांत हो गया तो वे परिवार सहित वापिस भारत लौट आईं। कांग्रेस पार्टी में रहते हुए उन्होंने अनेक उच्च दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपात्काल लगा दिया तो राजमाता मोहिंद्र कौर ने इसके खिलाफ आवाज वठाई। लोकतंत्र की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किए। वर्तमान राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने राजमाता के देहांत पर भेजे अपने शोक संदेश में रहस्योद्घाटन किया है कि आपात्काल के दौरान वे पटियाला के मोती महल में शरण लेते रहे। आपात्काल के खिलाफ 1977 में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और जनता पार्टी में शामिल हो गईं। 1978 से 1984 तक वे फिर राज्यसभा सदस्य रहीं। उनके मार्गदर्शन में चलते हुए उनके पुत्र कैप्टन अमरिंदर सिंह दूसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने और बाकी परिवार के सदस्य भी राजनीतिक ऊंचाईयों को छूने में सफल रहे।
सक्रिय राजनीति से किनारा करने के बावजूद भी उनका सार्वजनिक जीवन बरकरार रहा। वे पटियाला में अनेक तरह के सामाजिक कामों में सक्रिय रहीं और विभिन्न संगठनों के माध्यम से इलाके के लोगों की सेवा करती रही हैं। 96 वर्ष की आयु में भी उनकी सक्रियता वर्णननीय रही। ईश्वर के शाश्वत नियम के अनुरूप 24 जुलाई, 2017 को राजमाता मोहिंदर कौर की आत्मा ने अपने सांसारिक वस्त्र त्याग दिए और चल पड़ी मोक्ष प्राप्ति की ओर। आज राजमाता मोहिंद्र कौर हमारे बीच नहीं परंतु अपने गुणों के चलते वे सदैव स्मरण की जाती रहेंगी।


  1. राकेश सैन


Friday, 28 July 2017

'इंदु सरकार'' के आइने में अतीत देख डरी कांग्रेस


कहते हैं कि भैंस अपना रूप नहीं देखती पर काला रंग देख कर डरती है। आज पर्दे पर उतरी मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदु सरकार' को लेकर कमोबेश देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की भी यही स्थिती बनती दिख रही है। कांग्रेस का आरोप है कि यह फिल्म गांधी परिवार व कांग्रेस को बदनाम करने के उद्देश्य से किसी के इशारे पर बनाई गई है।  
सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ ने कहा कि फिल्म कानूनी सीमाओं में रहकर की गई 'कलात्मक अभिव्यक्ति' है और इस पर रोक लगाने का कोई उचित कारण नहीं। फिल्म पर रोक लगाने की मांग करने वाले याचिकाकर्ता का कहना था कि फिल्म मनगढ़ंत तथ्यों से भरी हुई है और ये एक प्रचार (प्रोपगेंडा) फिल्म है। न्यायालय ने ये आरोप खारिज कर दिए। संजय निरुपम और जगदीश टाइटलर जैसे कांग्रेसी नेताओं ने फिल्म पर आपत्ति जताई थी। कांग्रेसी नेता चाहते थे कि रिलीज से पहले फिल्म उन्हें दिखाई जाए लेकिन मधुर भंडारकर ने इससे इनकार कर दिया। मधुर भंडारकर के वकील ने सर्वोच्च अदालत से कहा कि उन्होंने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) द्वारा बताए गए 14 हिस्सों को फिल्म से हटा दिया और उसके बाद उसे बोर्ड से प्रमाणपत्र मिल चुका है। 
प्रश्न उठता है कि आखिर कुछ कांग्रेसी नेता 'इंदु सरकार' से क्यों डर रहे हैं? असल में फिल्म इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाए गए आपात्काल पर आधारित है। फिल्म के ट्रेलर को देखकर साफ जाहिर है कि फिल्म के दो मुख्य भूमिकाएं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी से प्रेरित हैं। इंदु, इंदिरा गांधी का घरेलू नाम था। कांग्रेसी नेता जगदीश टाइटलर का दावा है कि फिल्म में एक चरित्र उन पर आधारित है। फिल्म को लेकर कांग्रेसियों के डर को समझने से पहले इसके प्रचार दृश्य (ट्रेलर) के कुछ संवाद देखें- 'अब इस देश में गांधी का मायना बदल चुका है;, 'इमरजेंसी में इमोशन नहीं मेरे ऑर्डर चलते हैं', 'आज से आपका टारगेट 350 से नहीं, 700 नसबंदियां हैं', 'भारत की एक बेटी ने देश को बंदी बनाया हुआ है, तुम वो बेटी बनो जो देश को मुक्ति का मार्ग दिखा सके;, 'सरकारें चैलेंजेज से नहीं चाबुक से चलती हैं;, 'तुम लोग जिंदगी भर माँ-बेटे की गुलामी करते रहोगे' इत्यादि इत्यादि।
