Saturday, 12 August 2017

चोटी कटी या नाक ?

वर्तमान में हम अपने समाज में चरम का विरोधाभास देखने को विवश हैं। एक तरफ तो हमारे वैज्ञानिक मंगल ग्रह तक अपना यान भेज चुके हैं और हमारा भारती अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (इसरो) रिकार्ड दर रिकार्ड बना रहा है तो दूसरी ओर चोटी का अंधविश्वास भी देखने को मिल रहा है। देश के कई हिस्सों में अंधविश्वास फैला है कि अज्ञात शक्ति महिलाओं की चोटीयां काट रही हैं। इससे बचने के लिए टोने-टोटकों का सहारा लिया जा रहा है। समस्या इत्ती भर रहती तो भी गनीमत थी परंतु अब इस अंधविश्वास को लेकर महिलाओं की हत्याएं तक होने लगी हैं। समझ में नहीं आरहा कि इन घटनाओं के जरिए हमारी चोटी कट रही है या नाक।
भारतीय संविधान के भाग - '4 क' के अनुच्छेद - '51 क' में वर्णित मूल कर्तव्यों में से एक है कि हम समाज में 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।' समाज में वैज्ञानिक व तर्क आधारित सोच को प्रोत्साहन दें लेकिन हो उलट रहा है। समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी अंधविश्वास, टोने-टोटके और अज्ञानता में डूबा हुआ है। इसका ताजा उदाहरण है महिलाओं की चोटी काटने की घटनाएं और उससे जुड़ा अंधविश्वास। उत्तर प्रदेश के आगरा में तो रक्तपिपासु भीड़ ने पैंसठ साल की एक महिला को पीट-पीट कर मारा डाला। पीटने वालों का कहना था कि यह महिला किसी की चोटी काटने के इरादे से घूम रही थी, जबकि असलीयत यह थी कि वह अंधेरे में रास्ता भटक गई थी। इस तरह की घटनाएं राजस्थान से शुरू हो कर हरियाणा, दिल्ली राजधानी क्षेत्र, उत्तर प्रदेश से होती हुई विकसित व साक्षर कहे जाने वाले पंजाब तक पहुंच चुकी है। जिन महिलाओं की चोटी कटने की बात सामने आ रही है, उनके बयानों में कोई समानता नहीं है। किसी ने बताया कि उसने पहले काली बिल्ली या पिल्ला देखा और बेहोश हो गई, फिर होश आया तो चोटी कटी थी। किसी ने कहा कि उसे किसी ने अंधेरे में धक्का दिया, जिसके कारण वह गिर पड़ी और बेहोश हो गई।
जो बात समान रूप से सही है, वह यह कि चोटी काटे जाने से पहले पीडि़त महिला का बेहोश होना। एक बात यह भी समझने की है कि जिन महिलाओं की चोटी कटने की बातें सामने आई हैं, वे बेहद गरीब और अशिक्षित या अर्धशिक्षित हैं। इसी तरह की घटनाएं 2001 में दिल्ली व नोएडा क्षेत्र में 'मंकीमैन' और 2002 में पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'मुंहनोचवा' के नाम से सुनाई पड़ी थीं। उन दिनों यह अफवाह आम रही कि मंकी मैन किसी को घायल कर भाग जाता है और मुंहनोचवा मुंह नोच कर फरार हो जाता है। दोनों में कोई पकड़ा नहीं गया था। इस तरह की घटनाएं हमारे समूचे विकास और तरक्की पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। आज भी नरबलि और डायन-हत्या जैसी घटनाएं घट रही हैं। पिछले साल झारखंड में पांच महिलाओं की डायन बता कर हत्या कर दी गई थी और उत्तर प्रदेश के सीतापुर में एक परिवार ने तांत्रिक की सलाह पर अपनी ही बच्ची की बलि चढ़ा दी थी। चोटी काटने की घटनाओं के बारे में स्थानीय प्रशासन भी कुछ साफ बोलने की स्थिति में नहीं है। बस यही कहा जा रहा है कि अफवाहों पर ध्यान न दिया जाए।
मनोवैज्ञानिक व वैज्ञानिक इसे उन्माद या सामूहिक विभ्रम बता रहे हैं। लेकिन इसका समाधान क्या है, इस बारे में उनके पास भी कोई स
टीक उत्तर नहीं है। इस नजरिए से भी जांच की जरूरत है कि कहीं कोई समूह या संगठन तो इसके पीछे नहीं है, जिसका कि कोई निहित स्वार्थ हो? बहुत सारे लोग तांत्रिकों और ढोंगी ओझा-गुनियों की शरण में जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि हमारी सरकारें व मीडिया एक तरफ वैज्ञानिक चेतना विकसित करने का दम भरते हैं और दूसरी तरफ आज भी अखबारों, चैनलों से लेकर सड़कों, चौराहों, गलियों में तांत्रिकों-ओझाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन छाए रहते हैं। इनमें मनचाहा प्रेम विवाह कराने, गृहक्लेश से मुक्ति दिलाने, सौतन का नाश करने, शत्रुमर्दन, गड़े धन की प्राप्ति, प्रेम में धोखा पाए प्रेमियों को राहत देने जैसे तमाम दावे किए जाते हैं। आज आवश्यकता है कि इस तरह की घटनाओं की तह तक जा कर सच्चाई को समाज के सामने लाने की। नए भारत में इस तरह की सोच व इस तरह की घटनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
- राकेश सैन

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