स्पष्ट है फिल्म में कांग्रेस की सबसे दुखती रग आपातकाल को छुआ गया है। फिल्म में संजय गांधी के तानाशाही रवैये, इंदिरा गांधी सरकार द्वारा विपक्ष के दमन, प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के हनन आदि सबकुछ दिखाया गया है। ये सारे मुद्दे कांग्रेस के लिए पिछले दशकों से सिरदर्द का कारण रहे हैं। इसी के चलते कांग्रेस इस फिल्म पर रोक चाहती है।
हैरानी की बात है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत के टुकड़े करने, देश से आजादी चाहने वाले देशद्रोहपूर्ण नारों का समर्थन करने वाली कांग्रेस पार्टी अब किसी फिल्मकार को इसकी आज्ञा नहीं देना चाहती कि कोई उनके नेताओं की गलतियों को उजागर करे। कांग्रेस इससे पूर्व किस्सा कुर्सी का, आंधी, नसबंदी जैसी फिल्मों का विरोध कर चुकी है। लोगों को याद है कि आपात्काल का विरोध करने पर कांग्रेस ने 1981 में गायकार किशोर के गाने आकाशवाणी से गायब करवा दिए थे। देश की जिस पीढ़ी ने आपात्काल का संताप झेला वह अपनी जीवन यात्रा की ढलान पर है। मेरी पीढ़ी ने भी इसके किस्से ही सुने व संताप झेल चुकी पीढ़ी का अनुगामी होने के चलते कुछ दर्द भी महसूस किया परंतु आज की नस्ल तो इससे पूरी तरह से अंजान है। आखिर उसे क्यों नहीं बताना चाहिए कि देश को स्वतंत्रता मिलने के 28 साल बात साल 1975 में देश के लोकतंत्र को बंधक बना लिया गया था। किस तरह मनमर्जी से सत्ताधीशों ने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेलों में ठूंसा, उन पर गोलियां-लाठियां चलाईं, धरना-प्रदर्शन और हड़ताल जैसे लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। विचारों की स्वतंत्रता पर सीधा कुठाराघात करते हुए प्रेस का गला घोंटा गया। नौजवानों की जबरन नसबंदियां की गईं। नागरिकों के हर तरह के मौलिक अधिकारों में सरकारी व राजनीतिक हस्तक्षेप हुआ। नई नस्ल जब तक इसके बारे नहीं जाने की तब तक उसे लोकतंत्र के महत्त्व का कैसे भान होगा। उन्हें कैसे पता चलेगा कि लोकतंत्र की बहाली के लिए देशवासियों ने किस तरह जनतांत्रिक तरीके से संगठित हो और जीवन का बलिदान दे कर तानाशाही को समाप्त किया। क्या इन लोकतांत्रिक संग्रामियों का महत्त्व स्वतंत्रता सेनानियों से कम है? आपात्काल देश का काला अध्याय है तो इसके खिलाफ जननायक जयप्रकाश नारायण उपाख्य जेपी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अकाली दल व अन्य संगठनों के नेतृत्व में जनता का संघर्ष लोकतंत्र के प्रति भारतीयों की आस्था का उज्जवल पक्ष है। यह हमारी युवा पीढ़ी को लोकतंत्र से जोडऩे वाला इतिहास है। कांग्रेस क्यों अपना चेहरा छिपाने के लिए युवाओं को अपने देश के इतिहास ज्ञान से वंचित करना चाहती है।
अभिव्यक्ति का स्वतंत्रता की मनमाफिक व्याख्या नहीं हो सकती कि मीठा मीठा गप्प गप्प और कड़वा कड़वा थू थू। कांग्रेस को जिन विचारों से लाभ हो वह तो ठीक और जिससे नुक्सान हो उसका विरोध।  इसे कांग्रेस की बौद्धिक बेईमानी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। कांग्रेस को इंदु सरकार फिल्म के कालेपन से डरने की बजाय अपने मन की कलुषता को धोने का प्रयास करना चाहिए।
- राकेश सैन

Thursday, 27 July 2017

पृथिवी मातर्मा मा हिंसीर्मो अहं त्वाम।


आज अपनी धरती माँ क्रोध में लगती है, तभी हर मौसम काल का रूप धारण करके आरहा है। मोरों को नचाने वाले कालिदास के 'मेघदूत 'यमदूत बन कर टूटते हैं, आनंददायी शीत ऋतु सफेद कफन ओढ़ दस्तक देती है तो प्राणदायिनी फसलें पकाने वाली गर्मी साल दर साल मृत्यु के आंकड़े बढ़ा रही है। गोस्वामी जी भगवान की तुलना माँ के साथ करते हुए कहते हैं 'पुत्र चाहे बाल खींचे या अघात करे परंतु माता फिर भी अपनी संतान का अमंगल नहीं करती। पर हमसे ऐसी क्या चूक हुई कि धरती जिसे वेदघोष 'माता भूमि पुत्रोहम पृथिव्या अनुसार हम माँ मानते हैं वह सबसे बदला ले रही है?
इस प्रश्न का उत्तर कोई गौरीशंकर की चोटी पर चढऩे जितना दुरुह नहीं बल्कि अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो सहज ही समझ में आजाता है कि 'माता आखिर 'कुमाता क्यों हुई। न जाने क्यों हम धरती के हर हिस्से को पक्का करने की जिद्द ठाने हैं। सड़कों पर सीमेंट व बजरी परत बिछा दी, आंगन में मकराना का संगमरमर। कच्ची जमीन जो गर्मी सोखती थी आज वही पक्की हो तवे का रूप धारण कर चुकी है। दस पुत्रों के बराबर सुखदायक मानने वाले पेड़ हमारे बरामदे से तो क्या जंगलों व खेतों से भी गायब हो रहे हैं। तालाब पूर दिए, कुएं बावडिय़ां बंद कर दीं। यानि अपने हाथों से फंदा लगा कर हम हाय मरे-हाय मरे चिल्ला रहे हैं।
गर्मी युगों से आरही है जो इस बरस भी आई, लेकिन अबकी बार जला गई सैंकड़ों चिताएं। आंकड़े बताते हैं कि गर्मी से मरने वालों की गिनती हर वर्ष नया रिकार्ड बना देती है। प्रश्न कौंधता है कि सूरज अधिक औजस्वी हो गया या धरती उसके आलिंगन में चली गई? पर ऐसा नहीं है, वही सूरज वो ही धरती और उसी तरह गर्मी है लेकिन जो बदले वो हम हैं। हम पांव पर कुल्हाड़ी मारने को विकास बताने लगे। वृक्ष हमारे जीवन से निकल गए। ज्यादा पुरानी बात नहीं, स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा वनों से अच्छादित था जो आज सरकारी फाईलों में 13 और वास्तव में 7 प्रतिशत के आसपास सिमट चुका है। गर्मी के ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने इन्हीं पेड़ोंं से छन कर धरती पर पड़ते थे परंतु हमने अपनी वनों की चादर को तार-तार कर लिया है। ऐसे में गर्मी हमारी जान न लेगी तो फिर किसकी लेगी?
ऐसा भी नहीं है कि हम या हमारे पूर्वज वनों, नदियों, तालाबों, कुुओं के महत्त्व से अनजान थे। हमारे धर्मग्रंथ, साहित्य, परंपराएं चीख-चीख कर इनके पर्यावरणीय गुणों का बखान कर रहे हैं परंतु हमने इन संदेशों को ग्रहण करना छोड़ दिया है। यजुर्वेद में प्रार्थना की गई है पृथिवी मातर्मा मा हिंसीर्मो अहं त्वाम। अर्थात हे माता! तुम हमारा पालन पोषण उत्तम रीति से करती हो। हम कभी भी तुम्हारी हिंसा न करें। मत्स्यपुराण में पेड़ों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा गया है दश कूप समा वापी,दशवापी समोहृय:। दशहृद सम: पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुम:। अर्थात दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावडिय़ों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। हम मंदिरों में शांतिमंत्र से प्रार्थना करते हैं ओम् द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वम् शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि॥ श्री गुरु ग्रंथ साहिब में पर्यावण का सारगर्भित संदेश है जिसमें कहा गया है कि पवन गुरु पाणी पिता माता धरति महतु।। अर्थात हवा गुरु, पानी पिता व धरती माता के समान है। लेकिन वास्तविक जीवन में हम अपने धर्मग्रंथों, अपने ऋषि-मुनियों के कहे का कितना सम्मान करते हैं यह सभी भलिभांति जानते हैं। हम अपने गुरुओं, ऋषि-मुनियों व ग्रंथों 'को तो मानते हैं परंतु 'उनकी नहीं मानते। केवल मत्था टेक अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अगर इन संदेशों को जीवन में ढाला होता तो आज गर्मी हमें जला नहीं, बरसात डुबो नहीं रही होती।
बरसात का मौसम चल रहा है और यह हमारे लिए स्वर्णिम अवसर है कि अपनी गलतियों का पश्चाताप करें। जहां कहीं भी उचित जगह जैसे घर के आंगन, बाग-बगीचों, पार्कों, सड़कों के किनारे, विद्यालय, महाविद्यालय, औषधालय इत्यादि में मिले वहां पेड़ लगाएं। बरसात के पानी को बचाने के प्रयास करें। भविष्य में पर्यावरण से छेड़छाड़ करने से कान पकड़ें। धरती अपनी माँ है वह हमें जरूर माफ करेगी, उसका वात्सल्य व क्षमाशीलता तो असंदिग्ध है।           - राकेश सैन

ये मील पत्थर है, मंजिल नहीं


डा. हेडगेवार द्वारा 1925 को विजयादशमी के दिन नागपुर के छोटे से स्थान मोहिते के बाड़े में कुछ बच्चों को लेकर शुरु किए संघ की यह लोकतंत्र के प्रति आस्था व साधनाशक्ति की जीत है कि देश के तीन शीर्ष पदों राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री पर आज स्वयंसेवक या संघ की विचारधारा में आस्था रखने वाले विराजमान हो चुके हैं या होने जा रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी दल या संगठन के लिए तो यह सफलता का चरम हो सकता है परंतु संघ के लिए नहीं। संघ के लिए यह सफलता संतोष का विषय हो सकती है परंतु उसके जीवन का मोक्ष नहीं।
विख्यात विचारक श्री रंगाहरि के शब्दों में जिस तरह सृष्टि में जैसे आकाश की तुलना नहीं हो सकती क्योंकि आकाश जैसा दूसरा कोई नहीं, जैसे जल, अग्निी और वायु अतुलनीय है उसी तरह संघ भी अपने आप में वशिष्ठ चरित्र का संगठन है। संघ के लिए सत्ता साध्य नहीं, संघ का लक्ष्य है व्यक्ति निर्माण से राष्ट्रनिर्माण और इसीसे देश के परंवैभव की प्राप्ति। संघ वशिष्ठ है तो इसका ध्येय वशिष्ठ होना स्वभाविक है और स्पष्ट है कि वह सत्ता प्राप्ति जैसी तुच्छ उपलब्धि तो नहीं हो सकता।
श्री नरेंद्र मोदी 2014 में ही देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं और श्री रामनाथ कोविंद 20 जुलाई को राष्ट्रपति चुन लिए गए। वहीं महात्मा गांधी के पोते श्री गोपाल कृष्ण गांधी यूपीए के और श्री एम.वेंकैया नायडू एनडीए के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। अगर वेंकैया नायडू जीतते हैं (जिसके पूरे आसार हैं) तो पहली बार राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर संघ-भाजपा के कार्यकर्ता होंगे। 
संघ का लक्ष्य क्या है इससे स्वयंसेवक भलिभांति परिचित हैं। इसकी दैनिक शाखाओं में गीत गाया जाता है 'मान प्रतिष्ठा या पद-यश, एह तेरी मंजिल नहीं। द्वित्तीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने 25 जून, 1956 को 'ऑर्गेनाइजर में लिखा था- 'संघ कभी भी राजनीतिक दल नहीं बनेगा। लेकिन इसके बावजूद विरोधी संघ के माथे पर राजनीतिक संगठन होने का आरोप लगाते हैं।1925 से 1948 तक संघ ने राजनीतिक क्षेत्र में काम करने के विषय में सोचा ही नहीं था। डॉ. हेडगेवार से जब किसी ने पूछा कि संघ क्या करेगा? डॉक्टर साहब ने उत्तर दिया- 'संघ व्यक्ति निर्माण करेगा। अर्थात् समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने के लिए ऐसे नागरिकों का निर्माण करेगा, जो अनुशासित, संस्कारित और देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत हों। इस दौरान 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। संघ से घबराए तत्कालीन नेताओं ने इस दुखद घड़ी में घृणित राजनीति का प्रदर्शन किया। संघ को बदनाम करने के लिए उस पर गांधीजी की हत्या का दोषारोपण किया। 4 फरवरी, 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। बाद में, जब सरकार को मुंह की खानी पड़ी, 12 जुलाई, 1949 को संघ से प्रतिबंध हटाया गया। लेकिन स्वयंसेवकों को बार-बार यह बात कचोट रही थी कि विरोधियों ने सत्ता की ताकत से जिस प्रकार संघ को कुचलने का प्रयास किया है, भविष्य में इस तरह फिर से परेशान किया जा सकता है। प्रताडऩा के बाद बहस ने जन्म लिया कि संघ को राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहिए। स्वयं को राजनीतिक दल में परिवर्तित करने पर संघ का विराट लक्ष्य कहीं छूट जाता। परिस्थितियां ऐसी थी कि राजनीति से पूरी तरह दूर नहीं रहा जा सकता था। उस समय कोई ऐसा दल नहीं था, जो संघ के अनुकूल हो। इसलिए किसी दल को सहयोग करने का विचार भी संघ को त्यागना पड़ा। लंबे विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि संघ की प्रेरणा से नए राजनीतिक दल का गठन किया जाएगा।
इसी बीच, कांग्रेस की नीतियों से मर्माहत होकर 8 अप्रैल, 1950 को केंद्रिय मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी श्रीगुरुजी के पास सलाह करने के लिए आए। वे नया दल बनाने के लिए प्रयास कर रहे थे। श्रीगुरुजी से संघ के कुछ कार्यकर्ता लेकर डॉ. मुखर्जी ने अक्टूबर, 1951 में जनसंघ की स्थापना की। यह राजनीति को राष्ट्रवादी दिशा देने की सीधी शुरुआत थी। जनसंघ को मजबूत करने में संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख, बलराज मधोक, भाई महावीर, सुंदरसिंह भण्डारी, जगन्नाथराव जोशी, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे, रामभाऊ गोडबोले, गोपालराव ठाकुर और अटल बिहारी वाजपेयी ने अहम भूमिका निभाई। जनसंघ को खड़ा करने में संगठनात्मक जिम्मेदारी पं. दीनदयाल उपाध्याय पर आई। जनसंघ की नीतियों में संघ का सीधा कोई हस्तक्षेप नहीं था। हालांकि सालभर में एक बार पंडित जी और श्रीगुरुजी बैठते थे। यह परंपरा आज तक कायम है। अब इसे कुछ लोग अज्ञानतावश 'संघ की क्लास में भाजपाÓ कहते हंै। इस संदर्भ में श्रीगुरुजी के कथन को भी देखना चाहिए। उन्होंने 'ऑर्गेनाइजर में लिखा था- जनसंघ और संघ के बीच निकटता का संबंध है। दोनों कोई बड़ा निर्णय परामर्श के बिना नहीं करते। लेकिन, इस बात का ध्यान रखते हैं कि दोनों की स्वायत्तता बनी रहे। इससे स्पष्ट है कि संघ राजनीति नहीं करता और इसका लक्ष्य सत्ता नहीं। स्वयंसेवकों व संघ की विचारधारा में विश्वास रखने वालों की यह जीत हर्ष का विषय है परंतु परमलक्ष्य की प्राप्ति नहीं। मोहिते के बाड़े से राष्ट्रपति भवन केवल मीलपत्थर है, मंजिल नहीं।           
- राकेश सैन

ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਦੀ ਨੀਂਹ ਰਖੀ ਸੀ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੇ

ਦੇਸ਼ ਆਪਣੀ ਅਜਾਦੀ ਦੀ 71ਵੀਂ ਵਰ੍ਹੇਗੰਢ ਮਨਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਦੇਸ਼ਵਾਸੀਆਂ ਨੇ 1200 ਸਾਲਾਂ ਤਕ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਹਕੂਮਤਾਂ ਦੇ ਖਿਲਾਫ ਬੜੀ ਬਹਾਦਰੀ, ਦਲੇਰੀ ਅਤੇ ਸੰਜਮ ਨਾਲ ਸੰਘਰਸ਼ ਕੀਤਾ ਅਤੇ 15 ਅਗਸਤ, 1947 ਨੂੰੱ ਅਜਾਦੀ ਹਾਸਿਲ ਕੀਤੀ।
ਭਾਰਤਵਾਸੀਆਂ ਲਈ ਇਹ ਮਾਣ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਕੇਵਲ ਆਪਣੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਅਜਾਦੀ ਲਈ ਹੀ ਬਲਿਦਾਨ ਨਹੀਂ ਕੀਤੇ ਬਲਕਿ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਹੋਰ ਗੁਲਾਮੀ ਝੱਲ ਰਹੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਲਈ ਵੀ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਕੀਤੀਆਂ। ਜੀ ਹਾਂ, ਅਸੀਂ ਗੱਲ ਕਰ ਰਹੇ ਹਾਂ ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਦੀ। ਸਦੀਆਂ ਤੋਂ ਅਜਾਦੀ ਦਾ ਸੰਘਰਸ਼ ਲੜ ਰਹੇ ਯਹੂਦੀਆਂ ਨੇ ਸਾਡੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕਾਫੀ ਲੰਮਾ ਸੰਘਰਸ਼ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਨਾਂ ਦੇ ਅਜਾਦ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੀਤੀ। ਇਕ ਭਾਰਤਵਾਸੀ ਹੋਣ ਦੇ ਨਾਤੇ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਦਸਦੇ ਗੌਰਵ ਮਹਿਸੂਸ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਨੂੰ ਪਹਿਲਾ ਸ਼ਹਿਰ ਭਾਰਤੀਆਂ ਨੇ ਜਿੱਤ ਕੇ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ਅਤੇ ਉਸ ਸ਼ਹਿਰ ਦਾ ਨਾ ਹੈ ਹਾਈਫਾ।
ਤੁਰਕੀ ਸਾਮਰਾਜ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਦਿਵਾਉਣ ਲਈ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਜੋਧਪੁਰ, ਹੈਦਰਾਬਾਦ ਅਤੇ ਮੈਸੂਰ ਦੇ ਸੈਨਿਕਾਂ ਨੂੰ ਭੇਜਿਆ ਸੀ। ਤੁਰਕੀ ਪ੍ਰਤੀ ਮੁਸਮਿਲ ਫੌਜੀਆਂ ਦਾ ਝੁਕਾਅ ਸੀ ਇਸ ਲਈ ਅੰਗਰੇਜਾਂ ਨੇ ਹੈਦਰਾਬਾਦ ਦੀ ਮੁਸਲਿਮ ਫੌਜ ਨੂੰ ਛੋਟੇ-ਮੋਟੇ ਕੰਮਾਂ ਵਿਚ ਲਗਾ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਤੁਰਕੀ ਦੀ ਫੌਜ ਨਾਲ ਲੜਨ ਵਾਸਤੇ ਜੋਧਪੁਰ ਅਤੇ ਮੈਸੂਰ ਦੇ ਸੈਨਿਕਾਂ ਦੀ ਸਾਂਝੀ ਕਮਾਨ ਬਨਾਈ। ਤੁਰਕੀ ਦਾ ਸਾਥ ਆਸਟ੍ਰੀਆ ਅਤੇ ਜਰਮਨੀ ਦੀ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਫੌਜ ਵੀ ਦੇ ਰਹੀਆਂ ਸਨ। ਭਾਰਤੀ ਫੌਜ ਦੀ ਕਮਾਨ ਜੋਧਪੁਰ ਦੇ ਮੇਜਰ ਦਲਪਤ ਸਿੰਘ ਸੰਭਾਲ ਰਹੇ ਸਨ ਜੋ ਲੜਦੇ ਹੋਏ ਸ਼ਹਾਦਤ ਦਾ ਜਾਮ ਪੀ ਗਏ। ਮੇਜਰ ਦਲਪਤ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਹਾਈਫਾ ਦੇ ਹੀਰੋ ਦੇ ਨਾਂ ਨਾਲ ਵੀ ਜਾਣਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਲੜਾਈ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਇਸ ਲਈ ਵੀ ਬੇਜੋੜ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਤਲਵਾਰ-ਭਾਲਿਆਂ ਨਾਲ ਭਾਰਤੀ ਫੌਜ ਨੇ ਤੋਪਾਂ ਅਤੇ ਬੰਦੂਕਾਂ ਨਾਲ ਲੈਸ ਫੌਜ ਨੂੰ ਹਰਾਇਆ ਸੀ ਅਤੇ ਦੁਸ਼ਮਣ ਦੇ ਸ਼ਹਿਰ ਉੱਤੇ ਕਬਜਾ ਕਰ ਲਿਆ।
ਲੜਾਈ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਜਦੋਂ ਅੰਗਰੇਜ ਸੈਨਾ ਦੇ ਬ੍ਰਿਗੇਡੀਅਰ ਜਨਰਲ ਏਡੀਏ ਕਿੰਗ ਨੂੰ ਦੁਸ਼ਮਣ ਫੌਜ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਬਾਰੇ ਜਾਣਕਾਰੀ ਮਿਲੀ ਤਾਂ ਉਸਨੇ ਫੌਜ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਬੁਲਾਉਣ ਦਾ ਫੈਸਲਾ ਲਿਆ। ਸੈਨਿਕ ਨਜਰੀਏ ਨਾਲ ਬ੍ਰਿਗੇਡੀਅਰ ਦਾ ਫੈਸਲਾ ਸਹੀ ਜਾਪਦਾ ਸੀ ਕਿਉਂਕਿ ਦੁਸ਼ਮਣ ਫੌਜ ਗਿਣਤੀ ਅਤੇ ਹਥਿਆਰਾਂ ਨਾਲ ਭਾਰਤੀ ਫੌਜ ਉੱਤੇ ਹਾਵੀ ਸੀ। ਜਦੋਂ ਭਾਰਤੀ ਫੌਜੀਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਪਤਾ ਚੱਲਿਆ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਵਾਪਸ ਮੁੜਨ ਤੋਂ ਇੰਕਾਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਆਖਿਆ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੇ ਵਤਨ ਕਿਸ ਮੂੰਹ ਨਾਲ ਵਾਪਸ ਪਰਤਨਗੇ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਘਰ ਕੀ ਮੂੰਹ ਦਿਖਾਉਣਗੇ। ਰਾਜਪੂਤਾਂ ਦੀ ਇਹ ਪਰੰਪਰਾ ਰਹੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਲੜਾਈ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਨਹੀਂ ਹਟਦੇ। ਉਹ ਜਾਂ ਤਾਂ ਲੜਦੇ ਹਨ ਜਾਂ ਵੀਰਗਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਭਾਰਤੀ ਫੌਜੀ ਸਿੱਧੇ-ਸਿੱਧੇ ਆਪਣੇ ਕਮਾਂਡਰ ਕੋਲੋਂ ਮੌਤ ਦੇ ਮੂੰਹ ਵਿਚ ਜਾਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਮੰਗ ਰਹੇ ਸਨ। ਬ੍ਰਿਗੇਡੀਅਰ ਕਿੰਗ ਨੇ ਵੀ ਜਾਣ ਲਿਆ ਕਿ ਇਸ ਫੌਜ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਨਹੀਂ ਲੈ ਜਾਇਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਫੌਜ ਨੂੰ ਲੜਨ ਦੀ ਆਗਿਆ ਦੇ ਦਿੱਤੀ।
ਤਲਵਾਰ ਅਤੇ ਭਾਲਿਆਂ ਨਾਲ ਸੁਸੱਜਿਤ ਭਾਰਤੀ ਘੁੜਸਵਾਰ ਫੌਜ ਨੇ 23 ਸਤੰਬਰ 1918 ਨੂੰ ਸਵੇਰੇ 5 ਵਜੇ ਹਾਈਫਾ ਸ਼ਹਿਰ ਵੱਲ ਵਧਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਭਾਰਤੀ ਫੌਜ ਦਾ ਰਾਸਤਾ ਮਾਉਂਟ ਕਾਰਮਲ ਪਹਾੜੀ ਦੇ ਨਾਲ ਲਗਦਾ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਕਿਸ਼ੋਨ ਨਦੀ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਸਹਾਇਕ ਨਦੀਆਂ ਦੀ ਦਲਦਲੀ ਜਮੀਨ ਵਿਚੋਂ ਨਿਕਲਦਾ ਸੀ। ਸਵੇਰੇ 10 ਵਜੇ ਭਾਰਤੀ ਫੌਜ ਹਾਈਫਾ ਸ਼ਹਿਰ ਪਹੁੰਚੀ ਅਤੇ ਮਾਉਂਟ ਕਾਰਮਲ ਪਹਾੜੀ ਤੇ ਤੈਨਾਤ 77 ਐਮ.ਐਮ. ਬੰਦੂਕਾਂ ਦੀ ਮਾਰ ਹੇਠ ਆਗਈ। ਭਾਰਤੀ ਸੈਨਿਕਾਂ ਨੇ ਕਾਫੀ ਸੂਝਬੂਝ ਦਿਖਾਈ। ਮੈਸੂਰ ਲਾਂਸਰਜ ਦੀ ਸਕਵਾਡ੍ਰਨ ਸ਼ੇਰਵੁਡ ਰੇਂਜਰਸ ਨੇ ਇਕ ਸਕਵਾਡ੍ਰਨ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਮਾਉਂਟ ਕਾਰਮਲ ਦੇ ਇਕ ਪਾਸੇ ਚੜਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤਾ। ਉਸਨੇ ਦੁਸ਼ਮਣ ਨੂੰ ਹੈਰਾਨ ਕਰਦਿਆਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੇ ਹਮਲਾ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਕਾਰਮਲ ਦੀ ਢਲਾਨ ਤੇ ਦੋ ਤੋਪਾਂ ਤੇ ਕਬਜਾ ਕਰ ਲਿਆ। ਭਾਰਤੀ ਫੌਜ ਨੇ ਦੁਸ਼ਮਣ ਦੀ ਮਸ਼ੀਨਗਨਾਂ ਦਾ ਵੀ ਬੜੀ ਬਹਾਦਰੀ ਨਾਲ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕੀਤਾ।
ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਦੁਪਹਿਰ ਦੋ ਵਜੇ ਬੀ ਬੈਟਰੀ ਦੇ ਏਚਏਸੀ ਦੇ ਸਮਰਥਨ ਨਾਲ ਜੋਧਪੁਰ ਲਾਂਸਰਜ ਨੇ ਵੀ ਹਾਈਫਾ ਤੇ ਹਮਲਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ 3 ਵਜੇ ਤਕ ਘੋੜਸਵਾਰਾਂ ਨੇ ਦੁਸ਼ਮਣਾਂ ਦੇ ਟਿਕਾਣਿਆਂ ਤੇ ਕਬਜਾ ਕਰਕੇ ਪੂਰੇ ਹਾਈਫਾ ਸ਼ਹਿਰ ਨੂੰ ਕਬਜੇ ਵਿਚ ਲੈ ਲਿਆ। ਫੌਜੀ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਬੇਜੋੜ ਇਸ ਲੜਾਈ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ ਅੱਜ ਸੁਨਹਿਰੀ ਅੱਖਰਾਂ ਵਿਚ ਦਰਜ ਹੈ। ਇਸ ਜਿੱਤ ਨੇ ਅਜਾਦ ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਦੇਸ਼ ਦਾ ਨੀਂਹਪੱਥਰ ਰੱਖਿਆ।
ਲੜਾਈ ਵਿਚ ਬੇਜੋੜ ਬਹਾਦਰੀ ਦਿਖਾਉਣ ਤੇ ਮੇਜਰ ਠਾਕੁਰ ਦਲਪਤ ਸਿੰਘ, ਕੈਪਟਨ ਅਨੂਪ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਲੈਫਟੀਨੇਟ ਸਗਤ ਸਿੰਘ ਨੂੰ ਮਿਲਟਰੀ ਕ੍ਰਾਸ ਨਾਲ ਸੰਨਮਾਨਿਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। 1600 ਸਾਲਾਂ ਤਕ ਆਪਣੀ ਜਨਮਭੂਮੀ ਤੋਂ ਬੇਦਖਲ, ਅਪਮਾਨ ਅਤੇ ਅਣਮਨੁੱਖੀ ਵਰਤਾਰੇ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਯਹੂਦੀ ਸਮਾਜ ਵਾਸਤੇ ਹਾਈਫਾ ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਅਜਾਦੀ ਦਾ ਸਮਾਚਾਰ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਰਾਹਤ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਸੀ। ਉਹ ਖੁਸ਼ੀ ਨਾਲ ਝੂਮਨ ਲੱਗ ਪਏ। ਸਾਲ 1919 ਵਿਚ ਦੁਨੀਆ ਭਰ ਤੋਂ ਯਹੂਦੀਆਂ ਨੇ ਹਾਈਫਾ ਸ਼ਹਿਰ ਪਹੁੰਚਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਦੂਸਰੀ ਸੰਸਾਰ ਜੰਗ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਅਜਾਦ ਦੇਸ਼ ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਦੀ ਮੰਗ ਉਠਾਉਣੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਯਹੂਦੀਆਂ ਦਾ ਸੰਘਰਸ਼ ਰੰਗ ਲਿਆਇਆ ਅਤੇ ਇਸ ਲੜਾਈ ਦੇ 30 ਸਾਲਾਂ ਬਾਦ 1948 ਨੂੰ ਇਕ ਅਜਾਦ ਦੇਸ਼ ਇਜ਼ਰਾਈਲ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਨਕਸ਼ੇ ਤੇ ਉਭਰਿਆ। ਦੇਸ਼ ਦਾ ਇਹ ਦੁਰਭਾਗ ਹੀ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਨਾਂ ਤੇ ਸਾਨੂੰ ਉਹ ਗੱਲਾਂ ਹੀ ਪੜ੍ਹਾਈ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਜਿਸ ਵਿਚ ਭਾਰਤੀਆਂ ਦੀ ਹਾਰ ਹੋਈ ਜਦੋਂ ਕਿ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਮਾਣਮੱਤੀ ਘਟਨਾਵਾਂ ਨੂੰ ਲੁਕੋ ਕੇ ਰਖਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।              
- ਰਾਕੇਸ਼ ਸੈਨ
ਮੋ. 97797-14324

कांग्रेस और खालिस्तान में गर्भनाल का रिश्ता

माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो त...